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Monday 4 May 2020

बेबसी


 लॉकडाउन बढ़ने के तीसरे चरण की घोषणा होते ही विपुल के माथे पर चिन्ता की लकीरें लकीरें और गहरी हो चली थीं। खाली बटुए को देख वह स्वयं से प्रश्न करता है कि अब क्या करें ? यद्यपि शहर में हितैषी तो कई हैं ,पर वर्षों से उसने किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाया था। उसका यह स्वाभिमान भी खंडित होने को था ,किन्तु तभी उसकी चेतना ने सावधान करते हुये कहा- " जानते हो न कि ऐसे वक़्त में किसी से आर्थिक सहयोग की मांग, आपसी संबंधों को लॉक करने जैसा है।"
   जीवन ने उसकी यह कैसी विचित्र परीक्षा लेनी शुरू कर दी है ? हाँ, राशनकार्ड पर उसे सरकार की मेहरबानी से मुफ़्त में चावल मिल गया था। अतः दाल अथवा साग-भाजी न हो तो भी चलेगा,परंतु मुन्ने के दूध के लिए पैसा कहाँ से लाए ? अभी उसने अपनी तीन साल बड़ी बहन गुड्डी की तरह मांड-भात खाना नहीं सीखा है। ऊपर से कमरे का तीन महीने का किराया सिर पर आ चढ़ा था। भवन स्वामी सहृदयी है,फ़िर भी कुछ तो देना ही था, अन्यथा भविष्य में यही बकाया पैसा पहाड़ जैसा लगेगा। अतः सेठ से वेतन के मिले आठ हजार रूपये में से आधा तो किराया चुकाने में निकल गया था। 

    परिवार का मुखिया होने के कारण पत्नी और बच्चों की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना उसका नैतिक कर्तव्य है,परंतु अब तो इस लॉकडाउन में ' दाल-रोटी' स्वप्न-सी प्रतीक हो रही है। इसी चिन्ता में घुला जा रहा विपुल समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर वह क्या करे ? सेठ ने स्पष्ट कह दिया था-- " देखो विपुल ! माना कि तुम मेरे प्रतिष्ठान के विश्वसनीय कर्मचारी हो और इसी से मैंने मार्च का तुम्हारा पूरा पगार आठ हजार गिन दिया है,किन्तु मेरी भी परिस्थितियों को समझते हुये तालाबंदी के दौरान वेतन के संदर्भ में कोई बात नहीं करना , शेष जब दुकान खुलेगी तब देखा जाएगा।"
    स्पष्ट था कि लॉकडाउन की अवधि का वेतन नहीं मिलेगा। समझदार के लिए इशारा काफ़ी है। प्रतिष्ठान स्वामी के इस रूखे व्यवहार से आहत अपने हृदय को विपुल कुछ यूँ समझाता है--"  देख भाई ! सेठ का कथन अनुचित नहीं है । व्यवसायियों के पास पैसे घर में होते ही कहाँ हैं। उनका धन उनके व्यापार में लगा होता है। उसी में से जो कुछ आता है,उसे वे महाजनों की देनदारी, नौकरों की तनख़्वाह, सरकारी टैक्स , बीमा , बच्चों की महँगी शिक्षा और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर ख़र्च करते हैं। ये सेठ-महाजन कोई दानवीर कर्ण नहीं हैं कि घर फूँक तमाशा देखें। "

