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Sunday 31 March 2019

अप्रैल फूल

अप्रैल फूल
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'अप्रैल फूल बनाया तो उनको गुस्सा आया ...'
    आज भी अप्रैल फूल के दिन यह गीत लोग गुनगुनाते हैं।
पश्चिमी देशों में एक अप्रैल को यह मूर्ख दिवस मनाने का प्रचलन रहा हैं, चूकि हम भारतीय भी अंग्रेजों के गुलाम रहे हैं। अतः उनकी संस्कृति, उनकी भाषा और उनका पहनाव भी हमारा हो गया है। जो दो शब्द अंग्रेजी में बोल लेते हैं, वे जेंटलमैन समझे जाते हैं। अभिभावक हिन्दी भाषा में साहित्य सृजन करते हैं, परंतु उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम वाले विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। यही कठोर सत्य है , हम भारतीयों का ?
   खैर बात मुझे अप्रैल फूल दिवस पर करनी थी और मैं भी न हिन्दी - अंग्रेजी में उलझ गया,  इसीलिये तो मित्रगण कहते हैं कि पत्रकारिता का बस्ता उतार फेंको, तब जीवन में तुम्हारे भी उल्लास आएगा। अन्यथा जेब खाली और बने रहो समाज के रखवाले। वो क्या कहते है न कि चौथा स्तंभ।  मैं भी समझता हूँ उनकी बातों में दम है, सामने पड़ी भोजन की थाली को यदि ठुकरा देंगे, तो फिर पूरे दिन  क्षुधा परेशान करेंगी ही। सो, मेरे जैसों के साथ भला अप्रैल फूल कौन मनाये । जो पहले से ही मूर्ख हैंं ,जीवन के इस सत्य को समझ न सका कि इस अर्थयुग में पैसे की ही प्रधानता है, जो अपने और पराये में फर्क नहीं कर पाया हो, उसके लिये तो जीवन का प्रत्येक दिन मूर्ख दिवस ही तो है ?
   ऐसी ही मनोस्थिति में यदि  कुछ भी मधुर स्मृतियाँ हो , अपने अच्छे दिनों की तो उसका अवलंबन निश्चित ही हमारे अधरों पर एक मुस्कान तो ला ही देगा। अपने इस यात्री गृह में  बैठे- बैठे आज जब मन बोझिल सा हो रहा था , तभी इस अप्रैल फूल दिवस का स्मरण हो आया। देखे न यह मन भी कितना चलायमान है कि वह तत्काल वर्षों पीछे अतीत में ले जाकर पटक देता है। जब पथिक बालक था और कोलकाता में अपने बाबा- माँ के साथ रहता था। बाबा नीचे मिठाई के कारखाने में और हम माँ बेटे ऊपर चौथी मंजिल पर। माँ तो अस्वस्थ होने के कारण अपने बेड पर ही बैठी रहती थीं और उनका मुनिया जो था , वह एक दिन पहले से ही योजनाएँ बनाने लगता था कि अप्रैल फूल दिवस पर विद्यालय , घर और कारखाने में किसे किस तरह से मूर्ख बनाना है। परंतु यह कार्य थोड़ा कठिन था , क्यों कि झूठ बोल कर नहीं वरन् कुछ  ऐसा खिला कर उन्हें मूर्ख बनाना था । है न कठिन कार्य , भला कोई आपका दिया क्यों खाएँगा ? तो माँ का सहारा लेता था कि हाड़ी दादू(नाना) देखे न आपके लिये  आज क्या  लेकर आया हूँ। माँ ने बनवाया है और मुझसे कहाँ है कि आपलोगों के लिये भी है। अब सामने पकवान हो और माँ ने भेजा हो, फिर इंकार कौन करेगा , अतः एक ही झटके में हाड़ी दादू, घोष दादू और बैनर्जी दादू सभी पकौड़ा खा लेते थें । फिर तो उनका क्या हाल होता था यह मत पूछे और मेरी हँसी थमती नहीं थी, क्यों कि उसमें इतनी अधिक हरी मिर्ची पड़ी होती थी कि मेरे इन बंगाली दादू लोगों का पूरा चेहरा लाल हो जाता था। लेकिन, साथ ही मैं उनके लिये बढ़िया वाला पकौड़ा और खीर या कुछ अन्य मिष्ठान भी लेकर जाता था। यह शिष्टाचार भी माँ ने सिखाया था कि किसी के साथ मजाक का यह मतलब नहीं कि उसे मिर्ची वाला पकौड़ा खिला कर छोड़ दो।  तब पांचवीं मंजिल पर एक कारीगर काम करते थें। ये पकौड़े वे ही बना देते थें।
