हम पलाश के फूल,सजे ना गुलदस्ते में
*****************************
हम पलाश के फूल,सजे ना गुलदस्ते में
खिल कर महके,सूख,गिर गये,फिर रस्ते में
भले वृक्ष की फुनगी पर थे हम इठलाये
पर हम पर ना तितली ना भँवरे मंडराये
ना गुलाब से खिले,बने शोभा उपवन की..
जरा देखें न एक कवि ने पलाश के फूलों के दर्द को किस तरह से शब्द दिया है। उसकी अंतरात्मा चित्कार कर रही है कि उसने तो इस संसार को प्रेम का रंग दिया है , बदले में नसीब ने उसे क्या दिया है। जंगल में तो उसकी खूबसूरती के इतने किस्से हैं, पर क्या इंसान के गुलदस्ते में उसके लिये भी कोई हिस्सा है ? नहीं न , यह मनुष्य तो गुलाब की खूबसूरती और खुशबू का कद्रदान है।
पलाश के इसी टीस को समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि जिसे जंगल के आग के रूप में पहचान मिली है। जो ऋतुराज बसंत का प्रिय पुष्प है। वह टेसू का फूल जिसके रंग में इंसान अपने तन- मन को रंगता है, उसी के घरौंदे में अन्य पुष्पों की तरह उस पलाश के फूल को स्थान न मिलने की पीड़ा उस विकल पथिक से मिलती-जुलती है, जिसके स्नेह की सराहना हुई , परंतु किसी के हृदय पर अधिकार कहाँ है उसका ? वह आशियाना कहाँ , वह मन मंदिर कहाँ, वह गुलदस्ता कहाँ , जहाँ वह किसी के गले का हार बनता ।
वो गीत है न-
जाने वो कैसे लोग थे जिनके
प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ माँगी
काँटों का हार मिला..
इसे ही किस्मत कहते हैं, अन्यथा जिस पुष्प से पूरा जंगल सुर्ख लाल सिंदूरी रंग से दहकता हो, वह उपवन में क्यों नहीं होता है। उसके भी तो कुछ सपने होते, कुछ अपने( तितली और भँवरे) होते। उसका यह मौन क्रंदन सुना क्या कभी किसी ने-
ना माला में गुंथे,देवता के पूजन की
ना गौरी के बालों में,वेणी बन निखरे
ना ही मिलन सेज को महकाने को बिखरे..
क्यों सुनेगा कोई ? हर किसी को सिर्फ उससे रंग (प्रेम) चाहिए, अपने आनंद एवं उत्सव के लिये । कहते हैं कि कृष्ण ने इसी पलाश के रंग से ब्रजमंडल की गोपियों संग होली खेली थी । वे स्वयं तो चितचोर से योगेश्वर हो गये, परंतु बावली गोपियाँ स्नेह के इस श्याम रंग में ऐसी रंगी कि विरह की अग्नि में तप कर जोगन हो गयी, पंडितों की वाणी हो गयी । इन पर नहीं चढ़ा फिर कोई दूसरा रंग । यह भजन तो आप सुनते ही है-
राधा ऐसी भयी श्याम की दीवानी,
की बृज की कहानी हो गयी..
इस वन की आग के मन में धधकते दावानल और विचारों के द्वंद में उलझा हूँ। प्रकृति की इस निष्ठुरता पर कि ऐसा क्यों होता है कि सर्वस्व अर्पित करके भी प्रेम का यह रंग फीका क्यों , तो दिल का यह दर्द उभर है-
मैं ने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी
मुझको रातों की सियाही के सिवा कुछ न मिला...
जंगल की इस दहकती लाली की उदासी के मर्म को यदि कवि मदन मोहन 'घोटू' ने समझा है , तो ऋतुराज के प्रिय पुष्प होने के उसके गौरव पर गोपाल दास 'नीरज' यूँ कह उसको मान भी दिया है-
नंगी हरेक शाख हरेक फूल है यतीम
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में..
