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बंद कमरे में उनकी सिसकियों को किसी ने नहीं सुनी ..अंततः उनके हृदय में सुलगती यह आग दावानल बन गयी.. जिसमें उनके अपने ही प्रियजन एक-एक भस्म होते गये..
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अरे ! दादी ये क्या बुदबुदा रही हैं.. क्या वे सच में बद्दुआ दे रही हैं..मम्मी तो यही कहती हैं कि यह बुढ़िया हमें शाप देती है..परंतु क्यों, वे ऐसी ही हैं..?
नहीं - नहीं, गलत है यहसब, हमारी दादी तो हम तीनों भाई-बहनों को कितना दुलार करती हैं..हिमांशु कुछ भी नहीं समझ पाता था कि यह उनका शाप था अथवा विलाप..।
जब भी सास-बहू में वाकयुद्ध प्रारम्भ होता, वह सहम कर कमरे के किसी कोने में दुबक जाता था, क्योंकि उसे मालूम था कि अब जबतक स्थिति सामान्य नहीं होगी, दादी से मिलने नहीं दिया जाएगा.. फिर कौन सुनाएगा उसे बेलवा रानी की कहानी.. ।
यह दादी ही थी जिनकी खटिया पर कथरी में घुस कर वह हर रात नयी कहानियाँ सुना करता था..दादी के घुटने और पांव के सहारे झूलता रहता था..लाड और दुलार की उन थपकियों को भला आज भी वह कहाँ भूल पाया है।
आखिर अपने ही घर में दादी परायी क्यों हो गयी थी ..वे अपना भोजन स्वयं क्यों बनाती थीं.. ?
और एक अकेला इंसान अपने लिए कोई विशेष व्यंजन बनाये भी तो क्या .. पेट भर जाए यह कम नहीं है ..।
हिमांशु इससे भलीभांति परिचित है..वह स्वयं भी तो पिछले ढाई- तीन दशक से कुछ ऐसा ही जीवन व्यतीत कर रहा है..।
अतः वह समझ सकता है कि अपना परिवार होकर भी भोजन की थाली परायी होने की पीड़ा कितनी होती है.. परंतु स्वाभिमान नाक उठाये जो खड़ा रहता है..।
उसकी दादी भी ऐसी ही थी..तीज-त्यौहार पर घर में पकवान बनते देख दिल मसोस कर रह जाती थी.. पर जबतक पौरूख चला , लिया किसी से कुछ भी नहीं.. यहाँ तक की सरकारी वृद्धा पेंशन भी उनसभी पर लुटा दिया करती थी.. ।
हिमांशु जब समझदार हुआ, तो उसे अपनी दादी के जीवन-संघर्ष यात्रा की खोजखबर लेनी शुरू की .. पता चला कि वे बड़े बाप की लाडली बेटी हैं.. विवाह भी संपन्न परिवार में हुआ था..परंतु मीनाबाजार में पति के पांव फिसल गये.. तीन पुत्रियों के साथ एक महिला फिर कैसे बिताती पहाड़ जैसा शेष जीवन ..वह भी बनारस में , जहाँ -”राड़, सांड, सीढ़ी, सन्यासी इनसे बचें तो सेवें काशी” जैसी उक्ति मर्दों की जुबां की शोभा थी..।
उस जमाने में पुनर्विवाह भी कहाँ आसान था..ऐसे में एक परित्यक्ता , वह भी तीन लड़कियों की माँ को भला कौन गले लगाता..?
