मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -2]
(जीवन की पाठशाला से)
पिछले लेख की की प्रतिक्रिया में " ब्लॉग जगत की मीरा" की उपाधि से विभूषित कवयित्री मीना दीदी ने मुझे यह एक उपयोगी परामर्श दिया था-" प्रिय शशिभाई, आपकी साइकिल भी आपकी तरह स्वाभिमानी है,आपने स्वयं उसका दर्द समझ लिया तो ठीक वरना वह मौन रहकर सब सहती रहेगी। अब उसको ठीक कराइए। काम के लिए नहीं तो थोड़ा बहुत घूम फिर आने हेतु उसका प्रयोग कीजिए।"
उनकी प्रतिक्रिया निश्चित ही मुझे चौंकाने वाली रही।सो,अपने अतीत और वर्तमान को टटोलते हुये स्वयं से यही प्रश्न कर रहा हूँ-" मैं और यह मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल क्या कभी सुख के साथी भी रहे हैं ?"
मुझे आश्चर्य हो रहा है कि मैंने ऐसा पहले क्यों नहीं सोचा और सत्य तो यह भी है कि इसने सिर्फ़ मेरे दुःख ही बांटे हैं। मुजफ़्फ़रपुर में जब यह पहली बार मेरे पास आयी तब से लेकर अब तक साइकिल का उपयोग मैंने अपने मनोरंजन के लिए नहीं किया है। साइकिल लेकर कभी किसी धर्मस्थल अथवा पर्यटन स्थल नहीं गया। इसे लेकर स्कूल- कॉलेज जाने का तो प्रश्न ही नहीं था। उस समय साइकिल मेरे लिए एक स्वप्न थी। मैंने इसके पहियों को महज़ अपनी आजीविका के लिए घंटों इन कठोर सड़कों पर घसीटने के अतिरिक्त इसे कभी कोई सुख नहीं दिया है। अतः जो बोया सो काट रहा हूँ, मेरा जीवन भी नीरस और कष्टमय रहा। मेरे लिए यह एक सब़क है। एक अलग प्रकार की अनुभूति है।जैसी क्रिया वैसी ही प्रतिक्रिया यही प्रकृति का मूल सिद्धांत है। जीवन में उत्साह के लिए उत्सव आवश्यक है। सामाजिक एवं धार्मिक पर्वों का सृजन इसीलिए हुआ है। हमें अपने समस्त उत्तरदायित्व के बावजूद अपने मनोविनोद के लिए कुछ वक़्त निकालना ही चाहिए , अन्यथा कहने को फ़िर यही शेष रहेगा- मन पछितैहै अवसर बीते। मैंने ऐसा नहीं किया, इसलिए अपनों से दूर हो गया।
साइकिल के प्रति मेरी लालसा की भी एक रोचक कथा है। तब मैं लगभग दस वर्ष का था। बनारस में मेरे पिता जी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। अतः जहाँ तक मुझे स्मरण है मेरा परिवार रिक्शे का प्रयोग वर्ष में दो बार ही करता था। श्रावण मास में दुर्गा जी-मानस मंदिर और 25 दिसंबर (बड़ा दिन) को सारनाथ जाने के लिए । माता-पिता के साथ हम तीनों भाई -बहन एक ही रिक्शे पर बैठते थे। जिससे रिक्शावाले को जहाँ चढ़ाई होती थी, अधिक श्रम करना पड़ता था और हम पाँचों को भी परेशानी होती थी। रिक्शा चालक के ललाट से टपकते पसीने की बूँदों को देख मेरा बालमन भावुक हो उठा था। जहाँ मेरे परिवार के अन्य सदस्य दर्शन-पूजन,मनोरंजन और वार्तालाप में व्यस्त थें, वहीं मैं गुमसुम इस चिंतन में डूबा हुआ था कि काश ! मेरे