पंखुड़ी
( जीवन की पाठशाला से )
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माना कि समय से पूर्व पंखुड़ियों में परिवर्तित हो गया हूँ , किन्तु इत्र (सुगंध) बनने की सम्भावना अभी समाप्त नहीं हुई है ..
***************************
तमाशा चलता रहा
और पंखुड़ी मुरझाती रही
बेबस पड़ी ज़मीन पर
पाँव तले कुचली जाती रही..
क्या " पंखुड़ी की यही नियति है ..?
बचपन से ही भावुक प्रवृत्ति का होने से प्रियजनों का वियोग मेरे लिये असहनीय था और यह मेरी सबसे बड़ी दुर्बलता भी है।
कोलकाता में बाबा द्वारा मंगाए गये वे पाँच गमले , जिसमें विभिन्न प्रजातियों के पौधे लगे थें, के संरक्षण ( धूप- छाँव से बचाव ) केलिए मैंने न जाने कितनी बार सीढ़ियों पर ऊपर-नीचे की होगी । इनमें खिले हुये गुलाब के फूलों को मैंने कभी नहीं तोड़ा। इन्हें देख हर्षित होता और जब इनकी पंखुड़िया झड़ने लगती ,तो बालमन प्रश्न करता मुझसे -
" इनकी सेवा में तुझसे कहीं कोई कमी तो नहीं रह गयी । "
आज जब प्रियजनों के सानिध्य से वंचित हूँ , तब भी मेरा प्रश्न वही है,जो उस बाल्यावस्था में था । क्या मेरे स्नेह में कोई कमी थी ?
इस स्थिति केलिए दोषी कौन ? मैं और मेरा प्रारब्ध अथवा दोनों ही नहीं ? क्यों कि इस नश्वर जगत में ये जो लौकिक संबंध हैं, वे संयोग -वियोग पर आधारित हैं। मिलन तो एक ही सत्य है, ईश्वर एवं भक्त का -" तुम चंदन हम पानी।"
पुनः मूल विषय पर आते हैं। कलिकाएँ जब पुष्प बनकर खिलती हैं ,तो उसपर तितली, मधुमक्खियाँ एवं भँवरे सभी मंडराते हैं , तदुपरान्त फूल मुरझाने लगता है, उसकी पंखुड़ियाँ झड़ने लगती हैं , उसका रंग- रूप बिखर जाता है, तब क्या होता है ?
उस मुरझा रहे प्रसून की वेदना में सहयोगी बनना इनमें से किसी ने पसंद किया ?
ऐसा ही मनुष्य का जीवन है,यदि वह संकट में है, तो संबंध निभाने वाले विरले ही मिलते हैं। हाँ, उससे मुक्ति पाने केलिए, उसकी किसी दुर्बलता को बड़ा अपराध बता तिरस्कृत करने वाले अनेक हैं।
मुरझाई पंखुड़ियों के रुदन में किसी को रूचि नहीं होती है , साथ चाहिए तो हमें मुस्कुराते पुष्प सा दिखना होगा, परंतु कब तक ..?
अधिक खिलखिलाने वाले भी अंदर से खोखले होते हैं, कृत्रिमता का आवरण स्थायी नहीं होता है।
सत्य तो यही है कि यह जिंदगी हिस्सों में बिखरी हुई है। कली, फूल और उसकी पंखुड़ियाँ..यदि इन्हें प्रतीक समझ कर हम अपने सम्पूर्ण जीवन ( जन्म, यौवन ,जरा एवं मृत्यु ) पर दृष्टि डाले तो यही पाते है- " नानक दुखिया सब संसारा..। "
विचार करें , जन्म एवं विवाह के वर्षगाँठ समारोह क्या हैं ? हर वर्ष मृत्यु की " पदचाप " की और निकटता से अनुभूति का उत्सव है यह .. ।
जन्म लेते ही हम निरंतर बिखराव की ओर बढ़ते जाते है। संबंधों की परिभाषाएँ तेजी से बदलती रहती हैं। यौवनावस्था में जब हम सर्व समर्थ होते हैं ,तो पुष्प के सदृश्य ही प्रियजनों से घिर जाते हैं। हमें अपने सामर्थ्य पर अहम होता है , फिर वह समय आता है जब वृद्धावस्था में चकाचौंध भरे संसार में इस सत्य का बोध होता है कि यह क्या , अपना तो कोई नहीं !
