सूना आँगन
*************
बाहर बाजार में ख़ासी चहलपहल है। सभी अपने सामर्थ्य के अनुरूप ख़रीदारी करने में व्यस्त हैं । कार एवं बाइक से पत्नी और बच्चों के संग पुरुष नगर के छोटे-बड़े वस्त्रालय की ओर निकल पड़े हैं। जिनकी आय बिल्कुल सीमित है , ऐसे परिवार की महिलाएँ भी फुटपाथ पर लगे कपड़े की दुकानों पर दिख रही हैं। पर बच्चों की विशेष रुचि तो रंग एवं पिचकारियों में ही होती है।
वे ज़िद मचाए हुये है -" पापा वहाँ चलिए, यह देखिए ,मुझे तो इसे ही लेना है। "
गृहणियों ने पहले से ही गुझिया एवं मालपुआ बनाने के लिए पतिदेव से खोवा और मेवा लाने की फ़रमाइश कर रखी है। हाँ, अनेक सम्पन्न घरों में होली के ऐसे ख़ास पकवान भी अब तो बने बनाए ही किसी प्रतिष्ठित मिष्ठान भंडार से आ जाते हैं। भले ही उसमें घर जैसे स्नेह भरा स्वाद न हो, पर क्या फ़र्क पड़ता है। यह कृत्रित युग है। बस जेब खाली न हो।
और उधर,पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त अर्पित अपने हृदय के सूने आँगन को टटोल रहा था । उसके पास और है भी क्या काम ? ऐसे पर्व पर अपने जीवन के दर्द और शून्यता को समेटने में उसे स्वयं से कठिन संघर्ष करना पड़ता है। वह कभी महापुरुषों की तरह अपने व्याकुल मन को समझाता है, तो कभी किसी विदूषक-सा खिलखिलाने का स्वांग रचता है और जब फिर भी मन-आँगन का सूनापन दूर नहीं होता है, तो उसे अश्रुबुंदों से तृप्त करने का असफल प्रयत्न भी करता है।
तभी उसे अचानक अपने घर की याद आती है। वह आशियाना जिसे छोड़े तीन दशक हो गये
हैं। फिर भी जब कोई उससे पूछता, तब अपना स्थाई पता-ठिकाना बताने में उसे गर्व की अनुभूति होती रही कि इस मुसाफ़िरखाने से इतर वहाँ उस शहर में उसका अपना भी एक पुश्तैनी मकान है।
कितनी ही होली एवं दीपावली उसकी इसी घर में गुजरी हैं। वह आँगन जहाँ कृष्णजन्माष्टमी और सरस्वती पूजन पर्व पर अर्पित अपने कलाकौशल को भगवान जी के श्रीचरणों में समर्पित किया था । हाँ, वहीं आँगन जहाँ ग्रीष्म ऋतु में पानी भरे टब के समीप अपने भाई-बहनों के साथ बैठकर खूब शरारतें किया करता और वर्षा ऋतु में उसकी नाली बंद कर कागज की नाव चलाता था । काश.. ! वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी लिए उसका निश्छल बचपन फिर से वापस लौट आता।
अपने घर-आँगन का स्मरण कर अर्पित का मन भारी होने लगा था। विकल हो वह अपने सिरहाने रखी पानी की बोतल उठाता है। परंतु समय तेजी से पीछे भाग रहा था।
अरे हाँ ! अभी घर पर होता तो गुझिया बन रही होती । नये वस्त्र साथ में पिचकारी और रंग इत्यादि सामग्री अब तक आ गयी होती । इसी आँगन में तो छोटा ड्रम भर कर रंग घोलकर दिया करते थे,पिताजी। तीन घंटे तक घर के बाहर वाली गली में रंग डालने की छूट मिलती थी और ठीक बारह बजे फिर से वे दोनों भाई उसी आँगन में स्नान के लिए हाज़िर होते थे । मुख पर लगे रंग छुड़ाने में कुछ अधिक ही व़क्त लगता था। वह बार-बार आईना देखा करता था । तभी माता जी की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती थी- " चलो, ऊपर आ जाओ तुम सभी । भोजन का समय हो गया है। "
