(जीवन की पाठशाला से)
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लॉकडाउन -5 ने मुझे लगभग तीन दशक पश्चात यहाँ मीरजापुर में पुनः 'अनलॉक' होने का स्वर्णिम अवसर दिया है। मैं ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर भी वर्षों से प्रातः भ्रमण का आनंद नहीं उठा पाया रहा था, क्योंकि अपनी संघर्ष सहचरी साइकिल संग अख़बार वितरण के लिए निकलना होता था।
इससे पूर्व 22 वर्षों तक जब रात्रि में समाचारपत्र वितरित करता था, तब भी सुबह होते ही समाचार संकलन की चिन्ता सताने लगती थी,किन्तु लोकबंदी के करीब दो महीने पश्चात एक जून को प्रातः साढ़े चार बजे जैसे ही होटल का मुख्यद्वार खोला, वहाँ खड़ी मेरी साइकिल ने आवाज़ लगाई -" मित्र, आज अकेले ही यात्रा पर,क्या मुझसे नाराज़ हो ? "
वे स्नेहीजन जो संघर्ष के साथी रहे हो ,उनके प्रति कृतज्ञता तो पशु भी व्यक्त करते हैं,फ़िर मैं मानव होकर अपनी साइकिल का उपकार कैसे भूल सकता हूँ, इसलिये मैंने उससे कहा -
" अरी पगली, ऐसा कुछ नहीं है। इस रंग बदलती दुनिया में एक तू ही तो है,जिसने कभी मेरे साथ छल नहीं किया है, लेकिन उम्र के ढलान पर तुझे भी विश्राम की आवश्यकता है। बहुत हो गया यह काम-वाम, अब हम दोनों अपनी मौज़ के लिए साथ निकलेंगे। "
मित्रता तभी निभती है जब प्रेम दोनों तरफ़ से हो। साइकिल यदि मेरे संघर्ष में सहायिका रही है,तो मैंने भी इसके सम्मान के साथ कभी समझौता नहीं किया है। बड़े से बड़े राजनेताओं से लेकर अफ़सर और उद्योगपतियों तक की पत्रकार वार्ता और पार्टियों में मैं इस पर सवार हो कर गर्व से मस्तक ऊँचा किये जाता रहा हूँ। जहाँ कीमती कार और मोटर साइकिलें खड़ी रहती हैं, उन्हीं के मध्य मेरी साइकिल भी विराजमान रहती है।
जो संघर्ष के साथी हो,ऐसे सच्चे हितैषी के स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचे, यह हमारा दायित्व है। इसके लिए मैंने कई बार मोटरसाइकिल के प्रलोभन को ठुकराया है,क्योंकि मुझे कभी यह ग्लानि नहीं हुई कि मैं साइकिल वाला पत्रकार हूँ और वे बाइक -मोटर वाले। जिसके पास ईमानदारी का धन होता है, वह अपने संतोष से सम्राट बना रहता है, न कि अभिलाषाओं से दरिद्र,इसीलिये धनी और निर्धन के प्रश्न पर मेरे साथ कभी भेदभाव नहीं हुआ। क्या ये "साइकिल वाले " राजनेता भी ऐसा ही कर रहे हैं ? यहाँ तो मैंने देखा है कि कार वाले बड़े पदाधिकारी हैं और साइकिल वाले दरी बिछा रहे हैं। इनके मध्य स्वामी और दास जैसा संबंध है।
विडंबना यह भी देखें कि विश्व साइकिल दिवस पर देश की सबसे पुरानी साइकिल कंपनी एटलस के प्लांट पर फ़ैक्ट्री बंद करने का नोटिस लग गया। कोरोना के दंश का सीधा प्रभाव इस कंपनी और उसके कर्मचारियों पर पड़ा है।
अनेक राजनेता, समाज सेवक, पर्यावरणविद , कवि और लेखक इस दिन साइकिल की उपयोगिता पर अनेक लच्छेदार बातें करते हैं, किन्तु इनमें से कितने साइकिल की सवारी पसंद करते हैं। इनके लिए साइकिल यात्रा एक फ़ैशन शो से अधिक कुछ भी नहीं है। कैसा आश्चर्य है कि साइकिल समाज के एक बड़े वर्ग की आवश्यकता है, पहचान है, लोकबंदी में इसने कितने ही श्रमिकों को उनके गाँव सुरक्षित पहुँचाया है,किन्तु आज़ यह उनका सम्मान नहीं बन सकी है !
