गुरु पद पदुम पराग ...
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जीवन की पाठशाला से
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प्रेम दिवस ( वैलेंटाइन डे ) का आकर्षण इस छोटे से शहर में भी है। भँवरों का झुंड पराग की चाह में फूलों पर यूँ मडरा रहा है, मानों प्रणय के लिए कामदेव ने रति का आह्वान किया हो। बसंत की इस मादकता में कंचन एवं काँच की पहचान करना युवावर्ग के लिए जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा है।
परंतु ये कलियाँ क्यों इठला रही हैं, अभी तो परिपक्व भी नहीं हुई हैं , फिर प्रेम और वासना में भिन्नता को कैसे समझेंगी ?
सत्य तो यह है कि प्रेम का संबंध आत्मा से है न कि प्रकृति से। प्रकृति से जुड़े जीतने भी संबंध हैं , वह वासना है और प्रकृति तो परिवर्तनशील है, ऐसे में बाह्य संबंध किस तरह से स्थायी होंगे। जरा विचार करें आप भी।
वहीं, आत्मा अमर है, इसलिए जब हम ईश्वर को अपना प्रेम समर्पित करते हैं, तो उसमें निरंतर वृद्धि होती है और अंततः मीरा अपने आराध्य कृष्ण में समाहित हो जाती है , क्यों कि प्रेम में जयपराजय नहीं होती है। यहाँ दो का भेद नष्ट कर एकाकार हो जाता है। परंतु हम ऐसे कृत्रिम जीवन के अभ्यस्त हो गये हैं कि सहज प्रेम के निर्मल भाव को समझ ही नहीं पाते हैं।
पर मुझे क्या , जब ये कलिया असमय ही पराग एवं अनुराग से वंचित हो जाएँगी , तब स्वतः ही इश्क की खुमारी उतर जाएगी, नहीं आएगा इनके समीप फिर कोई भँवरा।
पास न आते भँवरे जिन फूलों के पास पराग नहीं
मिलन व्यर्थ है छलक सके जो आँखों से अनुराग
नहीं...
' महावीर प्रसाद ' मधुप ' की यह कविता संभवतः इन्होंने नहीं पढ़ी है ।
पत्रकार होने के कारण कुछ अधिक ही चिंतनशील हो गया हूँ।
और तभी यह गंभीर वाणी सुनाई पड़ती है - " पर उपदेश कुशल बहुतेरे..."
अरे ! ऐसा किसने कहा मुझसे , मैं तो इस स्नेह लोक का प्राणी नहीं रहा अब .. ?
" मूर्ख ! ये तो तुम्हारे गुरुदेव हैं। पहचना नहीं क्या इन्हें। "
-अंतर्मन के इस फटकार पर मैं चैतन्य हो गया था ।
हाँ, साक्षात गुरु महाराज ही तो हैं ये। वैसा ही श्वेत वस्त्र , केश रहित विशाल ललाट, मुखमंडल पर अद्भुत तेज एवं मंद-मंद मुस्कान ..।
प्रश्न उनका वही था -- लगभग तीन दशक पूर्व ' पराग और अनुराग ' के लिए तुमने मेरा आश्रम क्यों त्यागा था।
क्या तेरी यह खोज पूरी हुई ?