ऐसा भी लगता है कि हमारा जीवन अपनों केलिए बोझ बन गया है। दो शब्द स्नेह के सुनने की लालसा हमें उसी मुरझाए सुमन का पुनः स्मरण करवाती है, जिसके विश्वसनीय मित्र भँवरे, तितलियाँ एवं मधुमक्खियाँ सभी उसकी उपेक्षा कर चले जाते हैं।
' जनम जनम का साथ है ' यह कह, कसमें खाने वाले पति-पत्नी भी अंततः एक दूसरे से बिछुड़ जाते हैं , क्योंकि कली का अंत बिखरी पंखुड़ियों के रूप में होना ही शाश्वत सत्य है। यही सृष्टि का नियम है।
हाँ , जब कभी परिस्थितिजन्य कारणों अथवा किसी के आघात से पुष्प लक्ष्य को प्राप्त किये बिना ही पंखुड़ियों में बिखर जाता है , तो उसका विकल हृदय चीत्कार कर उठता है-
" न माला गुथी और फूल कुम्हला गया ? "
यह ठोकर हमने क्यों खाई ? इस प्रश्न का उत्तर तलाशना तनिक कठिन है, क्यों कि इस दशा में किसी की सहानुभूति के दो शब्द हमें उसका निर्मल स्नेह समझ में आता है और इस धोखे में हम एक बार पुनः ठोकर खा बैठते हैं, जिंदगी तय समय से पूर्व पंखुड़ी बन बिखर जाती है ।
यद्यपि प्रत्येक मनुष्य सम्पूर्ण जीवन बिखराव को समेटते रहता है। ऐसा एहसास भी होता है कि वह सिमट रही है,परंतु ऐसा होता नहीं , फिर भी उसे समेटने की ललक उसे मंजिल तक पहुँचा देती है।
बिखराव को समेटने केलिए ही हमारे धर्मशास्त्रों में जिन चार आश्रम की व्यवस्था है। इनमें से ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ के पश्चात जो वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम है,यह हमारे बिखराव को सही दिशा देन केलिए ही है।
मेरे कहने का आशय यह है कि इन बिखरी पँखुड़ियों को सुंगधित इत्र में परिवर्तित करने में यदि पुष्प सफल रहा ,तो यही मानव जीवन की सार्थकता है।
एक संदर्भ यह है कि एक अंग्रेज लेखक ने एक स्थान पर उल्लेख किया कि वह जब भी जन्म लेगा तो गोस्वामी तुलसीदास को जीवित पाएगा। उसके कथन का अभिप्राय क्या यह रहा कि सशरीर तुलसी बाबा उसे जीवित मिलेंगे, नहीं यह जो उनकी कृतियाँ है , उन्हें अमरता प्रदान किये है। बुद्ध, नानक, कबीर और गांधी भी तो अनश्वर हैं ? इनकी विचार तरंगें हमें आकर्षित करती रहेंगी ।
श्री सत्यनारायण भगवान की कथा में लीलावती और कलावती नामक दो पात्रों का वर्णन है। आशय यह है कि हम अपनी लीला का विस्तार कर उसे ऐसी कला में रूपांतरित कर दे , जिसमें हमारी पहचान निहित हो।
यही " पंखुड़ी " की सार्थकता है।
अध्यात्म की दृष्टि से " पाँखुरी " ऐसा आवरण है जो परागकण का संरक्षण करता है और नवजीवन प्रदान करता है। उसका यह समर्पण व्यर्थ नहीं जाता।
इन्हीं से उत्पन्न नये पुष्पों को देख वह गुनगुनाता है-
रहें न रहें हम महका करेंगे
बन के कली बन के सबा
बाग-ए-वफा में..।
माना कि समय से पूर्व पंखुड़ियों में परिवर्तित हो गया हूँ , किन्तु इत्र ( सुगंध) बनने की सम्भावना अभी समाप्त नहीं हुई है ।
- व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला से )
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माना कि समय से पूर्व पंखुड़ियों में परिवर्तित हो गया हूँ , किन्तु इत्र (सुगंध) बनने की सम्भावना अभी समाप्त नहीं हुई है ..
