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Saturday 17 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक
( आत्मकथा)
मेरे पत्रकारिता के क्षेत्र में आने की दास्तान भी कम रोचक नहीं है।नियति मुझे कहां से कहां ले आई। जन्म सिल्लीगुड़ी में हुआ। और इसके बाद कोलकाता, वाराणसी, मुजफ्फरपुर, कलिंगपोंग से होते हुये यहां तपोस्थली विंध्यक्षेत्र में चला आया  अपना कर्म करने। सच कहूं तो मैं भी यहां तप ही रहा हूं, यह जरुरी नहीं है कि हर साधक की तपस्या सफल हो। फिर भी  दुनिया के मेले में यहां अकेले ही रंगमंच पर अपनी भूमिका को बखूबी निभाने की कोशिश कर रहा हूं। कुछ लोगों ने राह में अल्प समय के लिये अपनापन दिखलाया, परंतु वह मेरा भ्रम रहा। ठोकर लगा तो फिर से सारा मेला पीछे छूट गया। परंतु मैं "रास्ते का पत्थर किस्मत ने मुझे बना दिया"  ऐसे दर्द भरे नगमे तो कतई नहीं गुनगुना चाहता हूं। क्योंकि यदि इन सांसारिक मोह पाससे मुक्ति पाना है, तो विरक्त भाव से  "चिदानंद रूपः शिवोहम" जरा इस मन को कहने दो। इसका अपना ही आनंद है। नश्वर संसार का यही सत्य है। जब कभी भी मन शांत रहता है, तो इसका एहसास कितना सुखद होता है, मैं बतला  नहीं सकता । काश! इसी स्थिति में हमेशा रह पाता। जब घर गृहस्थी नहीं है, तो तमाम प्रयोजन से क्या मतलब। यह विषय लम्बा है। अपनी बात किशोरावस्था से शुरू करुं , तो हाई स्कूल की परीक्षा का जब परिणाम आया, गणित में 98 फीसदी अंक की प्राप्ति पर मैं कुछ अधिक ही हर्षित था। हमारे अध्यापक और अभिभावक भी। पापा को मुझसे ढेरों उम्मीद थी। वो क्या बोल है पापा कहते हैं, बड़ा नाम करेगा , ऐसी उम्मीद अभिभावकों को मुझसे थी। सभी कहते थें कि लड़का आगे जाएगा। परंतु आज भी याद है कि एक ग्रामीण व्यक्ति मेरे घर आया, जब मैं हाईस्कूल की परीक्षा की तैयारी कर रहा था। बायोलॉजी से जुड़ा कोई चित्र बनाने का अभ्यास प्रैक्टिकल हेतु देर रात तक कर रहा था। क्यों मेरे टीचर को मुझ पर इतना विश्वास था कि वह प्रैक्टिकल के दौरान आये एक्जामिनर से यहां तक कह बैठें कि इस लड़के से कोई भी सम्बंधित चित्र बनाने को कह दें, वह निराश नहीं करेंगा और न ही चित्र बनाने के लिये किसी पुस्तक  का पन्ना ही पलटेगा। परंतु होनी को कुछ और मंजूर था। कहां तो आसमां छूने की ख्वाहिश थी । एक गीत "आशा मेरी आशा ....आसमां को छूने की आशा" आज भी मुझे बहुत कर्णप्रिय लगता है। परंतु परिवार में कटुता कुछ ऐसी बढ़ी की बनारस से कोलकाता अपने ननिहाल चला गया। वहां से मौसी के यहां मुजफ्फरपुर । एक वर्ष इसी तरह बेजा चला गया। फिर बनारस आया और इंटर किया। संबंधों में दरार के कारण दादी ने घर से दूर नानी के छोटे भाई के यहां कलिंगपोंग भेज दिया। वहां उनकी तब सबसे नामी मिठाई की दुकान थी। कोई एक डेढ़ वर्ष  रहा वहां। पहाड़ों पर युवावस्था में थिरकता रहा। कभी कभी सिलिगुड़ी भी चला जाता था। पैसे का लोभ तब भी मुझे नहीं था।  उसी
 बीच पापा मम्मी  फिर वहां आये और मैं वापस बनारस चला आया । वहां घर पर कुछ दिनों बाद फिर से वही तनातनी शुरू।तो एक आश्रम में कुछ दिन समय गुजारने के बाद मुजफ्फरपुर होते हुये पुनः कलिंगपोंग और फिर से बनारस आ गया। परिवार में धन का अभाव तो नहीं था। एक छोटा सा विद्यालय भी घर में चलता था। परंतु अपना हाथ खाली था। रोटी के जुगाड़ में कुछ दिनों इधर उधर भटका। लेकिन जीवन में बड़ा मोड़ सान्ध्य दैनिक समाचार पत्र गांडीव के कार्यालय पर पहुंच कर आया। कहां तो कलम पकड़ने नहीं आता था और कहां  पत्राचार / हॉकर बना कर इस अनजाने शहर में भेज दिया गया। वहां प्रेस में मेरे पिता तुल्य सरदार मंजीत सिंह ने मेरा मार्गदर्शन किया। गांडीव की एजेंसी दिलवाई और  मुझे यह रंगमंच मिल गया।
क्रमशः

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