       इसी दिन माँ को देखने लिलुआ से बड़ी माँ आ गयींं, तो उन्हें भी मैं छोड़ता नहीं था।  बड़ी माँ , जो दूर के रिश्ते में थीं , उनका स्मरण होते ही न जाने क्यों आँखें नम हो गयी हैं।  जमींदार परिवार की थीं, परंतु विशाल भूखंड होने के बावजूद भी यदि घर का मुखिया कामधंधे में रूचि न ले तो सब व्यर्थ है। फिर भी अपने परिवार की समस्या को भूला कर वे लोकल ट्रेन पकड़ कर सप्ताह में चार- पाँच दिन राजाकटरा, बड़ा बाजार आती थींं।  शाम को वे आती थींं और रात दस बजे जाया करती थींं। माँ ने अंतिम सांस उन्हीं के समक्ष ली थी और कोई भी महिला नहीं थी , उस रात परिवार की। मेरी मम्मी और मौसी भी नहीं। उन्होंने ही मुझे   सब्जी और पराठे बनाना सिखलाया था, बाद में माँ से पूछ लिया करता था।
    वे मेरे खुशी के दिन थें। एक अप्रैल को मैं उछल कूद कर पांचवीं मंजिल से लेकर नीचे कारखाने और दफ्तर  एक कर दिया करता था । इतनी चतुराई से पकौड़े खिलाता था कि दूसरे को पता ही नहीं चल पाता था। अब तो स्वयं से ही यह सवाल कर बैठता हूँ कि बारह वर्ष का बालक को इतनी बुद्धि कहाँ से आ गयी थी।  माँ के जाने के पश्चात मुझे याद नहीं है कि पुनः कभी यह अप्रैल फूल दिवस  आया मेरे जीवन में। हाँ , जब यहाँ मीरजापुर आया, तो इस दिन मेरे एक मित्र ने झूठी बड़ी घटना बता दी । सांध्यकालीन समाचार पत्र का प्रतिनिधि होने के कारण, यह खबर छूटे नहीं इसके लिये मैं अस्पताल ,पोस्टमार्टम और पुलिस अधीक्षक कार्यालय दौड़ता रहा।  मोबाइल फोन का युग तो था नहीं । जब कहींं से भी उस समाचार की पुष्टि नहीं हुई , तो मन उदास हो गया कि दोपहर के ढ़ाई बजने को है,लगता है कि आज मेरी खबर छूट जाएगी। मेरा लटका हुआ चेहरा देख, तब जा कर मित्र महोदय ने ठहाका लगाया था कि आज कौन सा  दिन है पता है तुम्हें ? मैंने कहा कि यह भी कोई पूछने की बात है। जो बताना है, वह तो बस अधूरा बता मजा ले रहे हो। तुम्हें क्या पड़ी है, समाचार तो मेरा छूटेगा न ? तब जनाब ने मुस्कुराते हुये कहा था कि अप्रैल फूल । बस इसके बाद आज तक किसी ने मुझे इस दिवस पर मूर्ख नहीं बनाया, इस जिंदगी को छोड़...।
 वैसे चुनावी माहौल है और जनता को मूर्ख कौन बनाते हैं,यह पता है न आपको ? तो मतदान के दिन प्रयास करें हम सभी कि यह दिवस आगामी पांच वर्षों के लिये हमारे लिये अप्रैल फूल न हो। योग्य प्रत्याशी को परखे , झूठे आश्वासनों में न बहके। इन सियासी रहनुमाओं ने इस लोकतंत्र के पर्व को झूठ दिवस में बदलने के लिये कुछ इस तरह से अपने वायदों का पिटारा खोल रखा है-

लो सजी बिसात सियासत की
   गरीबी हटाने वालों ने कहा
अब गरीबी मिटाएंगे हम
  अच्छे दिन के ख़्वाब न देख
ये वादा है मेरा ,सुन बे गरीब
  तुझे रोटी कपड़ा मकान तो नहीं
सम्मान और रोजगार भी नहीं
   हम तेरी गरीबी पर तरस खा
   वादों की चाशनी में  तुझे अभी
     और पिघलाएँगें ,फिरभी कभी
 साम्यवाद - समाजवाद नहीं लाएँगे..