हाँ, यदि राजनेता ,अभिनेता और संपन्न लोग अपनी महंगी मोटर गाड़ी की तरह साइकिल की सवारी करने लगें, तो अवश्य ही यह सर्वसमाज के लिए शानदार सवारी बन सकती है। परंतु ध्यान रहे कि वह लखटकिया बाइसिकल न हो, जिसे सामान्य जन क्रय ही नहीं कर सके।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खादी को सम्मान दिलवाने के लिए पहले स्वयं उसे धारण किया था, ताकि भारत की ग़रीब जनता खादी से निर्मित वस्त्र पहन कर हीनभावना से ग्रसित न हो। और अब क्या हो रहा है खादी अमीरों की शान है और ग़रीब उससे वंचित हो गये हैं।
बापू के साबरमती आश्रम में विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति भी चरखा चलाते हैं । और विडंबना देखें कि गांधी आश्रम के नाम से खुले किसी भी वस्त्रालय में खादी की एक सदरी का मूल्य तीन हजार से कम नहीं है। खादी आम आदमी से दूर ख़ास आदमी की पोशाक बन कर रह गयी है। यदि साइकिल के साथ भी ऐसा ही कुछ करना हो, तो उचित यही है कि ये भलेमानुष इसकी सवारी नहीं करें । इसे गांधीवाद और समाजवाद नहीं कहते हैं। यह तो सामंतवाद है। ग़रीबोंं की वस्तुओं पर डाका डालना है।
किसी विशेष अवसर पर गांधी टोपी तो अनेक भद्रजन सिर पर रख लेते हैं, परंतु समाज पर प्रभाव रखने वाले विशिष्ट लोग क्या कभी टेलीविज़न स्क्रीन पर ऐसे किसी सस्ते उत्पाद का प्रचार-प्रसार करते दिखते हैं, जो स्वास्थयवर्धक हो और जनसामान्य तक उसकी पहुँच हो ? तब गांधी जी के चरखे की याद उन्हें क्यों नहीं रहती है ?
मैं इन दिनों सुबह ज़िंदगी की आपाधापी से दूर ऐसे ही विचारों में खोया कदमों से सड़कों को नापते रहता हूँ। सच में इस लोकबंदी ने मेरे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है। मौसम कैसा भी हो नियमित अख़बार लाना और उसे पाठकों तक पहुँचाया, अब मैं इस बंधन से मुक्त हूँ। एक जून से सुबह जो भी प्रतियाँ बंडल में प्राप्त होती हैं,उन्हें प्रातःभ्रमण का आनंद उठाते हुये चुनिंदा पाठकों तक पहुँचा देता हूँ। किसी प्रकार का तनाव नहीं है। मैं आज़ाद हूँ। अपनी खोई हुई वह मुस्कुराहट वापस चाहता हूँ,जिसे कोलकाता के हावड़ा ब्रिज अथवा कालिम्पोंग में छोड़ आया हूँ। बचपन में घोष दादू की उँगली थामे हावड़ा बृज का भ्रमण किया करता था। वो मेरे जीवन की सबसे ख़ूबसूरत शाम थी और युवावस्था में कालिम्पोंग की वादियों में सुबह का सैर भला कैसे भूल सकता हूँ। मार्ग में लकड़ी से निर्मित छोटी-छोटी दुकानों पर मोमोज़- ब्लैक टी(काली चाय) आदि लेकर बैठी सरल स्वभाव की नेपाली युवतियाँ मिलती थीं। मैं तो बस एक बड़ा सा सेब लेता था। वहाँ यही मेरा एकमात्र जेबख़र्च था। तब मेरे इस मुस्कान में दर्द नहीं होता था, किन्तु इसके पश्चात यहाँ मीरजापुर में जब भी मुस्कुराया हूँ, दर्द छिपा कर । इसमें आनंद नहीं है , फ़िर भी मैं इसे अनुचित नहीं मानता, क्योंकि वह कहते हैं न-
रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय ।।
हमारी व्यथा कथा सुनकर सहानुभूति के दो शब्द कहने वाले सच्चे हितैषी हो,यह आवश्यक नहीं है। ग़ैरों के तनिक से स्नेह रूपी आँच में हम भावनाओं में बह कर मोम सा पिघल जाए और अवसर पाकर वे हमारा तिरस्कार करें , फ़िर तो हमारी वेदना असीमित हो सकती है। ब्लॉग पर सक्रिय होने के पश्चात यह एक और सबक़ मुझे सीखने को मिला है।
