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Wednesday 19 August 2020

सज़ा

सज़ा
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     पौ फटते ही उस मनहूस रेलवे ट्रैक के समीप आज फिर से भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी। यहाँ रेल पटरी के किनारे पड़ी मृत विवाहिता जिसकी अवस्था अठाइस वर्ष के आस-पास थी, को देखकर उसकी पहचान का प्रयास किया जा रहा था। सूचना पाकर पुलिस भी आ चुकी था।
मृत स्त्री के चम्पई रंग वाले मुखड़े पर जिस किसी की भी दृष्टि पड़ती उसका हृदय करुणा से भर उठता था। माथे पर बड़ी-सी लाल बिंदी,गले में मंगलसूत्र , नाक में कील और टब्स पहने रखे वह किसी अच्छे घराने की लग रही थी। किन्तु मृत्यु के बाद भी उसके शांत मुख पर एक दर्दभरी कहानी थी। वहाँ जुटी भीड़ ट्रेन से कटने का सवाल भी और आकलन भी कर रही थी।

    लाल वस्त्रों में लिपटी मृतका के सिर के पिछले हिस्से से लहू का रिसाव हो रहा था, जिससे आसपास की जमीन लाल हो गई थी । सिर में लगी इस चोट के अतिरिक्त उसके शरीर पर अन्यत्र घाव नहीं थे। जिसे देख कर ऐसा महसूस हुआ कि नगर के इस सुसाइड प्वाइंट पर मरने से पहले वह जान देने की विवशता से विचलित हुई होगी । जिस कारण वह रेलगाड़ी के समक्ष छलांग लगाने का साहस नहीं जुटा सकी थी किन्तु फिर भी इंजन के धक्के ने उसके जीवन की इहलीला को हमेशा के खत्म कर दिया। जिसके लिए वह गहरी रात घर से दबे पाँव मृत्यु के लिए ही निकली थी। 

    उसने अपनी पहचान के लिए कोई पत्र अथवा सुसाइड नोट नहीं छोड़ रखा था। लाश देखते ही झल्लाते हुये दरोगा ने सिपाही से कहा था-" यार ! क्या मुसीबत है ? लोग यहीं आ क्यों कट मरते हैं ?" यदि शिनाख़्त नहीं होती तो रेलवे पुलिस पूर्व में इसी रेलवे ट्रैक पर मिले कुछ अन्य लाशों की तरह इस मृत महिला के शव का भी पोस्टमार्टम कर फाइल बंद कर देती। परंतु निकटवर्ती मुहल्ले की होने के कारण शव की पहचान हो गई। 

    जैसे ही उसके द्वारा आत्महत्या करने की सूचना ससुरालवालों के माध्यम से उसके मायके तक पहुँची वज्राघात-सा हुआ था उनपर। रक्षाबंधन पर्व से पूर्व ममता का भाई उसके ससुराल आया था। तभी उसने अपनी इकलौती बहन की डबडबाई आँखों में छिपी वेदना को पढ़ लिया था। वह अपनी लडली बहन को कुछ दिनों के लिए साथ ले जाना चाहता था, ताकि उसमें नव जीवन का संचार हो सके। उसके इस प्रस्ताव को जब ससुरालवालों ने इंकार किया तो भाई संग मायके जाने के लिए ममता ने भी हाथ-पाँव जोड़े थे, फिर भी उसकी सास का कलेजा नहीं पसीजा । और तो और उसके दोनों मासूम बच्चों को माँ की ममतामयी आँचल से दूर कर उन्हें मामा के साथ ननिहाल भेज दिया गया। 

   ऐसा होते देख ममता ने रुँधे कंठ से इसका विरोध किया था। उसे यह बात बिल्कुल भी नहीं समझ में आ रही थी कि जब वह स्वस्थ हो चुकी है, तब भी उसके अपने ही सगे-संबंधी इस प्रकार  उसे अछूत क्यों समझ रहे हैं। उसे किस अपराध की सज़ा मिल रही है ?