सत्य तो यही है कि मैंने जिस अनुराग के लिए आश्रम त्यागा था , उस लौकिक स्नेह के लिए जीवनपर्यन्त भटकता रह गया । जहाँ अनुराग ही न हो , वहाँ परागण ( पुष्प में परागकण का नर भाग से मादा भाग में स्थानांतरण ) क्या सम्भव है ? अतः परागकण की कामना निर्रथक रह गयी।
काशी में वह लघु आश्रम जीवन मेरी जिंदगी का एक ऐसा सुखद पड़ाव रहा है, जिसकी स्मृति मात्र से हृदय में पवित्रता , निश्छलता एवं निर्लिप्तता जैसे सकरात्मक भावों का संचार होने लगता है, चाहे वह क्षणिक ही क्यों न हो।
महापुरुषों की संगत एवं उनकी वाणी में ऐसा कौन सा ' पराग ' होता है , जो हमें अपरिष्कृत लौह से फौलाद ( इस्पात ) बना देता है ,यह तत्काल समझ में नहीं आता है। इसके लिए तपना होता है। गुरु के प्रति समर्पण और विश्वास होना चाहिए ।
जिसप्रकार गोस्वामी तुलसीदास को रहा-
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू ।।
( मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है)
अन्यथा गुरु की कृपा शिष्य को नहीं मिलती है। जब मैं प्रस्थान कर रहा था ,तो गुरु ने भी मुझे नहीं रोका। हाँ ,यह कह सजग अवश्य किया था कि माया का बंधन अत्यंत प्रबल होता है, अनुराग और पराग के पीछे मत भाग ।
हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि सद्गुरु कम बोलते हैं और जब भी बोलते हैं ,तो उसमें शिष्य का हित निहित होता है। हम किसी भी संत-महात्मा की शरण में जाए , तो उनकी वाणी को आत्मसात करने करने का प्रयत्न करे, यहाँ तर्क को प्रधानता न दिया जाए। सेवा, आज्ञापालन एवं संग ये तीन गुण हममें होना चाहिए। जो उपदेश उन्होंने दिया उसका अनुसरण करना चाहिए ।
ऐसा न करने के कारण ही मैं ' गुरु पद पदुम पराग ' से वंचित रह गया।और अब मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि गुरु के पास वह दिव्य दृष्टि होती है , जिससे वे शिष्य के भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों से अवगत होते हैं।
अतः मेरी अभिलाषा है कि मैं एक बार अवश्य अपने आश्रम स्थल पर जाऊँ और उस चबूतरे को जहाँ गुरुदेव का निवास था , नमन कर आऊँ।
धर्मशास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि तपोस्थली पर सदैव ऊर्जा प्रभावित होती है।
सम्भव है कि वह रज ( पराग) मेरे विकल हृदय में उस नवपुष्प का सृजन करे , जिसमें मानवता की सुगंध हो और जिस अनुराग से मैं वंचित रह गया , उसकी प्राप्ति हो जाए।
परंतु इसके लिए हमारा कर्म एवं उद्देश्य भी महान होना चाहिए।
- व्याकुल पथिक
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जीवन की पाठशाला से
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प्रेम दिवस ( वैलेंटाइन डे ) का आकर्षण इस छोटे से शहर में भी है। भँवरों का झुंड पराग की चाह में फूलों पर यूँ मडरा रहा है, मानों प्रणय के लिए कामदेव ने रति का आह्वान किया हो। बसंत की इस मादकता में कंचन एवं काँच की पहचान करना युवावर्ग के लिए जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा है।
परंतु ये कलियाँ क्यों इठला रही हैं, अभी तो परिपक्व भी नहीं हुई हैं , फिर प्रेम और वासना में भिन्नता को कैसे समझेंगी ?
सत्य तो यह है कि प्रेम का संबंध आत्मा से है न कि प्रकृति से। प्रकृति से जुड़े जीतने भी संबंध हैं , वह वासना है और प्रकृति तो परिवर्तनशील है, ऐसे में बाह्य संबंध किस तरह से स्थायी होंगे। जरा विचार करें आप भी।
वहीं, आत्मा अमर है, इसलिए जब हम ईश्वर को अपना प्रेम समर्पित करते हैं, तो उसमें निरंतर वृद्धि होती है और अंततः मीरा अपने आराध्य कृष्ण में समाहित हो जाती है , क्यों कि प्रेम में जयपराजय नहीं होती है। यहाँ दो का भेद नष्ट कर एकाकार हो जाता है। परंतु हम ऐसे कृत्रिम जीवन के अभ्यस्त हो गये हैं कि सहज प्रेम के निर्मल भाव को समझ ही नहीं पाते हैं।
पर मुझे क्या , जब ये कलिया असमय ही पराग एवं अनुराग से वंचित हो जाएँगी , तब स्वतः ही इश्क की खुमारी उतर जाएगी, नहीं आएगा इनके समीप फिर कोई भँवरा।
पास न आते भँवरे जिन फूलों के पास पराग नहीं
मिलन व्यर्थ है छलक सके जो आँखों से अनुराग
नहीं...