अभिभावकों का अनुशासन कुछ अधिक ही था। अतः ना-नुकुर करने की गुंजाइश कम होती थी। दहीबड़ा, कांजीबड़ा सहित अनेक पकवान सामने देख दोनों ही भाइयों एवं बहन के चेहरे पर चमक क्या आती थी कि उनके अभिभावकों की खुशी पूछे मत।
परंतु ,अबतो इन तीन दशक में घर के भोजन की थाली का स्वाद कैसा होता है , यह अर्पित भूल चुका है और ऐसे विशेष पर्व उसके लिए अनेक बार व्रत-उपवास की दृष्टि से उपयोगी साबित हुये हैं।
ख़ैर, वह व़क्त उसके अभिभावकों के लिए संघर्ष भरा था। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी , परंतु कठोर श्रम , अर्जित धन का अपव्यय न करना एवं अनुशासन , इन तीन गुणों के कारण उसका परिवार खुशहाल था।
जिसका परिणाम रहा कि उस सरस्वती मंदिर की स्थापना ,जिससे उसके अभिभावकों को अपने जीवन में प्रथम बार धनलक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी। जिस कारण उनके जीवनशैली एवं विचारों में भी परिवर्तन आने लगा , वहीं अर्पित ने भी किशोरावस्था से आगे की ओर पाँव बढ़ा दिया था।
आधुनिक सभ्य समाज के तीन प्रमुख गुण मिलावट, बनावट एवं दिखावाट से दूर रहने के कारण अर्पित अभिभावकों के स्वभाव में हो रहे इस बदलाव को सहन नहीं कर पा रहा था। अतः अपने कालेज का मेधावी विद्यार्थी होकर भी उसकी शिक्षा अधूरी रह गयी।
वह अपने घर-आँगन से दूर ममता के सागर की खोज में निकल पड़ा। और समय के साथ जमाने भर की ठोकर ने उसे कटी और फटी पतंग बना तमाशाइयों के पाँव तले कुचलने को विवश कर दिया था ।
परंतु अर्पित न थका- न रुका , वह संघर्ष का पर्याय बन गया था , क्योंकि उसके हृदय- आँगन में आशा की एक किरण जगमगा रही थी और आँखों में एक सपना तैर रहा था कि इस खूबसूरत दुनिया के झिलमिल सितारों भरे आँगन में कोई तो ऐसी भी प्रेम की गली होगी जिसमें उसका भी अपना छोटा-सा घर होगा।
स्नेह के इसी दो शब्द के लिए वह इस जग में जहाँ माँ जैसा ममत्व की तलाश में था , तो वहीं यह सभ्य समाज उसे अपने स्वार्थ के तराजू पर तौलते रहा । उसकी मासूमियत उसके लिए अभिश्राप बन गयी। उसके मन का आँगन सूना ही रह गया। उसकी सारी खुशियाँ उसकी माँ की चिता की राख जैसी बन चुकी थी और अब तो यही उसका अपना आभूषण है। यही नहीं , उसका वह पुश्तैनी घर भी अपना नहीं रहा। पिछले माह ही तो यह दुःखद सूचना मिली थी कि उसे भगोड़ा बता कर उसके परिवार के शेष सदस्यों ने मकान को बेच दिया है।
अथार्त वह पूरी तरह से बंजारा हो चुका है। इस समाचार के मिलते ही उसकी वेदना चरम पर पहुँच चुकी थी। जिस घर को विशेष पर्व पर वह स्वयं सजाया करता था। आँगन के पीछे स्थित उसका शयनकक्ष, जिसमें रखी अटैची, अलमारी और वह कमंडल जो उसकी दादी की आखिरी निशानी थी । सबकुछ छोड़ कर ही तो वह घर से निकला था,तो अब क्यों उसका हृदय चीत्कार कर रहा है ? इसलिए न कि जिस घर के आँगन ने उसके परिवार के चार-चार सदस्यों के पार्थिव शरीर को अपना हृदय पत्थर -सा कठोर कर संभाला था , उनके ही प्रियजनों ने उसका सौदा कर दिया ।
उह ! इतनी भी निष्ठुरता क्यों ? उसने तो कभी भी अपने घर के आँगन का बँटवारा नहीं चाहा था। वह अपना अधिकार तक इसपर से तीन दशक पूर्व छोड़ कर चला गया था, क्यों कर दिया गया फिर पूर्वजों की इस आखिरी पहचान का सौदा ?
