मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -1]
(जीवन की पाठशाला से)
मैं अनुपयोगी सी खड़ी अपनी पुरानी साइकिल को देख रहा था। जिसने मुझे 'साइकिल वाले पत्रकार भाई' की पहचान दी है। अन्यथा कोई किसी को यह तो नहीं कहता न कि कार वाले पत्रकार -बाइक वाले पत्रकार ?
तभी ऐसा लगा कि आज यह मुझे उलाहना दे रही है, क्योंकि पिछले दो महीने से बिना साफ़-सफ़ाई के वैसे ही खड़ी है और पहिए की हवा भी निकल चुकी है । यूँ कहें कि इस लोकबंदी में हम दोनों की स्थिति एक जैसी ही है। हमारी भागती-दौड़ती ज़िदंगी में ठहर गयी है। न मेरे पास कोई काम है और न ही इससे (साइकिल) किसी को काम है। मैं अपनी पूँजी खा रहा हूँ और यह भी यूँ खड़े-खड़े अपने कलपुर्जों को !
लोकबंदी के पश्चात यदि मैं पुनः अख़बार वितरण प्रारम्भ कर सका,तभी इसका भाग्योदय संभव है ,अन्यथा एक दिन इसे कोई कबाड़ी उठा ले जाएगा। दो माह पूर्व जिस प्रकार मैं समाचार पत्र का बंडल न आने से अपनी आजीविका खोने के भय से काँप उठा था, ठीक वैसी ही स्थिति कबाड़ी के रूप में अपनी मौत से साक्षात्कार होने की कल्पना मात्र से मेरी साइकिल की भी है।फ़र्क हम दोनों में सिर्फ़ यह है कि मैं अपनी वेदना को व्यक्त कर सकता हूँ और यह मौन- निस्सहाय खड़ी है।
हाय ! इसके रुदन को मैंने पहले क्यों नहीं सुना ? किसी ने सत्य कहा गया है कि मनुष्य प्रत्येक संबंध को अपनी आवश्यकतानुसार स्वार्थ के तराजू पर तौलता है। मैं भी यही कर रहा हूँ, जब तक इसकी उपयोगिता थी,तो इसका कितना ध्यान देता था, किन्तु आज़ इसकी भूख की मुझे चिन्ता नहीं है ? इन दो महीनों में इसके प्रति मेरे व्यवहार में ठीक वैसा ही परिवर्तन आया है , जिस तरह आत्मीय जन संबंध में दरार पड़ने पर सम्मुख हो कर भी अज़नबी बन जाते हैं। मैं यह कैसे भूल गया कि मेरे जीवन में आये अनेक तूफ़ानों की यह साइकिल ही एकमात्र साक्षी है। सर्द रात में ज़ब सड़कें भयावह लगती थीं। यह मेरी यह "संघर्ष सहचरी "साथ होती थी। पूरे पच्चीस वर्ष प्रतिदिन औसत साढ़े तीन घंटे मैंने साइकिल चलाई है। दो घंटे समाचार पत्र वितरण और शेष समाचार संकलन आदि इसी के सहारे तो करता रहा।
अरे भाई ! साइकिल वाले पत्रकार भाई का सम्मान मुझे ऐसे ही नहीं मिला है,किन्तु इस लोकबंदी में मेरी ही तरह यह भी अनुपयोगी हो चुकी है। वर्ष 1994-95 की बात करूँ, तो मैं एक वर्ष तक इस शहर में पैदल ही अख़बार लिये भटकता रहा। मीरजापुर से रात्रि 12 बजे जब वापस बनारस पहुँचता ,तब अपने पाँव को थामे, सिसकियाँ रोके माँ को पुकारा करता था, यद्यपि यह दर्द उस भूख से बड़ा नहीं था, जिसके लिए ताउम्र काशी छोड़ने को मैं विवश हुआ। महानगरों से मीलों लम्बी पैदल यात्रा कर घर वापस लौट रहे इन प्रवासी श्रमिकों को देख ,मुझे इनकी क्षुधा और पीड़ा की अनुभूति इसीलिए है कि मैंने भी पूरे वर्ष भर प्रतिदिन छह घंटे खड़े-खड़े बस में सफ़र ही नहीं किया, वरन् हाथों में ढेर सारे अख़बार लिये तीन घंटे किसी अनजान शहर में लम्बे-लम्बे डग भरता सड़कें नापा करता था। तब मेरी एक ही ख़्वाहिश थी कि किसी प्रकार साइकिल रखने की व्यवस्था इस अनजान शहर में कहीं हो जाती।
और यहाँ साइकिल से मित्रता होने के पश्चात एक दिन भी (समाचार पत्र कार्यालय में अवकाश के दिन को छोड़कर) ऐसा नहीं रहा कि मैंने हाथ-पाँव जोड़ कर इसे मनाया न हो। सवारी करने से पूर्व इसकी सीट पर दुलार से थपकियाँ दिया करता था। जरा भी उबड़-खाबड़ स्थल पर इसका पहिया पड़ा नहीं कि अगले दिन सुबह भागा -भागा उसके डॉक्टर के पास जा पहुँचता था,इस आशंका से कि कहीं रिम डायल न हुआ हो अथवा ट्यूब पंचर तो नहीं है। आज़ इसकी इस स्थिति के लिए दोषी मैं नहीं तो कौन है ?