' महावीर प्रसाद ' मधुप ' की यह कविता संभवतः इन्होंने नहीं पढ़ी है ।
पत्रकार होने के कारण कुछ अधिक ही चिंतनशील हो गया हूँ।
और तभी यह गंभीर वाणी सुनाई पड़ती है - " पर उपदेश कुशल बहुतेरे..."
अरे ! ऐसा किसने कहा मुझसे , मैं तो इस स्नेह लोक का प्राणी नहीं रहा अब .. ?
" मूर्ख ! ये तो तुम्हारे गुरुदेव हैं। पहचना नहीं क्या इन्हें। "
-अंतर्मन के इस फटकार पर मैं चैतन्य हो गया था ।
हाँ, साक्षात गुरु महाराज ही तो हैं ये। वैसा ही श्वेत वस्त्र , केश रहित विशाल ललाट, मुखमंडल पर अद्भुत तेज एवं मंद-मंद मुस्कान ..।
प्रश्न उनका वही था -- लगभग तीन दशक पूर्व ' पराग और अनुराग ' के लिए तुमने मेरा आश्रम क्यों त्यागा था।
क्या तेरी यह खोज पूरी हुई ?
सत्य तो यही है कि मैंने जिस अनुराग के लिए आश्रम त्यागा था , उस लौकिक स्नेह के लिए जीवनपर्यन्त भटकता रह गया । जहाँ अनुराग ही न हो , वहाँ परागण ( पुष्प में परागकण का नर भाग से मादा भाग में स्थानांतरण ) क्या सम्भव है ? अतः परागकण की कामना निर्रथक रह गयी।
काशी में वह लघु आश्रम जीवन मेरी जिंदगी का एक ऐसा सुखद पड़ाव रहा है, जिसकी स्मृति मात्र से हृदय में पवित्रता , निश्छलता एवं निर्लिप्तता जैसे सकरात्मक भावों का संचार होने लगता है, चाहे वह क्षणिक ही क्यों न हो।
महापुरुषों की संगत एवं उनकी वाणी में ऐसा कौन सा ' पराग ' होता है , जो हमें अपरिष्कृत लौह से फौलाद ( इस्पात ) बना देता है ,यह तत्काल समझ में नहीं आता है। इसके लिए तपना होता है। गुरु के प्रति समर्पण और विश्वास होना चाहिए ।
जिसप्रकार गोस्वामी तुलसीदास को रहा-
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ।
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू ।।
( मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है)
अन्यथा गुरु की कृपा शिष्य को नहीं मिलती है। जब मैं प्रस्थान कर रहा था ,तो गुरु ने भी मुझे नहीं रोका। हाँ ,यह कह सजग अवश्य किया था कि माया का बंधन अत्यंत प्रबल होता है, अनुराग और पराग के पीछे मत भाग ।
हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि सद्गुरु कम बोलते हैं और जब भी बोलते हैं ,तो उसमें शिष्य का हित निहित होता है। हम किसी भी संत-महात्मा की शरण में जाए , तो उनकी वाणी को आत्मसात करने करने का प्रयत्न करे, यहाँ तर्क को प्रधानता न दिया जाए। सेवा, आज्ञापालन एवं संग ये तीन गुण हममें होना चाहिए। जो उपदेश उन्होंने दिया उसका अनुसरण करना चाहिए ।
ऐसा न करने के कारण ही मैं ' गुरु पद पदुम पराग ' से वंचित रह गया।और अब मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि गुरु के पास वह दिव्य दृष्टि होती है , जिससे वे शिष्य के भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों से अवगत होते हैं।
अतः मेरी अभिलाषा है कि मैं एक बार अवश्य अपने आश्रम स्थल पर जाऊँ और उस चबूतरे को जहाँ गुरुदेव का निवास था , नमन कर आऊँ।
धर्मशास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि तपोस्थली पर सदैव ऊर्जा प्रभावित होती है।
सम्भव है कि वह रज ( पराग) मेरे विकल हृदय में उस नवपुष्प का सृजन करे , जिसमें मानवता की सुगंध हो और जिस अनुराग से मैं वंचित रह गया , उसकी प्राप्ति हो जाए।
परंतु इसके लिए हमारा कर्म एवं उद्देश्य भी महान होना चाहिए।
- व्याकुल पथिक
शशि भाई, बिल्कुल सही कहा आपने कि सद्गुरु कम बोलते हैं और जब भी बोलते हैं ,तो उसमें शिष्य का हित निहित होता है। महापुरुषों की संगत एवं उनकी वाणी में ऐसा सा 'पराग' होता है, जो हमें अपरिष्कृत लौह से फौलाद (इस्पात) बना देता हैंंं।