सचमुच पलाश के फूल ऐसे समय लगते हैं जब बाकी पेड़ों में पतझड़ के बाद नई कोपलों के फूटने का समय होता है। चारों ओर इस सूखे माहौल के बीच एक पलाश ही रौनक पाता है। तब यह उस फिल्मी गीत की पंक्तियों को चरितार्थ करता प्रतीत हो रहा है जिसके बोल हैं..
आ के तेरी बाहों में हर शाम लगे सिंदूरी
मेरे मन को महकाया तेरे मन की कस्तूरी..
पलाश की तरह एक और पुष्प इसी ऋतु में मुस्काता है। रंग दोनों का ही सुर्ख लाल है, परंतु यह सेमल का पुष्प रंग नहीं बिखेरता है, यह इंसान को जीवन का रहस्य बताता है।
याद है न संत कबीर की वाणी -
कबीर यह संसार है जैसे सेमल फूल
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग ना फूल ।
युवावस्था में काशी में जब अपनी दोस्ती कम्पनी गार्डेन से थी, तो मंदाकिनी सरोवर किनारे इस वृक्ष के इर्दगिर्द बैठ जाया करता था। भूमि पर बिखरे सेमल के कुमलाए रक्त वर्ण के पुष्पों से मौन वार्ता होती थी मेरी। तब मैं भी बिल्कुल बेरोजगार और निठल्ला ही था । सो, सेमल के पाँच पंखुड़ियों वाले बड़े - बड़े लाल पुष्पों को खिलते, बढ़ते और गिरते हुये ही नहीं देखता था,वरन् इसके पके फलों से मुलायम श्वेत रेशे जब हवा में उड़ा करते थें, तो उस दृश्य को भी टकटकी लगाये देखा करता था। मानों कभी न मुर्झाने वाले ये श्वेत रेशमी रेशे चहुँओर बिखर कर शांति का संदेश दे रहे हो। इसी सेमल फूल से तब मुझे भी इस जगत की नश्वरता का कुछ- कुछ बोध हुआ था , जब परिजनों से संवादहीनता की स्थिति थी। दादी मुझे दुखी देख कम्पनी गार्डेन ले आया करती थीं । जहाँ , इसी सेमल के पुष्प संग मेरा मौन संवाद जब मुखरित हुआ , तो सतगुरु का दर्शन हुआ और उनके संग आश्रम चला गया। परंतु एक दिन यह सबक, "माया महा ठगनी हम जानी"
भुला बैठा और पुनः इस भवसागर में आ फंसा ।
वैसे तो , सेमल के फूल से पलाश के पुष्प की पीड़ा कहीं अधिक है , क्यों कि आकर्षण तो दोनों में ही है, परंतु पलाश अपनी प्रीति का रंग देकर भी अन्य पुष्पों की तुलना में उपेक्षित है।
*****************************
हम पलाश के फूल,सजे ना गुलदस्ते में
खिल कर महके,सूख,गिर गये,फिर रस्ते में
भले वृक्ष की फुनगी पर थे हम इठलाये
पर हम पर ना तितली ना भँवरे मंडराये
ना गुलाब से खिले,बने शोभा उपवन की..
जरा देखें न एक कवि ने पलाश के फूलों के दर्द को किस तरह से शब्द दिया है। उसकी अंतरात्मा चित्कार कर रही है कि उसने तो इस संसार को प्रेम का रंग दिया है , बदले में नसीब ने उसे क्या दिया है। जंगल में तो उसकी खूबसूरती के इतने किस्से हैं, पर क्या इंसान के गुलदस्ते में उसके लिये भी कोई हिस्सा है ? नहीं न , यह मनुष्य तो गुलाब की खूबसूरती और खुशबू का कद्रदान है।
पलाश के इसी टीस को समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि जिसे जंगल के आग के रूप में पहचान मिली है। जो ऋतुराज बसंत का प्रिय पुष्प है। वह टेसू का फूल जिसके रंग में इंसान अपने तन- मन को रंगता है, उसी के घरौंदे में अन्य पुष्पों की तरह उस पलाश के फूल को स्थान न मिलने की पीड़ा उस विकल पथिक से मिलती-जुलती है, जिसके स्नेह की सराहना हुई , परंतु किसी के हृदय पर अधिकार कहाँ है उसका ? वह आशियाना कहाँ , वह मन मंदिर कहाँ, वह गुलदस्ता कहाँ , जहाँ वह किसी के गले का हार बनता ।
वो गीत है न-
जाने वो कैसे लोग थे जिनके
प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ माँगी
काँटों का हार मिला..