ओह ! मैं कैसे इतना निष्ठुर और कृतघ्न हो सकता हूँ कि जो साइकिल वर्षों से मेरी आजीविका में सहयोगी रही। जिसके साथ मैंने जीवन के तिक्त और मधुर क्षण बिताए है। जिसने मेरी दुर्बल काया को अवलंबन दिया।उसकी देख-भाल भी मैंने नहीं की ! इसीलिए न कि यह मेरे लिए अनुपयोगी हो गयी है। जैसे पिछले दो महीनों से मेरे अख़बार का बंडल नहीं आने से यहाँ मेरी कोई उपयोगिता नहीं रही। संस्थान ने कभी यह नहीं पूछा - " शशि , तुम बाहर रह कर इन दो- ढ़ाई महीने से अपना ख़र्च किस प्रकार चला रहे हो ।"
मैंने सोचा था कि चलो विज्ञापन और अख़बार का जो बकाया बिल है,उसके ही कुछ रुपये मिल जाएँगे, तब भी काम चल जाएगा। दुर्भाग्य से ऐसा भी नहीं हुआ, मेरे सिर्फ़ दो-तीन पाठकोंं को ही इसका स्मरण रहा । इस लोकबंदी में यह उनका मेरे ऊपर बड़ा उपकार है, अन्यथा मुझे अपने परिश्रम का धन भी अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। तो क्या मेरे साथ जो कुछ हो रहा है , मैं भी वहीं अपनी इस प्रिय साइकिल के साथ करुँ ? क्या यही मानव धर्म है ? मेरी चेतना मुझे सावधान कर रही थी ।
अरे हाँ ! कल तो 30 मई (हिन्दी पत्रकारिता दिवस) है। मैं वर्ष 1994 से ही इस अवसर पर मंच से अनेक विद्वान वक्ताओं का यह उपदेश सुनता आ रहा हूँ-
" पत्रकार केवल समाचार नहीं बेचता है। वह सिर भी बेचता है और संघर्ष भी करता है। उसका कार्य प्रजा के दुःख को सरकार के समक्ष रखना, उसे सही परामर्श देना और आवश्यकता पड़ने पर उसके अन्याय के विरुद्ध अपनी लेखनी को गति देना है। पत्रकार यदि यह कर्तव्य नहीं निभाता है, तो वह भी एक दुकान है,किसी ने सब्जी बेंच ली और किसी ने ख़बर, आदि-आदि..।"
ऐसे ही आदर्श वाक्यों का प्रयोग हम पत्रकारों ,पत्र प्रतिनिधियों और संवाददाताओं के लिए आज के दिन होता है, किन्तु इस लोकबंदी में जब हम श्रमजीवी पत्रकार अपने संस्थान, समाज और सरकार की ओर इस आशा से टकटकी लगाए हुये थे कि क्या हमें भी किसी प्रकार का आर्थिक सहयोग मिलेगा, तब ऐसे उपदेशक कहाँ चले गये ?
इन दो माह में पत्रकारिता मुझे अवसाद की ओर लेती गयी, तन्हाई की ओर लेती गयी। जहाँ प्रवासी श्रमिक तक अपने घरों की ओर भाग रहे थे। मैं जीवन की शून्यता और दर्द को समेटे अपने आशियाने को ढूंढ रहा था। मेरा कौन है ? मेरे लिए किसी का अपनापन क्यों नहीं है ? क्या मैंने पुरुषार्थ नहीं किया , फ़िर मेरे जीवन की बगिया क्यों नहीं मुस्काई ? क्यों वेदनाओं की कठपुतली बना विदूषक सा औरों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन अपनी लेखनी के माध्यम से करता रहा ? क्या इस सभ्य संसार में निखालिस कुछ भी नहीं है,समय और भाग्य का यह कैसा अत्याचार है ?
मुझे अपने एक अन्य शुभचिंतक का हितोपदेश स्मरण हो आया है । चार-पाँच वर्ष पुरानी बात है। मैं संदीप भैया की दुकान पर बैठा हुआ था कि भाजपा के वरिष्ठ नेता रामदुलार चौधरी आ गये। वे हमलोगों के साथ हँसी-ठिठोली भी कर लिया करते हैं। सो, सबके समक्ष ही उन्होंने मुझसे कहा था कि पता है,सबरी मुहल्ले में फलां कह रहा था -" ई पगलवा पत्रकार कब-तक साइकिल से अख़बार बाँटता रहेगा ?"
आरा मशीन संचालक चौधरी साहब मेरा उपहास नहीं कर रहे थे। वे मुझे इस सत्य का बोध करवाना चाहते थे कि अर्थयुग में सिक्के की झंकार ही सब सुनते हैं। उन्होंने कहा था -"समय के साथ चलना सीखों। जरा देखों अपने इर्द-गिर्द , तुम्हारे बाद आये कितने ही रिपोर्टर बिना अख़बार के ही साधन संपन्न हो गये हैं और तुम हो कि हड्डी पर कबड्डी खेल रहे हो।"
अत्यधिक श्रम एवं मेरे गिरते हुये स्वास्थ्य को लेकर वे चिंतित थे। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि ऐसा कोई व्यापार करो, जो घाटे का सौदा हो ? पत्रकारिता भी अब मिशन नहीं व्यवसाय है। आज कंधे पर खादी का झोला लटकाए चलने वाले पत्रकार और संपादक नहीं रहे। समाजसेवा, राजनीति, चिकित्सा, शिक्षा और पत्रकारिता भी, यहाँ व्यापार है।
मुझे नहीं पता कि मेरी साइकिल सही रास्ते पर रही अथवा मार्ग भटक गयी, किन्तु आजीविका खोने के अपने तीन दशक पुराने भय पर इस लोकबंदी में मैंने विजय पा ली है, क्योंकि आज़ मैं बेकार होकर भी भूखा नहीं हूँ । बुभुक्षा एवं तृषा से भरे मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है।
( क्रमशः)
-व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला से)
मैं अनुपयोगी सी खड़ी अपनी पुरानी साइकिल को देख रहा था। जिसने मुझे 'साइकिल वाले पत्रकार भाई' की पहचान दी है। अन्यथा कोई किसी को यह तो नहीं कहता न कि कार वाले पत्रकार -बाइक वाले पत्रकार ?