उन्होंने इन पुत्रियों के साथ अपने जीवन में वह संघर्ष किया था, जिसे देख बड़े- बुजुर्ग दाँतों तले उँगली दबा लेते थें..।
उन्हें इस वेदना से तब मुक्ति मिली, जब उनका पुनर्विवाह करवा दिया गया.. अल्पकाल में ही उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई..और फिर इस अनपढ़ दम्पति ने यह संकल्प लिया कि उनका पुत्र भविष्य में उनकी तरह अपनी छोटी-सी मिठाई की दुकान पर हलवाई बनकर न तो भट्टी में कोयला झोंकेगा और न ही कड़ाही माँजेगा..वह तो पढ़-लिख कर राजाबाबू बनेगा..।
तीन पुत्रियों का विवाह , पुत्र को उच्चशिक्षा दिलवाने के साथ ही उसकी दादी ने शहरी इलाके में अपना घर भी खरीद लिया था..।
पुत्र का विवाह कोलकाता के एक सभ्रांत और संस्कारित परिवार की बेटी के साथ संपन्न करवा इस दम्पति ने अपना नैतिक कर्तव्य पूरा किया..।
पर बड़ा सवाल यह था कि उनकी हलवाई की दुकान कौन देखेगा..हिमांशु के दादा का स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था..और उधर आजीविका के साधन के अभाव में उसके पिता का अधिकांश समय ससुराल में कटता था..जहाँ का ठाठबाट देख वे हीनभावना से ग्रसित होते जा रहे थें.. । हिमांशु के दादा की अंतिम इच्छा थी कि वे अपने पौत्र को देख लें .. परंतु ऐसा संभव नहीं हो सका और वे भी उसकी दादी को जीवनपथ पर अकेला छोड़ चले गये..।
उधर, उसके पिता की ससुराल में न बनी और यहाँ बनारस में भी वे एक कुशल अध्यापक बनने के लिये अभी संघर्ष ही कर रहे थें..। सो, घर की आर्थिक स्थिति डांवाडोल होती चली गयी, साथ ही उनका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता गया..। सास-बहू के मध्य इस तंगहाली में अहम के टकराव से जिस मधुर संबंध में संवेदना एवं स्पंदन होना चाहिए वह स्वार्थ के तराजू पर चढ़ गया.. और फिर ऐसा हालात उत्पन्न हुआ कि जो पुत्र मासूम बालक-सा सदैव अपनी माँ के आँचल में दुबका रहता था..अब वह उनसे दूर हो चला..।
उसकी दादी ने पुत्रवियोग की इस अप्रत्याशित वेदना को अपने सीने में दबा लिया.. जिस घर को पैसा जोड़-जोड़ कर खरीदा था, वह उसकी मालकिन भी न रही..न ही कोई आसपास रहा..
अब वे एक कमरे में अकेले रहने लगीं ..हाँ, जब मन उदास होता था तो अपना दर्द बांटने पुत्रियों के ससुराल चली जाया करती थीं..।
और फिर घर वापसी पर जब कभी उन्हें अपने इकलौते पुत्र पर से अधिकार खोने का संताप होता था .. विकल हृदय का यह विस्फोट जुबां पर आ जाता था..ऐसा कर तब उनके उद्विग्न चित्त को तनिक विश्राम मिलता था..।
अब इसे गाली समझे, बद्दुआ कहें अथवा उनका रुदन..उनकी मनोदशा को कोई नहीं समझ पाता था..जिसे अपने बहू-बेटे से सम्मान और दो वक्त की रोटी की उम्मीद थी..जिस लालसा में कठोर से कठोर दुःख सहन कर अशिक्षित होकर भी अपने पुत्र को उस जमाने में उच्चशिक्षा दिलवाई थी.. इस स्नेह- समर्पण का क्यों कोई मोल नहीं..? वह क्यों जीवनदायिनी गंगा माँ से बहता पानी बन गयी .. बंद कमरे में उनकी सिसकियों को किसी ने नहीं सुनी ..।
अंततः उनके हृदय में सुलगती यह आग दावानल बन गयी.. जिसमें उनके अपने ही प्रियजन एक-एक भस्म होते गये..।
वह विद्यालय जो हिमांशु के माता- पिता के अथक परिश्रम की कमाई थी..जिसके निर्माण के लिये दादी ने अपना प्रिय बैठका ( किसी मकान के आगे का कमरा ) छोड़ दिया था, वे पीछे के कमरे में चली गयी थीं .. उन्हें इस त्याग के लिए घर की बनी दो वक्त की रोटी मिला करती थी..साथ ही चाय की वह प्याली , जिसके लिए वे सुबह-शाम दरवाजे की ओर टकटकी लगाये अपनी पौत्री का पदचाप सुनने का प्रयत्न करती थीं..।
दादी के निधन के पश्चात वह स्कूल भी नष्ट हो गया और सबकुछ बिखर गया..।
हाँ, यह बद्दुआ ही थी कि जिस परिवार के बच्चे अपनी कक्षाओं में विशिष्ट पहचान रखते थें , उनकी शिक्षा अधूरी रह गयी। परिस्थितियों ने उन दोनों ही भाइयों को अपना घर त्यागने के लिये विवश कर दिया.. वह स्वप्न जिसे इनके अभिभावकों ने देखा था कि वे अपने शिक्षित पुत्रों और पुत्रवधुओं के साथ अपने विद्यामंदिर को विस्तार देंगे.. समाज में उनकी प्रतिष्ठा और ऊँची होगी, वह बिखर गया..उनकी इकलौती लाडली पुत्री के लिये ससुराल पराया हो गया..वह अपने पुत्र के साथ बुझे मन से सदैव के लिये मायके आ गयी..जिसने अपने पिता के मृत्यु से दो दिन पहले अपनी माँ के आँखों के समक्ष ही दम तोड़ दिया..।
