
(जीवन के रंग)
लॉकडाउन ने क्षितिज को गृहस्वामी होने के अहंकार भरे " मुखौटे" से मुक्त कर दिया था, तो शुभी भी इस घर की नौकरानी नहीं रही। प्रेमविहृल पति-पत्नी को आलिंगनबद्ध देख मिठ्ठू पिंजरे में पँख फड़फड़ाते हुये..
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क्षितिज कभी मोबाइल तो कभी टीवी स्क्रीन पर निगाहें गड़ाए ऊब चुका था। ड्राइंगरूम के ख़ूबसूरत फ़िश बॉक्स में मचलती रंगबिरंगी मछलियाँ और पिंजरे में उछलकूद करता यह मिठ्ठू भी आज उसका मनबहलाने में असमर्थ था । बड़ी बेचैनी से वह बारजे में चहलक़दमी कर रहा था,किन्तु उसकी मनोस्थिति को समझने वाला यहाँ कोई नहीं था। इस खालीपन से उसकी झुँझलाहट बढ़ती जा रही थी। न जाने क्यों उसे अपना ही आशियाना बंदीगृह सा दिखने लगा था, परंतु लॉकडाउन में जाए भी तो कहाँ ?
अबतक वर्षों से क्षितिज अपने व्यवसाय में इसतरह से उलझा रहा कि देश-दुनिया की उसे कोई ख़बर ही न रहती।रात वापस जब घर लौटता तो पिता की प्रतीक्षा में उदास दोनों बच्चे निद्रादेवी के आगोश में होते , किन्तु शुभी गैस चूल्हे पर तवा चढ़ाए अपने पति परमेश्वर का बाट जोहती,अर्धांगिनी जो थी। भले ही उसे इस पतिप्रेम का प्रतिदान न मिला हो। स्वयं को गृहस्वामी समझने का क्षितिज का दम्भ उसके दाम्पत्य जीवन के पवित्र रिश्ते पर भारी था । प्रतिष्ठित व्यवसायी होने के दर्प में मुहल्ले में किसी से दुआ- सलाम तक न था। यूँ कहें कि विवशता में कुछ संस्थाओं को चंदा देने के अतिरिक्त सामाजिक सरोकार से उसे मतलब नहीं था। व्यवसाय के लाभ-हानि को ध्यान में रखकर सगे- संबंधियों के यहाँ आना-जाना भी कम ही था।
पिता की मृत्यु के पश्चात सारी चल-अचल सम्पत्ति का इकलौता वारिस क्या बना कि व्यापार के विस्तार की महत्वाकाँक्षा सिर चढ़ बोलने लगी और फ़िर सौ- निन्यानबे के चक्रव्यूह में ऐसा जा फँसा , मानो उसके लिए व्यवसाय के अतिरिक्त सारे संबंध गौण हो। न मनोरंजन , न पत्नी और बच्चों के संग कभी किसी रमणीय स्थल का सैर । यहाँ तक कि मोनू और गोलू के स्कूल में जब पैरेंट्स मीटिंग होती,तो शुभी ही जाया करती थी। शुभी से विद्यालय के प्रधानाचार्य और कक्षाध्यापक यह प्रश्न करते कि उसके पति के पास अपने ही बच्चों के लिए थोड़ा भी वक़्त नहीं है ,तो सिर नीचे किये बहाना बनाने के अतिरिक्त वह भला और क्या उत्तर देती ? अब तो बच्चे भी घर की परिस्थितियों को समझने लगे थे और अपनी माँ की यह विवशता उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। परिणाम स्वरूप पिता के प्रति उनका आदरभाव नहीं रहा, फ़िर भी क्षितिज को अपने व्यापार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिख रहा था।
इस लॉकडाउन में जब उसके प्रतिष्ठान पर ताला लटका है, तो वह घर पर बैठकर क्या करे ? व्यवासायिक कामकाज ठप्प होने से उसका मोबाइल फोन भी साइलेंट है। किसी क़रीबी ने उसकी हाल ख़बर नहीं ली थी, क्योंकि ऐसे मधुर संबंधों को उसने अपनी व्यवसायिक व्यस्तता के कारण कब का लॉक कर रखा था।