तभी ऐसा लगा कि आज यह मुझे उलाहना दे रही है, क्योंकि पिछले दो महीने से बिना साफ़-सफ़ाई के वैसे ही खड़ी है और पहिए की हवा भी निकल चुकी है । यूँ कहें कि इस लोकबंदी में हम दोनों की स्थिति एक जैसी ही है। हमारी भागती-दौड़ती ज़िदंगी में ठहर गयी है। न मेरे पास कोई काम है और न ही इससे (साइकिल) किसी को काम है। मैं अपनी पूँजी खा रहा हूँ और यह भी यूँ खड़े-खड़े अपने कलपुर्जों को !
लोकबंदी के पश्चात यदि मैं पुनः अख़बार वितरण प्रारम्भ कर सका,तभी इसका भाग्योदय संभव है ,अन्यथा एक दिन इसे कोई कबाड़ी उठा ले जाएगा। दो माह पूर्व जिस प्रकार मैं समाचार पत्र का बंडल न आने से अपनी आजीविका खोने के भय से काँप उठा था, ठीक वैसी ही स्थिति कबाड़ी के रूप में अपनी मौत से साक्षात्कार होने की कल्पना मात्र से मेरी साइकिल की भी है।फ़र्क हम दोनों में सिर्फ़ यह है कि मैं अपनी वेदना को व्यक्त कर सकता हूँ और यह मौन- निस्सहाय खड़ी है।
हाय ! इसके रुदन को मैंने पहले क्यों नहीं सुना ? किसी ने सत्य कहा गया है कि मनुष्य प्रत्येक संबंध को अपनी आवश्यकतानुसार स्वार्थ के तराजू पर तौलता है। मैं भी यही कर रहा हूँ, जब तक इसकी उपयोगिता थी,तो इसका कितना ध्यान देता था, किन्तु आज़ इसकी भूख की मुझे चिन्ता नहीं है ? इन दो महीनों में इसके प्रति मेरे व्यवहार में ठीक वैसा ही परिवर्तन आया है , जिस तरह आत्मीय जन संबंध में दरार पड़ने पर सम्मुख हो कर भी अज़नबी बन जाते हैं। मैं यह कैसे भूल गया कि मेरे जीवन में आये अनेक तूफ़ानों की यह साइकिल ही एकमात्र साक्षी है। सर्द रात में ज़ब सड़कें भयावह लगती थीं। यह मेरी यह "संघर्ष सहचरी "साथ होती थी। पूरे पच्चीस वर्ष प्रतिदिन औसत साढ़े तीन घंटे मैंने साइकिल चलाई है। दो घंटे समाचार पत्र वितरण और शेष समाचार संकलन आदि इसी के सहारे तो करता रहा।
अरे भाई ! साइकिल वाले पत्रकार भाई का सम्मान मुझे ऐसे ही नहीं मिला है,किन्तु इस लोकबंदी में मेरी ही तरह यह भी अनुपयोगी हो चुकी है। वर्ष 1994-95 की बात करूँ, तो मैं एक वर्ष तक इस शहर में पैदल ही अख़बार लिये भटकता रहा। मीरजापुर से रात्रि 12 बजे जब वापस बनारस पहुँचता ,तब अपने पाँव को थामे, सिसकियाँ रोके माँ को पुकारा करता था, यद्यपि यह दर्द उस भूख से बड़ा नहीं था, जिसके लिए ताउम्र काशी छोड़ने को मैं विवश हुआ। महानगरों से मीलों लम्बी पैदल यात्रा कर घर वापस लौट रहे इन प्रवासी श्रमिकों को देख ,मुझे इनकी क्षुधा और पीड़ा की अनुभूति इसीलिए है कि मैंने भी पूरे वर्ष भर प्रतिदिन छह घंटे खड़े-खड़े बस में सफ़र ही नहीं किया, वरन् हाथों में ढेर सारे अख़बार लिये तीन घंटे किसी अनजान शहर में लम्बे-लम्बे डग भरता सड़कें नापा करता था। तब मेरी एक ही ख़्वाहिश थी कि किसी प्रकार साइकिल रखने की व्यवस्था इस अनजान शहर में कहीं हो जाती।
और यहाँ साइकिल से मित्रता होने के पश्चात एक दिन भी (समाचार पत्र कार्यालय में अवकाश के दिन को छोड़कर) ऐसा नहीं रहा कि मैंने हाथ-पाँव जोड़ कर इसे मनाया न हो। सवारी करने से पूर्व इसकी सीट पर दुलार से थपकियाँ दिया करता था। जरा भी उबड़-खाबड़ स्थल पर इसका पहिया पड़ा नहीं कि अगले दिन सुबह भागा -भागा उसके डॉक्टर के पास जा पहुँचता था,इस आशंका से कि कहीं रिम डायल न हुआ हो अथवा ट्यूब पंचर तो नहीं है। आज़ इसकी इस स्थिति के लिए दोषी मैं नहीं तो कौन है ?