और दादी का वह दुलारा पौत्र , जिसके आगमन की प्रतीक्षा उन्होंने मृत्युशैया पर अंतिम सांस तक की..उस तंग कमरे में जहाँ उनकी देखरेख करने कोई नहीं आता था.. वह भी उनकी सुधि लेने नहींं आया..।
वह निष्ठुर हिमांशु तो वर्षभर पूर्व ही अपनी वृद्ध दादी को एकाकी छोड़ आजीविका की तलाश में बहुत दूर जा चुका था..उसे आज भी याद है कि उसकी प्यारी दादी ने किस तरह से डबडबाई आँखों से ट्रेन के डिब्बे में उसे चढ़ते देखा था.. सम्भवतः उन्हें आभास हो गया था कि यह आखिरी मुलाकात है..।
वापस घर लौटने पर हिमांशु को उसके मित्र ने बताया था - " दादी कितनी बेचैनी से तुम्हारे पत्र का इंतजार किया करती थी और फिर धीरे-धीरे वे खामोशी के चादर में लिपटते चली गयीं.. आखिरी बार तुम्हें देखने की लालसा लिये अनंत - यात्रा पर निकल गयीं ..। "
नियति की यह कैसी क्रूरता थी कि जिस दादी ने अपने भोजन की थाली से सदैव उसका भूख मिटाया.. जो अपने आँचल में छुपा कर उसके लिये रोटी लाती थी..वह उनका अंतिम दर्शन करने न आ सका..।
वापस लौटने पर दादी का सूना कमरा देख .. आत्मग्लानि से चीत्कार कर उठा था हिमांशु ..।
दादी की याद में उस बंद दरवाजे को देख तड़पता रहा वह पूरी रात..
गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी
करोगे याद तो हर बात याद आएगी..
किस तरह से वह रात उसने अकेले गुजारी होगी, जब उसे ऐसा लगता हो कि बगल वाले कमरे से दादी पुकार रही है.. वैसे तो ऊपरी मंजिल पर उसके सभी अपने ही बसे हुये थें.. हँसी-ठहाके की आवाज भी सुनाई पड़ रही थी..किन्तु उसे सांत्वना देने कोई नहीं आया..किसी ने जलपान को भी नहीं पूछा..उसने दो रात भूखे ही गुजार दी थी इसी कमरे में.. और एक दिन वह सबकुछ छोड़कर पुनः भागा , कभी वापस नहीं आने के लिये..किन्तु यादों की जंजीरों ने उसे यूँ जकड़ा कि आज, दादी के नेत्रों से बही वही अश्रुधारा उसकी पहचान बन गयी है .. निश्चित ही उनकी वह बद्दुआ उसे भी लगी है..बीमार -लाचार यह व्यक्ति अपनों में बेगाना बना स्नेह के दो बूंद के लिए प्यासा भटक रहा है..
जिसे भी उसने अपना समझा ,उनसभी ने निर्ममता से उसकी हर खुशियों को अपने पांव तले कुछ यूँ रौंदा है, ताकि वह पुनः संभल न पाए..वह धीरे-धीरे अपंगता की ओर बढ़ रहा है.. अपाहिज कहलाने के लिये .. ।
( तो यह है एक सभ्य एवं संस्कारी परिवार की छोटी-सी दर्दभरी कहानी .. ऐसी परिस्थितियाँ न उत्पन्न हो..इस आप भी चिंतन करें , नमस्कार।)
-व्याकुल पथिक
बंद कमरे में उनकी सिसकियों को किसी ने नहीं सुनी ..अंततः उनके हृदय में सुलगती यह आग दावानल बन गयी.. जिसमें उनके अपने ही प्रियजन एक-एक भस्म होते गये..
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अरे ! दादी ये क्या बुदबुदा रही हैं.. क्या वे सच में बद्दुआ दे रही हैं..मम्मी तो यही कहती हैं कि यह बुढ़िया हमें शाप देती है..परंतु क्यों, वे ऐसी ही हैं..?
नहीं - नहीं, गलत है यहसब, हमारी दादी तो हम तीनों भाई-बहनों को कितना दुलार करती हैं..हिमांशु कुछ भी नहीं समझ पाता था कि यह उनका शाप था अथवा विलाप..।
जब भी सास-बहू में वाकयुद्ध प्रारम्भ होता, वह सहम कर कमरे के किसी कोने में दुबक जाता था, क्योंकि उसे मालूम था कि अब जबतक स्थिति सामान्य नहीं होगी, दादी से मिलने नहीं दिया जाएगा.. फिर कौन सुनाएगा उसे बेलवा रानी की कहानी.. ।
यह दादी ही थी जिनकी खटिया पर कथरी में घुस कर वह हर रात नयी कहानियाँ सुना करता था..दादी के घुटने और पांव के सहारे झूलता रहता था..लाड और दुलार की उन थपकियों को भला आज भी वह कहाँ भूल पाया है।
आखिर अपने ही घर में दादी परायी क्यों हो गयी थी ..वे अपना भोजन स्वयं क्यों बनाती थीं.. ?