घर में उसकी सर्वगुण संपन्न पत्नी शुभी और दो मासूम से बच्चे मोनू और गोलू थे। पैसे की कोई कमी नहीं थी। उसके पास यह एक सुनहरा अवसर था कि अपने बच्चों संग वक़्त गुजर सके, किन्तु यह क्या ? बच्चे थे कि उसके समीप तनिक देर ठहरते ही नहीं । वह आवाज़ देता रहता , किन्तु आया पापा कह न जाने वे कहाँ चले जाते और उधर पाकशाला में शुभी सबकी फ़रमाइश पूरी करने में व्यस्त रहती। वर्षों से उसकी यही दिनचर्या है कि सबके लिए अलग-अलग पसंद का व्यंजन तैयार करना ,फ़िर टिफ़िन पैक करना ,बच्चों को स्कूल भेजना इत्यादि अनेक कार्य ।
लॉकडाउन में गोलू और मोनू पहले से ही मीनू तय कर रखते थे कि नाश्ते और भोजन में कौन सा व्यंजन बनना है। चाइनीज फूड, केक और दक्षिण भारतीय व्यंजन की उनकी डिमांड पूरी करते -करते कब सुबह से रात हो जाती , शुभी को पता ही नहीं चलता। उसे अपने श्रीमान जी के पंसद का भी तो ध्यान रखना पड़ता था। समय पर चाय-नाश्ता और लंच- डिनर की पूर्ति के लिए वह हाज़िर थी। फुर्सत में बच्चों को पढ़ाती भी थी। उसे इस लॉकडाउन में भी अपने श्रीमान के सामने पड़ी खाली कुर्सी पर बैठने का कहाँ वक़्त होता था।
अपने ही कारोबार में खोये रहने वाला क्षितिज इन दिनों अपने ही घर में इस सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस) को सहने में न जाने क्यों असमर्थ था। वह चाहता था कि दोनों बच्चे तो कम से कम उसके साथ बैठा करें। शुभी ने एक -दो बार गोलू और मोनू को डाँट भी पिलाई कि जाओ पापा के पास रहो, लेकिन वे दोनों मासूम से बच्चे यह कह कर -- मम्मी ! आप भी न --हमें स्कूल का काम करने दो, जैसे सौ बहाने बनाते थे।
यह देख क्षितिज से बिल्कुल रहा नहीं जा रहा था। उसके हृदय में कृत्रित एवं स्वाभाविक भाव में द्वंद तेज होता जा रहा था। जिसकी झलक उसके आँखों में भी दिखने लगी थी। उसे समझ में आने लगा था कि इस व्यवसायिक जीवन में उसने क्या खोया और क्यों उसके परिवार के हँसते-मुस्कुराते जीवन को उसकी महत्वाकाँक्षा निगल रही है। जिस कारण आज उसे अपना यह आशियाना बंदीगृह जैसा लग रहा है। वह सोच रहा था कि ऐसी दौलत किस काम की , जब वह अपनी ही संतानों की दृष्टि में सम्मान का पात्र न हो। उनमें उसके लिए अपनत्व भाव न हो। उसके समीप बैठना भी उन्हें पसंद न हो।
यह संताप उसके अहम पर भारी पड़ने लगा था। हाँ ,वह स्वयं से प्रश्न कर रहा था कि इसमें इन मासूम बच्चों का क्या क़सूर ,इन्हें उसने कभी एक पिता का स्नेह दिया ही कहाँ है ? कभी इनके साथ बैठ कर लूडो , कैरमबोर्ड नहीं खेला। न कभी इनके संग स्कूल गया और न ही किसी टूर पर और शुभी के साथ उसने क्या किया है ? वह तो जब से ससुराल आयी है , उनसभी की सेवा में ही लगी है। मायके भी कभी किसी विशेष आयोजन में कुछ देर के लिए जाना हुआ,तो बच्चों संग स्वयं ही चली जाती थी। उसके संग वह(क्षितिज) नहीं , वरन् उसका ड्राइवर कार लेकर जाया करता था। फ़िर भी शुभी ने अपने घरवालों के समक्ष उसके सम्मान पर कभी न आँच आने दी।
आज क्षितिज की अंतरात्मा उससे प्रश्न कर रही थी कि एक पति और एक पिता के रूप में उसका कर्तव्य क्या था,मात्र इनसभी के लिए भौतिक संसाधनों की व्यवस्था ? उसकी यह हवेली इतने वर्षों से शुभी के लिए कारागार की तरह ही तो नहीं थी ? वह अपने व्यवसाय में इसतरह से क्यों रमा रह गया कि पत्नी और बच्चों की सारी आकाँक्षाओं की बलि चढ़ा दी ?