ReplyDeleteजी ज्योति दी,
Deleteतत्काल तो मुझे इस सत्य का बोध नहींहुआ परंतु जीवन की इस कठिन पाठशाला में
अंततः यह सत्य समझ में आ ही गया,
यह भी गुरु की कृपा ही है।
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteआज सच्चा प्यार केवल tv के मुताबिक जो चले उसे ही माना जाता है, यूनिकनेस को प्रधानता नही है।
गुरुदेव ने कितना गुणा है
तब जाके हमारे पास ये बातें पहुंची है।
आइयेगा- प्रार्थना
जी भाई जी,
Deleteतभी कहा गया है बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (२५-०१-२०२०) को शब्द-सृजन-८ 'पराग' (चर्चा अंक-३६१२) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
आपका आभार अनीता बहन।
DeleteSundar prastuti hai, vaise
ReplyDeleteanubhavjanya gyan jyada
samriddh hota tha, Buddh
ne kaha tha ki Aatm deepo
Bhav।Dil dimag ki khidki
Khol dijiye aur jo tan man
par gujarti hai uska samuchit aakalan kariye,
Maan Sarasvati se Gyan,
Buddhi, Vivek mangiye,
aap pahad se takrane ki
shakti prapt kar lenge।
Shuru ki panktiyon ki babat kahungua kishoravastha aur yuvavastha ke sandhi kaal
me aisa daur aata hai ki har koi rumaniyat ki giraft
me aata hai, tabiyat shayrana hoti hai,opposite
sex ke prati aakarshan ka
aagaj hota hai।hamare yahan vasantotsav ki parampara rahi hai,videshi
Punji apne sath apni bhasha aur sanskriti hi
nahin lifestyle sath lati hai।
-श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी वरिष्ठ साहित्यकार
आभार अनिल भैया,बहुत सुंदर एवं सटीक प्रतिक्रिया ।
ReplyDeleteयह बड़प्पन वरिष्ठ पत्रकार श्री शशि गुप्त ही कर सकते हैं ।
ReplyDelete--
मिर्जापुर । पत्रकारों में श्री शशि गुप्त विचार प्रधान पत्रकार है । इनकी लेखनी में सरस्वती निवास करती हैं । सामाजिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि सभी विषयों पर पूरे आत्म-विश्वास से अपने अखबार 'गांडीव' या अपने ब्लाग 'व्याकुल पथिक' में लिखते हैं । लिखते वक्त बहुतों से विचार-मंथन भी करते हैं और जिसके विचार को लेखन में ढालते हैं, पूरा सम्मान देते हुए उसका उल्लेख भी करते हैं । उन्हें इस बात का भरोसा है कि इससे वे छोटे नहीं हो जाएंगे ।
चोरी 'मैंने तो कहते थे' वाले करते हैं ।
--
एक वाक्य में व्याकरण की ढेरों गलतियां करने वाले जब कोई शानदार लेखन पोस्ट करते या छापते हैं तो प्रथम दृष्टया समझ में आ जाता है कि यह 'लेखन-चोर' किस्म का पोस्ट है । वे समुद्र की तरह विस्तृत सोशल मीडिया में पूरे दिन घात लगाए बैठे रहते हैं कि कैसे कोई ऐसा पोस्ट दिखे जिस अपना बनाकर 'धंधा-पानी' बनाए रखे । धड़ाधड़ नाम एडिट कर उसे अपना आलेख/खबर बनाकर अपनी छुद्रता को जगजाहिर करते हैं ।
फिलहाल लचक (फुल फार्म-लेखन चोर कंट्रोल) फ्रंट इस पर अडिग है कि सिर से ऊपर जब पानी जा रहा है तो अब कोई शील-संकोच नहीं । कानून का सहारा लिया जाए और उचित कार्रवाई की जाए । लेखन चोरी से पीड़ित हर व्यक्ति को 'लचक' संस्था मदद करेगी ।
-सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।
©यह लोगो लेखक के विशेषाधिकार का है । इस चिह्न से स्पष्ट है कि मूल लेखक की बिना अनुमति के पूरा या किसी अंश का उपयोग नहीं किया जा सकता ।
क्षणभंगुर संसार की निस्सारता पर अत्यन्त सुन्दर लेख शशि भाई !