और एक अकेला इंसान अपने लिए कोई विशेष व्यंजन बनाये भी तो क्या .. पेट भर जाए यह कम नहीं है ..।
हिमांशु इससे भलीभांति परिचित है..वह स्वयं भी तो पिछले ढाई- तीन दशक से कुछ ऐसा ही जीवन व्यतीत कर रहा है..।
अतः वह समझ सकता है कि अपना परिवार होकर भी भोजन की थाली परायी होने की पीड़ा कितनी होती है.. परंतु स्वाभिमान नाक उठाये जो खड़ा रहता है..।
उसकी दादी भी ऐसी ही थी..तीज-त्यौहार पर घर में पकवान बनते देख दिल मसोस कर रह जाती थी.. पर जबतक पौरूख चला , लिया किसी से कुछ भी नहीं.. यहाँ तक की सरकारी वृद्धा पेंशन भी उनसभी पर लुटा दिया करती थी.. ।
हिमांशु जब समझदार हुआ, तो उसे अपनी दादी के जीवन-संघर्ष यात्रा की खोजखबर लेनी शुरू की .. पता चला कि वे बड़े बाप की लाडली बेटी हैं.. विवाह भी संपन्न परिवार में हुआ था..परंतु मीनाबाजार में पति के पांव फिसल गये.. तीन पुत्रियों के साथ एक महिला फिर कैसे बिताती पहाड़ जैसा शेष जीवन ..वह भी बनारस में , जहाँ -”राड़, सांड, सीढ़ी, सन्यासी इनसे बचें तो सेवें काशी” जैसी उक्ति मर्दों की जुबां की शोभा थी..।
उस जमाने में पुनर्विवाह भी कहाँ आसान था..ऐसे में एक परित्यक्ता , वह भी तीन लड़कियों की माँ को भला कौन गले लगाता..?
उन्होंने इन पुत्रियों के साथ अपने जीवन में वह संघर्ष किया था, जिसे देख बड़े- बुजुर्ग दाँतों तले उँगली दबा लेते थें..।
उन्हें इस वेदना से तब मुक्ति मिली, जब उनका पुनर्विवाह करवा दिया गया.. अल्पकाल में ही उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई..और फिर इस अनपढ़ दम्पति ने यह संकल्प लिया कि उनका पुत्र भविष्य में उनकी तरह अपनी छोटी-सी मिठाई की दुकान पर हलवाई बनकर न तो भट्टी में कोयला झोंकेगा और न ही कड़ाही माँजेगा..वह तो पढ़-लिख कर राजाबाबू बनेगा..।
तीन पुत्रियों का विवाह , पुत्र को उच्चशिक्षा दिलवाने के साथ ही उसकी दादी ने शहरी इलाके में अपना घर भी खरीद लिया था..।
पुत्र का विवाह कोलकाता के एक सभ्रांत और संस्कारित परिवार की बेटी के साथ संपन्न करवा इस दम्पति ने अपना नैतिक कर्तव्य पूरा किया..।
पर बड़ा सवाल यह था कि उनकी हलवाई की दुकान कौन देखेगा..हिमांशु के दादा का स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था..और उधर आजीविका के साधन के अभाव में उसके पिता का अधिकांश समय ससुराल में कटता था..जहाँ का ठाठबाट देख वे हीनभावना से ग्रसित होते जा रहे थें.. । हिमांशु के दादा की अंतिम इच्छा थी कि वे अपने पौत्र को देख लें .. परंतु ऐसा संभव नहीं हो सका और वे भी उसकी दादी को जीवनपथ पर अकेला छोड़ चले गये..।
उधर, उसके पिता की ससुराल में न बनी और यहाँ बनारस में भी वे एक कुशल अध्यापक बनने के लिये अभी संघर्ष ही कर रहे थें..। सो, घर की आर्थिक स्थिति डांवाडोल होती चली गयी, साथ ही उनका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता गया..। सास-बहू के मध्य इस तंगहाली में अहम के टकराव से जिस मधुर संबंध में संवेदना एवं स्पंदन होना चाहिए वह स्वार्थ के तराजू पर चढ़ गया.. और फिर ऐसा हालात उत्पन्न हुआ कि जो पुत्र मासूम बालक-सा सदैव अपनी माँ के आँचल में दुबका रहता था..अब वह उनसे दूर हो चला..।
उसकी दादी ने पुत्रवियोग की इस अप्रत्याशित वेदना को अपने सीने में दबा लिया.. जिस घर को पैसा जोड़-जोड़ कर खरीदा था, वह उसकी मालकिन भी न रही..न ही कोई आसपास रहा..