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तमाशा चलता रहा
और पंखुड़ी मुरझाती रही
बेबस पड़ी ज़मीन पर
पाँव तले कुचली जाती रही..
क्या " पंखुड़ी की यही नियति है ..?
बचपन से ही भावुक प्रवृत्ति का होने से प्रियजनों का वियोग मेरे लिये असहनीय था और यह मेरी सबसे बड़ी दुर्बलता भी है।
कोलकाता में बाबा द्वारा मंगाए गये वे पाँच गमले , जिसमें विभिन्न प्रजातियों के पौधे लगे थें, के संरक्षण ( धूप- छाँव से बचाव ) केलिए मैंने न जाने कितनी बार सीढ़ियों पर ऊपर-नीचे की होगी । इनमें खिले हुये गुलाब के फूलों को मैंने कभी नहीं तोड़ा। इन्हें देख हर्षित होता और जब इनकी पंखुड़िया झड़ने लगती ,तो बालमन प्रश्न करता मुझसे -
" इनकी सेवा में तुझसे कहीं कोई कमी तो नहीं रह गयी । "
आज जब प्रियजनों के सानिध्य से वंचित हूँ , तब भी मेरा प्रश्न वही है,जो उस बाल्यावस्था में था । क्या मेरे स्नेह में कोई कमी थी ?
इस स्थिति केलिए दोषी कौन ? मैं और मेरा प्रारब्ध अथवा दोनों ही नहीं ? क्यों कि इस नश्वर जगत में ये जो लौकिक संबंध हैं, वे संयोग -वियोग पर आधारित हैं। मिलन तो एक ही सत्य है, ईश्वर एवं भक्त का -" तुम चंदन हम पानी।"
पुनः मूल विषय पर आते हैं। कलिकाएँ जब पुष्प बनकर खिलती हैं ,तो उसपर तितली, मधुमक्खियाँ एवं भँवरे सभी मंडराते हैं , तदुपरान्त फूल मुरझाने लगता है, उसकी पंखुड़ियाँ झड़ने लगती हैं , उसका रंग- रूप बिखर जाता है, तब क्या होता है ?
उस मुरझा रहे प्रसून की वेदना में सहयोगी बनना इनमें से किसी ने पसंद किया ?
ऐसा ही मनुष्य का जीवन है,यदि वह संकट में है, तो संबंध निभाने वाले विरले ही मिलते हैं। हाँ, उससे मुक्ति पाने केलिए, उसकी किसी दुर्बलता को बड़ा अपराध बता तिरस्कृत करने वाले अनेक हैं।
मुरझाई पंखुड़ियों के रुदन में किसी को रूचि नहीं होती है , साथ चाहिए तो हमें मुस्कुराते पुष्प सा दिखना होगा, परंतु कब तक ..?
अधिक खिलखिलाने वाले भी अंदर से खोखले होते हैं, कृत्रिमता का आवरण स्थायी नहीं होता है।
सत्य तो यही है कि यह जिंदगी हिस्सों में बिखरी हुई है। कली, फूल और उसकी पंखुड़ियाँ..यदि इन्हें प्रतीक समझ कर हम अपने सम्पूर्ण जीवन ( जन्म, यौवन ,जरा एवं मृत्यु ) पर दृष्टि डाले तो यही पाते है- " नानक दुखिया सब संसारा..। "
विचार करें , जन्म एवं विवाह के वर्षगाँठ समारोह क्या हैं ? हर वर्ष मृत्यु की " पदचाप " की और निकटता से अनुभूति का उत्सव है यह .. ।
जन्म लेते ही हम निरंतर बिखराव की ओर बढ़ते जाते है। संबंधों की परिभाषाएँ तेजी से बदलती रहती हैं। यौवनावस्था में जब हम सर्व समर्थ होते हैं ,तो पुष्प के सदृश्य ही प्रियजनों से घिर जाते हैं। हमें अपने सामर्थ्य पर अहम होता है , फिर वह समय आता है जब वृद्धावस्था में चकाचौंध भरे संसार में इस सत्य का बोध होता है कि यह क्या , अपना तो कोई नहीं !