पास भी एक छोटी साइकिल होती तो हम दोनों भाई इस पर और वे तीनों रिक्शे पर होते। जिससे न रिक्शावाले को अत्यधिक श्रम करना पड़ता और न ही मेरे परिवार को यात्रा में कठिनाई होती। ऐसा सोच-सोच कर मैं इस "बड़े दिन" पर अपना दिल छोटा किये जा रहा था। मैंने आनंद के उस क्षण को व्यर्थ जाने दिया। परिणाम यह रहा कि बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष खड़ा होकर भी बोधिसत्व नहीं बन सका। अपने ही परिवार में मेरी इस करुणा, संवेदना और भावनाओं का कभी मोल नहीं रहा। सम्भवतः इसलिए कि मेरे अभिभावकों के लिए वह आर्थिक संघर्ष का दौर रहा। शिक्षण कार्य के प्रति समर्पित होकर भी पिता जी को श्रम का प्रतिदान नहीं मिल रहा था। यह पीड़ा उनकी झुँझलाहट में परिवर्तित हो गयी थी। हम बच्चों के हृदय को पढ़ने की अपेक्षा हमारे लिए रोटी की व्यवस्था उनके लिए महत्वपूर्ण थी।
उधर, जिस अवस्था में बच्चे मनोरंजन के लिए साइकिल की माँग अपने अभिभावकों से करते हैं, इसकी उपयोगिता के प्रति मेरा यह दृष्टिकोण बिल्कुल अलग ही था। मैंने अन्य मित्रों की तरह कभी अपने अभिभावकों से यह नहीं कहा कि मुझे साइकिल चाहिए। इसके पश्चात कोलकाता ननिहाल चला गया तो वहाँ मोटर कार देखने को मिला। ऐसे में साइकिल की क्यों आवश्यकता पड़ती,परंतु मेरे नन्हे से हृदय में यह आकाँक्षा कभी नहीं हुई कि मेरे पास भी कार हो।
वापस बनारस आने के पश्चात जब कक्षा दस का छात्र था, अभिभावकों को बिना बताए कॉलेज परिसर में एक सहपाठी की पहल पर पहली बार साइकिल की सवारी की थी। लेकिन तब तक बचपन पीछे छूट चुका था, फ़िर साइकिल सीखने में वह आनंद कहाँ ?
और हाँ मेरे पास स्वयं की अपनी साइकिल तब आयी ,जब मैं दूसरी बार मज़फ़्फ़रपुर गया। यहाँ एक थ्रेसर निर्मित करने वाली फ़ैक्ट्री में पहली बार मुझे स्टोरकीपर की नौकरी करनी पड़ी। यह पुरानी साइकिल मेरे लिए स्व० मौसा जी ने साढ़े तीन सौ रुपये में खरीदा थी, क्योंकि फ़ैक्ट्री काफ़ी दूर थी। बारह घंटे की ड्यूटी थी। मैं सुबह एक घंटे साइकिल चला कर जाता और रात जब लौटता, तो मेरी यह संघर्ष सहचरी और मैं दोनों ही बूरी तरह से थक चुके होते थे। प्रतिदिन सुबह आंगन में खड़ी साइकिल मुझे फ़ैक्ट्री की याद दिलाती थी। मौसा जी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।सो, आत्मनिर्भरता के लिए मुझे भी कुछ तो करना ही था। परंतु हम दोनों खुश थे, क्योंकि सुबह उठ कर मौसी जी मेरे लिए उबली सब्जी और रोटी बना दिया करती थीं,जो मुझे पकवान से भी अधिक प्रिय थी, जबकि मेरी साइकिल इसलिए प्रसन्न थी, क्यों कि प्रत्येक रविवार मौसा जी उसका ख़ूब सेवा-सत्कार किया करते थे।