अब वे एक कमरे में अकेले रहने लगीं ..हाँ, जब मन उदास होता था तो अपना दर्द बांटने पुत्रियों के ससुराल चली जाया करती थीं..।
और फिर घर वापसी पर जब कभी उन्हें अपने इकलौते पुत्र पर से अधिकार खोने का संताप होता था .. विकल हृदय का यह विस्फोट जुबां पर आ जाता था..ऐसा कर तब उनके उद्विग्न चित्त को तनिक विश्राम मिलता था..।
अब इसे गाली समझे, बद्दुआ कहें अथवा उनका रुदन..उनकी मनोदशा को कोई नहीं समझ पाता था..जिसे अपने बहू-बेटे से सम्मान और दो वक्त की रोटी की उम्मीद थी..जिस लालसा में कठोर से कठोर दुःख सहन कर अशिक्षित होकर भी अपने पुत्र को उस जमाने में उच्चशिक्षा दिलवाई थी.. इस स्नेह- समर्पण का क्यों कोई मोल नहीं..? वह क्यों जीवनदायिनी गंगा माँ से बहता पानी बन गयी .. बंद कमरे में उनकी सिसकियों को किसी ने नहीं सुनी ..।
अंततः उनके हृदय में सुलगती यह आग दावानल बन गयी.. जिसमें उनके अपने ही प्रियजन एक-एक भस्म होते गये..।
वह विद्यालय जो हिमांशु के माता- पिता के अथक परिश्रम की कमाई थी..जिसके निर्माण के लिये दादी ने अपना प्रिय बैठका ( किसी मकान के आगे का कमरा ) छोड़ दिया था, वे पीछे के कमरे में चली गयी थीं .. उन्हें इस त्याग के लिए घर की बनी दो वक्त की रोटी मिला करती थी..साथ ही चाय की वह प्याली , जिसके लिए वे सुबह-शाम दरवाजे की ओर टकटकी लगाये अपनी पौत्री का पदचाप सुनने का प्रयत्न करती थीं..।
दादी के निधन के पश्चात वह स्कूल भी नष्ट हो गया और सबकुछ बिखर गया..।
हाँ, यह बद्दुआ ही थी कि जिस परिवार के बच्चे अपनी कक्षाओं में विशिष्ट पहचान रखते थें , उनकी शिक्षा अधूरी रह गयी। परिस्थितियों ने उन दोनों ही भाइयों को अपना घर त्यागने के लिये विवश कर दिया.. वह स्वप्न जिसे इनके अभिभावकों ने देखा था कि वे अपने शिक्षित पुत्रों और पुत्रवधुओं के साथ अपने विद्यामंदिर को विस्तार देंगे.. समाज में उनकी प्रतिष्ठा और ऊँची होगी, वह बिखर गया..उनकी इकलौती लाडली पुत्री के लिये ससुराल पराया हो गया..वह अपने पुत्र के साथ बुझे मन से सदैव के लिये मायके आ गयी..जिसने अपने पिता के मृत्यु से दो दिन पहले अपनी माँ के आँखों के समक्ष ही दम तोड़ दिया..।
और दादी का वह दुलारा पौत्र , जिसके आगमन की प्रतीक्षा उन्होंने मृत्युशैया पर अंतिम सांस तक की..उस तंग कमरे में जहाँ उनकी देखरेख करने कोई नहीं आता था.. वह भी उनकी सुधि लेने नहींं आया..।
वह निष्ठुर हिमांशु तो वर्षभर पूर्व ही अपनी वृद्ध दादी को एकाकी छोड़ आजीविका की तलाश में बहुत दूर जा चुका था..उसे आज भी याद है कि उसकी प्यारी दादी ने किस तरह से डबडबाई आँखों से ट्रेन के डिब्बे में उसे चढ़ते देखा था.. सम्भवतः उन्हें आभास हो गया था कि यह आखिरी मुलाकात है..।
वापस घर लौटने पर हिमांशु को उसके मित्र ने बताया था - " दादी कितनी बेचैनी से तुम्हारे पत्र का इंतजार किया करती थी और फिर धीरे-धीरे वे खामोशी के चादर में लिपटते चली गयीं.. आखिरी बार तुम्हें देखने की लालसा लिये अनंत - यात्रा पर निकल गयीं ..। "
नियति की यह कैसी क्रूरता थी कि जिस दादी ने अपने भोजन की थाली से सदैव उसका भूख मिटाया.. जो अपने आँचल में छुपा कर उसके लिये रोटी लाती थी..वह उनका अंतिम दर्शन करने न आ सका..।
वापस लौटने पर दादी का सूना कमरा देख .. आत्मग्लानि से चीत्कार कर उठा था हिमांशु ..।
दादी की याद में उस बंद दरवाजे को देख तड़पता रहा वह पूरी रात..
गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी
करोगे याद तो हर बात याद आएगी..
किस तरह से वह रात उसने अकेले गुजारी होगी, जब उसे ऐसा लगता हो कि बगल वाले कमरे से दादी पुकार रही है.. वैसे तो ऊपरी मंजिल पर उसके सभी अपने ही बसे हुये थें.. हँसी-ठहाके की आवाज भी सुनाई पड़ रही थी..किन्तु उसे सांत्वना देने कोई नहीं आया..किसी ने जलपान को भी नहीं पूछा..उसने दो रात भूखे ही गुजार दी थी इसी कमरे में.. और एक दिन वह सबकुछ छोड़कर पुनः भागा , कभी वापस नहीं आने के लिये..किन्तु यादों की जंजीरों ने उसे यूँ जकड़ा कि आज, दादी के नेत्रों से बही वही अश्रुधारा उसकी पहचान बन गयी है .. निश्चित ही उनकी वह बद्दुआ उसे भी लगी है..बीमार -लाचार यह व्यक्ति अपनों में बेगाना बना स्नेह के दो बूंद के लिए प्यासा भटक रहा है..
जिसे भी उसने अपना समझा ,उनसभी ने निर्ममता से उसकी हर खुशियों को अपने पांव तले कुछ यूँ रौंदा है, ताकि वह पुनः संभल न पाए..वह धीरे-धीरे अपंगता की ओर बढ़ रहा है.. अपाहिज कहलाने के लिये .. ।
( तो यह है एक सभ्य एवं संस्कारी परिवार की छोटी-सी दर्दभरी कहानी .. ऐसी परिस्थितियाँ न उत्पन्न हो..इस आप भी चिंतन करें , नमस्कार।)
-व्याकुल पथिक
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (०१-१२ -२०१९ ) को "जानवर तो मूक होता है" (चर्चा अंक ३५३६) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आपका बहुत-बहुत आभार अनीता बहन, मंच पर चर्चा में मेरी रचना को शामिल करने के लिए।
Deleteहृदय विदारक करुण कथा शशि भाई । व्यथा हो या आध्यात्म आपकी लेखनी की छाप अमिट होती है ।
ReplyDeleteजी आपका स्नेहाशीष बना रहे दी..
ReplyDeleteप्रणाम।
दिल से निकली दुआ अगर पूरी होती हैं तो बद्दुआ भी अपना असर जरूर दिखती हैं ,सच कहा आपने ये दादी की बद्दुआ का ही असर होगा जो हिमांशु का पूरा परिवार नष्ट हो गया ,इसीलिए कहते हैं कि -एक दुखी और सच्ची आत्मा के बद्दुआ से बचना चाहिए ,बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति ,बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आई हूँ इसलिए आप की बहुत सी रचना पढ़ने से वंचित रह गई। सादर नमस्कार
ReplyDeleteजी , अच्छा
ReplyDeleteआपने प्रतिक्रिया दी..
अच्छा लगा..
निश्चित ही जिस तरह से हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है ,उसी तरह दुआ और बद्दुआ भी है..
प्रणाम।
अभी कहानी अधूरी है, हिमांशु को नष्ट होना शेष है..
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 01 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी आपका बहुत - बहुत आभार यशोदा दी..
ReplyDeleteKahani marmik ban padi hai
ReplyDeleteAkele pan ka dard burhape
me aam baat hai,beti bete
apne ghar parivar ke ho rahte hain,baal bachchon
Ki dunia me kho jate hain
Bade bujurgon se door
Mahanagar ke jungle me
Kabhi kabhi videsh me bhi
Ab baddua kahen ya aah
Kahen is tanav se bach
rahna bhi ek samsya hai.
Jahan abhav ho vahan bhav
ki gunjaish nahin hoti,vyakti
samvedan shunya hota jata
hai.aapne achchi kahani
likhi hai badhai.