ऐसा भी लगता है कि हमारा जीवन अपनों केलिए बोझ बन गया है। दो शब्द स्नेह के सुनने की लालसा हमें उसी मुरझाए सुमन का पुनः स्मरण करवाती है, जिसके विश्वसनीय मित्र भँवरे, तितलियाँ एवं मधुमक्खियाँ सभी उसकी उपेक्षा कर चले जाते हैं।
' जनम जनम का साथ है ' यह कह, कसमें खाने वाले पति-पत्नी भी अंततः एक दूसरे से बिछुड़ जाते हैं , क्योंकि कली का अंत बिखरी पंखुड़ियों के रूप में होना ही शाश्वत सत्य है। यही सृष्टि का नियम है।
हाँ , जब कभी परिस्थितिजन्य कारणों अथवा किसी के आघात से पुष्प लक्ष्य को प्राप्त किये बिना ही पंखुड़ियों में बिखर जाता है , तो उसका विकल हृदय चीत्कार कर उठता है-
" न माला गुथी और फूल कुम्हला गया ? "
यह ठोकर हमने क्यों खाई ? इस प्रश्न का उत्तर तलाशना तनिक कठिन है, क्यों कि इस दशा में किसी की सहानुभूति के दो शब्द हमें उसका निर्मल स्नेह समझ में आता है और इस धोखे में हम एक बार पुनः ठोकर खा बैठते हैं, जिंदगी तय समय से पूर्व पंखुड़ी बन बिखर जाती है ।
यद्यपि प्रत्येक मनुष्य सम्पूर्ण जीवन बिखराव को समेटते रहता है। ऐसा एहसास भी होता है कि वह सिमट रही है,परंतु ऐसा होता नहीं , फिर भी उसे समेटने की ललक उसे मंजिल तक पहुँचा देती है।
बिखराव को समेटने केलिए ही हमारे धर्मशास्त्रों में जिन चार आश्रम की व्यवस्था है। इनमें से ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ के पश्चात जो वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम है,यह हमारे बिखराव को सही दिशा देन केलिए ही है।
मेरे कहने का आशय यह है कि इन बिखरी पँखुड़ियों को सुंगधित इत्र में परिवर्तित करने में यदि पुष्प सफल रहा ,तो यही मानव जीवन की सार्थकता है।
एक संदर्भ यह है कि एक अंग्रेज लेखक ने एक स्थान पर उल्लेख किया कि वह जब भी जन्म लेगा तो गोस्वामी तुलसीदास को जीवित पाएगा। उसके कथन का अभिप्राय क्या यह रहा कि सशरीर तुलसी बाबा उसे जीवित मिलेंगे, नहीं यह जो उनकी कृतियाँ है , उन्हें अमरता प्रदान किये है। बुद्ध, नानक, कबीर और गांधी भी तो अनश्वर हैं ? इनकी विचार तरंगें हमें आकर्षित करती रहेंगी ।
श्री सत्यनारायण भगवान की कथा में लीलावती और कलावती नामक दो पात्रों का वर्णन है। आशय यह है कि हम अपनी लीला का विस्तार कर उसे ऐसी कला में रूपांतरित कर दे , जिसमें हमारी पहचान निहित हो।
यही " पंखुड़ी " की सार्थकता है।
अध्यात्म की दृष्टि से " पाँखुरी " ऐसा आवरण है जो परागकण का संरक्षण करता है और नवजीवन प्रदान करता है। उसका यह समर्पण व्यर्थ नहीं जाता।
इन्हीं से उत्पन्न नये पुष्पों को देख वह गुनगुनाता है-
रहें न रहें हम महका करेंगे
बन के कली बन के सबा
बाग-ए-वफा में..।
माना कि समय से पूर्व पंखुड़ियों में परिवर्तित हो गया हूँ , किन्तु इत्र ( सुगंध) बनने की सम्भावना अभी समाप्त नहीं हुई है ।
- व्याकुल पथिक
बहुत सुन्दर जानकारीपरक आलेख।
ReplyDeleteजी आभार गुरुजी।
Deleteजी भाई साहब,
ReplyDeleteआभार।
हम अपनी लीला का विस्तार कर उसे ऐसी कला में रूपांतरित कर दे , जिसमें हमारी पहचान निहित हो। यही " पंखुड़ी " की सार्थकता है। बहुत सुंदर संदेश, शशि भाई!