मन की यह शिथिलता बाहरी कष्ट से कहीं अधिक प्रभाव दिखलाती है। ऐसे में मनुष्य को स्फूर्ति के लिए अपनी दिनचर्या में वह कार्य भी सम्मिलित करना चाहिए, जिससे उसे आनंद की अनुभूति हो। जब मैं बनारस में अपनों के स्नेह, शिक्षा और व्यवसाय से वंचित हो गया,तो उदासी भरे उन दिनों में कंपनी गार्डेन से मित्रता कर ली थी। इस सुदंर वाटिका में प्रातः भ्रमण किया करता था। वहाँ बुजुर्ग आपस में जो ज्ञानवर्धक संवाद करते थे,वह मेरे अवसाद का शमन करता था।
और यहाँ अब मैं अपने विचारों को शब्द देने का प्रयास कर रहा हूँ। यही मेरी औषधि है। आज सन्त कवि कबीरदास की जयंती है। आत्मबोध के लिए इनके इस संदेश पर मनन आवश्यक है --
" मोको कहाँ ढूंढें बन्दे,मैं तो तेरे पास में।"
अर्थात स्वयं के भीतर विद्यमान प्रकाश के स्त्रोत और शांति की अनुभूति से ही दुःख और अज्ञानता पर विजय संभव है ।
और रही साइकिल संग मेरी मित्रता,तो जीवन के संध्याकाल में ही सहचरी की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। इसने न सिर्फ़ मेरे पैरों को वरन् मस्तिष्क को भी क्रियाशील रखा है। जो ईमानदारी की झंकार मेरी वाणी में, वह भी इसी से है। यदि साइकिल का त्याग कर मैंने मोटरसाइकिल की सवारी की होती, तो आज़ पुनः भूख से संघर्ष कर रहा होता अथवा भ्रष्टतंत्र के हाथों की कठपुतली बना फिरता। अथक परिश्रम से अर्जित जो कुछ भी धन मैंने संचित कर रखा है, वह बाइक की उदरपूर्ति में ख़र्च हो गया होता।
- व्याकुल पथिक
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लॉकडाउन -5 ने मुझे लगभग तीन दशक पश्चात यहाँ मीरजापुर में पुनः 'अनलॉक' होने का स्वर्णिम अवसर दिया है। मैं ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर भी वर्षों से प्रातः भ्रमण का आनंद नहीं उठा पाया रहा था, क्योंकि अपनी संघर्ष सहचरी साइकिल संग अख़बार वितरण के लिए निकलना होता था।
इससे पूर्व 22 वर्षों तक जब रात्रि में समाचारपत्र वितरित करता था, तब भी सुबह होते ही समाचार संकलन की चिन्ता सताने लगती थी,किन्तु लोकबंदी के करीब दो महीने पश्चात एक जून को प्रातः साढ़े चार बजे जैसे ही होटल का मुख्यद्वार खोला, वहाँ खड़ी मेरी साइकिल ने आवाज़ लगाई -" मित्र, आज अकेले ही यात्रा पर,क्या मुझसे नाराज़ हो ? "
वे स्नेहीजन जो संघर्ष के साथी रहे हो ,उनके प्रति कृतज्ञता तो पशु भी व्यक्त करते हैं,फ़िर मैं मानव होकर अपनी साइकिल का उपकार कैसे भूल सकता हूँ, इसलिये मैंने उससे कहा -
" अरी पगली, ऐसा कुछ नहीं है। इस रंग बदलती दुनिया में एक तू ही तो है,जिसने कभी मेरे साथ छल नहीं किया है, लेकिन उम्र के ढलान पर तुझे भी विश्राम की आवश्यकता है। बहुत हो गया यह काम-वाम, अब हम दोनों अपनी मौज़ के लिए साथ निकलेंगे। "
मित्रता तभी निभती है जब प्रेम दोनों तरफ़ से हो। साइकिल यदि मेरे संघर्ष में सहायिका रही है,तो मैंने भी इसके सम्मान के साथ कभी समझौता नहीं किया है। बड़े से बड़े राजनेताओं से लेकर अफ़सर और उद्योगपतियों तक की पत्रकार वार्ता और पार्टियों में मैं इस पर सवार हो कर गर्व से मस्तक ऊँचा किये जाता रहा हूँ। जहाँ कीमती कार और मोटर साइकिलें खड़ी रहती हैं, उन्हीं के मध्य मेरी साइकिल भी विराजमान रहती है।