" यह कैसी महत्वाकाँक्षा थी तुम्हारी ,बोलो क्षितिज बोलो ! ", उसका अंतर्मन उसे बुरी तरह से झकझोर रहा था। शुभी के रूप में उसे कितनी सुंदर, सुशील और सुघड़ पत्नी मिली थी। हाँ,याद आया विवाह के पश्चात पिता जी ने एक दिन उससे कहा -" बेटे, दुर्भाग्य से अपनी माँ की ममता से तो तू बचपन में ही वंचित रह गया है ,किन्तु ये मेरी शुभी बिटिया है न, तेरी इस कमी भी पूरी कर देगी।"
और उसने क्या किया इसके पश्चात ,यही न कि उसके मायके वालों की निर्धनता का सदैव उपहास उड़ाया। गृहस्वामिनी के स्थान पर वह एक नौकरानी की तरह दिन-रात उसकी सेवा को तत्पर रह कर भी डाँट-फटकार सहती रहती ।
पति के द्वारा तिरस्कार की यह वेदना जब शुभी के लिए असहनीय होती तो उसके नेत्रों से बहने वाली अश्रुधारा का भी उसके लिए कोई मोल नहीं था। इसे त्रियाचरित्र से अधिक उसने कुछ न समझा।
बारजे पर खड़ा क्षितिज मन ही मन स्वयं को धिक्कारते हुये कह रहा था- " ओह ! शुभी मैंने तुम्हारे साथ कितना अन्याय किया। तुम्हारे व्यथित हृदय को दुत्कार के सिवा आज तक मैंने दिया ही क्या , फ़िर भी तुम विनम्रता की मूर्ति बनी प्रेम का गंगाजल छलकाती रही । बोलो कभी उफ़ ! तक क्यों नहीं किया?"
वर्षों बाद क्षितिज को अपनी भूल का आभास हुआ था। उसे शुभी में एक स्त्री के पत्नीत्व, मातृत्व और गृहिणीत्व जैसे सभी रूपों की अनुभूति हो रही थी। मानो प्यासे को ठंडे पानी की झील मिल गयी हो।
ढलती हुई आज की शाम क्षितिज के हृदय में प्रेम की ज्योति जला गयी थी। वह कमरे की ओर आता है। उसने देखा कि शुभी छत पर सूखे हुये वस्त्र लेने गयी है। यह जानकर क्षितिज आहिस्ता-आहिस्ता किचन की ओर बढ़ता है,और फ़िर जैसे ही शुभी आती है। ट्रे में चाय की प्याली लिये वह नटखट बच्चे की तरह मुँह छिपाये उसके पीछे जा खड़ा होता है।
" सरप्राइज़ ..!"
