क्यों कैक्टस बना ?
*******
मरुस्थल में पला
काँटों से बना
कैक्टस-सा बढ़ा
औषधि से हूँ भरा।
पतझड़ में रहा अड़ा
वैसे ही अचल खड़ा
वक़्त जैसा भी रहा
रंग मेरा सम रहा ।
सही प्यास उर की
तपिस से नहीं डरा
हर सांस लड़ता रहा
ज़िंदा पर मैं रहा ।
दुष्काल जब पड़ा
आहार तब मैं बना
फिर ऐसा क्या हुआ ?
बेगानों में था खड़ा ।
झूठा-सा सबकों लगा
आँखों में उनकी गड़ा
छल अपनों का सहा
क्यों मैं कैक्टस बना ?
फूल मुझपे भी रहा
लाल रक्त-सा खिला
बागवां न कोई मिला
संघर्ष क्यों व्यर्थ गया ?
उपकार से रहा भरा
सबकी बुराई को हरा
दुत्कार फिर भी सहा
अभिनंदन से दूर रहा ?
दाना-पानी के बिना
भूरे वन में रहा हरा
जिजीविषा येही मेरी
एक सुंदर सच रहा..!!!
- व्याकुल पथिक
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मरुस्थल में पला
काँटों से बना
कैक्टस-सा बढ़ा
औषधि से हूँ भरा।
पतझड़ में रहा अड़ा
वैसे ही अचल खड़ा
वक़्त जैसा भी रहा
रंग मेरा सम रहा ।
सही प्यास उर की
तपिस से नहीं डरा
हर सांस लड़ता रहा
ज़िंदा पर मैं रहा ।
दुष्काल जब पड़ा
आहार तब मैं बना
फिर ऐसा क्या हुआ ?
बेगानों में था खड़ा ।
झूठा-सा सबकों लगा
आँखों में उनकी गड़ा
छल अपनों का सहा
क्यों मैं कैक्टस बना ?
फूल मुझपे भी रहा
लाल रक्त-सा खिला
बागवां न कोई मिला
संघर्ष क्यों व्यर्थ गया ?
उपकार से रहा भरा
सबकी बुराई को हरा
दुत्कार फिर भी सहा
अभिनंदन से दूर रहा ?
दाना-पानी के बिना
भूरे वन में रहा हरा
जिजीविषा येही मेरी
एक सुंदर सच रहा..!!!
- व्याकुल पथिक
वाह!!क्या बात कही है शशि जी आपने ।
ReplyDeleteदाना-पानी के बिना
भूरे वन में रहा हरा
जीजिविषा ये ही मेरी
एक सुंदर सच रहा ।
वैसे केक्टस के ऊपर खिले लाल फूल बडे खूबसूरत होते हैं ।
जी बिल्कुल , आभार आपका
Deleteइतनी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए।
वाह !लाज़वाब सृजन आदरणीय शशि भाई...
ReplyDelete👇
झूठा-सा सबकों लगा
आँखों में उनकी गड़ा
छल अपनों का सहा
क्यों मैं कैक्टस बना ?
फूल मुझपे भी रहा
लाल रक्त-सा खिला
बागवां न कोई मिला
संघर्ष क्यों व्यर्थ गया ?