अधिदर्शक चतुर्वेदी, वरिष्ठ साहित्यकार (मुंबई से)
ये कहानी किसकी है समझ गई मैं भाई ,आपने रूला दिया ।
ReplyDeleteसच वेदना जब उच्च शिखर पर जा बैठती है तो फिर अधोमुखी होती है दादी की वेदना कब बद्दुवा बन गई न जाने ।
पर हिमांशु के नष्ट होने की बात न करें कृपया भाई आप, हिमांशु को हम सब की अनंत शुभकामनाएं हैं प्रुभु हिमांशु को सुस्वाथ्य और अच्छी जिंदगी दे ।
एक बार और विनती है हिमांशु के अध्याय को दुखद न दिखाएं ।
जी दी..
ReplyDeleteआपका स्नेहाशीष बना रहे इसी तरह..क्या पता हिमांशु के लिये नियति ने क्या तय कर रखा है,अतः उसे अंतिम क्षण तक कर्मपथ पर डटे रहना चाहिए,मैं भी ऐसी ही कामना करता हूँ दी..
प्रणाम।
सही कहा दुखी मन से निकले शब्द बद्दुआ बन जाते हैं
ReplyDeleteकबीरदास जी के कथनानुसार
दुर्बल को न सताइये जाकी मोटी हाय
मुई खाल की श्वास सोंं सार भस्म ह्वे जाय
बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी ।
जी आभार आपका..
Deleteदादी जी का त्याग और उनकी सहनशीलता की ये हद बता रही है कि उनके हृदय में नेह और ममता का मीठा सागर था तो भला वे किसी को भी बद्दुआ कैसे दे सकती थी वो भी अपने परिवार को!!!
ReplyDeleteअकेलेपन में अक्सर इंसान खुद से ईश्वर से बातें करता है तो दादी जी का बुदबुदाना भी अपनी पारिस्थियों के लिए ईश्वर से शिकायत करना होगा।
या यूँ कहूँ कि उनकी दुआएँ थी जो उनके जीते जी हर विकट पारिस्थि में कुछ बिखरा नही और उनके जाने के बाद.....
और रही बात हिमांशु की तो अपने जिस लाड़ले पौत्र का वे अंतिम श्वास तक इंतजार करती रहीं जाते वक़्त भी उनपर खूब नेह आशीष लुटा कर गयीं होंगी। नारायण हिमांशु को भी स्वस्थ जीवन और आनंदमय लंबी आयु दें।
हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति ने मन को व्याकुल और हर पाठक की आँखों को नम कर रचना के भावों से जोड़ लिया। मार्मिक सृजन।
सादर नमन आदरणीय सर।
सुप्रभात 🙏
आप जैसी विदुषी लेखिका की प्रतिक्रिया पाकर अपार हर्ष हुआ । नारायण आपको आपके लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में सहायक हो । ऐसी कामना करता हूँँ।
Deleteप्रणाम।
शशि भाई , बड़ों की सेवा भारतीय समाज का शाश्वत संस्कार है | कहते हैं चलती का नाम गाडी है | इसी तरह जब तक कोई इन्सान सेहतमंद और कर्मशील है उसे किसी की जरूरत नहीं पड़ती | ज्यों- ज्यों इंसान दैहिक रूप से कमज़ोर होता जाता है उसे सहारे की जरूरत पड़ती है | आज हम स्वस्थ हैं किसी की सेवा में सक्षम हैं तो कल हम भी उसी स्थिति से गुजर सकते हैं , यही भावना दूरों की सेवा- सुश्रुषा को प्रेरित करती है | दादी और हिमांशु के बीच प्रगाढ़ स्नेह बंधन के साथ ये हर संयुक्त परिवार की कहानी है |सास -बहु का झगड़ा और परिणामस्वरूप बुढापे का तिरस्कार भी कहानी घर - घर की है | कहानी हो या जीवन दादी जैसे करुण पात्र जीवन के हर मोड़ पर अक्सर दिखाई पड़ते हैं | पर कहीं दादी अत्यधिक सक्षम हो तो बच्चों का सहारा बन जाती है वहीँ कई बार पोता- पोती बुजुर्गों को वो सभी सुख दे देते हैं जिनकी आशा उन्होंने अपने बच्चों से की होती है | इस कहानी में हिमांशु की प्रतीक्षा करती दादी और फिर उससे बिना मिले ही संसार से दादी के विदा होने का दृश्य बहुत मार्मिक है | यूँ दुआ और बददुआ अमूर्त और अरूप हैं | अदृश्य से मन के इन गहन भावों का असर देर - सवेर होता तो जरुर है ये माना जाता है | चाहे दादी बददुआ ना भी दे , पर प्रकृति का अपना न्याय है | जो व्यवहार हम दूसरों के प्रति करते हैं उसका प्रतिफल अक्सर हर कोई पाता जरुर है | संवेदनशील लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं|