यह फ़ैक्ट्री शहर से बाहर थी। रात्रि में सुनसान मार्ग से घर वापस लौटते हुये जब मैं भयभीत होता, तो मुझे स्मरण हो आया था कि सारनाथ जाते समय साइकिल की चाह मुझमें स्वयं के मनोरंजन के लिए नहीं, वरन् अपनों के हित में जगी थी। सो, जैसी कल्पना की थी, वह साकार हो रही है, फ़िर इसप्रकार विचलित और उदास क्यों होऊँ ? हाँ, यह भी सत्य है कि मैं उस साइकिल का आनंद कभी नहीं उठा सका था। वह मेरी संघर्ष सहचरी बन कर रह गयी थी। मेरे सारे स्वप्न बिखर गये थे। हाईस्कूल में गणित में 98 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाला छात्र उस फ़ैक्ट्री के स्टोर में बैठकर नटबोल्ट गिना करता था।
यदि मैंने भावनाओं पर नियंत्रण रखा होता , अपनों के तिरस्कार को गले लगा कर अपनी शिक्षा पूर्ण कर ली होती और घर का त्याग नहीं किया होता ,तो आज़ मेरे पास अपना मकान और परिवार दोनों होता।
यही भावुकता ही मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है।घर,परिवार और समाज के मध्य हमें रहना है, तो अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना होगा। लोकाचार हमें आना चाहिए, क्योंकि भावना जल है, जिसमें तैरा जा सकता है, किन्तु घर बनाने की आवश्यकता जब भी पड़ेगी, हम विवेकरूपी चट्टान की खोज करेंगे। जिस घर में रहकर हम अधिक सुरक्षित एवं व्यवस्थित होने का अनुभव करते हैं। मैंने अपनी भावनाओं को बुद्धि की कसौटी पर नहीं कसा, विवेकरूपी अंकुश का प्रयोग नहीं किया, इसीलिए सिलिगुड़ी में जन्म लेने के पश्चात बनारस से लेकर कोलकाता, मुजफ़्फ़रपुर, कलिम्पोंग अब इस मीरजापुर में यूँ भटकता रह गया। न अपना आशियाना बना सका न ही घर बसा सका।
किन्तु ऐसा भी नहीं है कि जीवन में मुझे कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ है। जहाँ विष है,वहाँ अमृत भी होता है। मैं अतीत में की गयी अपनी गलतियों को समझ रहा हूँ और विचारों के धरातल को छोड़ कर भावना के आकाश में उड़ने जैसी दुर्बलता से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हूँ। सच तो यह है कि यह पीड़ा सुकृतियों की पाठशाला है और आत्मपीड़न से आत्मदर्शन प्राप्त होता है।
( क्रमशः)
- व्याकुल पथिक
आपकी साइकिल हमेशा ही लाइन पर रहेगी क्योकि आपके ऊपर माँ विंध्यवासिनी का आशीर्वाद जो है और आप एक नेकदिल सच्चे इंसान जो ठहरे। आपकी इसी साइकिल ने आपको एक निष्पक्ष व ईमानदार सायकिल वाले पत्रकार के रूप में पहचान दी है। आप अपनी पहचान कभी खोने न दीजियेगा।
ReplyDelete-राधेश्याम विमल, पत्रकार
शशि जी आपके इस लेख से जो सबसे बड़ी सीख मिलती है वो पहली ये है कि "जीवन में उत्साह के लिए उत्सव आवश्यक है" और दूसरी शिक्षा "पीड़ा सुकृतियों की पाठशाला है और आत्मपीड़न से आत्मदर्शन प्राप्त होता है।" बेहतरीन लेख और लेख में मिली सीख के लिए आपको बहुत-बहुत साधुवाद!