      ममता को कुछ दिनों पूर्व कोरोना हुआ था। पूरे चौदह दिन वह अपनों से दूर आइसोलेशन सेंटर में पड़ी रही। कोविड अस्पताल जाते वक़्त उसे सांत्वना देना तो दूर पुराने विचारों वाली उसकी बूढ़ी सास ने उसे कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ रखा था। उसने भरे मन से एम्बुलेंस में पाँव रखा  ही था कि तभी पीछे से सास कि कर्कश गर्जना सुनाई पड़ती है। वह कह रही थी-"यह अभागिन सबके लिए संकट बन गयी है। पता नहीं कहाँ से बीमारी उठा लाई है। ख़बरदार  जो इससे मिलने अस्पताल में कोई गया, नहीं तो सबको महामारी दे देगी यह।"  सास के  इस कटु-वचन ने रोग से उसके बीमार तन से कहीं अधिक कोमल मन पर प्रहार किया था। तब जाते-जाते उसने अपने पति देवांश की ओर आशाभरी निगाहों से देखा था ,परंतु उसने भी  उपेक्षात्मक रुख अपनाया

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   आइसोलेशन सेंटर से 14 दिन बाद निकल कर जब ममता वापस घर लौट रही थी । उसे साँस लेने में अब भी कुछ कठिनाई हो रही थी, किन्तु अपने दोनों मासूम बच्चों की यादों में खोयी हुई थी। जिन्हें देखने के लिए उसकी आँखें तरस रही थी। ममता सोचा रही थी कि इस एकांतवास के पश्चात घर पहुँचते ही बच्चे माँ-माँ पुकारते हुये उसकी आँचल में आ छिपेंगे । स्वस्थ होकर फिर से सास, ससुर और पति की सेवा में जुट जाएगी।
  
    परंतु यह क्या ? उसके ससुराल लौटने पर  परिवार के सदस्यों ने उसका स्वागत नहीं किया। सभी उससे सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस ) बनाए हुये थे। सास  ने चरणस्पर्श करने से मना कर दिया। पतिदेव नीचे अपनी दुकान पर आसन जमाये हुये थे। बच्चों को भी उसके निकट आने नहीं दिया गया और तभी दूर खड़ी ननद ने उसे पीछे वाली कोठरी में जाने के लिए इशारा किया। बिना रोशनदान वाले इस छोटे से कक्ष और उसमें रखे तख्त को देख उसका कलेजा बैठा जा रहा था। और तभी सास फिर से आग उगलते हुये कहा- "मेरी बात कान खोल कर सुन लो, इस कमरे के बाहर कदम मत रखना,जब तक हमें यह न लगे कि तुम पूरी तरह ठीक हो।" आइसोलेशन सेंटर से ममता को कोरोना मुक्त होने का प्रमाणपत्र मिलने के बावजूद ससुरालवाले पुनः संक्रमण फैलने को लेकर भयभीत थे। उसकी सास और ननद के लिए उसके आत्मसम्मान पर चोंट पहुँचाने का यह सुनहरा अवसर था। अब इस घर में कबाड़ रखने वाली कोठरी में उससे बात करने वाला कोई नहीं था। स्नेह न सही उसके प्रति दयाभाव का प्रदर्शन भी नहीं किया जा रहा था। वह अकेली पड़ी दीवारों से बातें करती या सिसकती रहती थी। इसके बावजूद  सास की अविश्रान्त कैंची उसके नाज़ुक दिल पर चलती रही। वह दरवाजे से दूर खड़ी हो उसे ताना  देती -"इस महारानी को जरा देखों, कैसे आराम से खांट  तोड़ रही है।चौका -बर्तन के लिए हम माँ-बेटी तो हैं ही। ऊपर से इसके शरारती बच्चों ने नाक में दम कर रखा है।"

