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Wednesday 10 April 2019

मज़हब

   

 मज़हब
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खेलो ना दिल से किसी के
ये खिलौना तो नहीं

ताउम्र  तड़पता है जिस्म
जब छलता है कोई

ख़्वाबों को राह दिखला के
 मुकर जाते हैं जो लोग

 दर्द  तन्हाई  का  दे
 फिर ना नज़र आते है क्यों?

जो  चमकते थें कभी
 इश्क़  में आईना  बन के

 टूटे  कांच से बिखरे हैं
अब   इक कराह  है  लिये

जख़्म  ऐसा भी  न दो
जिसका  मरहम  ही न हो

बुझती  शमा  की
 रोशनी  की है तुझको कसम

सांसों की धड़कनें बन
ना बढ़ा फिर फ़ासले दिल के

मासुमियत का नक़ाब तेरा
  जला  देगा किसी  का  घर

हो ऐब कितने भी तुझमें
  पर  फ़रेब  तो ना कर

इंसानियत को बना मज़हब
 धर्म के मर्म को समझ

 किताबों में ना ढूंढ इसे
है मोहब्बत ही इक मज़हब

             - व्याकुल पथिक

18 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-04-2019) को "फिर से चौकीदार" (चर्चा अंक-3303) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर आदरणीय
    सादर

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  3. जी प्रणाम,धन्यवाद।

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  4. इंसानियत को बना मज़हब
    धर्म के मर्म को समझ
    किताबों में ना ढूंढ इसे
    है मोहब्बत ही इक मज़हब
    बहुत ही सार्थक पंक्तियाँ प्रिय शशि भाई | हर धर्म आपसी प्रेम और मुहब्बत का ही पैगाम देता है जिसने इस बात को जान लिया और समझ लिया वही सच्चा आस्तिक है | रचना के सभी बंध बहुत अछे अच्छे हैं | मेरी शुभकामनायें |

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  5. जी प्रणाम यशोदा दी, आपका हृदय से आभार।

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  6. इंसानियत को बना मज़हब
    धर्म के मर्म को समझ

    बेहतरीन

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  7. जी धन्यवाद , प्रणाम।

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  8. वाह बहुत तथ्य परक सत्य।
    सुंदर सुघड़।

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  9. जी प्रणाम कुसुम दी

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  10. बहुत सुंदर रचना, इंसानियत और मोहब्बत का पैगाम देती हुई।

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  11. जी प्रणाम मीना दी

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  12. किताबों में ना ढूंढ इसे
    है मोहब्बत ही इक मज़हब
    लाजबाब ,बहुत ही सुंदर रचना ,सादर नमस्कार

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  13. इंसान के लिए इंसानियत ही सबसे वेहतर धर्म हो सकता है। अच्छी रचना ।

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  14. जी प्रणाम आप सभी को।

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  15. मासुमियत का नक़ाब तेरा
    जला देगा किसी का घर

    हो ऐब कितने भी तुझमें
    पर फ़रेब तो ना कर


    बेहतरीन अभिव्यक्ति शशि जी.

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  16. इंसानियत को बना मज़हब
    धर्म के मर्म को समझ

    किताबों में ना ढूंढ इसे
    है मोहब्बत ही इक मज़हब
    बहुत ही सुन्दर और सार्थक रचना...

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yes