यकायक क्षितिज की यह चौकने वाली आवाज़ सुन शुभी जैसे ही उसकी ओर मुख करती है , वह विस्मित नेत्रों से उसे देखते ही रह गई ।
विवाह के इतने वर्षों पश्चात क्षितिज ने पहली बार चाय बनायी थी। सो, वह जैसी भी बनी हो, किन्तु इसमें जो चाह भरी थी , उसे देख शुभी के आँखें बरसने लगी थीं, किन्तु आज ये अश्रु मुस्कुरा रहे थे। उधर,क्षितिज रुँधे कंठ से सिर्फ़ इतना ही कह पायी थी - "शुभी! मुझे माफ़ कर दो..।"
" बस-बस अब अधिक कुछ भी न कहो जी । "
- उसकी होंठों पर अपनी कोमल उँगली रख शुभी क्षितिज से जा लिपटती है। उन दोनों के झिलमिलाते आँसुओं के पीछे प्रेम का इंद्रधनुष लहरा उठा था।
लॉकडाउन ने क्षितिज को गृहस्वामी होने के अहंकार भरे " मुखौटे" से मुक्त कर दिया था, तो शुभी भी इस घर की नौकरानी नहीं रही। प्रेमविहृल पति-पत्नी को आलिंगनबद्ध देख मिठ्ठू पिंजरे में पँख फड़फड़ाते हुये गोलू-मोनू का नाम ले जोर-जोर से आवाज़ लगता है।
यह देख क्षितिज पिंजरे का द्वार खोलकर कहता है -" जा मिठ्ठू ! आज से तू भी आज़ाद पक्षी है।"
वह क़ैदखाने का दर्द समझ चुका था। उसने यह निश्चय कर लिया था कि शुभी हो या मिठ्ठू , किसी को भी अब वह यह नहीं कहने देगा--पिंजरे के पक्षी रे, तेरा दर्द न जाने कोई।
- व्याकुल पथिक
वाह, शशि जी आपने बहुत खूबसूरती से अपनी इस कथा में लॉकडाउन के परिवार पर पड़ रहे सकारात्मक प्रभाव का बखूबी वर्णन किया है। इस लॉकडाउन ने हमें आत्म-चिंतन का सुनहरा अवसर दिया है और इसी के परिणामस्वरूप क्षितिज जैसे लोग आज पारिवारिक मूल्यों के महत्व को समझ पा रहे हैं। आज के भौतिवादी युग में माता-पिता,पत्नी और बच्चों को पर्याप्त समय दे पाना, रिश्तों की गर्माहट महसूस कर पाना ये अत्यधिक व्यस्तता के कारण असंभव सा हो गया है। मनुष्य मशीन बन कर रह गया है। उसकी भावनाएं शून्य सी हो चुकी हैं। ऐसे में ये लॉकडाउन रिश्तों की अहमियत को समझाने के लिए किसी वरदान से कम नहीं है।
ReplyDelete
Deleteजी प्रवीण जी,
बिल्कुल सही कहा आपने, संबंधों को समझने, उसकी अनुभूति एवं उनके मूल्यांकन साथ ही स्वयं में परिवर्तन का एक उचित अवसर है यह लॉकडाउन ।
नकारात्मक दौर में सकारात्मक ऊदय
ReplyDeleteसुन्दर रचना
प्रतिक्रिया के लिए आभार मित्र।
Deleteबहुत ही सुन्दर सबसे प्यारी रिश्तों की वास्तविकता को बहुत ही करीबी निगाह से महसूस किया गया है। साधुवाद व शुभकामनाएं
ReplyDeleteचंद्रांशु गोयल नगर विधायक प्रतिनिधि
शशि भैया,मैं बार बार अपने शब्दों के जलाशय में आपके लिए कीच ढूढता हु और खाली हाथ ही राह जाता हूं।कारण यह है कि इस कहानी के लिए मेरे पास कोई शब्द नही मिल रहे मानो।शायद इसी को कहते है स्पीकल्स।
ReplyDeleteकहानी में कही कही मैं अपने आप को भी ढूढने लगता हूँ।शायद ये अभी तक कि उत्तम कहानी है।��
मनीष जी ,
Deleteआपसभी की प्रतिक्रिया से मेरा निरंतर उत्साहवर्धन होता रहता है और ऐसा लगता है कि मैं भी समाज के प्रति अपना कुछ तो दायित्व निभा रहा हूँ।
पुनः आभार।
कुछ// स्पीचलेस
ReplyDeleteजी आभार गुरुजी
ReplyDeletePratispardha ke is daur mein aage badhne ke prayas me bahut kuchh
ReplyDeletePichhe chhutta jata hai
jiska samyak ehsas hone
tak khasa vakt gujar chuka
hota hai.
Achchi laghu katha hai,
Badhai
अधिदर्शक चतुर्वेदी ,साहित्यकार
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आज के परिवेश को चित्रित करती सुंदर लघुकथा...
बधाई सुंदर शब्द संयोजन के लिए भी...