ReplyDeleteजी ज्योति दी
Deleteआपका आभार।
बेहतरीन व्याख्यान ,पंखुड़ी, पुष्प, बिखराव ,संयोग,वियोग
ReplyDeleteजीवन ,जन्म,लीला का विस्तार ,इत्र बनकर महकना,और अपने चरित्र द्वारा समाज को महकाना .....जीवन की सार्थकता शायद इसी में निहित
उचित कहा आपने, आपका आभार।
Deleteजन्म के बाद मृत्यु इस संसार की विशेषता है। जन्म और मृत्यु के बीच अंतर कितना होगा, यह मायने रखता है। और, इस अंतराल में कितने प्रकार की घटनाएँ होंगी, अर्थपूर्ण हैं। जैसे-जैसे घटनाएँ होती रहती हैं, वैसे-वैसे आपको अनुभव होते जाते हैं। इस अनुभव में पीड़ा होती है और आनंद भी होता है। आनंद यदि जीवन में भरपूर होता, तो रचनाओं का स्वरूप दूसरा होता। जब पीड़ा है, तो ज़ाहिर-सी बात है कि रचनाओं में वह परिलक्षित होती है। आपकी रचनाओं में आपकी पवित्र आत्मा कराहती रहती है। इस कराह में एक ऊर्जा भी है, जिसके फलस्वरूप आप प्रतिदिन कुछ लिख पाते हैं। पर, आप क्यों उम्मीद करते हैं कि कोई बढ़कर आपका हाथ थाम लेगा। कोई अपना आपको पुकारेगा। धीरे-धीरे सब भूल जाते हैं। बेहतर है कि आप भी धीरे-धीरे सबको भुला दें। अंततः सभी संबंधों का अंत हो जाता है। अंत ही अनंत विस्तार लिए हुए हैं। इस अनंत में प्रसन्नता को खोजना है और कुछ न कुछ अभिव्यक्त करते रहना है। आपको ख़ुद से भी मुक्त होना है और दूसरों से भी मुक्त होना है। आप जिस दिन मुक्त हो जाएंगे, बहुत हल्का महसूस करेंगे। होठों पर मुस्कान होगी और आँखों में चमक। सारा का सारा संसार बेहद सुंदर दिखेगा।
ReplyDeleteशशि भाई, हमेशा की तरह आपने बहुत बढ़िया लिखा है। हृदय को छू जाती है आपकी बातें। पाठक जब भी बढ़ता है तो ख़ुद से संवाद करने लगता है। कभी-कभी ख़ुद से नज़र चुराने के लिए बाध्य हो जाता है। ख़ैर, जीवन है तो यह सिलसिला चलता रहेगा। लिखते रहिए और मुक्त होते रहिए।
जी अनिल भैया,सदैव की तरह सुंदर एवं सार्थक प्रतिक्रिया।
Deleteअंत ही अनंत का मार्ग प्रशस्त करता है..
वाह!!बहुत खूब लिखते है आप..,मैं हमेशा आपकी रचना को फुर्सत से पढने के लिए रख देती हूँ । जनःम से मृत्यु तक पूरे जीवन का सार समाया है इसमें । दिल को अंदर तक स्पर्श करती है आपकी हर एक रचना ।
ReplyDeleteइसी तरह आपका स्नेहाशीष बना रहे शुभा दी।
Deleteहृदय से आभार।
सुंदर दर्शन।
ReplyDeleteजी आभार एवं प्रणाम भैया जी, मनोबल बढ़ाने के लिए
Delete. शशि जी आपकी लेखनी आश्चर्यचकित कर देती है हर विषय पर आप की पकड़ इतनी जबरदस्त होती है कि एक बार पढ़ना शुरू करो तो जब तक अंत नहीं होता है पढ़ना बंद ही नहीं कर पाती हूं अब तक आपके कई सारे लेख घटनाएं संस्मरण प्रेरक प्रसंग पढ़ चुकी हूं आज शब्द सृजन पर आपने लिखा है ...वह बहुत ही बेहतरीन है आध्यात्मिकता का एहसास हो गया..।
ReplyDeleteपंखुड़ी सरीखा ही हमारा जीवन है
अनु जी, आपका हृदय से आभार इतनी अच्छी प्रतिक्रिया केलिए..