ओह ! मैं कैसे इतना निष्ठुर और कृतघ्न हो सकता हूँ कि जो साइकिल वर्षों से मेरी आजीविका में सहयोगी रही। जिसके साथ मैंने जीवन के तिक्त और मधुर क्षण बिताए है। जिसने मेरी दुर्बल काया को अवलंबन दिया।उसकी देख-भाल भी मैंने नहीं की ! इसीलिए न कि यह मेरे लिए अनुपयोगी हो गयी है। जैसे पिछले दो महीनों से मेरे अख़बार का बंडल नहीं आने से यहाँ मेरी कोई उपयोगिता नहीं रही। संस्थान ने कभी यह नहीं पूछा - " शशि , तुम बाहर रह कर इन दो- ढ़ाई महीने से अपना ख़र्च किस प्रकार चला रहे हो ।"
मैंने सोचा था कि चलो विज्ञापन और अख़बार का जो बकाया बिल है,उसके ही कुछ रुपये मिल जाएँगे, तब भी काम चल जाएगा। दुर्भाग्य से ऐसा भी नहीं हुआ, मेरे सिर्फ़ दो-तीन पाठकोंं को ही इसका स्मरण रहा । इस लोकबंदी में यह उनका मेरे ऊपर बड़ा उपकार है, अन्यथा मुझे अपने परिश्रम का धन भी अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। तो क्या मेरे साथ जो कुछ हो रहा है , मैं भी वहीं अपनी इस प्रिय साइकिल के साथ करुँ ? क्या यही मानव धर्म है ? मेरी चेतना मुझे सावधान कर रही थी ।
अरे हाँ ! कल तो 30 मई (हिन्दी पत्रकारिता दिवस) है। मैं वर्ष 1994 से ही इस अवसर पर मंच से अनेक विद्वान वक्ताओं का यह उपदेश सुनता आ रहा हूँ-
" पत्रकार केवल समाचार नहीं बेचता है। वह सिर भी बेचता है और संघर्ष भी करता है। उसका कार्य प्रजा के दुःख को सरकार के समक्ष रखना, उसे सही परामर्श देना और आवश्यकता पड़ने पर उसके अन्याय के विरुद्ध अपनी लेखनी को गति देना है। पत्रकार यदि यह कर्तव्य नहीं निभाता है, तो वह भी एक दुकान है,किसी ने सब्जी बेंच ली और किसी ने ख़बर, आदि-आदि..।"
ऐसे ही आदर्श वाक्यों का प्रयोग हम पत्रकारों ,पत्र प्रतिनिधियों और संवाददाताओं के लिए आज के दिन होता है, किन्तु इस लोकबंदी में जब हम श्रमजीवी पत्रकार अपने संस्थान, समाज और सरकार की ओर इस आशा से टकटकी लगाए हुये थे कि क्या हमें भी किसी प्रकार का आर्थिक सहयोग मिलेगा, तब ऐसे उपदेशक कहाँ चले गये ?
इन दो माह में पत्रकारिता मुझे अवसाद की ओर लेती गयी, तन्हाई की ओर लेती गयी। जहाँ प्रवासी श्रमिक तक अपने घरों की ओर भाग रहे थे। मैं जीवन की शून्यता और दर्द को समेटे अपने आशियाने को ढूंढ रहा था। मेरा कौन है ? मेरे लिए किसी का अपनापन क्यों नहीं है ? क्या मैंने पुरुषार्थ नहीं किया , फ़िर मेरे जीवन की बगिया क्यों नहीं मुस्काई ? क्यों वेदनाओं की कठपुतली बना विदूषक सा औरों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन अपनी लेखनी के माध्यम से करता रहा ? क्या इस सभ्य संसार में निखालिस कुछ भी नहीं है,समय और भाग्य का यह कैसा अत्याचार है ?
मुझे अपने एक अन्य शुभचिंतक का हितोपदेश स्मरण हो आया है । चार-पाँच वर्ष पुरानी बात है। मैं संदीप भैया की दुकान पर बैठा हुआ था कि भाजपा के वरिष्ठ नेता रामदुलार चौधरी आ गये। वे हमलोगों के साथ हँसी-ठिठोली भी कर लिया करते हैं। सो, सबके समक्ष ही उन्होंने मुझसे कहा था कि पता है,सबरी मुहल्ले में फलां कह रहा था -" ई पगलवा पत्रकार कब-तक साइकिल से अख़बार बाँटता रहेगा ?"