इसे ही किस्मत कहते हैं, अन्यथा जिस पुष्प से पूरा जंगल सुर्ख लाल सिंदूरी रंग से दहकता हो, वह उपवन में क्यों नहीं होता है। उसके भी तो कुछ सपने होते, कुछ अपने( तितली और भँवरे) होते। उसका यह मौन क्रंदन सुना क्या कभी किसी ने-
ना माला में गुंथे,देवता के पूजन की
ना गौरी के बालों में,वेणी बन निखरे
ना ही मिलन सेज को महकाने को बिखरे..
क्यों सुनेगा कोई ? हर किसी को सिर्फ उससे रंग (प्रेम) चाहिए, अपने आनंद एवं उत्सव के लिये । कहते हैं कि कृष्ण ने इसी पलाश के रंग से ब्रजमंडल की गोपियों संग होली खेली थी । वे स्वयं तो चितचोर से योगेश्वर हो गये, परंतु बावली गोपियाँ स्नेह के इस श्याम रंग में ऐसी रंगी कि विरह की अग्नि में तप कर जोगन हो गयी, पंडितों की वाणी हो गयी । इन पर नहीं चढ़ा फिर कोई दूसरा रंग । यह भजन तो आप सुनते ही है-
राधा ऐसी भयी श्याम की दीवानी,
की बृज की कहानी हो गयी..
इस वन की आग के मन में धधकते दावानल और विचारों के द्वंद में उलझा हूँ। प्रकृति की इस निष्ठुरता पर कि ऐसा क्यों होता है कि सर्वस्व अर्पित करके भी प्रेम का यह रंग फीका क्यों , तो दिल का यह दर्द उभर है-
मैं ने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी
मुझको रातों की सियाही के सिवा कुछ न मिला...
जंगल की इस दहकती लाली की उदासी के मर्म को यदि कवि मदन मोहन 'घोटू' ने समझा है , तो ऋतुराज के प्रिय पुष्प होने के उसके गौरव पर गोपाल दास 'नीरज' यूँ कह उसको मान भी दिया है-
नंगी हरेक शाख हरेक फूल है यतीम
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में..
सचमुच पलाश के फूल ऐसे समय लगते हैं जब बाकी पेड़ों में पतझड़ के बाद नई कोपलों के फूटने का समय होता है। चारों ओर इस सूखे माहौल के बीच एक पलाश ही रौनक पाता है। तब यह उस फिल्मी गीत की पंक्तियों को चरितार्थ करता प्रतीत हो रहा है जिसके बोल हैं..
आ के तेरी बाहों में हर शाम लगे सिंदूरी
मेरे मन को महकाया तेरे मन की कस्तूरी..