    वैसे, छोटे शहर में अधिकांश प्रतिष्ठान ' सफ़ेद हाथी' की तरह होते हैं। समान चाहे जितना रख लो, फ़िर भी बोहनी की प्रतीक्षा में दिन चढ़ जाता है। उसके सेठ ने भी लगन-विवाह को देख लाखों का माल मंगा रखा था। जिससे आमदनी तो दूर , बक़ाये का भुगतान भी मुश्किल है, क्योंकि लॉकडाउन के बाद वैश्विक स्तर पर आर्थिकमंदी तय है। वे ख़र्च का बोझ कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी कर सकते हैं। यदि उसने और दबाव बनाया तो क्या पता कि पहला नंबर उसी का हो ।
  " नहीं-नहीं ! वह बेरोज़गार होना नहीं चाहता।"
 --विपुल ऐसी कल्पना मात्र से सिहर उठता है। वह सोनाली से अपनी व्यथा कथा कह मन हल्का कर सकता था ,किन्तु पत्नी को और व्यथित करना नहीं चाहता था । विवाह के पश्चात अपनी जीवनसंगिनी को उसने दो संतानों के अतिरिक्त और दिया ही क्या है? बेचारी नोन-तेल की चिन्ता में उलझी रहती है।  यह एक कमरा ही उसका घर है। इसी में  शयनकक्ष और रसोईकक्ष दोनों हैं। ऐसे में कभी कोई मेहमान आ जाए तो सोनाली शर्मसार हो उठती है। किसी प्रकार ईंट के सहारे पलंग को थोड़ा ऊँचा कर , उसके नीचे गृहस्थी के सारे समान छिपाकर वह रखा करती है। कमरे को सजा-सँवार कर रखने का पत्नी का यह हुनर देख वह चकित रह जाता है। उसने प्रयास किया था कि कोई ऐसा मकान मिले, जिसमें किचन  अलग से हो। पर क्या करे वह , ढ़ाई हजार से अधिक किराए का कमरा लेने का उसमें सामर्थ्य नहीं है। अरे हाँ ! इसी जुलाई से गुड्डी को किसी स्कूल में दाख़िला दिलवाना है। लेकिन पैसे की व्यवस्था कैसे हो ? कमरे का किराया देने के पश्चात वेतन के शेष बचे हुये रूपये में से हजार-बारह सौ मुन्ना के दूध का होता है। उसके इस मामूली पगार में से भी सोनाली कुछ रूपये ऐसी ही आपाताकालीन परिस्थितियों के लिए कतर-ब्योंत कर बचा लेती थी ।  बच्चे यदि बीमार हो जाए तो उन्हें गोद में उठाए जिला अस्पताल की दौड़ हो अथवा  सरकारी गल्ले की दुकान से राशन लाना, गृहस्थी से संबंधित सारे कार्य बिना किसी शिकायत के सोनाली किया करती थी, क्योंकि वह सुबह निकला तो फ़िर सेठ की दुकान  बंद करवा कर ही रात्रि को लौटता था। अपनी  ड्यूटी के प्रति ज़िम्मेदार जो था । 

    विवाह के पश्चात बीते सात वर्षों से सोनाली कुशल गृहिणी की तरह सबकुछ संभाल रही है। सोनाली चाहती है कि घर पर ही कोई  काम मिल जाए, जिससे बच्चों की देखभाल के साथ ही गृहस्थी की नैया पार लगाने में विपुल की सहायिका बन सके। पत्नी की यह जिजीविषा और उसकी मुस्कान की मृदुलता ही इस दौड़ती-भागती संघर्षमय ज़िदगी में विपुल की औषधि है। किन्तु इसबार की होली उन्हें ख़ासी महंगी पड़ी है। उसी के कहने पर सलोनी ने न चाहकर भी वह कुछ रुपया जो संचित कर रखा था, सभी के नये वस्त्र और मिष्ठान आदि पर ख़र्च दिया था। तब उसे क्या पता था कि ऐसी भी कोई वैश्विक महामारी आ जाएगी कि हाथ पर हाथ रख घर बैठना पड़ेगा। 
     
     आज भगौने ने सिर्फ़ चावल देख विपुल अधीर हो उठा था। पत्नी का स्नेहिल स्पर्श उसके मन के ताप को कम नहीं कर पा रहा था। अपनी इस दीनता पर वह स्वयं को धिक्कारता और सवाल करता कि कर्मपथ पर होकर भी उसके श्रम का कोई मोल क्यों नहीं है ? उसका पुरुषार्थ व्यर्थ है। समय और भाग्य का यह अत्याचार उसके लिए असहनीय था। 
 वह स्वयं से कहता है- " वाह ! क्या नाम रखा था घरवालों ने विपुल ! और यहाँ दरिद्रता सुरसा की तरह मुँह फैलाए खड़ी है।"