आरा मशीन संचालक चौधरी साहब मेरा उपहास नहीं कर रहे थे। वे मुझे इस सत्य का बोध करवाना चाहते थे कि अर्थयुग में सिक्के की झंकार ही सब सुनते हैं। उन्होंने कहा था -"समय के साथ चलना सीखों। जरा देखों अपने इर्द-गिर्द , तुम्हारे बाद आये कितने ही रिपोर्टर बिना अख़बार के ही साधन संपन्न हो गये हैं और तुम हो कि हड्डी पर कबड्डी खेल रहे हो।"
अत्यधिक श्रम एवं मेरे गिरते हुये स्वास्थ्य को लेकर वे चिंतित थे। कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि ऐसा कोई व्यापार करो, जो घाटे का सौदा हो ? पत्रकारिता भी अब मिशन नहीं व्यवसाय है। आज कंधे पर खादी का झोला लटकाए चलने वाले पत्रकार और संपादक नहीं रहे। समाजसेवा, राजनीति, चिकित्सा, शिक्षा और पत्रकारिता भी, यहाँ व्यापार है।
मुझे नहीं पता कि मेरी साइकिल सही रास्ते पर रही अथवा मार्ग भटक गयी, किन्तु आजीविका खोने के अपने तीन दशक पुराने भय पर इस लोकबंदी में मैंने विजय पा ली है, क्योंकि आज़ मैं बेकार होकर भी भूखा नहीं हूँ । बुभुक्षा एवं तृषा से भरे मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है।
( क्रमशः)
-व्याकुल पथिक
शशि जी हमने आपके पत्रकारिता के क्षेत्र में संघर्ष को आरम्भ से देखा है।ये वही दौर था जब हमने भी पत्रकारिता की शुरुआत की थी।हमने तो लगभग दस बारह साल बाद अपने आपको दैनिक रिपोर्टिंग से अलग कर लिया लेकिन आपका संघर्ष आज भी जारी है उसी तरह अपनी प्रिय सायकिल के साथ।
ReplyDeletePradeep Mishra बहुत सुंदर प्रतिक्रिया प्रवीण भैया,बस मन में एक भाव आ गया कि यह कैसा पत्रकारिता जगत है। आभार।
Deleteवाह, शशि भैया आप ने अपने लेख में कार्य करने के तरीकों के प्रति लगन व प्यार है। सभी को अपने कर्म पर भरोसा होना चाहिए। जबकि भगवान की कृपा से आप के पास सबकुछ था परंतु लगन अपने काम की थी । सुन्दर लेख के लिए साधुवाद।
ReplyDelete-चंद्रांशु गोयल ,अध्यक्ष होटल एसोसिएशन मिर्जापुर
पुरानी साइकिल के माध्यम से आपकी संघर्षमयी जीवन-गाथा पढ़ने को मिली। ... प्रगति तक लाने वाली इस सुन्दर जीवन-यात्रा के लिए साधुवाद प्रिय भाई शशि जी!
ReplyDeleteजी इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए अत्यंत आभार।
Deleteशशि भैया , आपकी संघर्ष यात्रा में अतुल्य सहयोग करने वाली आपकी साईकिल पर आपका ये लेख बहुत रोचक भी है और भावपूर्ण भी | किसी समय साईकिल की जीवन में एहमियत आज की कार से ज्यादा थी | साईकिल आम जीवन में बहुत उपयोगी रही है पर यदि यह जीवन के संघर्ष की सहचरी हो तो इसकी कीमत कई गुना बढ़ जाती है |आपने अपने लेख में अपनी साईकिल के प्रति जो अनुराग दिखाया है वह बहुत मर्मस्पर्शी है | सच है कई बात जड़ चीजें भी जीवन का एक अहम् हिस्सा बन जाती हैं जिसका हमें पता ही नहीं चलता | सुंदर भावपूर्ण लेख के लिए मेरी शुभकामनाएं |
ReplyDeleteजी रेणु दी, इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार।
Deleteयूँ देखें तो निर्जीव वस्तुओं का सजीव प्राणियों के लिए बड़ा महत्व है।
प्रिय शशिभाई,लोगों ने आपके साथ जो भी किया हो पर आपने अपने संघर्ष और स्वाभिमान में कोई कमी नहीं छोड़ी। आपकी साइकिल भी आपकी तरह स्वाभिमानी है,आपने स्वयं उसका दर्द समझ लिया तो ठीक वरना वह मौन रहकर सब सहती रहेगी। अब उसको ठीक कराइए। काम के लिए नहीं तो थोड़ा बहुत घूम फिर आने हेतु उसका प्रयोग कीजिए। लेख बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने मीना दी।
Deleteलॉकडाउन में वह वैसी ही पड़ी है।
आपका हृदय से आभार।
ReplyDeleteमूल्य आधारित जीवन कष्टप्रद होता है, किन्तु ग्लानि का अभाव सार्थकता देता है।
ReplyDelete--ज्योत्सना मिश्रा
सही रास्ते पर चल रही है आपकी साइकिल।