आभार ,अनीता बहन,
Deleteबस यूँ ही लिख दिया।
होली तक तो अभी, प्रेस का टारगेट दिख रहा है न।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की शनिवार(२९-०२-२०२०) को शब्द-सृजन-१० ' नागफनी' (चर्चाअंक -३६२६) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
मंच पर स्थान देने के लिए आपका आभार अनीता बहन।
Deleteभावुकता से भरा हृदय मानवता की धरोहर है। यह कई संबंधों का विस्तार करता है और उसे मज़बूत भी करता है। लेकिन, अतिशय भावुकता दुर्भाग्य लेकर आती है। अचानक जब आपको ठेस पहुँचती है, तो आप आवेश में सब छोड़ देते हैं या फिर किसी के बनावटी ज़िद के आगे समर्पण कर जाते हैं। आपको लगता है कि आपने यह सब अपनों के लिए किया है। अपने भी भविष्य में आपके लिए कुछ करेंगे। आप सोचते हैं कि कोई आपके लिए भी सोचेगा! भाई, कोई नहीं सोचता। सत्य की राह पर चलने वाले प्रतिबद्ध लोग सिर्फ़ ठोकरें खाते हैं। यदि आप सब कुछ भुलाकर इन ठोकरों में आनंद खोज सकें, तो बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteकभी-कभी ऐसा भी होता है कि आप सब छोड़ देते हैं, क्योंकि आपको लगता है कि ऐसे लोगों के बीच में अब नहीं रहना है; जिन्होंने आपको ठगने का काम किया है। आप धीरे-धीरे सब त्याग दें, तब भी तो लोग प्रसन्न नहीं रहते। अंततः आप मान जाते हैं कि आपका त्याग किसी स्वार्थी व्यक्ति को अंतिम रूप से प्रसन्न नहीं कर सकता है। लेकिन, इस अनुभव और ज्ञान से अब फ़ायदा क्या? महसूस करते हैं कि अब आप असहाय हो गए हैं। तन-मन कमज़ोर हो गया है। अचानक एक दिन जिसने अपना स्वार्थ सिद्ध किया है; फिर पहलू बदलकर सामने आता है और आप फिर पिघल जाते हैं। परिणाम वही होता है, जो पहले हुआ था। एक बार आप फिर ठगे जाते हैं। यदि आप सब कुछ भुलाकर एक बार फिर ठगे जाने पर आनंदित महसूस कर सके, तो बहुत बढ़िया।
देखा गया है कि प्रसन्न होने वाले तो बिना बात के प्रसन्न रहते हैं। उनके पास कुछ भी नहीं होता, फिर भी आपके लिए दुआ करते रहते हैं। उन्हें आपसे कष्ट मिला है, फिर भी आपको कोई कष्ट नहीं देते हैं। ऐसे लोग आपके लिए प्रसन्नता और उन्नति चाहते। उनके हृदय में प्रेम और करुणा का स्थाई निवास होता है। ऐसे लोग विरल हैं, पर इस संसार में हैं। यदि आप ऐसे विरल लोगों को महसूस कर सकें, तो बहुत बढ़िया।
शशि भाई, संघर्ष करके परिस्थितियों को अनुकूल बनाना पड़ता है। कभी-कभी त्याग भी संघर्षों से भागना माना जाता है। बहरहाल, अब बीते हुए लम्हों को लौटाया नहीं जा सकता। आपने सिर्फ़ दिया है, लिया तो कुछ है ही नहीं। और अब देने के लिए भी कुछ नहीं बचा है। तो फिर क्या बचा है? बचा है, यह जीवन और हौसला। अब इन्हीं के सहारे संघर्ष करना है। यदि आप इन संघर्षों में आनंद खोज सकें, तो बहुत बढ़िया। मर्मस्पर्शी रचना शशि भाई। 🌹
क्या बात कही अनिल भैया आपने कि अब देने को भी कुछ नहीं बचा है - फिर यह तो बचा है कि सत्य का झुनझुना बजाते रहो..?
Deleteहांँ ,यहलौकिक जगत है और इसका सत्य ही यह है-
कसमे वादे प्यार वफ़ा सब
बातें हैं बातों का क्या
कसमे वादे प्यार वफ़ा सब
बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं ये झूठे
नाते हैं नातों का क्या...।
जो ठीक से जान गया वह आगे बढ़ गया ,अन्यथा भटकता रहा।
सादर ।
अनिल भैया ने तो रचना के भावों को बहुत सरलता से विस्तार दे दिया है
Deleteजी दी, सादर नमन।
Deleteबहुत सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteआपका बहुत आभार।
Deleteदाना-पानी के बिना
ReplyDeleteभूरे वन में रहा हरा
जिजीविषा येही मेरी
एक सुंदर सच रहा..!!!
शशि भाई,जिजीविषा के कारण ही जिंदगी हैं। बहुत सुंदर रचना।
आभार ज्योति दी..
Deleteमुझे तो लग रहा है कि यह नागफनी उसी आत्मज्ञानी अष्टावक्र की तरह जनक की सभा अथार्त तत्वज्ञान न जानने वाले लोगों के मध्य खड़ा हँसे हुये कह रह है ---- " इन चमारों की सभा में सत्य ( स्वरूप) का निर्णय हो रहा है, कैसा आश्चर्य ! इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है, मैं नहीं दिखाई पड़ता। ये चमार हैं। चमड़ी के पारखी हैं। इन्हें मेरे जैसा सीधा-सादा आदमी दिखाई नहीं पड़ता, इनको मेरा आड़ा-तिरछा शरीर ही दिखाई देता है। वह कह रहा है कि मंदिर के टेढ़े होने से आकाश कहीं टेढ़ा होता है? घड़े के फूटे होने से आकाश कहीं फूटता है? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है, इसकी तरफ तो देखो। मेरे शरीर को देखकर जो हंसते हैं, वे चमार नहीं तो क्या हैं? "
बहुत भावुक और हृदय स्पर्शी सृजन भाई आपकी लेखनी में स्याही की जगह आँसूं भरे हैं।
ReplyDeleteहृदय स्पर्शी सृजन के लिए बहुत बहुत बधाई।
आभार एवं प्रणाम कुसुम दी..।
Deleteसंघर्ष भरा जीवन हमें उस स्थान पर ला खड़ा करता है,जहाँ से हम दृष्टा बन इस जगत की सच्चाई परख सकते हैं और उसे शब्द देने का प्रयत्न भी ..।
ReplyDeleteफूल मुझपे भी रहा
लाल रक्त-सा खिला
बागवां न कोई मिला
संघर्ष क्यों व्यर्थ गया ?