ReplyDeleteसदैव की तरह उत्साहवर्धन के लिए प्रवीण जी आपका हृदय से आभार🌹
Deleteशशि भाई ,
ReplyDeleteआप जिस दौर से गुजरे है वह प्रभु की मर्जी थी और आप जिस मुकाम पर पहुँचे ये आपकी मेहनत व परिश्रम की देन है, माँ विंध्यवासिनी की कृपा से आप ऐसे ही आगे बढ़ते रहे और लोगो को दिलो में रहे
आभार दीपक जी।
Deleteसघर्ष तो आने वाले अच्छे दिन की आस होती है मान्यवर,आपने संघर्षों से सीखा और आज आप आत्मनिर्भर हैं यह अपने में बहुत बड़ी उपलब्धि है आपकी।
ReplyDeleteजी बिल्कुल, आभार।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-06-2020) को "ज़िन्दगी के पॉज बटन को प्ले में बदल दिया" (चर्चा अंक-3721) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी मंच पर स्थान देने के लिए आभार गुरुजी।
Deleteमनोबल बना रहे।
ReplyDeleteजी आभार, अग्रज।
Deleteज़िंदगी मे भावनाओ का नियंत्रित होना अतिआवश्यक है,और तिरस्कार ही सही में आगे बढ़ने का मार्ग होता है।इससे डरना नही बल्कि
ReplyDeleteसंघर्ष की आवश्यकता होती है। और मीना दीदी की बात भी बहुत विचारणीय है,जिंदगी के साथ ही सायकिल का पहिया भी चलता है।दोनों का रुक जाना किसी मायने में ठीक नही।
जी बिल्कुल, आभार ।
Deleteबिना संघर्ष के कुछ भी नहीं प्राप्त होता और यदि प्राप्त हो भी जाए तो आत्मिक सुख की अनुभूति नहीं होती। आप सच्चे दिल के इंसान हैं और ईश्वर सच्चे लोगों की ही परीक्षा लेता है। यह आपकी परीक्षा का काल चल रहा है बिना मनोबल खोए आप पथ पर अग्रसर रहें। सफलता जरूर हासिल होगी।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लेख...
जी अत्यंत आभार।
Deleteजहाँ विष है,वहाँ अमृत भी होता है।...सत्य कथन शशि भाई । अपना और अपनी संघर्ष सहचरी साइकिल का ध्यान रखें । मर्मस्पर्शी सृजन ।
ReplyDeleteजी मीना दी आभार।
Deleteमीना जी ने सच ही कहा है। यह साइकिल भी आपकी तरह स्वाभिमानी है, पर जीवन में सफलता के लिए कई बार विद्रोह करना पड़ता है, कई बार आक्रामक होना पड़ता है। कुछ पाने के लिए ज़िद करना पड़ता है। सिर्फ़ सहते रहना ही जीवन का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। आप सरल थे, तो स्वाभाविक है सबको आपने सरल ही समझा। जो भी मिला, उसको स्वीकार करते चले गए। कोई एक निर्णय जो आप कर सकते थे, वह कर नहीं पाए। कहीं न कहीं लगता है कि परिवार का समर्थन मिल नहीं पाया। यह भी हो सकता है कि आपने सब कुछ भविष्य पर डाल दिया था कि समय आने पर कुछ करेंगे। घर-परिवार सब कुछ होगा। पर, ऐसा हो न सका। जब कुछ नहीं हो पाता है, तो फिर बेचैनी विस्तार पाने लगती है। दिल हाय करके रह जाता है। काश! अनिर्णय की स्थिति से बाहर निकल गए होते। हर किसी की ज़िंदगी में 10-20 अवसर आते हैं। नहीं तो एक-दो अवसर अवश्य आते हैं। उन अवसरों का लाभ उठाना पड़ता है।