ReplyDeleteजी आभार गुरुजी।
Deleteसच्चाई और सच्चे लोगों को हमेशा पसंद किया जाता है। विद्वान और संवेदनशील लोगों की पूजा तो हर कोई करता है। पत्रकारिता का कार्य हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। छोटे नगरों में किसी पत्रकार का कार्य समाचार पत्र प्रबंधन की ओर से बहुत आर्थिक समर्थन वाला नहीं होता है। इसमें मिलने वाला सम्मान इस कार्य की ऊर्जा होती है। यह ऊर्जा सीधे-साधे पत्रकार के लिए बहुत आगे बढ़ने वाली नहीं होती है। स्वयं और परिवार की ज़िम्मेदारियों के निर्वहन के लिए पर्याप्त धनार्जन अपरिहार्य है।
ReplyDeleteकिसी ने कह दिया कि आप बहुत अच्छा लिखते हैं, तो आप उसी दिशा में बढ़ चलते हैं। आप भावनाओं के सागर में तैरने लगते हैं। शब्द आकार लेने लगते हैं। आपका लिखा हुआ रोचक होने लगता है। हर पाठक के हृदय में आपके प्रति सम्मान बढ़ता चला जाता है। महत्त्वाकांक्षी नेताओं और अधिकारियों से मित्रता हो जाती है। हर अवसर पर आमंत्रण और महत्त्व मिलने लगता है। इधर इन सब कार्यों में समय भी इस तरह से बीतने लगता है कि ख़ुद के प्रति अन्य ज़िम्मेदारियों की उपेक्षा होने लगती है। जब एहसास होता है, तो समय और यौवन, दोनों आपसे दूर चले जाते हैं। विपरीत परिस्थितियों में प्रशंसा के साथ अब करुणा के शब्द भी आपको सहारा देने लगते हैं। एक समय ऐसा भी आता है कि अपनी उपलब्धियों पर विचार करने लगते हैं। अब तक जितना लेखन का अभ्यास रहा, जितना प्रशंसा का भंडार रहा, जितने करुणा और प्रेम के शब्द रहे, सब के सब व्यर्थ लगने लगते हैं। आत्ममुग्धता बेमानी हो जाती है। आप वर्तमान से मुक्ति के लिए छटपटाने लगते हैं। जिस साइकिल को अपनी सहचरी बनाया था, उसके प्रति अपराध बोध से भर जाते हैं। हर ऋतु में कितना आपने उसका उपयोग किया। उसके सहारे छोटी-छोटी मंज़िलें प्राप्त करते रहे। हर मंज़िल के बाद लगा कि यहीं से कोई और रास्ता जाता है। फिर चल पड़ते हैं। चलते-चलते आप राहों के राही कब बन गए, पता भी नहीं चला। अब अब रुकना ठीक नहीं है। चलते ही रहना है।
शशि भाई, आपको दिल से चाहने वाले बहुत लोग हैं। आपसे बहुत प्रेरणा मिलती है। आप भावुक हैं। इसी कारण आपके लिए दुआएँ करने वाले दूर तक फैले हुए हैं। इस तरह प्यार पाना हर किसी के लिए संभव नहीं है। आप जैसे सच्चे व्यक्तित्व को सच्चा प्यार। बस इससे कबूल करते रहिए और अपनी ज़िंदादिली को हमेशा बनाए रखिए। हम सबने अपनी ज़िंदगी की शुरुआत साइकिल से की थी। लॉकडाउन के दौरान अपनी और अपने परिवार की ज़िंदगी को बचाने के लिए लोग साइकिल से हज़ारों किलोमीटर चल रहे हैं। मुसीबत के दिनों में साइकिल ने अपनी उपयोगिता को साबित कर दिया है। शशि भाई, आपके लेखन और व्यक्तित्व को मेरा सलाम। 🙏
पत्रकारिता में आने के पश्चात मैं राजकपूर साहब की फ़िल्म " मेरा नाम ज़ोकर" के इस गीत "जीना यहाँ मरना यहाँ " से सदैव प्रेरणा लेता रहा हूँ।
Deleteयौवन की दहलीज़ पर पाँव रखने के बाद से पत्रकारिता और साइकिल यही दोनों मेरा सबकुछ है। इससे भाग कर कहीं नहीं जा सकता हूँ। शेष सारे संबंध पीछे छूट गए हैं।
अनिल भैया , आपने बिल्कुल ठीक कहा कि अपने समाचार लेखन की प्रशंसा सुनकर हम आत्ममुग्ध हो जाते हैं और यह सोचना बंद कर देते हैं कि एक दिन हमारा भी परिवार होगा और हमारी भी उसके प्रति जिम्मेदारी होगी । अंततः हमारे जैसे जनपद स्तरीय पत्रकार धोखा खाते हैं। लेकिन , तब तक देर हो चुकी होती है।
कल हिन्दी पत्रकारिता दिवस है,आपने अपनी प्रतिक्रिया के माध्यम से श्रमजीवी पत्रकारों को सत्य का बोध कराया है।
प्रणाम।
साइकिल वाले पत्रकार को हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर ढेर सारी बधाई एवं शुभ कामना.