अबतो अर्पित के शुभचिंतक तक उसे बुद्धू कह कर उसके इस त्याग पर परिहास कर रहे हैं। उनका कहना है कि तुम्हें भगोड़ा भी बता दिया गया, बावजूद इसके तुमने इस पैतृक सम्पत्ति में से अपने अधिकार को पाने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। हाँ, तभी तो तुम सच में भगोड़े हो.. भगोड़े । इसलिए जीवन में कुछ नहीं पाया और सुनो.. ! तुम्हारे मन का यह सूना आँगन इसीप्रकार हर पर्व पर तुम्हें तड़पाता, तरसाता एवं रुलाता रहेगा । कभी नहीं बसेगा इसमें किसी का प्यार।
- व्याकुल पथिक
बाहर बाजार में ख़ासी चहलपहल है। सभी अपने सामर्थ्य के अनुरूप ख़रीदारी करने में व्यस्त हैं । कार एवं बाइक से पत्नी और बच्चों के संग पुरुष नगर के छोटे-बड़े वस्त्रालय की ओर निकल पड़े हैं। जिनकी आय बिल्कुल सीमित है , ऐसे परिवार की महिलाएँ भी फुटपाथ पर लगे कपड़े की दुकानों पर दिख रही हैं। पर बच्चों की विशेष रुचि तो रंग एवं पिचकारियों में ही होती है।
वे ज़िद मचाए हुये है -" पापा वहाँ चलिए, यह देखिए ,मुझे तो इसे ही लेना है। "
गृहणियों ने पहले से ही गुझिया एवं मालपुआ बनाने के लिए पतिदेव से खोवा और मेवा लाने की फ़रमाइश कर रखी है। हाँ, अनेक सम्पन्न घरों में होली के ऐसे ख़ास पकवान भी अब तो बने बनाए ही किसी प्रतिष्ठित मिष्ठान भंडार से आ जाते हैं। भले ही उसमें घर जैसे स्नेह भरा स्वाद न हो, पर क्या फ़र्क पड़ता है। यह कृत्रित युग है। बस जेब खाली न हो।
और उधर,पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त अर्पित अपने हृदय के सूने आँगन को टटोल रहा था । उसके पास और है भी क्या काम ? ऐसे पर्व पर अपने जीवन के दर्द और शून्यता को समेटने में उसे स्वयं से कठिन संघर्ष करना पड़ता है। वह कभी महापुरुषों की तरह अपने व्याकुल मन को समझाता है, तो कभी किसी विदूषक-सा खिलखिलाने का स्वांग रचता है और जब फिर भी मन-आँगन का सूनापन दूर नहीं होता है, तो उसे अश्रुबुंदों से तृप्त करने का असफल प्रयत्न भी करता है।
तभी उसे अचानक अपने घर की याद आती है। वह आशियाना जिसे छोड़े तीन दशक हो गये
हैं। फिर भी जब कोई उससे पूछता, तब अपना स्थाई पता-ठिकाना बताने में उसे गर्व की अनुभूति होती रही कि इस मुसाफ़िरखाने से इतर वहाँ उस शहर में उसका अपना भी एक पुश्तैनी मकान है।
कितनी ही होली एवं दीपावली उसकी इसी घर में गुजरी हैं। वह आँगन जहाँ कृष्णजन्माष्टमी और सरस्वती पूजन पर्व पर अर्पित अपने कलाकौशल को भगवान जी के श्रीचरणों में समर्पित किया था । हाँ, वहीं आँगन जहाँ ग्रीष्म ऋतु में पानी भरे टब के समीप अपने भाई-बहनों के साथ बैठकर खूब शरारतें किया करता और वर्षा ऋतु में उसकी नाली बंद कर कागज की नाव चलाता था । काश.. ! वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी लिए उसका निश्छल बचपन फिर से वापस लौट आता।
अपने घर-आँगन का स्मरण कर अर्पित का मन भारी होने लगा था। विकल हो वह अपने सिरहाने रखी पानी की बोतल उठाता है। परंतु समय तेजी से पीछे भाग रहा था।
अरे हाँ ! अभी घर पर होता तो गुझिया बन रही होती । नये वस्त्र साथ में पिचकारी और रंग इत्यादि सामग्री अब तक आ गयी होती । इसी आँगन में तो छोटा ड्रम भर कर रंग घोलकर दिया करते थे,पिताजी। तीन घंटे तक घर के बाहर वाली गली में रंग डालने की छूट मिलती थी और ठीक बारह बजे फिर से वे दोनों भाई उसी आँगन में स्नान के लिए हाज़िर होते थे । मुख पर लगे रंग छुड़ाने में कुछ अधिक ही व़क्त लगता था। वह बार-बार आईना देखा करता था । तभी माता जी की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती थी- " चलो, ऊपर आ जाओ तुम सभी । भोजन का समय हो गया है। "