ReplyDeleteज़िंदगी का मामला हमेशा उन्नीस-बीस का होता है। कोई भी चीज़ आपको पूर्णता में प्राप्त नहीं होती है। उसे पूर्ण बनाना आपका काम होता है। हम सभी ग़लतियों के दौर से गुज़रते हैं। कुछ ग़लतियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें सुधारा जा सकता है, कुछ ऐसी होती हैं जिन्हें सुधारा नहीं जा सकता है। पर, असंभव कुछ भी नहीं है। ज़िंदगी की शुरूआत कभी भी और कहीं से भी की जा सकती है। पछतावे कुछ भी हासिल नहीं हो पाता है। ज़िंदगी के दर्द को ख़ुशी के रूप में सबके सामने रखना बहुत अच्छा होता है। परिस्थितियाँ बनती-बिगड़ती रहती है। आप कह लेते हैं और लिख लेते हैं। कई लोग बहुत कुछ कहना चाहते हैं और बहुत कुछ लिखना चाहते हैं, पर ऐसा कर नहीं पाते हैं। ज़माने में हमेशा प्यार देने वाले और प्यार की कामना करने वाले स्त्री-पुरुष मौजूद हैं। इसके लिए देहरी को लाँघना होता है, पर लोग क्या कहेंगे, यहीं पर आकर बात रुक जाती है और नई कहानी का प्लॉट तैयार हो जाता है। सचमुच दर्द में बहुत ताक़त है।
हाँ, एक बात और। आपकी पढ़ाई कम नहीं है। आपकी पढ़ाई हम पर भारी पड़ती है। सच्ची पत्रकारिता के आलोक में आपका जीवन दूसरों को प्रेरणा देता है। हम सब आपके लिए बेहतर जीवन की कामना करते हैं। बहुत बढ़िया लिखा है शशि भाई। 🌹
इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए अत्यंत आभार अनिल भैया।
Deleteनिश्चित ही आपसभी मित्रों से मुझे समर्थन, सम्मान और आत्मबल प्राप्त होता रहा है।
मैं उस चौराहे पर खड़ा हूँ , जहाँ से दूर तक देखा जा सकता है। अतःमेरा प्रयास यह है कि मैं सिर्फ़ रुदन के लिए कुछ भी लिखने के स्थान अपनी अनुभूतियों के माध्यम से ऐसे विषयों को पाठकों के समक्ष रखूँ, जिससे उन्हें परिवार और समाज में होने वाली उन गलतियों का पता चल सके, जिसका मानव जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।
प्रिय शशिभाई, ये उपाधि आप तक किसने पहुँचाई है? मुझे तो पता ही नहीं था।
ReplyDeleteखैर....
चलिए साइकिल की बात करते हैं। मेरे ससुरजी के पास एक साइकिल थी। वह साइकिल रिपेयर का सारा सामान एक लोहे की पेटी में घर पर ही रखते थे। उस पेटी में से कोई भी सामान निकालने की सबको सख्त मनाही थी। उनकी छुट्टी का आधा दिन आँगन में साइकिल के साज श्रृंगार/सार सँभाल में ही गुजरता था। ससुरजी बड़े गुस्सेवाले थे, उनके कोप से मैं, मेरे पति और देवरजी थर थर काँपते थे। साइकिल की घंटी ज्यों ही बजती, ससुरजी के आने की सूचना मिल जाती और मैं सिर पर पल्लू सँभाल चौके में घुस जाती....
एक बात मैंने अपने निरीक्षण से देखी है कि साइकिल के उपयोगकर्ता अपनी पत्नी से भी इतना प्यार नहीं करते होंगे जितना अपनी साइकिल से करते हैं।
अब लेख की बात करते हैं। आपकी लिखी कई पंक्तियाँ सुभाषितों की श्रेणी में आती हैं।
जिन ढूँढ़ा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ !
आपने अंतर्मन में चल रहे द्वंद्व के महासागर को मथने की हिम्मत की है, तभी इतने अच्छे लेखन के मोती निकालकर ला रहे हैं। अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
(यही भावुकता ही मनुष्य की सबसे बड़ी ----------- व्यवस्थित होने का अनुभव करते हैं।) यह पैरा विशेष अच्छा लगा। सस्नेह।
जी मीना दी, इतने विस्तार के साथ इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभारी हूँ।
Deleteअभी रेणु दी की टिप्पणी की प्रतीक्षा है।
मैं तो बस यूँ ही लिखते रहता हूँ ।
समाचार लिखने के कारण एक जो आदत सी पड़ गयी है।
जानता हूँ, ऐसे लेख कम पढ़े जाते हैं, पर क्या करूँ ?