ReplyDeleteव्याकुल पथिक की लेखनी चलती रहे. आज के परिदृश्य पर चर्चा चलती रहनी चाहिए. 🙏🙏
-डॉ नीरज त्रिपाठी।
प्रिय शशि गुप्त,
ReplyDeleteपत्रकारिता के मूल भावों को देखा जाए तो पूरी पत्रकारिता ही साइकिलिंग ही है । अगला पहिया अगली पंक्ति के लोगों का प्रतिनधित्व करता है तो पिछला पिछली पंक्ति के लोगों का । इसी पहिए पर बोझ भी ज्यादा होता है । कम हवा यानी कम परिश्रम से सब कुछ बैठ जाता है। जैसे इन दिनों कोरोना-काल में पिछले पहिया की तरह मजदूर तबका पंक्चर क्या हुआ जीडीपी ही पंक्चर हो रही है । इस साइकिल की सीट पर सवार ही सही अर्थों में पत्रकार होता है । पैंडल मारता है। यह पैंडल है व्यवस्था । यह दीगर है कि लक्जरी गाड़ी के दौर में पत्रकार व्यवस्था के AC कमरे में बैठकर भूल गया कि समाज-देश कहां जा रहा है ? वह इर्द-गिर्द न देखकर 'चल नदिया के पार' स्टाइल में गैर देशों, सात समंदर पार के दृश्यों को ज्यादा देख रहा है ।
काशी से आकर आपकी सहचरी साइकिल से की गई 25 वर्षों की पत्रकारिता को परिभाषित करना पुराण का रूप ले लेगा । काशी के बाबा विश्वनाथ भी समय-समय पर विंध्यक्षेत्र आते हैं । वे समाधान के देवता हैं । पत्रकार का काम सवाल खड़ा करना नहीं बल्कि सवालों को अंजाम तक पहुंचना होता है। 25 वर्ष रजत-जयंती वर्ष हुआ करता है। महादेव के सिर पर चन्द्रमा रजत का ही सूचक है। महादेव साइकिल के दो पहिए की तरह एक तो पर्वत पर तो दूसरे श्मशान की यात्रा करते हैं ।
जहां तक पागल की उपाधि है तो यही शिवत्व है । महादेव को पगला कहा करते थे यहां के कचहरी बाबा । जो सब कुछ लूटा दे और कोई असर न पड़े, कांकर-पाथर तथा भौतिकता जुटाने में कीमती आनन्द खोकर तनाव में रहने वालों के लिए ऐसा व्यक्ति पागल ही लगेगा ।
कंधे का झोला गायब इसलिए हो गया है कि अब *झोला-झोली* भरने की पत्रकारिता को ज्यादा तवज्जो दिया जा रहा है ।
इतिहास झोले में जन-दर्द की दवा बांटने वाला बनाता है न कि *भर दे झोली* की याचना करने वाला ।
*पत्रकारिता के आदर्शों एवं सिद्धांतों को साथ रखने पर बधाई ।* -सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।
(आप वरिष्ठ पत्रकार , संपादक एवं साहित्यकार हैं।)
शशि जी की सच्ची पत्रकारिता को इससे अधिक सम्मानपत्र भला और क्या होगा भैया, वास्तव में आज के अर्थप्रधान युग में जब अधिकांशतः पत्रकारिता की साईकिल पंचर हो गई है,ऐसे में शशि भाई का संघर्ष लोगों में उम्मीद को जगाता है👌👏--
ReplyDelete-प्रदीप मिश्र,प्रबन्धक-रेनबो पब्लिक
शशि भाई आपका लेख प्रेरणा दायक होता है, बहुत कुछ सीखता भी हूँ उससे मैं, रही आपके सायकिल की बात तो वो आपकी पहचान है क्यों है ये आप भी जानते हैं , इसी तरह के अच्छे और सच्चे लेख से अपने साथ जुड़े सभी लोगो को रूबरू कराते रहिये 🙏
ReplyDelete-राजीव शुक्ला।
शशि भाई ठीक कह रहे है आप की खड़ी साइकिल ने आपको साइकिल वाले पत्रकार के रूप में पहचान दी हैं किंतु आप की साइकिल तो वर्तमान पत्रकारिता में आपके संघर्ष संवेदनशीलता और ईमानदारी की दस्तावेज बन चुकी है, जिसका सर्वथा अभाव देखने को मिल रहा है। हम सभी को आपकी पत्रकारिता से प्रेरणा मिलती है।
ReplyDelete- प्रदीप शुक्ला पर्यावरणविद
शशि भाई कहने को तो वह साइकिल है परंतु जब सड़को के विशाल सीने को रौंदते हुए मौसम के थपेड़ों के विरुध्द अपनी सामर्थ्य प्रदर्शित करती है तो अच्छे अच्छे मोटरसाइकिल को पीछे छोड़ देती है , शायद इसीलिए संघर्ष के इस प्रतीक चिन्ह को समाजवादी पार्टी ने जब चुनाव चिन्ह बनाया तो न जाने कितने धुरन्धर पूंजी पति मर्सिडीज से साइकिल की सवारी करने लगे , यह केवल यातयात का साधन नही ब्यक्ति के सामर्थ, व जीवटता को भी प्रदर्शित करती है ।
ReplyDelete-अखिलेश मिश्र ' बागी'
पत्रकार
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शशि भैया का लेख लेख नहीं बल्कि युवा कलमकारों (पत्रकारों) के लिए एक सीख होता है।✍👌👏👏
- रामलाल साहनी, पत्रकार
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शानदार स्टोरी भैया🙏🙏
संतोष मिश्रा ,पत्रकार
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कलम के सिपाही बड़े भाई शशि भैया को पत्रकारिता दिवस की हार्दिक बधाई.…..माँ सरस्वती की कृपा हमेशा आप पर बनी रहे।
- पंकज मालवीय, पत्रकार
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शशि भैया सादर प्रणाम🙏 आपकी लेखनी को मैं बारंबार प्रणाम करता हूं🙏✍✍✍ आप की साइकिल यात्रा पर लेख के विषय में मेरे पास शब्द नहीं है कि क्या लिखूं✍ बस मैं यही कहूंगा आप अपनी साइकिल को कभी मत छोड़िए गा🙏🎩✍ जादूगर रतन कुमार😊🙏🎩
🙏 🌹 🙏
ReplyDeleteआभार मित्र।