अभिभावकों का अनुशासन कुछ अधिक ही था। अतः ना-नुकुर करने की गुंजाइश कम होती थी। दहीबड़ा, कांजीबड़ा सहित अनेक पकवान सामने देख दोनों ही भाइयों एवं बहन के चेहरे पर चमक क्या आती थी कि उनके अभिभावकों की खुशी पूछे मत।
परंतु ,अबतो इन तीन दशक में घर के भोजन की थाली का स्वाद कैसा होता है , यह अर्पित भूल चुका है और ऐसे विशेष पर्व उसके लिए अनेक बार व्रत-उपवास की दृष्टि से उपयोगी साबित हुये हैं।
ख़ैर, वह व़क्त उसके अभिभावकों के लिए संघर्ष भरा था। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी , परंतु कठोर श्रम , अर्जित धन का अपव्यय न करना एवं अनुशासन , इन तीन गुणों के कारण उसका परिवार खुशहाल था।
जिसका परिणाम रहा कि उस सरस्वती मंदिर की स्थापना ,जिससे उसके अभिभावकों को अपने जीवन में प्रथम बार धनलक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी। जिस कारण उनके जीवनशैली एवं विचारों में भी परिवर्तन आने लगा , वहीं अर्पित ने भी किशोरावस्था से आगे की ओर पाँव बढ़ा दिया था।
आधुनिक सभ्य समाज के तीन प्रमुख गुण मिलावट, बनावट एवं दिखावाट से दूर रहने के कारण अर्पित अभिभावकों के स्वभाव में हो रहे इस बदलाव को सहन नहीं कर पा रहा था। अतः अपने कालेज का मेधावी विद्यार्थी होकर भी उसकी शिक्षा अधूरी रह गयी।
वह अपने घर-आँगन से दूर ममता के सागर की खोज में निकल पड़ा। और समय के साथ जमाने भर की ठोकर ने उसे कटी और फटी पतंग बना तमाशाइयों के पाँव तले कुचलने को विवश कर दिया था ।
परंतु अर्पित न थका- न रुका , वह संघर्ष का पर्याय बन गया था , क्योंकि उसके हृदय- आँगन में आशा की एक किरण जगमगा रही थी और आँखों में एक सपना तैर रहा था कि इस खूबसूरत दुनिया के झिलमिल सितारों भरे आँगन में कोई तो ऐसी भी प्रेम की गली होगी जिसमें उसका भी अपना छोटा-सा घर होगा।
स्नेह के इसी दो शब्द के लिए वह इस जग में जहाँ माँ जैसा ममत्व की तलाश में था , तो वहीं यह सभ्य समाज उसे अपने स्वार्थ के तराजू पर तौलते रहा । उसकी मासूमियत उसके लिए अभिश्राप बन गयी। उसके मन का आँगन सूना ही रह गया। उसकी सारी खुशियाँ उसकी माँ की चिता की राख जैसी बन चुकी थी और अब तो यही उसका अपना आभूषण है। यही नहीं , उसका वह पुश्तैनी घर भी अपना नहीं रहा। पिछले माह ही तो यह दुःखद सूचना मिली थी कि उसे भगोड़ा बता कर उसके परिवार के शेष सदस्यों ने मकान को बेच दिया है।
अथार्त वह पूरी तरह से बंजारा हो चुका है। इस समाचार के मिलते ही उसकी वेदना चरम पर पहुँच चुकी थी। जिस घर को विशेष पर्व पर वह स्वयं सजाया करता था। आँगन के पीछे स्थित उसका शयनकक्ष, जिसमें रखी अटैची, अलमारी और वह कमंडल जो उसकी दादी की आखिरी निशानी थी । सबकुछ छोड़ कर ही तो वह घर से निकला था,तो अब क्यों उसका हृदय चीत्कार कर रहा है ? इसलिए न कि जिस घर के आँगन ने उसके परिवार के चार-चार सदस्यों के पार्थिव शरीर को अपना हृदय पत्थर -सा कठोर कर संभाला था , उनके ही प्रियजनों ने उसका सौदा कर दिया ।
उह ! इतनी भी निष्ठुरता क्यों ? उसने तो कभी भी अपने घर के आँगन का बँटवारा नहीं चाहा था। वह अपना अधिकार तक इसपर से तीन दशक पूर्व छोड़ कर चला गया था, क्यों कर दिया गया फिर पूर्वजों की इस आखिरी पहचान का सौदा ?