     रात के बारह बज चुके थे ,किन्तु आँखों में नींद की जगह उसका उद्विग्न हृदय प्रकृति और मनुष्य की न्याय व्यवस्था के प्रति विद्रोह का शंखनाद कर रहा था। उस जैसे निम्न-मध्यवर्गीय व्यक्ति के साथ इस विपत्ति में भी यह पक्षपात क्यों हो रहा है ? क्या श्रमिकों से उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी है ? इस संकट में सरकार, उसके किसी जनप्रतिनिधि और सामाजिक कार्यकर्ताओं को यह बोध क्यों नहीं हो रहा है कि   उनका ज़ेब भी खाली है। सरकार की तरह उनके प्रतिष्ठान स्वामी उन्हें तालाबंदी के दौरान वेतन नहीं दे सकते है। अतःश्रमिकों और किसानों की तरह निम्न-मध्यवर्गीय लोगों की मदद के लिए  सरकार कब आगे आएगी ? क्या ये रहनुमा इतने अबोध हैं, जो इनके यह कहने मात्र से कि लॉकडाउन में कर्मचारियों का वेतन न काटा जाए , ये सेठ -महाजन मान जाएँगे? शासन-सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधियों का यह राजधर्म नहीं है कि निम्न-मध्यम वर्ग को भी सरकार से मदद प्राप्त हो ?क्या वे भी अपने स्वाभिमान को ताक पर रख हाथ फ़ैलाये सड़क पर उतर आए ,तभी सरकार की दृष्टि में वे ग़रीब समझे जाएँगे ? क्या इसीलिए वह अपना गाँव छोड़ शहर आया है कि उसकी आँखों के समक्ष उसकी पत्नी नमक, तेल संग चावल खाकर दिन गुजारे। धिक्कार है ऐसी शिक्षा पर कि पेट की चिन्ता उसकी चिता बनती जा रही हो ।  
   वह अनपढ़ ही क्यों नहीं रह गया। अपने गाँव में चाहे जैसे भी रह लेता। खेती- किसानी अथवा मज़दूरी कुछ भी कर लेता। परंतु ऐसे बूरे दिन नहीं आते । उसे स्मरण है कि यहाँ शहर के एक कॉलेज से डिग्री लेने के पश्चात अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न किया था,किन्तु एक ग़रीब किसान के पुत्र को इस अनज़ान डगर में कोई मार्गदर्शक नहीं मिला। भाग्य ने भी छल किया। सीढ़ी- साँप के खेल में वह सफलता के करीब पहुँच कर भी फिसलता रहा। और फ़िर एक दिन जब उसे यह आभास हुआ कि सरकारी नौकरी मिलने की कोई संभावना शेष नहीं रही ,तो अपने सेठ की दुकान पर आजीविका की तलाश में जा पहुँचा। एक साधारण कर्मचारी से अब मैनेज़र के पद पर आसीन है , किन्तु वेतन आठ हजार ही है। इस छोटे शहर में इससे अधिक की उम्मीद किसी भी प्रतिष्ठान से नहीं की जा सकती है। 
     यद्यपि आज वह न धनिक है ,न श्रमिक है और न ही अपनी सरकार , प्रतिष्ठान स्वामी और सामाजिक संगठनों की दृष्टि में सहानुभूति का पात्र है। वे सभी इस लॉकडाउन में सच्चे जनसेवक का तमग़ा लेने के लिए दलित-मलिन बस्तियों की ओर दौड़ रहे हैं। श्रमिकों को तलाश रहे हैं। ऐसे वर्ग के साथ ग्रुप फ़ोटोग्राफ़ी से उनके यश में वृद्धि  होगी और जनता उन्हें 'कोरोना योद्धा' कह सम्मानित करेगी। उधर, वह ठहरा निम्न-मध्यवर्गीय ,बिना घर से बाहर निकले , बिना दीनता प्रदर्शित किये, बिना फ़ोटोग्राफ़ी कराए कौन करेगा उसकी मदद ?  उसके वार्ड में कई राजनेता-समाजसेवी है। आश्चर्य तो यह है कि इनमें से किसी ने भी उसके द्वार पर यह पूछने के लिए दस्तक नहीं दी कि विपुल भाई कैसे हो ! 
   
   उसका अशांत चित प्रश्न किये जा रहा था--
  "ओह ! विपुल ,कितने नासमझ हो तुम, जो गाँव छोड़ शहर चले आए । पाषण निर्मित ये ख़ूबसूरत इमारतें तुम्हारी विवशता नहीं समझ सकती हैं। इन ऊँची चारदीवारियों के उस पर तेरी मौन पुकार कोई नहीं सुनेगा। "
  
  विपुल बुदबुदाता है- "  काश ! वह पुनः किसान और मजदूर पुत्र बन कर गाँव वापस लौट पाता। शासन के रिकॉर्ड में उसकी कोई तो प्रमाणिक श्रेणी होती , ताकि इस विपत्ति से उभरने के लिए दिये जा रहे सरकारी अनुदान में उसका भी  हिस्सा तय होता। "
   परंतु वह जिस जीवनधारा में बह रहा है, शायद   उसका किनारा नहीं है। उसके कठोर श्रम, अनुशासित जीवन और स्वामिभक्ति का मूल्य नहीं है।वह आजीविका के लिए ऐसा कार्य करने को विवश है जिसमें आत्मनिर्भरता नहीं है। विपत्ति में किसी से सहयोग की आशा नहीं है। ऐसा जीवन संघर्ष देख वह स्वयं पर से विश्वास खोता जा रहा है। निर्धनता से उत्पन्न लज्जा, ग्लानि और कुंठा ने उसे तेजहीन कर दिया था। 
 निम्न-मध्य वर्ग की यह कैसी बेबसी है ?

      ---व्याकुल पथिक
    
चित्रः गूगल से साभार
  

36 comments:

  1. सही कहा शशि भाई कि निम्न मध्यमवर्गिय की कोई श्रेणी न होने से लॉकडाउन की ज्यादा मार इसी वर्ग पर पड़ रही हैं। उनकी सुध लेनेवाला कोई नहीं हैं।

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    1. जी आभार ज्योति दी विचित्र विडंबना है, इस वर्ग का।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (06-05-2020) को   "शराब पीयेगा तो ही जीयेगा इंडिया"   (चर्चा अंक-3893)    पर भी होगी। -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    आप सब लोग अपने और अपनों के लिए घर में ही रहें।  
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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  3. शशि जी आपकी ये रचना बखूबी दर्शाती है कि ये कोरोना महामारी कैसे स्वाभिमान मध्यमवर्गीय लोगों पर मानसिक रुप से कैसा कहर ढा रही है।लॉकडाउन अवधि में सबसे तगड़ी मार निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के लोगों पर पड़ी है। जैसे-तैसे एक महीना तो कट गया लेकिन अब एक-एक पल भारी पड़ रहा है। विपुल के जैसे अनगिनत ऐसे लोग हैं जो एक अजीब तरह की मानसिक प्रताड़ना झेल रहे हैं और कब इससे उबर पायेंगे कुछ भी कहा नहीं जा सकता।

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    1. जी प्रवीण जी
      सरकार को अपना लाभ सिर्फ़ दिख रहा है। परंतु इस वर्ग की कोई चिन्ता नहीं है।
      प्रतिक्रिया के लिए आभार।

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  4. बहुत सुन्दर रचना ।
    -- चंद्रांशु गोयल
    ****
    बहुत सही बात आपने मध्यम वर्गीय परिवार की कही है🙏
    --राजीव शुक्ला
    ***
    शशि जी,वास्तव में यह अनेकों के जीवन की करुण वास्तविकता है।एक तरफ जहाँ वह समाज में सम्मानित भी है, दूसरी तरफ वही जानता है कि कैसे गृहस्थी की नाव को खे रहा है।उसका ज़मीर उसे हाथ फ़ैलाने से रोकता है और घर वालों की कातर निगाहें उसे पल,पल मरने पर मजबूर करती हैं।दुर्भाग्यवश ऐसे मझधार वाले लोगों पर न तो राजसत्ता की निगाह है और नही समाज सेवियों की।
    -- प्रदीप मिश्र
    *****
    मध्यमवर्गीय होने का मतलब घुट घुट कर रोना
    अपनी समस्या किसी से न कह पाना
    आदत बिगड़ गयी है साहब , गरीबो की तरह हाथ फैलाने की हिम्मत नही है मुझमें ।
    -- अखिलेश मिश्र 'बागी'

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  5. शशि जी आपके लिखने के बाद कुछ शेष नही बच जाता लिखने को , आपके लेखक मन की पैनी कलम ने अब तक हर तबके को स्पर्श किया है , इस बार का लेख "बेबसी" जो मध्यमवर्गीय के कष्टों को अच्छे तरीके से व्यक्त किया गया है । मैं खुद इसी वर्ग से जुड़े होने के कारण इसको शिद्दत से महसूस करता हूँ।
    - अखिलेश मिश्र, पत्रकार।

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  6. वाह!शशि भाई...बहुत खूब ।निम्न मध्यम वर्ग की विवशता का बखूबी चित्रण किया है अपने ।

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    1. आपका आभार, उत्साहवर्धन के लिए।

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  7. देश कठिन दौर से गुज़र रहा है। तमाम परिवार संकट में हैं। अल्प वेतनभोगी अब अपने वेतन से वंचित हो गए हैं। मज़दूरों को महीनों से काम नहीं मिला है। प्रवासी मज़दूर अपने जिलों में लौट जाना चाहते हैं। जिनके पेट भरे हुए हैं, वे कोरोनावायरस से डरे हुए हैं। जिन्हें भूख सता रही है, वे बेख़ौफ़ होकर सड़कों पर आ रहे हैं। अब कोरोना पर कम बात होती है। पैदल चलते मज़दूरों पर ज़्यादा बात हो रही है। आपकी कहानी का किरदार भी लॉकडाउन का असली शिकार है। बस वह घर में सिसक रहा है। कोरोना काल के बीत जाने के बाद भी इसकी चोट से उबर नहीं पाएगा। कोई भी व्यवसायी घाटे का सौदा नहीं करता। उसको सभी के साथ अपने परिवार को भी देखना है। भविष्य की चुनौतियाँ सामने हैं। विपुल के सामने कोई विकल्प नहीं है। उसकी पत्नी उसे अकेला नहीं छोड़ती है। लेकिन, सब मिलजुल कर भी आर्थिक समस्या का समाधान इस कोरोना काल में कैसे कर सकते हैं? यहाँ पर सरकार और समाज की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है। आने वाले दौर में कोरोना साथ जीना होगा। बाज़ारों को पहले की तरह मुक्त प्रवाह में बहना होगा। संचित पूँजी ख़त्म हो चुकी है। नवीन पूँजी का निर्माण करना होगा। भुखमरी से बचने के लिए यह आवश्यक है।

    शशि भाई, हमेशा की तरह आपकी यह कहानी भी सच्चाई पर आधारित है। यह हमारे मर्म को स्पर्श करती है। ईश्वर जल्दी ही पीड़ित परिवारों को उनकी ख़ुशियाँ लौटा दे, इसकी हम कामना करते हैं।

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  8. जी अनिल भैया, लॉकडाउन के पश्चात
    कम वेतनभोगी लोगों की स्थिति और भी दयनीय होने जा रही है। पहला अब प्रतिष्ठान स्वामी उन पर अपना दबाव बढ़ा देगा। उनके वेतन में थोड़ी बहुत जो वार्षिक वृद्धि हुई थी, वह वापस ले ली जाएगी साथ ही यह चेतावनी भी दी जाएगी कि 30% कर्मचारियों को कम किया जाना है, अतः अधिकार की कोई बात की तो पहला नंबर तुम्हारा ही होगा।
    विस्तार से दी गयी आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है। प्रणाम और शुभ रात्रि।

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  9. मध्यम परिवार जो न बोल सका अपनी पीड़ा आपकी कलम ने वो आवाज सुन ली
    -सुमित गर्ग, पत्रकार- मध्यम परिवार से हूँ
    ****
    मध्यम वर्गीय परिवार पर आपने शानदार कलम चलाई है। जिसे चाहकर भी कुछ नहीं मिलता। आवश्यकता है फिर भी कह नही पाते ।साधुवाद।
    - देवेंद्र पांडेय ,पत्रकार

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  10. अत्यंत मार्मिक व हृदयस्पर्शी वर्तमान का सच उजागर करती रचना

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  11. मार्मिक यथार्थ दिखाती कथा।

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  12. मार्मिक व हृदयस्पर्शी

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  13. Dear Shashi ji, Really you have drawn a very real picture of a lower middile class family. This lower class family has always been neglected. Govt never thought about lower middile class family. I request the govt to look towards this class so that this class of people could live respect fully in the society.
    Rajkumar Tandon
    General Secretary of All India khatri Mahasabha.

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  14. बहुत सुंदर और सार्थक सृजन 👌👌

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  15. कोरोना जैसी परिस्थितियों से न जाने कितनी बार मध्यमवर्गीय परिवार को जूझना पड़ा है.
    वह इसका आदि हो चुका है.भूखे रह लेंगे मगर हाथ नहीं पसारेंगे...
    परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित करने में ही भलाई है.
    वर्ना सरकारें तो चाह ही रही है हम भी भीखमंगों की श्रेणी में आजाएं.
    समस्त बाधाएं इनको ही झेलना है.कोरोना से भी निपट लेंगे.

    बेशक आपकी लघुकथा कुछ इसी ओर इशारा भी कर रही है.
    स्वस्थ चिंतन मनन के बाद व्यथित कलम सच को उजागर करने में पूर्णतया सफल रही है ...
    बधाई आपको...
    राजेंद्र मिश्र, साहित्यकार।

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  16. वर्तमान परिस्थिति मैं बिल्कुल सही लिखा है भैया

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  17. मध्य वर्ग ही ज्यादा प्रभावित हो रहा है। भाई 🌹 🙏

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  18. हमारे ख्याल से कम से कम ब्लॉग में ही सही कोई उम्मीद आपको दिखाना चहिए (माफ करियेगा मेरा सुझाव पात्र को दुख से बाहर निकालने से है मैं साहित्यकार नही हूँ )..........सुंदर एवं सजीव वर्णन

    - आनंद सिंह पटेल।

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  19. शशि जी,विपुल की कहानी आज अधिकांश निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों का सटीक चित्रण है, एक तरफ उसका जमीर उसे हाथ फ़ैलाने से मना करता है, दूसरी तरफ परिवार का दायित्व उसे आत्मसम्मान को मारने पर विवश करता है।दुःख का विषय यह है कि विपुल के बारे में सरकारों को सोचने की फुरसत ही नहीं।
    --- प्रदीप मिश्र,प्रबन्धक-रेनबो पब्लिक स्कूल,विन्ध्याचल।

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  20. बहुत भावस्पर्शी शब्दों से उजागर किया है आपने मध्यम वर्ग की पीडा को ।
    व्यवस्था को धिक्कार का लेखकीय बोध भी पूरी ईमानदारी से निर्वहन किया है ।
    बधाई आपको ।
    - देवी प्रसाद गुप्ता, संपादक -हरदौल वाणी।

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  21. Bahut hi shandar lekh apka

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  22. प्रिय शशि जी! विपुल की विवशता भरी कहानी और वास्तविकता दर्शाती स्वाभिमान की सच्ची बात को उनके जैसे मध्यवर्गीय परिवार के मित्र ही महसूस कर सकते हैं,बाकी लोगों को इससे क्या लेना-देना,सभी अपनी ही ढपली अपने ही राग में व्यस्त हैं,आपकी लेखनी ने कम से कम इस पीड़ा को व्यक्त किया,साधुवाद-रमेश मालवीय

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  23. निम्न मध्यमवर्गीय व्यक्ति की मनोदशा का सटीक चित्रण!... सुन्दर रचना भाई पथिक जी!

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  24. शशि भैया, मध्यम वर्ग के आम इंसान की मनोदशा को आपकी रचना बखूबी बयाँ करती है। स्वाभिमान से भरा से वर्ग कोरोना काल में आर्थिक रूप से निचुड कर मंदी की मार झेलते हुये ना ईधर का रहा ना उधर का। विपुल जैसे ना जाने कितने हैं जो इस बदहाली का शिकार हैं । आपकी समर्थ लेखनी बहुत कुछ कह जाती है। सार्थक लेखन के लिए हार्दिक शुभकामनायें । लिखने के साथ अपनी गिरती सेहत का भी ध्यान रखें। 🙏🙏

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  25. आपके लेख सदैव चिन्तन प्रधान होते है शशि भाई . महामारी के सिमटने के आसार नजर नही आते..गरीब और मध्यम वर्ग की परेशानियों के साथ उनकी बुरी लतें उनका पीछा नहीं छोड़ती . हर सूरत में कमी परिवार के सदस्य ही झेलते हैं ।

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yes