जो संघर्ष के साथी हो,ऐसे सच्चे हितैषी के स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचे, यह हमारा दायित्व है। इसके लिए मैंने कई बार मोटरसाइकिल के प्रलोभन को ठुकराया है,क्योंकि मुझे कभी यह ग्लानि नहीं हुई कि मैं साइकिल वाला पत्रकार हूँ और वे बाइक -मोटर वाले। जिसके पास ईमानदारी का धन होता है, वह अपने संतोष से सम्राट बना रहता है, न कि अभिलाषाओं से दरिद्र,इसीलिये धनी और निर्धन के प्रश्न पर मेरे साथ कभी भेदभाव नहीं हुआ। क्या ये "साइकिल वाले " राजनेता भी ऐसा ही कर रहे हैं ? यहाँ तो मैंने देखा है कि कार वाले बड़े पदाधिकारी हैं और साइकिल वाले दरी बिछा रहे हैं। इनके मध्य स्वामी और दास जैसा संबंध है।
विडंबना यह भी देखें कि विश्व साइकिल दिवस पर देश की सबसे पुरानी साइकिल कंपनी एटलस के प्लांट पर फ़ैक्ट्री बंद करने का नोटिस लग गया। कोरोना के दंश का सीधा प्रभाव इस कंपनी और उसके कर्मचारियों पर पड़ा है।
अनेक राजनेता, समाज सेवक, पर्यावरणविद , कवि और लेखक इस दिन साइकिल की उपयोगिता पर अनेक लच्छेदार बातें करते हैं, किन्तु इनमें से कितने साइकिल की सवारी पसंद करते हैं। इनके लिए साइकिल यात्रा एक फ़ैशन शो से अधिक कुछ भी नहीं है। कैसा आश्चर्य है कि साइकिल समाज के एक बड़े वर्ग की आवश्यकता है, पहचान है, लोकबंदी में इसने कितने ही श्रमिकों को उनके गाँव सुरक्षित पहुँचाया है,किन्तु आज़ यह उनका सम्मान नहीं बन सकी है !
हाँ, यदि राजनेता ,अभिनेता और संपन्न लोग अपनी महंगी मोटर गाड़ी की तरह साइकिल की सवारी करने लगें, तो अवश्य ही यह सर्वसमाज के लिए शानदार सवारी बन सकती है। परंतु ध्यान रहे कि वह लखटकिया बाइसिकल न हो, जिसे सामान्य जन क्रय ही नहीं कर सके।
हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खादी को सम्मान दिलवाने के लिए पहले स्वयं उसे धारण किया था, ताकि भारत की ग़रीब जनता खादी से निर्मित वस्त्र पहन कर हीनभावना से ग्रसित न हो। और अब क्या हो रहा है खादी अमीरों की शान है और ग़रीब उससे वंचित हो गये हैं।
बापू के साबरमती आश्रम में विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति भी चरखा चलाते हैं । और विडंबना देखें कि गांधी आश्रम के नाम से खुले किसी भी वस्त्रालय में खादी की एक सदरी का मूल्य तीन हजार से कम नहीं है। खादी आम आदमी से दूर ख़ास आदमी की पोशाक बन कर रह गयी है। यदि साइकिल के साथ भी ऐसा ही कुछ करना हो, तो उचित यही है कि ये भलेमानुष इसकी सवारी नहीं करें । इसे गांधीवाद और समाजवाद नहीं कहते हैं। यह तो सामंतवाद है। ग़रीबोंं की वस्तुओं पर डाका डालना है।
किसी विशेष अवसर पर गांधी टोपी तो अनेक भद्रजन सिर पर रख लेते हैं, परंतु समाज पर प्रभाव रखने वाले विशिष्ट लोग क्या कभी टेलीविज़न स्क्रीन पर ऐसे किसी सस्ते उत्पाद का प्रचार-प्रसार करते दिखते हैं, जो स्वास्थयवर्धक हो और जनसामान्य तक उसकी पहुँच हो ? तब गांधी जी के चरखे की याद उन्हें क्यों नहीं रहती है ?