अबतो अर्पित के शुभचिंतक तक उसे बुद्धू कह कर उसके इस त्याग पर परिहास कर रहे हैं। उनका कहना है कि तुम्हें भगोड़ा भी बता दिया गया, बावजूद इसके तुमने इस पैतृक सम्पत्ति में से अपने अधिकार को पाने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। हाँ, तभी तो तुम सच में भगोड़े हो.. भगोड़े । इसलिए जीवन में कुछ नहीं पाया और सुनो.. ! तुम्हारे मन का यह सूना आँगन इसीप्रकार हर पर्व पर तुम्हें तड़पाता, तरसाता एवं रुलाता रहेगा । कभी नहीं बसेगा इसमें किसी का प्यार।
- व्याकुल पथिक
पुरानी सुखद त्यौहारों से जुड़ी यादें वर्तमान में बहुत सताती हैं यदि यादों को सुखद बनाने वाले कारण वर्तमान का हिस्सा नहीं होते ।
ReplyDeleteउचित कहा आपने , त्वरित प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद प्रवीण भैया।
Deleteशशि भाई,पुरानी यादें पीछा नहीं छोड़ती। दिल को कचोटती रहती हैं।
ReplyDeleteउचित का ज्योति दी आपने
Deleteशशि भाई ,ये यादें होती ही ऐसी हैं ,ता-उम्र पीछा नहीं छोडती खासकर जब कोई विशेष त्यौहार या विशेष दिन हो ..।
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन ।
आपका बहुत बहुत आभार दी ,प्रतिक्रिया देने के लिए। सत्य यही है कि सामान्य जन पर्व तो अपनों के साथ ही मनाते हैं अथवा वह पर्व भी है जो संत मनाते हैं , जो प्रत्येक क्षण उन्हें आनंदित करता है, जिसके लिए कोई विशेष दिन नहीं होता।
ReplyDeleteShashi,pita ki mrityu ke.
ReplyDeletebaad zamania ghazi pur
gaya tha,vahan ka haal
dekha ,ek chachere bhai
gujar chuke the ,paanch
Putri ,do putr chhod kar
Aur un par taras kha kar
Laut aaya tha ki ek akele
par bhar adhik aa gaya hai
aur doosre ki bhi ek putri
vivah ke baad bhi mayke
me hai,mujhe bulaya gaya
taki ek bhai ko kheti ki jamin se vanchit karke
dusre ka kam aasan kar
dun,main ne socha ki
had par ho rahi hai,aur.
fir khet ka bantvara karaya
apna hissa bech ke ladki
ki shadi ki ,aur jiske hit
me bantvara karaya usi
bhai ki beti khel gayi,
makan ke badle prapt
jamin bhi daba ke baith
gayi ,aur hamari apni
Jamin bhi gher li ab usse
Mukadma laden to baat
bane,sabse jyada neech
ve hote hain jo sage sambandhi hote hain,
Jinke marne par hame
sar mundvana hota hai,
Ehsan karne vala vastutah
moorkh hota hai,un paancho anath ladkiyon
ki shadi hamare tyag ka
Pratifal thi, sab apne gharon me sukhi hain.
अधिदर्शक चतुर्वेदी वरिष्ठ साहित्यकार
Ab aap batao ki aap kis jamin par khade ho?