            -व्याकुल पथिक
           31 मार्च 2019

19 comments:

  1. बढ़िया आलेख...
    हम भी चाकलेट के रेपर में पत्थर लपेट कर दिया करते थे...
    सादर..

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  2. >
    >
    >



    चुनाव आते ही हाथ छोड़ कर कमल उठाते हैं
    साईकिल वाले हाथी के ऊपर चढ़ जाते है
    इधर से उधर उधर से इधर आना जाना बना रहे
    जनता पूछती है जनता से बेवकूफ लोग
    अपनी पीठ खुद क्यों नहीं खुजलाते हैं?

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  3. बहुत सा दर्द समेटे मजेदार संस्मरण साथ ही सामायिक
    चुनावी दगंल में जनता का लम्बा अप्रेल फूल चलने वाला पर चिंतन।
    बहुत शानदार प्रस्तुति भाई शशि जी ।

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  4. जी ये संस्मरण ही तो वैराग्य में बाधक बने हुये हैं, मुक्ति पथ की ओर बढ़ने से पांव रोक रखें है।
    जी, कुसुम दी प्रणाम।

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  5. This comment has been removed by the author.

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  6. ऐसा भी मैंने क्या लिख दिया है भाई साहब ? बस यह तो मन के बोझ को थोड़ा कम करने का प्रयास करता हूँ,यहां ब्लॉक पर अपने आकर । मुझ जैसे यतीमों का यह सुंदर घर घरौंदा है।

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  7. प्रिय शशि भाई -- सक्स्ह लिखा कुसुम बहन ने मन की असीम वेदना को दबाये उस उन्मुक्त म अल्हड बचपन की यादे बहुत ही मनभावन और निश्छल हैं | उस बारह साल के बालक में वह बुद्धि इस लिए आई थी कि नियति को पता था ये बुद्धिजनित यादें ही उस बालक के जीवन का संबल बनेंगी | मुझे तो कुछ याद नहीं पड़ता कि जीवन में कभी किसी ने मुझे मुर्ख बनाकर हंसी ठिठोली की हो और मैंने ही कभी इस तरह की कोशिश नहीं की| पर मुर्ख दिवस के किस्से खूब सुने हैं | सुंदर लेख है | आम से विषय पर गहन चिंतन आपके लेखन की खूबी है | सस्नेह शुभकामनयें |

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  8. जी सही कहा आपने रेणु दी , नियति कोई तो अवलंबन देती ही है।
    प्रणाम।

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  9. धन्यवाद दुर्गा भैया।

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  10. बेहतरीन लेख सर, वाह

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  11. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 02 अप्रैल 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  12. जी प्रणाम, धन्यवाद।

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  13. एक दिन को क्यों अकेले दें,
    ये हमें मूरख बनाते, साल भर.

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  14. पांच साल पूरे,यदि बहुमत हो तो ।
    प्रणाम।

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  15. अच्छी होती हैं यादें जो मुस्कान ला देती हैं चहरे पर ...
    उम्दा आलेख ...

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  16. बेहद हृदयस्पर्शी संस्मरण अप्रैलफूल पर ...यादें जो मुस्कान ला दें वे स्मरणीय होती हैं....मुस्कुराने के लिए आगे पीछे कहीं भी झांक लो क्योंकि मुस्कराना जरूरी है...चुनाव पर
    बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने...
    हम तेरी गरीबी पर तरस खा
    वादों की चासनी में तुझे अभी
    और पिघलाएँगें ,फिरभी कभी
    साम्यवाद - समाजवाद नहीं लाएँगे..
    वाह!!!

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  17. जी आप सभी को प्रणाम।

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yes