   तनिक-सी भूल हुई नहीं की वे दोनों उसके बच्चों का गाल लाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं। यह देख वह स्वयं से सवाल करती कि विवाह के पश्चात पिछले सात वर्षों से जिन ससुरालवालों की इच्छापूर्ति के लिए उनकी उँगलियों के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचती रहती ,वे ही आज इतने निष्ठुर कैसे हो गये हैं ? फोन पर उससे बातचीत के दौरान भाई को ममता की पीड़ा का आभास हो गया था, इसीलिए वह उसे अपने साथ ले जाने के लिए बहन के ससुराल आया था। किन्तु उसकी सास ने बड़ी चतुराई से बच्चों की उनकी सुरक्षा का हवाला देकर  मामा के साथ जाने दिया, परंतु ममता को नहीं जाने दिया । बहू की भवनाओं से सास संभवतः परिचित हो गयी थी कि यदि इसे खरी-खोटी सुनाती रहेगी तो वह सदा-सदा के लिए घर का पिंड छोड़ देगी, क्योंकि वह कोरोना को खतरनाक छुआ-छूत वाली बीमारी समझती थी। आखिर इसका अंततः असर हुआ भी। 

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     पुत्रों के जाने के पश्चात ममता बिल्कुल अकेली पड़ गयी थी। प्रियजनों के दुर्व्यवहार का संताप उसके मन-मस्तिष्क को कोरोना से भी घातक विषाणु की तरह चाट कर खोखला कर चुका था। इस हालात में भी उसपर दया करने वाला कोई नहीं था। तिरस्कार से उपजी वेदना ग्लानि में परिवर्तित हो गयी थी। उसे अपने जीवन से कोई आशा और उमंग शेष नहीं रह गया था।  एक दिन उसके चोट खाये हृदय में आतंकमय कंपन-सा हुआ था। उसकी आत्मा इस कैदखाने से मुक्त होने के लिए छटपटाने लगी थी। मोह का बंधन टूट चुका था।  अनुकूल वातावरण मिलते ही नकारात्मकता रुपी काली परछाई 'कोरोना' बनकर उसे दबोचने के लिए प्रगट हो जाती है। यह देख भय से आँखें बंद करते ही, वह उस शैतान के काले जादू के वशीभूत हो जाती है।तब इस कोठरी में एक ही आवाज़ गूँज रही थी- "ममता ! जब किसी को भी तेरी जरुरत नहीं है। प्रियजन भी तेरे संग आत्मीयतापूर्ण व्यवहार नहीं कर रहे हैं,तो तू मर क्यों नहीं जाती ?"

    धीरे-धीरे ममता का चेहरा अत्यंत कठोर होता गया। उसे लगा कि सारा दोष उसका और उसके प्रारब्ध का है। उसने अपने लिए सज़ा निश्चित कर लिया था और इसका प्रायश्चित करने के लिए उसी रात वह घर से निकली तो मौत उसके साथ हो गई । जिस स्त्री ने घर के बाहर पाँव तक नहीं रखा था, वह न जाने किस प्रकार शहर के दूसरे छोर पर स्थित इस सुसाइड प्वाइंट पर जा पहुँची थी । 
  
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   पोस्टमार्टम के पश्चात ममता का शव घर पर आ चुका था। अंतिम संस्कार की औपचारिकता पूर्ण की जा रही थी। उसके आभागे बच्चों को लेकर मायके वाले भी आ चुके थे। जिनके करुण-क्रंदन से वातावरण ग़मगीन हो उठा था। ससुराल पक्ष की महिलाएँ भी अपनी आँखों पर रुमाल अथवा आँचल रख नाक सुरसुराने लगी थीं ताकि मुहल्ले-टोले को लोगों को यह लगे कि बहूँ की मौत से वे भी अत्यंत दुःखी हैं। ममता के इस तरह से ट्रेन से कट मरने से समाज में उनकी प्रतिष्ठा को कहीं आघात न पहुँचे , दिखावे के लिए हर व्यवस्था सास-ननद ने कर रखी थी। उसका पति किंकर्तव्यविमूढ़ बना खड़ा था।

 अब उसकी अर्थी सज चुकी थी। वापस घर लौटते समय हर कोई मेहता परिवार को कोस रहा था। लोग आपस में गुफ्तगू कर रहे थे-