पलाश की तरह एक और पुष्प इसी ऋतु में मुस्काता है। रंग दोनों का ही सुर्ख लाल है, परंतु यह सेमल का पुष्प रंग नहीं बिखेरता है, यह इंसान को जीवन का रहस्य बताता है।
याद है न संत कबीर की वाणी -
कबीर यह संसार है जैसे सेमल फूल
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग ना फूल ।
युवावस्था में काशी में जब अपनी दोस्ती कम्पनी गार्डेन से थी, तो मंदाकिनी सरोवर किनारे इस वृक्ष के इर्दगिर्द बैठ जाया करता था। भूमि पर बिखरे सेमल के कुमलाए रक्त वर्ण के पुष्पों से मौन वार्ता होती थी मेरी। तब मैं भी बिल्कुल बेरोजगार और निठल्ला ही था । सो, सेमल के पाँच पंखुड़ियों वाले बड़े - बड़े लाल पुष्पों को खिलते, बढ़ते और गिरते हुये ही नहीं देखता था,वरन् इसके पके फलों से मुलायम श्वेत रेशे जब हवा में उड़ा करते थें, तो उस दृश्य को भी टकटकी लगाये देखा करता था। मानों कभी न मुर्झाने वाले ये श्वेत रेशमी रेशे चहुँओर बिखर कर शांति का संदेश दे रहे हो। इसी सेमल फूल से तब मुझे भी इस जगत की नश्वरता का कुछ- कुछ बोध हुआ था , जब परिजनों से संवादहीनता की स्थिति थी। दादी मुझे दुखी देख कम्पनी गार्डेन ले आया करती थीं । जहाँ , इसी सेमल के पुष्प संग मेरा मौन संवाद जब मुखरित हुआ , तो सतगुरु का दर्शन हुआ और उनके संग आश्रम चला गया। परंतु एक दिन यह सबक, "माया महा ठगनी हम जानी"
भुला बैठा और पुनः इस भवसागर में आ फंसा ।
वैसे तो , सेमल के फूल से पलाश के पुष्प की पीड़ा कहीं अधिक है , क्यों कि आकर्षण तो दोनों में ही है, परंतु पलाश अपनी प्रीति का रंग देकर भी अन्य पुष्पों की तुलना में उपेक्षित है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-02-2019) को "चूहों की ललकार." (चर्चा अंक-3249) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
शहीदों के नमन के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्रिय शशि भाई -- मन की यादों के फूलो के बीच पलाश के गंधहीन पुष्प पर आपका चिंतन बहुत ही भावपूर्ण है और ज्ञानवर्धक भी | पलाश का फूल कवियों और साहित्यकारों का बहुत मनपसंद विषय रहा है | पूजा और गुलदस्ते का हिस्सा ना बन पाने की पीड़ा और अपनी उपेक्षा से बेखबर वह अपनी खूबसूरती के साथ खड़ा रहता है हर किसी के मन को रिझाने के लिए | कविवर नीरज जी की ये पंक्तियाँ हृदयग्राही तो हैं ही सार्थकता का प्रेरक सन्देश भी देती हैं|
ReplyDeleteनंगी हरेक शाख हरेक फूल है यतीम
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज धूप में !!!!!!!!!!
सुंदर भावपूर्ण लेख के लिए मेरी शुभकामनायें |
जी धन्यवाद शास्त्री सर।
ReplyDeleteजी रेणु दी प्रणाम।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आलेख । बधाई
ReplyDeleteजी प्रणाम,
ReplyDeleteहृदय से आभार।
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
पलास के जीवन दर्शन को बखूबी दर्शाता ये लेखन लाजबाब है ,सादर नमन शशि जी
ReplyDeleteजी धन्यवाद, प्रणाम
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति सोमवार 18 फ़रवरी 2019 को प्रकाशनार्थ "पाँच लिंकों का आनन्द" ( https://halchalwith5links.blogspot.com ) के विशेष सोमवारीय आयोजन "हम-क़दम" के अट्ठावनवें अंक में सम्मिलित की गयी है।
अंक अवलोकनार्थ आप सादर आमंत्रित हैं।
सधन्यवाद।
बहुत सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर आदरणीय
ReplyDeleteसादर
पलाश के पुष्प के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी नहीं मैने जानने की कोशिश की, शुक्र है कि प्रथम जानकारी आपसे मिली वह भी भौतिक, आध्यात्मिक और साहित्यिक...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लगा आपका लेख...मन गदगद हो उठा।
बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं सुंदर लेख के लिए...
जी सुधा जी मैं तो एक मामूली सा पत्रकार हूँँ, शब्द ज्ञान भी कम ही है, बस किसी तरह जीवन की कुछ अनुभूतियों को व्यक्त कर पाता हूँ।
ReplyDeleteप्रणाम और आभार में आपने इतना उत्साहवर्धन जो किया।