प्रत्येक पंक्ति में वेदना का अहसास है।
नागफनी का संघर्ष व्यर्थ नहीं जाता। सूखे रेगिस्तान में जीवटता और जिंदगी का परिचायक है नागफनी। जहाँ हर तरह का पौधा दम तोड़ देता है, उस वातावरण में अपने दम पर जिंदा रहती है नागफनी।
ना हो कोई बागबां तो क्या हुआ,अपनी हरियाली को बचाए रखने और काँटों में भी सुंदर फूल खिलाने की हिम्मत रखती है तो केवल नागफनी !!!
बिल्कुल सही मीना दी..
Deleteसच्चा संत तो यह नागफनी ही है... तटस्थ भाव से सदैव स्वयं में स्थिर रहता है और अपना लाभ हानि न देख कर सदैव परोपकार का भाव रखता है।
उत्तम सृजन शशि जी... नागफनी का संपूर्ण जीवन अपने आप में जिजीविषा का एक बहुत ही बेहतरीन उदाहरण है
ReplyDeleteसभी रचनाकारों की कलम से एक से बढ़कर एक कविताएं का क्रियान्वयन हुआ है आज आपकी ज्यादा तकलीफ पड़ी है मैंने परंतु आज आपके अंदर का लेखक बहुत ही सुंदर कविता रच कर ले आया इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद
इतनी सुंदर एवं सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार.. अनु जी।
Deleteसही प्यास उर की
ReplyDeleteतपिस से नहीं डरा
हर सांस लड़ता रहा
ज़िंदा पर मैं रहा ।
बहुत सुंदर ,हृदयस्पर्शी सृजन शशि जी
आपका आभार कामिनी जी, आत्मबल बढ़ाने के लिए।
Deleteअतिसुन्दर रचना शशि जी, संघर्ष के काँटे ही जीवन में फूल खिलाते हैं।
ReplyDeleteजी प्रवीण भैया, आभार ।
Deleteआप सदैव उत्साहवर्धन करते रहते हैं।
अपने पत्रकारिता के करियर में आप जैसा जुझारु और संघर्षशील पत्रकार हमने आज तक नहीं देखा । आज जब स्वार्थ की पत्रकारिता हावी हो चुकी है ऐसे में आप उन चुनिंदा लोगों में से हैं जिनके लिए आज भी पत्रकारिता व्यवसाय न होकर एक मिशन है।
ReplyDeleteआप भी पत्रकार रहे हैं और हमलोगों के समय में पत्रकारिता एक मिशन ही था, बाद में विज्ञापन आदि का बोझ बढ़ते गया साथ ही हम पत्रकारों का लोभ भी , कुछ तो परिस्थितिजन्य कारणोंं भी पत्रकारिता का स्तर गिरा है प्रवीण भैया।
Deleteमरुस्थल में पला
ReplyDeleteकाँटों से बना
कैक्टस-सा बढ़ा
औषधि से हूँ भरा।
शशि भैया , कैक्टस के जीवन की व्यथा और उसके गुण दोनों आपकी भावपूर्ण रचना में समाहित हो गये हैं | आखिर कैक्टस के कैक्टस होने में उसकी अपनी क्या गलती है समझ नहीं आता | पर काँटों से भरा ये पौधा रेगिस्तान में जीवन का उदाहरन प्रस्तुत करता है वो भी बिना किसी प्रत्याशा के | अत्यंत भावपूर्ण रचना जो उद्वेलित करती है |
जी दी
Deleteसत्य कहा कैक्टस ने तो स्वयं हर दर्द सह कर भी संकटकाल में हर किसी का सहयोग किया, स्वयं को अर्पित किया पर उसे क्या मिला तिरस्कार ?
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