-राजेंद्र मिश्र, साहित्यकार व पत्रकार
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अत्यंत सुंदर तथा सच्चाई को प्रदर्शित करने वाली कहानी।।👌👌
-पंकज मिश्र
अभूतपूर्व लॉकडाउन ने काफ़ी कुछ बदल दिया है। भूली-बिसरी चीज़ें याद आ रही हैं। हम अचानक उनके बीच पहुँच गए हैं, जिन्हें अपना समझते हुए भी उनसे बहुत दूर रहे। करण बहुत थे। बहरहाल, घर-परिवार में संवादों के कई आयाम सामने आ रहे हैं। बेहतर समझ विकसित हुई है। संबंध पहले से और अच्छे बने हैं। आपकी कहानी के किरदारों को शायद लॉकडाउन जैसी स्थिति का ही इंतज़ार था। बहुत बढ़िया लिखा है शशि भाई।
ReplyDeleteआभार अनिल भैया,
Deleteबस यही कामना करता हूँ कि यह लॉकडाउन ऐसे घरों को जहाँ सबकुछ होकर भी उदासी हो, उसे स्वर्ग से सुंदर बना दे ।
हमारे जैसे लोग भले ही एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे हैं, किन्तु औरों की खुशी में हमारी भी खुशियाँ समाहित रहती हैं।
शशि भैया , लॉक डाउन में जहाँ देश एक अविचल स्थिति में प्रतीत हो रहा है , वहीँ घर के भीतर एक आपसी स्नेह और सौहार्द का साम्राज्य ना जाने कितने वर्षों बाद स्थापित हुआ है |यद्यपि हर पति अपनी को नौकरानी ही समझता हो ऐसा नहीं है पर फिर भी हर दिन गृहस्थी की चुनौतियों से जूझने वाली गृहणी के रोजमर्रा के कार्यों का मूल्याङ्कन उसके साथ सारा दिन बिताये बिना पता नहीं चलता | क्षितिज जैसे अनगिन पति जरुर अपने व्यावसायिक लाभ के लिए परिवार की खुशियों अनदेखा करते हुए अपने परिवार से दूर चले जाते हैं | भले इ उनके मन में ये बहाना व्याप्त रहता है कि हम सब कुछ परिवार के लिए ही तो कर रहे हैं | चाहे कुछ भी हो पर पतिपत्नी के आपसी अथवा माता पिताके साथ बच्चो के संबंध समयाभाव के कारण बिगड़ते हैं | लोकबंदी ने परिवार के सभी सदस्यों को बेहतरीन ढंग से समझने का अनमोल अवसर दिया है | जिसकी परिणिति क्षितिज और शुभी के खोये प्रेम की प्राप्ति के रूप में हुई है | गृहस्थी के उतार चढाव को दर्शाती इस भावपूर्ण कथा के लिए आपको बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं| कड़ी वेदना से गुजरकर यदि खुशियाँ मन के द्वार पर दस्तक देती हैं तो उनका मूल्य कई गुना बढ़ जाता है | सस्नेह --
ReplyDeleteजी दी, आभार।
Deleteकाश ! ऐसा ही हो कि यह लॉकडाउन जीवन की उन पहलुओं को उजागर करता जाए जिसकी हम अनदेखी कर रहे हैं ।
दिल के छू लिया
ReplyDeleteआभार सुनील भैया।
Deleteअधिकांश भारतीय परिवारों की मनःस्थिति का आपने अपनी भावमयी लेखनी से चित्रण किया है। सुन्दर प्रस्तुति, आपको बहुत बहुत बधाई --ज्योत्सना मिश्रा
ReplyDelete****
नयी ताजगी के साथ नया नया उमंग भरने वाला, आपकी जबरदस्त लेखनी का ब्लाग बेहद सराहनीय है। मां सरस्वती आप पर प्रसन्न हैं।👌💐🙏
अनुराग दूबे
शशि भैया अपने हृदय स्पर्शी कहानी लिखी है।लॉकडाउन में लोग चिंतन के सागर में डूबकर अब तक किये अपने ही कार्यों की समीक्षा कर रहे हैं।किसी ने रुपयों के लिए परिवार और रिश्तों की कद्र नहीं की तो किसी ने अपने व्यवसाय को बीवी बच्चों से भी ऊपर रखा।जिंदगी में जिसे सबसे अधिक अहमियत (व्यापार) दी। वह लॉक है, जिसे नहीं दिया वह साथ है।
ReplyDelete-कृष्णा सिंह , छायाकार- पत्रकार।
"हिन्दुस्तान"
नयी ताजगी के साथ नया नया उमंग भरने वाला, आपकी जबरदस्त लेखनी का ब्लाग बेहद सराहनीय है। मां सरस्वती आप पर प्रसन्न हैं।👌💐🙏