    "हे ईश्वर ! इस दुखिया को किस बात की सज़ा दी है। कितनी कुशांगी थी बेचारी। सिर पर साड़ी का पल्लू रखे बिना कभी बारजे से झाँकती न थी।" पहले ने कहा था। "हाँ, साहब ! बिल्कुल गऊ थी । सुनने में तो यही आ रहा है , जब से उसे कोरोन हुआ था,मेहता परिवार का हर सदस्य उसके पीछे पड़ गया था। " दूसरे ने अपनी बात रखी। " राम-राम ! कितना बुरा हुआ  उसके साथ। कैसी मृदुल मुस्कान थी उसकी। घर में कोई मेहमान आ जाए तो अतिथि सत्कार के लिए एक पाँव से खड़ी रहती थी। " तीसरा भी टपक पड़ा था।" हाय रे! कैसी कर्कशा स्त्री है यह बुढ़िया, अपनी बहू पर तनिक भी रहम नहीं आया। काश ! उसे मायके भेज दिया गया होता, तो जान बच जाती । " वापस लौट रही पड़ोस की काकी की संवेदना भी फूट पड़ी थी ।

     इनको इस प्रकार से ताना मारते देख ममता के पति देवांश को अब वहाँ और ठहरना कठिन प्रतीत हो रहा था। देवी स्वरूपा पत्नी द्वारा इस प्रकार से आत्मघात करने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने उसके असंवेदनशील हृदय को भी झकझोर कर रख दिया। उसकी सुप्त अंतरात्मा चीत्कार कर रही थी । उसके विवेक ने उसे पूरे घटनाक्रम पर दृष्टि डालने के लिए विवश कर दिया था। वह यह समझने का प्रयत्न कर रहा था कि इस कोरोना काल में यह सब क्या हो रहा है? कोरोना कोविड-19 न तो प्लेग जैसा खतरनाक महामारी है, जिससे अत्यधिक घबड़ाने की जरुरत है न ही वह एड्स जैसा भयावह रोग है,जिसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए  छिपाना पड़ता है।फिर यह कोरोना किस प्रकार से मनुष्य के सारे आत्मीय संबंधों को निगलता चला जा रहा है। यदि इसे संक्रमण से मृत्यु हो भी रही है, इनमें से अधिकांश लोगों को कोई न कोई अन्य रोग था। उसके केस हिस्ट्री को सामने लाना चाहिए, न कि उसे 'सामाजिक दूरी' बनाए रखने के लिए विवश किया जाए। 

       कुछ इसी प्रकार का चिंतन करते हुये देवांश का मन बदल जाता है । उसका देवत्व जाग उठता है। मामूली बीमारी को लेकर सर्वगुण सम्पन्न पत्नी को जिस तरह से यातना दी गयी, उसपर वह पश्चाताप करने लगता है । अचानक उसकी भृकुटि तन जाती है और  वह जोर से चींख उठता है- " हाँ, मैं हूँ दोषी । मेरी मति मारी गयी थी।किन्तु उनसे भी सवाल करो,जो हमें 'शारीरिक दूरी' की जगह 'सामाजिक दूरी' बनाने का पाठ पढ़ा रहे हैं। ये मीडिया क्या अँधी है ? उसकी भी तो इसमें भूमिका है ? हमसब यह कैसे भूल गये कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ..!" पत्नी को खोकर वह विक्षिप्त-सा हुआ जा रहा था। उसका अंतर्मन उसे धिक्कार रहा था, तो ऐसी परिस्थिति उत्पन्न क्यों हुई , इसपर प्रश्न भी कर रहा था।

    फिर इस अपराध के लिए सज़ा किसे मिलनी चाहिए.... ?

   --व्याकुल पथिक

15-8-2020

23 comments:

  1. समाज की कडवी हकीकत उजागर करती रचना।

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  2. शशि जी कोरोना संक्रमण काल में "सामाजिक दूरी नहीं शारीरिक दूरी बनाना आवश्यक है" यह संदेश न तो हमारी सरकार न समाज और न ही मीडिया दे पाया। आपके द्वारा रचित इस कहानी की पात्र ममता के बारे में विगत दिनों समाचार पत्र के माध्यम से पता चला था कि नगर के लालडिग्गी इलाके में ऐसा अनर्थ हो गया था। लोगों को सहानुभूति दर्शानी चाहिए, विशेष रूप से परिवार के लोगों को लेकिन बजाय सहानभूति दर्शाने के ताने देना अत्यंत शर्मनाक है। सभी को यह याद रखना चाहिए कि संक्रमण किसी को भी कभी भी हो सकता है। आशा करते हैं कि आपकी इस रचना के माध्यम से दिया गया संदेश कि "सामाजिक दूरी नहीं शारीरिक दूरी बनाना आवश्यक है"is कोरोना संक्रमण काल में लोगों को जागरूक बनायेगा।

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  3. मीडिया की सोच और लेखनी दोनों ही खरीदी जा चुकी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया यह तो पूरी तरह से बिकाऊ माल है ,सिर्फ़ सोशल मीडिया से ही कुछ उम्मीद शेष है। लेकिन इसका दुरुपयोग करने वाले इसकी महत्वता को कम कर दे रहे हैं। आपने सही कहा जो घटनाएं मैं देखता हूँ उससे ही मिलती- जुलती बातें अपनी रचना के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखता हूँ।
    कुछ कल्पना भी इसमें होती है।
    विस्तार के साथ प्रतिक्रिया के लिए अत्यंत आभार प्रवीण जी।

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  4. सामजिक दशा का दयनीय चित्रण।
    विचारणीय पोस्ट।

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  5. सादर नमस्कार,
    आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 21-08-2020) को "आज फिर बारिश डराने आ गयी" (चर्चा अंक-3800) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.

    "मीना भारद्वाज"

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  6. ऐसे लोगों की सोच पर तरस आता है परंतु ममता जैसी स्त्रियों पर तो गुस्सा आता है जो आत्महत्या को सारी परेशानियों का हल समझती हैं। मर्मस्पर्शी वर्णन।

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    1. जी मीना दीदी उचित कहा आपने, प्रणाम।
      परंतु जब अपनों का तिरस्कार सहन करना पड़ता है तो कभी-कभी ऐसी स्थिति भी आ ही जाती है।

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  7. बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि कोरोना जैसी महामारी को लेकर समाज में अफरा-तफरी मची हुई है। कोई भी इस बीमारी का स्वागत करने के लिए नहीं बैठा हुआ है। सभी इससे बचना चाहते हैं। हर तरह के प्रयत्न किए जा रहे हैं, फिर भी बीमारी दबे पाँव किसी को जकड़ लेती है। कौन दे गया और कैसे हो गया, यह सवाल सबके सामने खड़ा हो जाता है। भारतीय समाज में बहुओं की स्थिति तो सबको पता है। एक लड़की अपने घर को छोड़कर आती है और बहू बनकर और किसी दूसरे के घर को सँभालती है। बहुओं के लिए हमेशा अनुकूल माहौल नहीं रहता। कोई भी घटना हो, तो भी उसे बहुत ही संयमित प्रतिक्रिया देनी होती है। लेकिन जब कोई घटना उसके साथ घट जाती है, तो प्रायः ससुराल वालों के व्यवहार बदल जाते हैं। कोरोना जैसी महामारी का मुक़ाबला हिम्मत और दिलेरी से करने की आवश्यकता होती है। डरने से काम नहीं चलता, सावधानी बरतने से काम चलता है। रोगियों के साथ अच्छे व्यवहार की अपेक्षा की जाती है। रोगियों को प्यार और सही देख-भाल की ज़रूरत होती है। उससे घृणा करना कभी-कभी जानलेवा हो जाता है। फिर अपनी बहू हो, तो उसे और प्यार और सम्मान की ज़रूरत होती है। ममता को बीमारी के दौरान तिरस्कार के अलावा कुछ भी नहीं मिला। बच्चों को भी उससे दूर कर दिया गया। उसकी आशाओं और सपनों को तोड़ दिया गया। उसके पास निराशा के अलावा कुछ भी नहीं था। जिस परिवार के लोगों को उसकी जिम्मेदारी उठानी चाहिए थी, वे बिल्कुल भिन्न व्यवहार कर रहे थे। वह कहाँ जाती और क्या करती। हिम्मत उसकी ख़त्म हो गई थी। उसने ख़ुद को सज़ा देने का फ़ैसला जो किया, वह समाज के लिए शर्मनाक है। लेकिन अब क्या हो सकता है, सिवा पछतावे के। भले ही ममता ने ख़ुद को सज़ा दिया हो, लेकिन यह सज़ा उसके परिवार और बच्चों के लिए बहुत बड़ी है। काश! समय रहते कोई उसे रोक लेता। शशि भाई हमेशा की तरह आपने बहुत ही सुंदर और मर्मस्पर्शी लिखा है। 🙏