और कुछ लिखना नहीं आता है।
प्रिय मीना, आपको ब्लॉग जगत की मीरा कहने पर मुझेगर्व है। आपके जीवन का ये प्यारा अनुभव जानकर बहुत अच्छा लगा। 😊😊
Deleteभैया जी , साधुवाद आप ने जीवन को इतनी नजदीक से चित्रण किया कमाल का दर्शन है। लेखनी को प्रणाम।
ReplyDeleteचंद्रांशु गोयल अध्यक्ष होटल- लॉज एसोसिएशन मिर्ज़ापुर।***
लेख लिखना आसान नहीं है, लेख की उत्पत्ति हर किसी की बात नहीं, लेकिन लेखक वही जो मन की बात करे..शशि जी की वक़्त की ताक़त से आप परिचित है ...सत्य परेशान होता है पराजित नहीं...तो चिंता किस बात की ...जय माँ विंध्याचल देवी की 🙏🏻
- निलेश पुरवार
शशि जी,आपने लिखा कि इस साईकिल ने मेरे साथ सुख के नहीं अपितु दुःख के ही दिन देखे-- तो जो दुःख में साथ दे उससे बड़ा सहचर और कोई नहीं होता,इसलिए आपके दुःख की साक्षी एकमात्र आपकी साईकिल ही है तो पहली बात उसके अच्छे स्वास्थ्य की जिम्मेदारी आपकी ही बनती है।दूसरी बात मानव जीवन अनेक जन्मों का नाटक है, हम केवल अपने जीवन के वर्तमान एपिसोड को ही देखते हैं किन्तु जीवन की अनन्त यात्रा में जो एपिसोड अतीत में(पूर्व जन्मों) में गुजर गए उनके बारे में हमें कुछ भी पता नहीं होता।एक बहुत अच्छी उक्ति है, अच्छी लगे तो धारण कर लें--
ReplyDeleteजो बीत गया वह सपना था,आने वाला कल कल कल्पना,किन्तु वर्तमान है अपना।
बाकी आप खुद अनुभवी हैं, एक बार पुनः आपकी दिल को छू लेने वाली रचनाधर्मिता को प्रणाम💐🙏
प्रदीप मिश्र,प्रबन्धक-रेनबो पब्लिक स्कूल,विन्ध्याचल।
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Ji Bhai sb,
Apne ateet ki sthiti wa jivan sangharsh ko bade hi imandaari darshanewala aap ka ye lekh,ek sunder wa mahatvapoorna sandesh bhi liye huye hai.Bahut uttam .🙏🏻🌹
- एक वरिष्ठ अधिकारी
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आपकी लेखनी बचपन की याद तो दिलाती ही है , लेकिन आपकी अनुभूति , मेहनत , बीती यादों को सुनकर आत्मा को अन्दर से हिल जाती है 🙏💐
मेराज खान, पत्रकार
'रावण-रथी विरथ रघुवीरा...' गोस्वामी तुलसीदास की चौपाई है । लंकाकांड में युद्ध के समय विभीषण को संदेह होता है कि बिना-रथ वाले श्रीराम रावण से कैसे जीतेंगे ? श्रीराम क्षमा, दया और जीवन के आदर्शों के रथ की बात करते हैं। अंततः श्रीराम ने मारा बाण और जनता की मुसीबतों पर अट्टहास करने वाला रावण धड़ाम से गिर पड़ा ।
ReplyDeleteसाइकिल धरती पर पैर की निरन्तर गतिशीलता से चलती है । जिन पैरों में गतिशीलता रहती है, उसका दिमाग भी गतिशील होता है और दिमाग अनन्त आकाश में छलांग लगाने लगता है। विचारों को लिपिबद्ध लेखनी करती है । यही विचार अनन्त काल तक मनुष्य के लिए उपयोगी होते हैं । वरना ऐसे लोग जो दिमाग से पैदल होते हैं, वे बेमौसम और ऊसर में वर्षा जैसे भाव-विचार व्यक्त करते भी दिख जाते है। इन्हीं दिनों कोरोना से धरती डोल रही है और कुछ लोगों को मसखरी सूझी है । इधर-उधर से जुगाड़ कर एवं अपनी कम्पनी का नेम प्लेट लगाकर खुद अपना पीठ थपथपाते हैं। बहराल भौतिक पदार्थों से सुख मिलता है लेकिन आंतरिक आनन्द नहीं ही मिलता है । भौतिक पदार्थ एक दिन 'भूत' की तरह डराने भी लगते है ।
साइकिल का एक पहिया दिमाग की तरह और एक हृदय की तरह निरन्तर चलता रहे, ऐसी कामना।
-सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।
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शशी भाई ।यह सामान्य साइकिल नहीं है। यह ईमानदारी कर्मठता एवं सादगी की पहचान भी है। यह प्रभाष जोशी का उडन खटोला है। परिश्रम और संधर्ष को सलाम।
-राजेंद्र तिवारी, वरिष्ठ पत्रकार एवं उप प्रधानाचार्य एस एन जुबली इंटर कॉलेज
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सशक्त चित्रण शशि जी, आपके लेख में पाठक हर एक लाइन को स्वयं महसूस करता है,
और जहां तक घर बनाने की रही बात, लोग तो सीमेंट कंक्रीट का घर बनाते हैं, आपने तो असंख्य लोगों के मन में सुंदर घर का निर्माण किया है, जो अतुलनीय है।
-भरत अग्रवाल
आपके संघर्ष के आगे हमारे जीवन का संघर्ष अभी शून्य के बराबर है भैया
ReplyDeleteआभार सुनील भैया।
Deleteशशि भैया, प्रिय सखी मीना की आत्मीयता भरी टिप्पणी के बाद गहन चिंतन ने आपसे बहुत सुंदर भावपूर्ण लेख लिखवाया है। उनका सुझाव नितांत उपयोगी और व्यवाहारिक है। आपको अपनी संघर्ष संगिनी साइकिल को काम के लिए भले ना सही, सेहत के लिए जरूर चलाना चाहिए जिससे आप दोनों काआत्मीय साथ बना रहे और साइकिल का अस्तित्व भी कायम रहे । --आपने बहुत सुंदर बात लिखी-आत्मपीड़न से आत्मदर्शन प्राप्त होता है---जीवन की यही स्थिति हमें आत्मसाक्षात्कार कराती है, अन्यथा हम लोग खुद को दूसरों की नज़रों से ही परखते रहते हैं। सुंदर सार्थक लेख के लिए हार्दिक शुभकामनायें🙏🙏
ReplyDeleteजी रेणु दी ,आपने बिल्कुल उचित कहा , मृत्यु से पूर्व मनुष्य के लिए आत्मसाक्षात्कार आवश्यक है। यही उसके जीवन की सार्थकता है।
Deleteऔर यह मेरे लिए तो अत्यंत आवश्यक है। आज आज कबीर साहब की जयंती है।उनका यह कथन-“कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ।”
मुझ जैसों के लिए ही तो है। एक पत्रकार होने के कारण मुझे उनका यह सब़क याद भी है, क्यों कि इस क्षेत्र में आकर अपना घर तो मैं कब का फूंक चुका हूँ।अब जब घर ही फूंक दिया,तो चिन्ता किस बात की।बस बाबा तेरा हाथ मेरे मस्तक पर हो।
भावनाओं की चाशनी में लिपटी साइकिल की मधुर गाथा ने न केवल मेरा मन मोह लिया बल्कि अतीत के ढेर सारे तारों को झंकृत भी कर दिया। हमारे पास भी एक वृहत गाथा है मेरी द्विचक्रवाहिनी से मेरे अद्भुत अभिसार की! गाँव का जो भी बचपन बिता, वह गरमी की दुपहरी में चोरी-चोरी साइकिल के हाफ़ पैडल पर पैरों को ऊपर-नीचे करते और गिरते-उठते देह झाड़ते बिता। मुज़फ़्फ़रपुर में इस संगिनी के साथ प्रेमाचार में स्टेशन रोड पर मैं धड़ाम से गिरा और एक रिक्शे के नीचे आते-आते बच गया। आपके लेख हमेशा हमें भी अतीत की गलियों में घुमा लाते हैं।
ReplyDeleteवाह! आप भी मुज़फ़्फ़रपुर से जुड़े हैं। यह जानकर खुशी हुई। प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार।
Deleteजी, मैंने सातवीं और आठवीं कक्षा क्रमशः सेंट मेरिज स्कूल और सेंट ज़ेवियर्स स्कूल मुज़फ़्फ़रपुर से उत्तीर्ण की है और मेरा ननिहाल भी वहीं है।
Deleteसेंट मेरिज स्कूल में मैं अपनी बहन अर्थात मौसी की लड़की को स्कूल पहुँचाया करता था।
ReplyDelete🙏 🌹 पुरानी यादें ताजा हो गई। 🙏
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