Deleteप्रिय शशि भैया सादर प्रणाम 💐💐💐💐ईश्वर आपको सदैव स्वस्थ और दीर्घायु बनाए रखें ।।
ReplyDeleteसंपूर्ण देश में निष्पक्ष पत्रकारिता का इतिहास में गौरवशाली स्थान रहा है भारत की स्वतंत्रता के आंदोलन में पत्रकारों की बहुत ही अहम भूमिका रही है पत्रकार मानव व समाज के हित में सदैव तत्पर रहते हैं आपातकाल के दौरान जब प्रेस पर आजादी पर आंच आई थी तब भी पत्रकारों ने धैर्य व साहस का परिचय दिया था। पत्रकारिता जीवन के संघर्ष की वह कहानी है जिसमें व्यक्ति के व्यक्तित्व की गरिमा जुड़ी होती है और ऐसे गरिमा मान सौहार्दपूर्ण पूर्ण आचरण वाले सभी पत्रकारों को मेरा शत-शत नमन है।🙏🙏
*आप वह है जिसमें अपनेपन का गुमान है, तलवों तले कुबेर का धन बेगूमान है।।
ठोकरें लगे तो कंकड़ी मुक्ता समान है, रख दो जहां कदम वही हीरो की खान है।।
-सुनील कुमार तिवारी ,अधिवक्ता उच्च न्यायालय
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शशि भैया पत्रकारिता में आप का कोई जोड़ नहीं है लेकिन इस युग में आप के जैसा पत्रकार नहीं मिल सकता
अधिवक्ता राजेश यादव
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पत्रकारिता दिवस को समर्पित शशि भैया के दर्शन "साइकिल " जो ज्वलंत पत्रकारिता का जनपद मे प्रतीक बन चुका है, लेख को सैल्यूट 👏🏻
महेंद्र जी पत्रकार
शशि जी पत्रकारिता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें मा विंध्य वासिनी की कृपा हमेशा आप पर बनी रहे एवं पत्रकारिता मे और भी यश मिले ऐसी शुभकामनायें 🙏🌹🙏🌹
ReplyDelete- सीताराम मेहरोत्रा
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🙏🙏🙏भैया सादर प्रणाम आपकी लेखनीय युवा पत्रकारों को सीखने का सुनहरा अवसर आपके लेखनीय के माध्यम से मिलता है🙏🙏🙏 राजाराम यादव अधिवक्ता
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आपका ब्लॉग पढ़ने बहुत ही आनंद आता है ।
- सुदर्शन बुधिया
गजब भैया आपकी सदा ऐसे ही चलती रहे ऊपर वाले से यही कामना है
ReplyDelete-जे पी यादव
सायकिल आपके जीवन की लाइफ लाइन रही है । उसने आपकी पत्रकारिता को अलग पहचान दिलाई , भीड़ से अलग खड़ा किया ।
हिन्दी पत्रकारिता दिवस की आपको हार्दिक शुभकामनाए
-अरविंद त्रिपाठी पत्रकार।
🙏 शशि भाई आपको बहुत बहुत बधाई💐💐
- संजय कुमार सिंह।
लेख लिखते समय माँ सरस्वती की अनुकम्पा आसपास थी, लिहाजा आदर्श पत्रकारिता का यह सम्पादकीय हो गया। जो कोई भी शब्दों और वाक्यों की ऊंचाई और गहराई को समझता है- उसके लिए यह मां द्वारा प्रदत्त पोषाहार है ।
ReplyDelete*'राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है'* राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों की तर्ज पर आपके लेख को जिसने सराहा, वही सराहनीय हो गया। हो सकता है कि हीनता के शिकार लोग इस लेख से अवसाद में चले गए हों लेकिन यह लेख पत्रकारिता की आत्मा की आवाज है ।-सलिल पांडेय,
ReplyDeleteप्रिय शशि जी! ढेर सारा स्नेह पत्रकारिता दिवश की, साइकिल की सवारी बड़ी पुरानी,सहचरी की भाॅति सरल,सुलभ,आज्ञाकारिणीऔर बिना थके एवं जब तक आप चाहें नहीं रुके नही,हम आप बहुत सारे लोग इसकी सवारी करते हुये बड़े हुये हैं,हमें इस पर सवारी करते हुये बड़ा गुमान भी होता था,पहाड़ियों पर पूरी ताकत लगाकर जब हम चढ़ जाते थे तब एवरेस्ट पर चढ़ जाने का बरबस गुमान भी होता था,साइकिल पहले भी जवान थी,आज भी उसी तरह ऊर्जा से भरी जवान है,मैंने जिस साइकिल पर चढ़कर इंटरमीडिएट पास किया,उसी पर मेरे बेटे ने भी इन्टरमीडिएट पास किया,हमेशा चमकती थी,लोग बताने पर चौंकते थे,पर हमने भी बड़े प्यार और दुलार से सहेजकर रखा था, तो शशि जीआपकी वह निधि अथवा पूॅजी अनमोल है जिसने सदैव आपका मान बढ़ाया और आपकी पहचान बनी,उस पर गर्व करना आपका धर्म और दायित्व दोनों है,आप सरल और विशाल हृदय के स्वामी हैं,भले ही मोटर बाइक अथवा कार के स्वामी नहीं बने किन्तु आप सबके चहेते जरूर बन गये क्योंकि निडर पत्रकारिता और स्वच्छ पत्रकारिता के बल पर किसी की परछाईं बनने से अच्छा आपने अपने पर भरोसा किया ,आप स्वस्थ और दीर्घायु हों,यही मंगल कामना है,लेखनी चलती चले
-रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प. "भागीरथी"
संघर्ष का संतोष बना रहे।
ReplyDeleteजी आभार, अग्रज।
Deleteसिद्धांतों और आदर्शों पर चलने वाले विरले होते हैं जो कष्टप्रद जीवन के साथ सत्य का वरण करते हैं .बहुत सुन्दर और हृदयस्पर्शी लेखन शशि भाई । आप स्वस्थ रहें ..प्रसन्न रहें ।
ReplyDeleteजी इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आभार मीना दी।
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