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Saturday 17 March 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
14/3/18


जिस व्यक्ति ने कभी किसी की आत्म कथा पढ़ी ही न हो, वह भला अपनी कहानी क्या लिख सकता है। विश्वास कीजिए मैं, तो अखबार के पन्ने भी ठीक से नहीं पलट पाता हूं। सुबह साढ़े 5 बजे जो उठा, तो फिर रात्रि में घड़ी की सूई 12 पर जाना तय है। लोग पूछते है कि भाई तुम फिर दिन भर करते ही क्या हो। घर गृहस्थी का भी तो बोझ नहीं उठाते हो, फिर भी व्याकुल हो।जब समाज में रह कर भी आप किसी के दुख सुख में शामिल न होंगे, तो उलहना सुनना पड़ेगा ही । सम्भवतः इसी पीड़ा ने मुझे लेखक बना दिया है। जो दर्द वर्षों से सीने में दबाये रखा । आंखों की नमी छुपाये, मुस्कुराने का अभिनय करता था। मानों, वही शब्द बन गये हो। पता नहीं कब इस जीवन का संध्याकाल आ जाए, याददाश्त साथ छोड़ने लगे और फिर अलविदा कहने वाली वह रात भी आ जाए !
    तो बात रोटी की तलाश में भटकते हुये वाराणसी के सांध्य दैनिक गांडीव के दफ्तर तक दस्तक देने की कर रहा था। कैसी विडंबना थी, जब कोलकाता में था ,तो आगे पीछे नौकर चाकर हुआ करते थें और अब यह हाल...। जबकि बनारस में भी घर पर पापा का एक छोटा सा अपना स्कूल चलता था ही।पर दुनिया के मेले में मैं बिल्कुल अकेला था तब भी और अब भी। हां, बिल्कुल अंजाना नया रंगमंच आवाज लगा रहा था ,तुम सब छोड़ के आ जाओ ...। यहां गांडीव कार्यालय पहुंचने की भी मेरी विचित्र अड़ियल रवैया ही था। परिवार से अलग होने के बाद कहीं नौकरी मुझे रास नहीं आ रही थी। कोई उच्च शिक्षा की डिग्री तो थी नहीं और न ही मुझे अधिनता किसी का स्वीकार था। परिजनों ने निठल्ला समझ नाता पहले ही तोड़ लिया था और मैंने भी ठान लिया था कि इस बार शरण लेने नाते रिश्तेदारी में नहीं जाना है। किसी के समक्ष हाथ फैलाना न तो तब मेरा स्वभाव था न ही अब है । भले ही भोजन के अभाव में कुछ दिन गुजरे हो। खैर माध्यम मिला और तब गांडीव में सरदार जी से मुलाकात हुई।ठीक से याद नहीं है, पर शायद वर्ष 1994 की बात है , तब चालीस रुपये रोज पर (नौकरी नहीं) मेरे समक्ष लक्ष्य रखा गया कि प्रतिदिन शाम को गांडीव ले कर वाराणसी से बस से मीरजापुर जाऊं और जो भी अखबार रात्रि में वहां वितरित कर सकूं, उसे कर वापसी बस पकड़ लौट आऊं। समाचार संकलन के लिये भी कह दिया गया। अब भला मैं क्या जानूं कि खबर कैसे मिलती है। तो बताया गया कि किसी प्रमुख चाय की दुकान पर वहां जाकर बैठा करों कुछ देर। लेकिन मेरा समस्या यह रही कि साढ़े चार बजे शाम अखबार गांडीव कार्यालय से लेकर पीलीकोठी बाद के दिनों म़े कैंट डिपो जाना । वहां से औराई और फिर जीप से मीरजापुर आना । महीनों इस अनजान शहर में मैं पैदल ही अखबार बांटता रहा। रात्रि नौ बजे स्टेशन रोड से बस पकड़ पीलीकोठी उतरता। स्वभाविक है कि घर पहुंचते पहुंचते रात्रि में घड़ी की सूई आपस में जुड़ जाती थीं। मेरी पहचान भी बदल गई। कहां बनारस में मैं मास्टर साहब का लड़का है, यह कहा जाता था और यहां ? अन्य हॉकरों से बिल्कुल अलग महंगे शूट पैंट और जूते में सड़कों पर गांडीव गांडीव की आवाज लगाते देख लोग चकित से हो जाते थें। बड़े बुजुर्ग स्नेह वश बुलाकर घर ठिकाना पूछने लगते थें। उन्हें लगता हो कि लड़का तो अच्छे घर का दिख रहा है, कहीं भाग के तो नहीं आया। (शशि)

क्रमशः

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