ReplyDeleteजी दी, प्रकृति का न्याय ही शाश्वत सत्य है, इससे कोई नहीं बच सकता है।
ReplyDeleteशशि भाई, हिमांशु का दादी के साथ व्यवहार अच्छा था। वो दादी को प्यार करता था तो फिर दादी उसे बद्दुआ क्यों देंगी। दादी का आशीर्वाद ही मिलेगा उसे। आप अपने मन को अशांत न करे। हिमांशु ने अच्छे कर्म किए है तो फल भी अच्छा ही मिलेगा।
ReplyDeleteजी आभार, ज्योति दीदी।
Deleteशशि जी आपकी लगभग सभी रचनाएँ मन को झकझोर देती हैं। इस रचना को पढ़ कर मन भर आया है। सुबह में व्यस्तता के चलते पढ़ नहीं पाया था इसलिए प्रतिक्रिया नहीं दे पाया। परिवार में प्रायः दादी का प्यार-दुलार बच्चों के सर चढ़ कर बोलता है विशेष रूप से पौत्रों को दादी से बहुत लगाव होता है। दादी कभी बद्दुआएं मन से नहीं देती हां दुआ मन से जरूर देती हैं। आप इस ग्लानि से उबरें और तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रख कर स्वयं को दोषी न समझें।
ReplyDeleteनियति की भी जीवन में अहम भूमिका होती है। भूतकाल के ये सभी कटु अनुभव ही आपकी लेखनी को ऐसा बनाते हैं कि आपकी अधिकांश रचनाएं सीधे दिल में उतर जाती हैं।
जी आभार प्रवीण जी।
Deleteजब व्यक्ति स्वयं उसी दर्द से गुजरता है, तो उसे अपने अतीत में झांकने का अवसर मिलता है ।
उसे अपनी गलतियों का आभास होता है।
अंतर्व्यथा को उद्वेलित करती मर्मस्पर्शी कहानी ...
ReplyDeleteआज का सच भी तो यही है .भोगे हुए यथार्थ को कथा की पृष्ठभूमि का आधार बना शब्दों के संजाल ने ऐसे ताना-बाना से कथा शिल्प को कागज पर उकेर उसे कथा का रूप दे दी है.
भाई शशि गुप्त जी की यह कथा उन्हें सिद्धस्त कथाशिल्पी की श्रेणी में खड़ा कर दी है.यह उनके उज्ज्वल भविष्य का संकेत है..
बहुत बहुत बधाई शशि को...
जी आभार, अग्रज।
Deleteआपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया सदैव मेरा उत्साहवर्धन करती है।
अकेलेपन की वेदना और अपनों की अनदेखी असहनीय होती है शशि भाई बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी ।
ReplyDeleteजी आभार🙏
Deleteदादी माँ के संघर्षों की गहराई परिवार के लोग नहीं समझ पाए। इसलिए नहीं समझ पाए, क्योंकि वे किसी संघर्ष के दौर से कभी नहीं गुज़रे। किसी ने कहा है कि संघर्ष और दुःख आत्मा को पवित्र करती है और स्नान शरीर को पवित्र करता है। जीवन की परिपूर्णता के लिए संघर्ष और दुःख न्यूनाधिक मात्रा में आवश्यक है। दादी माँ इसलिए चिंता करती थी, क्योंकि वह सबके लिए बेहतरी चाहती। संघर्ष की आग में जलकर दादी माँ ने सबको पढ़ाया-लिखाया और उन्हें उचित मुक़ाम तक पहुँचाया। अफ़सोस उनका संघर्ष और त्याग ख़ुद के काम नहीं आया। धीरे-धीरे सब छोड़कर चले गए और पराए हो गए। दादी मां ने कोई बद्दुआ नहीं दी किसी को। दादी माँ की तड़प वही घर आँगन में व्याप्त थी। जिसने उनकी तड़प को नहीं सुना, उनकी पीड़ा को नहीं समझा, वे बिखर गए। शशि भैया, आपकी कहानी एक सबक है, जो मर्म को छू लेती है।
ReplyDeleteयह विचित्र कथा मेरे लिए भी एक पहेली है, क्योंकि दादी माँ को जिनसे कष्ट हुआ, उन्होंने भी अत्यधिक संघर्ष किया है,जिसके परिणाम स्वरूप धन तो आया परंतु संवेदनाएँ चली गयीं।
Deleteप्रतिक्रिया के लिए आभार अनिल भैया।🙏