Deleteपरमपिता आपको आनंद प्रदान करें ऐसी कामना करता हूँँ..
जहां तक मेरे लेखन का प्रश्न है तो साहित्य जगत से पूर्व में कभी जुड़ा नहीं था। हाँँ, गुरु महाराज की कृपा है। राह भटक गया था फिर से लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूँँ।
सादर।
"इन बिखरी पँखुड़ियों को सुंगधित इत्र में परिवर्तित करने में यदि पुष्प सफल रहा ,तो यही मानव जीवन की सार्थकता है।"
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर बात कही आपने ,फूलों के जैसा ही तो हमारा जीवन हैं बस अपने जीवन के झणभंगुरता को हम समझ नहीं पाते
और चार दिन के जीवन में खुशियों से ज्यादा दर्द बाँटना शुरू कर देते हैं।
एक आध्यात्मिक लेख ,सादर नमन आपको शशि जी
आपकी एवं रेणु दी की प्रतिक्रिया की मुझे सदैव प्रतीक्षा रहती है कामिनी जी, आभार।
Deleteशशि भाई आपकी लेखनी की जितनी तारीफ करूं कम ही होगी , आध्यात्मिक और आज का इतना सटीक संबंध आपने पँखुरी के माध्यम से बताया जाना तो सत्य है पर जाना भी कितना सार्थक होता है परमार्थी जन का ।
ReplyDeleteसुंदर, सार्थक, अभिनव।
आभार दी, यह आपका बड़प्पन है
Deleteइतनी सारी टिप्पणियों के मध्य मैं सिर्फ यह कहूंगा कि आपकी कलम यूँ ही प्रस्फुटित होती रहे और माँ सरस्वती आपसे कभी दूर न हों। पुनः वाह, बस।
ReplyDeleteजी बड़े भैया, आपके आशीर्वचन से मनोबल बढ़ता है।
Deleteअद्भुत और अद्वितीय चिन्तन प्रधान लेख शशि भाई !आपकी लेखनी को नमन 🙏
ReplyDeleteजी मीना दी
ReplyDeleteआपका स्नेहाशीष इसी तरह बना रहे, यही कामना है।
यात्रा जारी रहे।
ReplyDeleteआभार अग्रज।
Deleteप्रिय शशिभाई,
ReplyDeleteमेरे छोटे से फ्लैट की बालकनी को मैंने फूलों के गमलों से भर रखा है। मैं भी फूलों को तोड़ना बिल्कुल पसंद नहीं करती। प्रत्येक फूल को, प्रत्येक पंखुड़ी को अपना जीवन जीने का हक है ना ?
'क्यों लगता है मुझको ऐसा
सारी खुशियाँ हैं झूठी !
खिलने से पहले ही आखिर
क्यों इतनी कलियाँ टूटीं ?
क्यों गुलाब को ही मिलता है
हरदम काँटों का उपहार ?
क्यों रहता है कमल हमेशा
कीचड़ में खिलने को तैयार ?'(मेरी एक कविता से)
आपका यह लेख बहुत सुंदर और जीवनदर्शन पर आधारित है। मन के शोर का उद्गम खोजने जाते हैं, तब ऐसी रचनाओं के मोती हाथ लगते हैं !
दी आपकी इतनी सुंदर और सार्थक प्रतिक्रिया से मैं भाव विभोर हो उठा हूँँ,
Deleteऔर आपकी कविता ही जीवन का सत्य है।
बहुत ही सारगर्भित सुंदर लेखन शशि भैया | पंखुड़ी सा जीवन और जीवन सी पंखुड़ी | पर ये संसार की मुग्धता में खोया प्राणी इस नश्वरता को नकार अपनी अमरता के भरम में खोया रहता है | आपके लेखन का ये पक्ष बहुत प्रभावी और सराहनीय है | सस्नेह |
ReplyDeleteहाँ, दी
Deleteफिर गाड़ी अचानक सीटी बजाती है और प्लेटफार्म नजर आने लगता है। सबका साथ छोड़ जाता है ।