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खेलो ना दिल से किसी के
ये खिलौना तो नहीं
ताउम्र तड़पता है जिस्म
जब छलता है कोई
ख़्वाबों को राह दिखला के
मुकर जाते हैं जो लोग
दर्द तन्हाई का दे
फिर ना नज़र आते है क्यों?
जो चमकते थें कभी
इश्क़ में आईना बन के
टूटे कांच से बिखरे हैं
अब इक कराह है लिये
जख़्म ऐसा भी न दो
जिसका मरहम ही न हो
बुझती शमा की
रोशनी की है तुझको कसम
सांसों की धड़कनें बन
ना बढ़ा फिर फ़ासले दिल के
मासुमियत का नक़ाब तेरा
जला देगा किसी का घर
हो ऐब कितने भी तुझमें
पर फ़रेब तो ना कर
इंसानियत को बना मज़हब
धर्म के मर्म को समझ
किताबों में ना ढूंढ इसे
है मोहब्बत ही इक मज़हब
- व्याकुल पथिक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-04-2019) को "फिर से चौकीदार" (चर्चा अंक-3303) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर आदरणीय
ReplyDeleteसादर
जी प्रणाम,धन्यवाद।
ReplyDeleteइंसानियत को बना मज़हब
ReplyDeleteधर्म के मर्म को समझ
किताबों में ना ढूंढ इसे
है मोहब्बत ही इक मज़हब
बहुत ही सार्थक पंक्तियाँ प्रिय शशि भाई | हर धर्म आपसी प्रेम और मुहब्बत का ही पैगाम देता है जिसने इस बात को जान लिया और समझ लिया वही सच्चा आस्तिक है | रचना के सभी बंध बहुत अछे अच्छे हैं | मेरी शुभकामनायें |
जी दी प्रणाम।
ReplyDeleteजी प्रणाम यशोदा दी, आपका हृदय से आभार।
ReplyDeleteइंसानियत को बना मज़हब
ReplyDeleteधर्म के मर्म को समझ
बेहतरीन
जी धन्यवाद , प्रणाम।
ReplyDeleteवाह बहुत तथ्य परक सत्य।
ReplyDeleteसुंदर सुघड़।
जी प्रणाम कुसुम दी
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, इंसानियत और मोहब्बत का पैगाम देती हुई।
ReplyDeleteजी प्रणाम मीना दी
ReplyDeleteकिताबों में ना ढूंढ इसे
ReplyDeleteहै मोहब्बत ही इक मज़हब
लाजबाब ,बहुत ही सुंदर रचना ,सादर नमस्कार
इंसान के लिए इंसानियत ही सबसे वेहतर धर्म हो सकता है। अच्छी रचना ।
ReplyDeleteजी प्रणाम आप सभी को।
ReplyDeleteसुन्दर भाव।
ReplyDeleteमासुमियत का नक़ाब तेरा
ReplyDeleteजला देगा किसी का घर
हो ऐब कितने भी तुझमें
पर फ़रेब तो ना कर
बेहतरीन अभिव्यक्ति शशि जी.
इंसानियत को बना मज़हब
ReplyDeleteधर्म के मर्म को समझ
किताबों में ना ढूंढ इसे
है मोहब्बत ही इक मज़हब
बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना...