हमारा गणतंत्रः हमारा प्रश्न
(जीवन की पाठशाला से)
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परंतु हे गणतंत्र ! क्या मैं एक प्रश्न तुमसे कर सकता हूँ ? बोलो यह लहरतंत्र तुम्हें मुँह क्यों चिढ़ा रहा है। हमारे समाज ने जिस राजनीति को " प्राण " के पद पर प्रतिष्ठित कर के रखा है। वह भीड़तंत्र के अधीन क्यों है ?
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हे गणतंत्र ! तुम्हारी जय हो -जय हो ।
सैकड़ों वर्ष के घोषित-अघोषित देशी- विदेशी राजतंत्र से मुक्तिदाता हमारे प्यारे गणतंत्र तुमसे ही हमारा मान है ,संविधान है और हमारा भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य है, किन्तु तुम भी कहाँ परम स्वतंत्र हो !
आजाद भारत में एक "लहरतंत्र" है, जिसका अंधभक्त " भीड़तंत्र " है , उसके समक्ष तुम्हारा पराक्रम जबतक बौना पड़ जाता है । नतीजतन, तुम्हारी ही प्रणाली में सेंधमारी कर जनसेवा का " ककहरा " तक न जानने वाले लोग हमारे रहनुमा बन जाते हैं, क्या ऐसी माननीयों को अपने से दूर रखने केलिए कोई सुरक्षा कवच विकसित किया है तुमने ?
अब तो तुम प्रौढ़ हो चुके हो और मैं भी, बचपन में जब से विद्यालय जाने योग्य हुआ, राष्ट्रीय पर्वों पर गुरुजनों के उद्बोधन के माध्यम से तुम्हें जानने की उत्सुकता बढ़ी और बड़ा हुआ तो पुस्तकों के पन्नों में तुम्हें ढ़ूंढने लगा।
26 जनवरी को राजपथ पर देश के विकास से संबंधित जो झाँकियाँ निकलती हैं , जवानों के शौर्य का प्रदर्शन होता है और साथ ही हमारे प्रतिनिधित्वकर्ता प्रधानमंत्री के भाषण में तुम्हारी झलक पाने को लालायित रहा हूँ । जब भी नीले अंबर की ओर मस्तक ऊँचा किये पूरे आन ,बान और शान के साथ अपने राष्ट्रीय ध्वज को लहराते देखता हूँ , हे गणतंत्र ! तब मनमयूर नाच उठता है और जुबां ये पँक्तियाँ होती हैं-
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा...
वास्तव में मुझे ऐसा प्रतीक होता है कि अपने तिरंगे में त्रिगुणात्मक शक्तियाँ समाहित हैं। हमारे विंध्यक्षेत्र की तीनों देवियों के तेज से युक्त है हमारा राष्ट्रीय ध्वज। महाकाली( संघारकर्ता स्वरूपा ) से शौर्य महासरस्वती ( सृष्टिकर्ता स्वरूपा ) से शांति एवं महालक्ष्मी ( पालनकर्ता स्वरूपा) से समृद्धि इसे प्राप्त है ।
इसके केंद्र में कालचक्र के स्वामी महाकाल सदाशिव विराजमान हैं।
परंतु हे गणतंत्र ! क्या मैं एक प्रश्न तुमसे कर सकता हूँ ? तुम्हारे होते हुए भी यह " लहरतंत्र " कहाँ से आ गया है ? तुमने तो ऐसी व्यवस्था दे रखी है कि अपने देश में जो भी कार्य हो, वह संवैधानिक तरीके से हो। तुमतो जनता द्वारा निर्मित प्रणाली के संचालन केलिए अस्तित्व में आये हो न ?
बोलो फिर यह लहरतंत्र तुम्हें मुँह क्यों चिढ़ा रहा है । हमारे समाज ने जिस राजनीति को " प्राण " के पद पर प्रतिष्ठित कर के रखा है। वह इस लहरतंत्र के अधीन क्यों है ?
तुम्हे याद है न कि वर्ष 1974 में जेपी ( लोकनायक ) के " सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन " से लहरतंत्र ने सिर उठाया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आपातकाल भी इसके समक्ष नतमस्तक हो गया । वर्ष 1977 में उनकी सत्ता का पराभव स्वतंत्र भारत में एक ऐतिहासिक घटना रही। और फिर वर्ष 1984 में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तब उनके पुत्र राजीव गांधी के नेतृत्व में आमचुनाव में तो कांग्रेस ने इस " सहानुभूति लहर " में इतिहास रच दी । कांग्रेस को लोकसभा में प्रचंड बहुमत ( 542 में से 415 सीट ) मिला था।
बाद में अपने यूपी एवं बिहार में कमंडल एवं मंडल की भी दहलाने वाली लहर रही न , मजहब एवं जातीय सियासत में देश का एक बड़ा हिस्सा धू-धू कर जल उठा था, जिसकी भयानक तपिश में कितने ही निर्दोषों की जान गयी। फिर आयी वर्ष 2014 में मोदी की लहर । अच्छे दिन आने वाले हैं , का यह मोदी मैजिक वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कायम रहा।
परंतु तुमने देखा होगा कि ऐसी चुनावी लहरों में गोता लगाने कैसे-कैसे लोग उतर आये थे। तब " गणतंत्र, तेरी गंगा मैली हो गयी " का चित्कार लोकतंत्र लगाने लगा था । तुम्हारा संविधान मौन रहने केलिए विवश क्यों था ।
कैसे समझाऊँ तुम्हें ?
अच्छा सुनो न ! जैसे मानव शरीर में हृदय सबसे शुद्ध रक्त कहाँ भेजता है, मस्तिष्क को ही न ? तो तुम्हारी गणतांत्रिक व्यवस्था में भी आम चुनाव प्रणाली तुम्हारा हृदय ही तो है , जहाँ से छनकर ( फिल्टर) शुद्धरक्त हमारे जनप्रतिनिधि के रुप में देश के सर्वोच्च सदन संसद अथार्त तुम्हारे मस्तिष्क में ही तो आता है ? क्यों चौक गये न, असत्य तो कुछ नहीं कहा मैंने ?
किन्तु यदि यह लहरतंत्र तुम्हारे हृदय के स्पंदन ( लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली ) को ही प्रभावित करने लगे तो क्या होगा ? फिर कैसे करोंगे अपनी व्यवस्था पर नियंत्रण ? तुम्हारे मस्तिष्क में वह उर्जा फिर किसतरह से संचालित होगी , जिससे देश की संवैधानिक व्यवस्था हमारे राष्ट्रपति महात्मा गांधी के स्वप्न के अनुकूल हो, जिसके लिए हर आमचुनाव में राजनेता जनता से वायदे पर वायदे करते आ रहे हैं।
और यही कारण है कि लूटतंत्र , झूठतंत्र और इनसे भी ऊपर जुगाड़तंत्र विकसित हो चुका है , क्यों ठीक कहा न मैंने ?
साथ ही नक्सलवाद, उग्रवाद और अलगाववाद भी है ।
हे गणतंत्र ! तुम्हारी धमनियाँ ( व्यवस्थित प्रणाली ) इनके आघात से क्षतविक्षत होती जा रही हैं। जिसकी शल्यक्रिया ( सर्जरी ) केलिए योग्य चिकित्सक ( मार्गदर्शन) नहीं मिल रहे हैं,
क्योंकि ऐसे कर्मठ पथप्रदर्शक इसी " लहरतंत्र " के कारण कुंठित , उपेक्षित एवं अपमानित होकर " भीड़तंत्र " में न जाने कहाँ गुम होते जा रहे हैं, वहीं गण ( जनता) गांधी जी के तीन बंदरों की तरह मूकदर्शक बन तंत्र ( सिस्टम ) पर प्रहार होते देख रहा है।
सत्यमेव जयते जो तुम्हारा आदर्श वाक्य है।
सच बताना तुम ,राजपथ पर विकास से संबंधित जो झाँकियाँ विभिन्न प्रांतों द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं , क्या उसके अनुरूप आम आदमी के अच्छे दिन आ गये हैं ?
गरीबी हटाओ का जुमला जब बुलंदी पर था, तो मैंने आँखें खोली थीं और इसके पश्चात देश में साइनिंग इंडिया की धूम रही , परंतु क्या कभी " राइजिंग इंडिया" का भी दर्शन कर पाऊँगा ,अपने जीवनकाल में , इस यक्षप्रश्न का उत्तर है तुम्हारे पास ?
जिन नौजवानों के पास सरकारी नौकरी नहीं है,जिनके पास व्यवसाय नहीं है,जो किसी के प्रतिष्ठान पर कार्यरत हैं , क्या इनके साथ तुम्हारी ही प्रणाली के अनुरूप समानता का व्यवहार हो रहा है ? किसी की प्रतिमाह आय लाख रुपये तक है और किसी की मात्र पाँच हजार । क्या यह न्यायसंगत है ?
क्यों समानता का अधिकार नहीं है उनके पास ?
हमारे देश के कर्णधार कहते हैं -" सबका साथ, सबका विकास।"
परंतु निम्न-मध्य वर्ग के अनेक ऐसे भी स्वाभिमानी लोग हैं,जो दिन-रात श्रम करके भी उसके प्रतिदान से वंचित हैं। किसी के बच्चे को हजार- पाँच सौ रुपये के चाकलेट,पिज्जा और आइसक्रीम कम पड़ रहे हैं और किसी का लाडला आज भी एक मिष्ठान केलिए तरस रहा है। उसके लिए एक गिलास दूध की व्यवस्था उसकी माँ नहीं कर पा रही है। हे गणतंत्र ! ऐसे अभिभावकों की डबडबाई आँखों में झाँक कर देखो अपनी परछाई ।
और एक बात पूछना चाहता हूँ कि हमारे जैसे करोड़ों भारतीय जो तुम्हारे संविधान में निष्ठा रखते हैं , वे " दास " और चंद सफेदपोश माफिया जो कानून को जेब में रखते हैं, वे " प्रभु " क्यों कहे जाते हैं ?
फिर कैसे होगी बापू के रामराज्य की स्थापना ? कैसे करें अमर शहीदों के बलिदान का मूल्यांकन??
बोलो न अब तो कुछ कि हम कैसे यह गीत गुनगुनाएँ -
मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती...' ।
वैसे, आज तुम्हारा वर्षगाँठ है , अतः तुमसे ऐसे कड़वे सवाल मुझे नहीं करना चाहिए फिर व्याकुल हृदय को कैसे समझाऊँ ।
- व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला से)
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परंतु हे गणतंत्र ! क्या मैं एक प्रश्न तुमसे कर सकता हूँ ? बोलो यह लहरतंत्र तुम्हें मुँह क्यों चिढ़ा रहा है। हमारे समाज ने जिस राजनीति को " प्राण " के पद पर प्रतिष्ठित कर के रखा है। वह भीड़तंत्र के अधीन क्यों है ?
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हे गणतंत्र ! तुम्हारी जय हो -जय हो ।
सैकड़ों वर्ष के घोषित-अघोषित देशी- विदेशी राजतंत्र से मुक्तिदाता हमारे प्यारे गणतंत्र तुमसे ही हमारा मान है ,संविधान है और हमारा भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य है, किन्तु तुम भी कहाँ परम स्वतंत्र हो !
आजाद भारत में एक "लहरतंत्र" है, जिसका अंधभक्त " भीड़तंत्र " है , उसके समक्ष तुम्हारा पराक्रम जबतक बौना पड़ जाता है । नतीजतन, तुम्हारी ही प्रणाली में सेंधमारी कर जनसेवा का " ककहरा " तक न जानने वाले लोग हमारे रहनुमा बन जाते हैं, क्या ऐसी माननीयों को अपने से दूर रखने केलिए कोई सुरक्षा कवच विकसित किया है तुमने ?
अब तो तुम प्रौढ़ हो चुके हो और मैं भी, बचपन में जब से विद्यालय जाने योग्य हुआ, राष्ट्रीय पर्वों पर गुरुजनों के उद्बोधन के माध्यम से तुम्हें जानने की उत्सुकता बढ़ी और बड़ा हुआ तो पुस्तकों के पन्नों में तुम्हें ढ़ूंढने लगा।
26 जनवरी को राजपथ पर देश के विकास से संबंधित जो झाँकियाँ निकलती हैं , जवानों के शौर्य का प्रदर्शन होता है और साथ ही हमारे प्रतिनिधित्वकर्ता प्रधानमंत्री के भाषण में तुम्हारी झलक पाने को लालायित रहा हूँ । जब भी नीले अंबर की ओर मस्तक ऊँचा किये पूरे आन ,बान और शान के साथ अपने राष्ट्रीय ध्वज को लहराते देखता हूँ , हे गणतंत्र ! तब मनमयूर नाच उठता है और जुबां ये पँक्तियाँ होती हैं-
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा...
वास्तव में मुझे ऐसा प्रतीक होता है कि अपने तिरंगे में त्रिगुणात्मक शक्तियाँ समाहित हैं। हमारे विंध्यक्षेत्र की तीनों देवियों के तेज से युक्त है हमारा राष्ट्रीय ध्वज। महाकाली( संघारकर्ता स्वरूपा ) से शौर्य महासरस्वती ( सृष्टिकर्ता स्वरूपा ) से शांति एवं महालक्ष्मी ( पालनकर्ता स्वरूपा) से समृद्धि इसे प्राप्त है ।
इसके केंद्र में कालचक्र के स्वामी महाकाल सदाशिव विराजमान हैं।
परंतु हे गणतंत्र ! क्या मैं एक प्रश्न तुमसे कर सकता हूँ ? तुम्हारे होते हुए भी यह " लहरतंत्र " कहाँ से आ गया है ? तुमने तो ऐसी व्यवस्था दे रखी है कि अपने देश में जो भी कार्य हो, वह संवैधानिक तरीके से हो। तुमतो जनता द्वारा निर्मित प्रणाली के संचालन केलिए अस्तित्व में आये हो न ?
बोलो फिर यह लहरतंत्र तुम्हें मुँह क्यों चिढ़ा रहा है । हमारे समाज ने जिस राजनीति को " प्राण " के पद पर प्रतिष्ठित कर के रखा है। वह इस लहरतंत्र के अधीन क्यों है ?
तुम्हे याद है न कि वर्ष 1974 में जेपी ( लोकनायक ) के " सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन " से लहरतंत्र ने सिर उठाया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आपातकाल भी इसके समक्ष नतमस्तक हो गया । वर्ष 1977 में उनकी सत्ता का पराभव स्वतंत्र भारत में एक ऐतिहासिक घटना रही। और फिर वर्ष 1984 में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तब उनके पुत्र राजीव गांधी के नेतृत्व में आमचुनाव में तो कांग्रेस ने इस " सहानुभूति लहर " में इतिहास रच दी । कांग्रेस को लोकसभा में प्रचंड बहुमत ( 542 में से 415 सीट ) मिला था।
बाद में अपने यूपी एवं बिहार में कमंडल एवं मंडल की भी दहलाने वाली लहर रही न , मजहब एवं जातीय सियासत में देश का एक बड़ा हिस्सा धू-धू कर जल उठा था, जिसकी भयानक तपिश में कितने ही निर्दोषों की जान गयी। फिर आयी वर्ष 2014 में मोदी की लहर । अच्छे दिन आने वाले हैं , का यह मोदी मैजिक वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कायम रहा।
परंतु तुमने देखा होगा कि ऐसी चुनावी लहरों में गोता लगाने कैसे-कैसे लोग उतर आये थे। तब " गणतंत्र, तेरी गंगा मैली हो गयी " का चित्कार लोकतंत्र लगाने लगा था । तुम्हारा संविधान मौन रहने केलिए विवश क्यों था ।
कैसे समझाऊँ तुम्हें ?
अच्छा सुनो न ! जैसे मानव शरीर में हृदय सबसे शुद्ध रक्त कहाँ भेजता है, मस्तिष्क को ही न ? तो तुम्हारी गणतांत्रिक व्यवस्था में भी आम चुनाव प्रणाली तुम्हारा हृदय ही तो है , जहाँ से छनकर ( फिल्टर) शुद्धरक्त हमारे जनप्रतिनिधि के रुप में देश के सर्वोच्च सदन संसद अथार्त तुम्हारे मस्तिष्क में ही तो आता है ? क्यों चौक गये न, असत्य तो कुछ नहीं कहा मैंने ?
किन्तु यदि यह लहरतंत्र तुम्हारे हृदय के स्पंदन ( लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली ) को ही प्रभावित करने लगे तो क्या होगा ? फिर कैसे करोंगे अपनी व्यवस्था पर नियंत्रण ? तुम्हारे मस्तिष्क में वह उर्जा फिर किसतरह से संचालित होगी , जिससे देश की संवैधानिक व्यवस्था हमारे राष्ट्रपति महात्मा गांधी के स्वप्न के अनुकूल हो, जिसके लिए हर आमचुनाव में राजनेता जनता से वायदे पर वायदे करते आ रहे हैं।
और यही कारण है कि लूटतंत्र , झूठतंत्र और इनसे भी ऊपर जुगाड़तंत्र विकसित हो चुका है , क्यों ठीक कहा न मैंने ?
साथ ही नक्सलवाद, उग्रवाद और अलगाववाद भी है ।
हे गणतंत्र ! तुम्हारी धमनियाँ ( व्यवस्थित प्रणाली ) इनके आघात से क्षतविक्षत होती जा रही हैं। जिसकी शल्यक्रिया ( सर्जरी ) केलिए योग्य चिकित्सक ( मार्गदर्शन) नहीं मिल रहे हैं,
क्योंकि ऐसे कर्मठ पथप्रदर्शक इसी " लहरतंत्र " के कारण कुंठित , उपेक्षित एवं अपमानित होकर " भीड़तंत्र " में न जाने कहाँ गुम होते जा रहे हैं, वहीं गण ( जनता) गांधी जी के तीन बंदरों की तरह मूकदर्शक बन तंत्र ( सिस्टम ) पर प्रहार होते देख रहा है।
सत्यमेव जयते जो तुम्हारा आदर्श वाक्य है।
सच बताना तुम ,राजपथ पर विकास से संबंधित जो झाँकियाँ विभिन्न प्रांतों द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं , क्या उसके अनुरूप आम आदमी के अच्छे दिन आ गये हैं ?
गरीबी हटाओ का जुमला जब बुलंदी पर था, तो मैंने आँखें खोली थीं और इसके पश्चात देश में साइनिंग इंडिया की धूम रही , परंतु क्या कभी " राइजिंग इंडिया" का भी दर्शन कर पाऊँगा ,अपने जीवनकाल में , इस यक्षप्रश्न का उत्तर है तुम्हारे पास ?
जिन नौजवानों के पास सरकारी नौकरी नहीं है,जिनके पास व्यवसाय नहीं है,जो किसी के प्रतिष्ठान पर कार्यरत हैं , क्या इनके साथ तुम्हारी ही प्रणाली के अनुरूप समानता का व्यवहार हो रहा है ? किसी की प्रतिमाह आय लाख रुपये तक है और किसी की मात्र पाँच हजार । क्या यह न्यायसंगत है ?
क्यों समानता का अधिकार नहीं है उनके पास ?
हमारे देश के कर्णधार कहते हैं -" सबका साथ, सबका विकास।"
परंतु निम्न-मध्य वर्ग के अनेक ऐसे भी स्वाभिमानी लोग हैं,जो दिन-रात श्रम करके भी उसके प्रतिदान से वंचित हैं। किसी के बच्चे को हजार- पाँच सौ रुपये के चाकलेट,पिज्जा और आइसक्रीम कम पड़ रहे हैं और किसी का लाडला आज भी एक मिष्ठान केलिए तरस रहा है। उसके लिए एक गिलास दूध की व्यवस्था उसकी माँ नहीं कर पा रही है। हे गणतंत्र ! ऐसे अभिभावकों की डबडबाई आँखों में झाँक कर देखो अपनी परछाई ।
और एक बात पूछना चाहता हूँ कि हमारे जैसे करोड़ों भारतीय जो तुम्हारे संविधान में निष्ठा रखते हैं , वे " दास " और चंद सफेदपोश माफिया जो कानून को जेब में रखते हैं, वे " प्रभु " क्यों कहे जाते हैं ?
फिर कैसे होगी बापू के रामराज्य की स्थापना ? कैसे करें अमर शहीदों के बलिदान का मूल्यांकन??
बोलो न अब तो कुछ कि हम कैसे यह गीत गुनगुनाएँ -
मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती...' ।
वैसे, आज तुम्हारा वर्षगाँठ है , अतः तुमसे ऐसे कड़वे सवाल मुझे नहीं करना चाहिए फिर व्याकुल हृदय को कैसे समझाऊँ ।
- व्याकुल पथिक
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 24 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआभार आपका यशोदा दी।
Deleteबेहतरीन, मेरे मन की बात कह दी आपने भाई।
ReplyDeleteजी दी, मेरी लेखनी सफल हुई ,आपके इस आशीर्वचन से।
Deleteजनतंत्र को कटघरे में खड़ा कर बिल्कुल सटीक और सार्थक प्रश्न किए हैं आपने भाई।
ReplyDeleteलाजवाब लेखन है आपका।
सामायिक चिंतन परक।
हालांकि उसका जवाब नहीं मिलेगा ,
क्योंकि मौन है जनतंत्र !
क्योंकि सवाल का जवाब जिनसे मांग सकते हैं वे ही सवाल बन कर खड़े हैं!
क्योंकि लहरतंत्र का स्वरूप बदल गया ,यही लहर तंत्र कभी स्वाधीनता का आधार बना था ,
हां लहर ही थी वो गांधी के आह्वान पर देश के इस छोर से उस छोर तक स्वाधीनता का अलख जगा था इसी लहर से ,
आज सोच कुंठित हो गई लहर बहक गई है।
आपका लेख बहुत सारगर्भित है ।
आज हर प्रबुद्ध नागरिक के मन का सवाल आपने पुछा है काश जनतंत्र लाठी वालों की भैंस नहीं बनता ।
ReplyDeleteजी उचित कहा कुसुम दी, लहरतंत्र आजादी के पूर्व देश केलिए सर्वस्व त्याग करने वालों के हाथ में था और अब सबकुछ लूटने वालों के हाथ में है।
ReplyDeleteमेरे देश की धरती बेरोजगारी और मंहगाई उगल रही है।देश के कर्णधार वोट बैंक की राजनीति में। बहुत सुंदर और सटीक लेखन 👌👌👌
ReplyDeleteआभार दी, इन्हीं बेरोजगारों में एक मैं भी हूँ।
Deleteआभार दी।
इतने व्याकुल भी न हों मित्र . आपकी रचनाएँ मुझे पसंद हैं ...मैं अपने ब्लॉग www.ramkaho.blogspot .com पर आपका स्वागत करने का इच्छुक हूँ . आपकी प्रतीक्षा में ...अरुण
ReplyDeleteबिल्कुल आज शाम आता हूँ।
Deleteअत्यंत सराहनीय ब्लॉग !आपकी व्याकुलता व्यर्थं नहीं है। आज गणतंत्र की व्याख्या बदली जा रही है और गणतंत्र के गण को मूक बघिर बनाने का प्रयास हो रहा है।
ReplyDeleteआभार डाक्टर प्रवीण साहब।
DeleteShashi ji ,aapke udgar se
ReplyDeleteavgat hua,,dukhti rag par
hath rakha hai aapne,sach
me gantantra aatmanusahasan ka tantra
hai, ek bhi stambh kamjor
hota hai to pura structure
jamin par aa jata hai.
ek arse se dhoort raj kar
rahe hain aur moorkh unki
baaton me aake raj kara
rahe hain, sapne gagan
Bihari hain man baune hain.
_ अधिदर्शक चतुर्वेदी, वरिष्ठ साहित्यकार।
शशी भाई,हर भारतवासी के मन में उठते सवालों को शब्दों में पिरोया हैं आपने। लेकिन कहते हैं न कि हर सवाल का जबाब नहीं होता। कुछ ऐसे ही हैं ये तमाम सवाल। बहुत चिंतनपरक आलेख।
ReplyDeleteज्योति दी, ऐसे सवालों का जवाब न मिलना ही अव्यवस्था को जन्म देता है आपका बहुत-बहुत आभार।
ReplyDeleteवाह ! लहरतंत्र में ध्वस्त होता गनतन्त्र । स्वार्थ, अनीति, मर्यादाहीनता, छल-कपट, विश्वासघात की लहर में सनातन संस्कृति की गरिमा चूर चूर हो रही है । 'हंस चूजेगा दाना और कौवा मोती खाएगा....:गीत कदम-ताल करता दिख रहा ।
ReplyDeleteककहरा न जानना ही माननीय होने की योग्यता और पात्रता है । 21वीं सदी के लिए ।
-सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।
जोरदार विश्लेषण व्याकुल पथिक की ओर से,साधूवाद।🙏🙏🙏🙏🙏
ReplyDelete- प्रसून पुजारी
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार (२६-०१ -२०२०) को "शब्द-सृजन"- ५ (चर्चा अंक -३५९२) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
-अनीता सैनी
आपका आभार अनीता बहन।
Deleteगणतंत्र हमारा कितना बदल गया है! हमारा प्रतिनिधि हमारे ही वोटों से पदासीन हो जाता है। हमारी उम्मीद है उससे बढ़ जाती हैं। हम उम्मीद करते हैं कि हमारी आकांक्षाओं पर वह खरा उतरेगा, पर परिस्थितियाँ भिन्न हो जाती है। मतभेद पैदा हो जाता है। उसके इर्द-गिर्द के लोग उसको एक अलग ही दुनिया में लेकर चले जाते हैं, जहाँ पर उससे मिलना बहुत मुश्किल हो जाता है। हम ख़ुद को कोसते हैं और शांत भी हो जाते हैं। छला हुआ महसूस करना भारतीय समाज की नियति बन चुकी है। इन सबके बावजूद भारत की जनता आशावान रहती है। मित्र, आप भी आशावान बने रहिए और ख़्वाब देखते रहिए। ख़्वाबों का मरना किसी भी स्थिति में सही नहीं है। आपके सवाल उचित हैं। सवाल हमेशा करते रहिए। आपका लेखन तमाम पाठकों की मन की बात कर जाता है। ईश्वर आपको प्रसन्न रखे।
ReplyDeleteउचित कहा एक नन्हा-सा दीपक अवश्य टिमटिमाते रहना चाहिए।
Deleteप्रतिक्रिया केलिए आपका हृदय से आभार अनिल भैया।
विचारोत्तेजक आलेख
ReplyDeleteजी प्रणाम, आभार।
Deleteआपकी एक बात मुझे बहुत अच्छी लगी 'लहरतंत्र'। वाकई कोई यदि सबसे अधिक प्रभावित है इससे तो वह है देश का एक खास बुद्धिजीवी वर्ग जिसकी दो शाखाएं हैं। एक बुर्जुआ 'लहरानुगामी' और दूसरा सर्वहारा 'लहर-प्रतिगामी'। ये दोनों वर्ग समय-समय पर अपनी सहूलियत से अपनी जगहों की अदला-बदली भी करते रहते है। यहीं इनका व्यवसाय है, इसीका खाते कमाते हैं और बुद्धिजीवी कहलाते हैं।
ReplyDeleteबहुत सार्थक लेख लिखा आपने। बधाई!!
क्रिया और उसकी प्रतिक्रिया यही तो सृष्टि का नियम है।
Deleteइस सार्थक एवं सारगर्भित टिप्पणी केलिए हृदय से आभार भाई साहब।
लेखनी सफल हुई।
हमारे विंध्यक्षेत्र की तीनों देवियों के तेज से युक्त है हमारा राष्ट्रीय ध्वज। महाकाली( संघारकर्ता स्वरूपा ) से शौर्य महासरस्वती ( सृष्टिकर्ता स्वरूपा ) से शांति एवं महालक्ष्मी ( पालनकर्ता स्वरूपा) से समृद्धि इसे प्राप्त है । इसके केंद्र में कालचक्र के स्वामी महाकाल सदाशिव विराजमान हैं।
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ,तिरंगे का ये विश्लेषण बेहद खूबसूरत हैं
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
जी आभारा आपका कामिनी जी माँ विंध्यवासिनी से जुड़ा यह जनपद मेरा कर्म क्षेत्र है। अतः वे ही सर्वव्यापी हैं।
Deleteआपकी चिंता वाजिब है. बस काश पुलवामा के बाद उन्माद की लहर पर सवार होते हुए हमें गणतंत्र की चिंता रहती तो आज इस गणतंत्र का यो अपहरण होते अपनी आंखों के सामने होते ना देखते.इतिहास में जो हुआ वह भी कम क्षति पहुंचाने वाला नहीं था. पर वर्तमान में तो हम इससे बच सकते हैं. लेकिन अब पछताये होत क्या? खैर इस लहर तंत्र की कीमत यह गणतंत्र -संविधान सब चुका रहे हैं. बापूजी तो खैर अपने ही देश में रोज़ गोडसे के जरिये मारे जा रहे हैं. सब शहीदों का बलिदान, माफीवीरों के हाथों अपमानित किया जा रहा है.
ReplyDeleteउचित कहा आपने, आभार।
Delete