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    1. Anil Yadav
      बहुत सुंदर प्रतिक्रिया अनिल भैया। समाज और उसके रहनुमाओं को ऐसी घटनाओं पर दृष्टि डालनी चाहिए।
      आज ही मैं मास्टर भगवानदास की एक कहानी ' प्लेग की चुड़ैल' पढ़ रहा था,यह 1902 में प्रकाशित है। ठाकुर विभव सिंह की पत्नी इसकी मुख्य पात्र है। बड़ी मार्मिक रचना है।🙏शुभ रात्रि भैया।

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  8. शशिभैया , कोरोना काल ने लोगों को अनगिन घाव दिए हैं | साथ में अनेक वहम और अविश्वास भी उजागर हुए हैं | एक अभागी लड़की ममता के जीवन का मार्मिक चित्र उपस्थित किया है आपने | जो हमारे इतने प्यारे होते हैं क्या एक अप्रत्याशित बीमारी से इतने बेगाने हो जाते हैं कि उन्हें लावारिस सा छोड़ दिया जाए | एक बहु के प्रति भारतीय समाज की यही संकीर्ण सोच रही है जिससे वह कभी निजात नहीं पा सका है सबसे ज्यादा मायूसी इस स्थिति में होती है जब लड़की के साथ पति का रवैया भी पक्षपात पूर्ण हो | पर अंत में देवांश का कथन बहुत बेमानी है | ''अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गयी खेत !'' मार्मिक शब्द चित्र जो मन को स्पर्श कर गया |

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    1. जी रेणु दीदा..बिल्कुल,फिर तो सिर्फ़ लकीर पिटना है।
      इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आभार।

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  9. शशि भाई,बहू के प्रति आज भी समाज का नजरिया सही नहीं है। ऊपर से मीडिया नव कोरोना में सामाजिक दूरी का इतना खौफ पैदा किया है कि इंसान सही में अपने अति प्रियजन को छूने से डरने लगा है। ऐसी परिस्थिति में सजा किसी एक को नही दी जा सकती। सुंदर प्रस्तूति।

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    1. जी, एक पत्रकार होने के कारण ऐसी घटनाएँ जब होती हैं, जिसके लिए मीडिया भी दोषी है, तो निश्चित ही मुझे भी पीड़ा होती है ज्योति दी।
      क्योंकि हम सभी सामूहिक रूप से इसके लिए जिम्मेदार हैंं।

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  10. अत्यंत मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कहानी ! असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है !

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    1. जी ,उत्साहवर्धन के लिए साभार।
      प्रणाम।

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  11. बहुत खूब भैया

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  12. ममता मरी विस्वास की,ममता मरी आस की,ममता मरी उम्मीद की,ये कैसी ममता थी? जिसको ममता ना आयी "ममता की"

    शशि भैया आपकी ममता अमर हो गयी। जिसे लोग जब पढ़ेंगे तब ममता जीवंत मिलेगी।

    प्रणाम है आपको।

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  13. बहुत ही अच्छा लगा भाई साहब 🙏

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yes