ReplyDeleteAkhbar collection, vitaran,
News collection, Advertise
ment collection ,writing,
Akhbar aap ko bees ki aayu se aaj tak ek saptah
tak station chhodne ki
ijajat nahin de saka varna
yah na hua hota,
Apni kismat me aag hai
Varna, Chandni nagvar
kis ko hai --agyant.
अधिदर्शक चतुर्वेदी वरिष्ठ साहित्यकार
आपके लेख पढ़ते समय हृदय द्रवित हो उठता है . अपनों का छल सदा दुखदायी होता है । मर्मस्पर्शी लेख शशि भाई ।
ReplyDeleteजी मीना दी, उचित कहा आपने कि मनुष्य हर कष्ट सहन कर लेता है, परंतु अपनों का विश्वासघात पीड़ादायी होता है।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 06 - 03-2020) को "मिट्टी सी निरीह" (चर्चा अंक - 3632) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
अनीता लागुरी"अनु"
आपका बहुत- बहुत आभार अनु जी मंच पर मेरी रचना को सम्मान देने के लिए।
Deleteहोली के अवसर पर बेहद मर्मस्पर्शी रचना शशि भाई।
ReplyDeleteबस भैया कुछ लिखते रहना चाहिए, जो भी हमारे पास सामर्थ्य है , उसका सही उपयोग हो । हर कोई व्यक्ति तो साहित्यकार हो नहीं सकता ,परंतु अपनी क्षमता अनुसार कुछ तो कर ही सकता है न..।
Deleteप्रतिक्रिया के लिए आभार अनिल भैया।
ख़्याल आते रहे और ख़्याल जाते रहे
ReplyDeleteख़्यालों में हम ख़ुद को समझाते रहे
कहने को बड़ी ख़ूबसूरत है ये दुनियाँ
फिर भी हम दिल पर चोट खाते रहे
किसी ने निभाया, तो कोई मुकर गया
कुछ खोते रहे, तो कुछ हम पाते रहे
देखा जब कोई ख़्वाब खुली आँखों से
तो बेचैनियों में हम सारी रात बिताते रहे
मंज़िलें दूर होती रहीं धीरे-धीरे दोस्तों
फिर भी उस ओर क़दम हम बढ़ाते रहे
ख़ुशियों का दौर हमारा बहुत छोटा रहा
तक़दीर के सामने शीश हम झुकाते रहे
जब भी उसकी हमें याद आयी 'अनिल'
अकेले में गीत हम उसके गुनगुनाते रहे
अनिल यादव
क्या बात है अनिल भैया, इस दुनिया का यही दस्तूर है।
Deleteबस इसी तरह से दिल को समझा लिया जाए ।उसे कोई ना कोई झुनझुना थमा दिया जाए ।ऐसे व्यक्ति के लिए तो यही उचित है।
अपनों से छलना मिलें तो पुरानी यादें और भी ज्यादा दुःख देने वाली हो जाती है ।
ReplyDeleteबहुत मर्म स्पर्शी आप बीती ।
लेखन की कला आपकी बैजोड़ है जीसमें लगता है दर्द चीख कर मौन हो गयि है ।
आपका बहुत- बहुत आभार कुसुम दी, आपकी प्रतिक्रिया की सदैव प्रतीक्षा रहती है।
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार कामिनी जी।
Deleteसौभाग्यशाली हूँ मैं कि मेरी रचना को इस विशेष अंक में स्थान मिला।
जिसे निश्छल प्रेम के बदले में अपनों की उलाहना मिलती है वह कभघ उस दर्द से बाहर नहीं निकल पाता कभी खुद को कभी वक्त को तो कभी समय को कोसकर दर्द में जीने की आदत सी हो जाती है। लोग भगोड़ा कहें तो कहें उसका दिल जानता है कि उस घर आँगन को छोड़ना किसी त्याग से कम नहीं।
ReplyDeleteबहुत हृदयस्पर्शी सृजन।
जी बहुत-बहुत आभार आपका इतनी सटीक प्रतिक्रिया के लिए, उचित कहा आत्मा की आवाज ही सत्य है। लोग क्या कहते हैं उससे क्या मतलब..।
Deleteसादर प्रणाम
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (7-3-2020 ) को शब्द-सृजन-11 " आँगन " (चर्चाअंक -3633) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
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