ReplyDeleteअनुराग दूबे
ReplyDeleteआर्थिक पराधीनता के ऊपर कटाक्ष करता आपका लेख न जाने कितने लोगो के मन को छू गया होगा , कहने को तो हमारे देश को अंग्रेजो से आजादी मिल गयी लेकिन सरकारी नीतियों के कारण आर्थिक आजादी नही मिल पाई जिसके कारण न जाने कितने युवा अपने परिवार को समय नही दे पाते , अनिश्चितता का दौर के चलते वे दिन रात नौकरी, ब्यवसाय में रमे रहते है ।
-अखिलेश मिश्र" बागी " मीरजापुर
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सुंदर है बड़े भैया।
-विकास अग्रहरि, पत्रकार।
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बहुत सुन्दर शानदार लेखनी
शशि भाई के लेखनी को नमन
-अरविंद त्रिपाठी, पत्रकार।
सादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (01-05-2020) को "तरस रहा है मन फूलों की नई गंध पाने को " (चर्चा अंक-3688) पर भी होगी। आप भी
सादर आमंत्रित है ।
"मीना भारद्वाज"
आपका अत्यंत आभार। प्रणाम।
Deleteप्रिय शशि जी,आपकी नित नई संवेदनाओं को छूती हुई नई कहानियाॅ मन को झकझोर देने वाली होती हैं,आपकी भीगी लेखनी की स्याही कभी सूखे नहीं,सदैव चलती रहे,मन करता है सारा स्नेह ,आशीर्वाद आप पर उड़ेल दूॅ जिसके आप पूरे हकदार हैं,
ReplyDeleteकाश! इस लाकडाउन की अवधि में अपनेपन और बिखरेपन को हम स्नेह की डोरी में मोतियों को पिरो लेने का यत्न करें ,इससे घर के ऑगन में खुशियाॅ भी खिलेंगी और मुॅडेर पर कागा भी बोलेगा,इतना ही नहीं इस लेख की सार्थकता भी अपने को धन्य समझेगी,एक बार पुन: लेखनी को प्रणाम
-रमेश मालवीय
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कुदरत द्वारा बिना अवाज की लाठी के दर्द का उत्कृष्ट वर्णन ......बहुत खुबसूरत
- आनंद सिंह , अपनादल एस
शशि भाई नमस्कार। लाॅकडाउन में लाॅकडाउन पर लिखा गया कहानी बहुत ही मार्मिक व सुन्दर है। प्रदीप कुमार सोनकर नि, सभासद ,शुक्लहा, मीरजापुर
ReplyDeleteउत्तम सामयिक कथ्य....बधाई...
ReplyDeleteदेर से आए पर दुरुस्त आए .
Deleteबहुत बढ़िया ये एकदम सच्चाई है, लगभग 50 % लोगों के जिन्दगी की 👌👌🙏
ReplyDelete--राजीव शुक्ला
Shashi ji,Naya sabera post is realty of some persons ingaged in his business or other professions. But this Lockdown period has given the good lesson to understand the rralty of life.one should realize that with business or other professions, their duty is also with their family, children's and samaj.
ReplyDeleteRajkumar Tandon
General Secretary All India khatri Mahasabha.
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय शशि भाई
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार।
Deleteनमस्कार बहुत सुन्दर लेख के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय श्री शशि जी ।🤚🏻✋🏻
ReplyDelete-गुलाबचंद्र तिवारी,अवकाश प्राप्त प्रवक्ता।
आपका अत्यंत आभार।
ReplyDeleteये आत्ममंथन का वक़्त हैं ,इसे बेहद रोचक ढंग से कहानी के माध्यम से आपने प्रस्तुत किया हैं ,सादर नमन आपको
ReplyDeleteआपका अत्यंत आभार।
Deleteसही लाकडाऊन ने बहुत कुछ बदला है लोगों की सोच को संबंधों को सार्थकता लिए सुंदर कथा।
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार।
Delete