ReplyDeleteआभार मीना दी,
Deleteआपकी प्रतिक्रिया की मुझे सदैव प्रतीक्षा रहती है।
संसार के सारे संबंध ऐसे ही है , इनका वियोग तय है दी।
बहुत ही सुंदर ,हृदयस्पर्शी सृजन शशि जी ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteआपका बहुत आभार कामिनी जी, प्रणाम।
Deleteगुरु पद रज...बहुत सुन्दर भावप्रवण सुन्दर संदेश देता हृदयस्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteआभार दी।
Deleteजिंदगी का एक और रंग ।
ReplyDeleteसार्थक मर्म स्पर्शी अभिव्यक्ति ।
सुंदर प्रस्तुति।
जी दी अध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश करने का कुछ अलग ही आनंद होता है।
Deleteप्रणाम
बहुत गहन चिंतन से उपजा हुआ लेख है शशिभाई !
ReplyDeleteहर बार की तरह झकझोर कर जगानेवाला....
उठ जाग मुसाफिर भोर भई !!!
जी दी , आभार।
Deleteआपकी ब्लॉग में जब भी आती हूं आप किसी भी विषय वस्तु के विषय में इतनी अच्छी प्रस्तुति देते हैं कि मन मंत्रमुग्ध हो जाता है... भाषा शैली में इतनी जबरदस्त पकड़ है आपकी कि आप कठोर से कठोर बातों को भी सरलता से कह देते हैं ताकि पढ़ने वाले को जरा भी बुरा ना लगे.. हमेशा की तरह है यह लेख भी बहुत ही जबरदस्त लिखा है आपने.. प्रयुक्त बिंब इस बात के परिचायक हैं कि आप बहुत ही संवेदनशील लेखक हैं आपकी ब्लॉक में आना हमेशा ही सुखद अनुभव देता है
ReplyDeleteआपकी इस तरह की प्रतिक्रिया मुझ जैसे साधारण लेखक ( कहूँ या नहीं ?) के लिए अत्यंत ही गौरव का विषय है।
Deleteसादर प्रणाम।
सत्य तो यही है कि मैंने जिस अनुराग के लिए आश्रम त्यागा था , उस लौकिक स्नेह के लिए जीवनपर्यन्त भटकता रह गया । जहाँ अनुराग ही न हो , वहाँ परागण ( पुष्प में परागकण का नर भाग से मादा भाग में स्थानांतरण ) क्या सम्भव है ?
ReplyDeleteगंभीर प्रश्न करती आपकी लेखनी, कालजयी हो यही कामना है। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय।
आपके इस आशीर्वचन से मुझे अत्यंत हर्ष हो रहा है, ब्लॉग पर मेरा आना सार्थक हुआ।
Deleteसादर.प्रणाम भाई साहब।
Bhai sb,bahut hi sunder lekh.
ReplyDeleteAap nishchit hi ashram-sthal ho aayein. Taposthali sach me theek vaise hi urja-prabhavit hoti hai jaise kaha/ maana jata hai ki vidyalaya niyamit jaana chahiye kyon ki unki deewaarein bhi shiksha deti hain. 🙏🏻🌹
- एक वरिष्ठ अधिकारी की प्रतिक्रिया।
According to Stanford Medical, It's really the one and ONLY reason women in this country get to live 10 years more and weigh 19 KG less than us.
ReplyDelete(By the way, it is not related to genetics or some secret-exercise and EVERYTHING to do with "HOW" they are eating.)
P.S, What I said is "HOW", not "what"...
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