मैं इन दिनों सुबह ज़िंदगी की आपाधापी से दूर ऐसे ही विचारों में खोया कदमों से सड़कों को नापते रहता हूँ। सच में इस लोकबंदी ने मेरे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है। मौसम कैसा भी हो नियमित अख़बार लाना और उसे पाठकों तक पहुँचाया, अब मैं इस बंधन से मुक्त हूँ। एक जून से सुबह जो भी प्रतियाँ बंडल में प्राप्त होती हैं,उन्हें प्रातःभ्रमण का आनंद उठाते हुये चुनिंदा पाठकों तक पहुँचा देता हूँ। किसी प्रकार का तनाव नहीं है। मैं आज़ाद हूँ। अपनी खोई हुई वह मुस्कुराहट वापस चाहता हूँ,जिसे कोलकाता के हावड़ा ब्रिज अथवा कालिम्पोंग में छोड़ आया हूँ। बचपन में घोष दादू की उँगली थामे हावड़ा बृज का भ्रमण किया करता था। वो मेरे जीवन की सबसे ख़ूबसूरत शाम थी और युवावस्था में कालिम्पोंग की वादियों में सुबह का सैर भला कैसे भूल सकता हूँ। मार्ग में लकड़ी से निर्मित छोटी-छोटी दुकानों पर मोमोज़- ब्लैक टी(काली चाय) आदि लेकर बैठी सरल स्वभाव की नेपाली युवतियाँ मिलती थीं। मैं तो बस एक बड़ा सा सेब लेता था। वहाँ यही मेरा एकमात्र जेबख़र्च था। तब मेरे इस मुस्कान में दर्द नहीं होता था, किन्तु इसके पश्चात यहाँ मीरजापुर में जब भी मुस्कुराया हूँ, दर्द छिपा कर । इसमें आनंद नहीं है , फ़िर भी मैं इसे अनुचित नहीं मानता, क्योंकि वह कहते हैं न-
रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।
सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय ।।
हमारी व्यथा कथा सुनकर सहानुभूति के दो शब्द कहने वाले सच्चे हितैषी हो,यह आवश्यक नहीं है। ग़ैरों के तनिक से स्नेह रूपी आँच में हम भावनाओं में बह कर मोम सा पिघल जाए और अवसर पाकर वे हमारा तिरस्कार करें , फ़िर तो हमारी वेदना असीमित हो सकती है। ब्लॉग पर सक्रिय होने के पश्चात यह एक और सबक़ मुझे सीखने को मिला है।
मन की यह शिथिलता बाहरी कष्ट से कहीं अधिक प्रभाव दिखलाती है। ऐसे में मनुष्य को स्फूर्ति के लिए अपनी दिनचर्या में वह कार्य भी सम्मिलित करना चाहिए, जिससे उसे आनंद की अनुभूति हो। जब मैं बनारस में अपनों के स्नेह, शिक्षा और व्यवसाय से वंचित हो गया,तो उदासी भरे उन दिनों में कंपनी गार्डेन से मित्रता कर ली थी। इस सुदंर वाटिका में प्रातः भ्रमण किया करता था। वहाँ बुजुर्ग आपस में जो ज्ञानवर्धक संवाद करते थे,वह मेरे अवसाद का शमन करता था।
और यहाँ अब मैं अपने विचारों को शब्द देने का प्रयास कर रहा हूँ। यही मेरी औषधि है। आज सन्त कवि कबीरदास की जयंती है। आत्मबोध के लिए इनके इस संदेश पर मनन आवश्यक है --
" मोको कहाँ ढूंढें बन्दे,मैं तो तेरे पास में।"
अर्थात स्वयं के भीतर विद्यमान प्रकाश के स्त्रोत और शांति की अनुभूति से ही दुःख और अज्ञानता पर विजय संभव है ।
और रही साइकिल संग मेरी मित्रता,तो जीवन के संध्याकाल में ही सहचरी की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। इसने न सिर्फ़ मेरे पैरों को वरन् मस्तिष्क को भी क्रियाशील रखा है। जो ईमानदारी की झंकार मेरी वाणी में, वह भी इसी से है। यदि साइकिल का त्याग कर मैंने मोटरसाइकिल की सवारी की होती, तो आज़ पुनः भूख से संघर्ष कर रहा होता अथवा भ्रष्टतंत्र के हाथों की कठपुतली बना फिरता। अथक परिश्रम से अर्जित जो कुछ भी धन मैंने संचित कर रखा है, वह बाइक की उदरपूर्ति में ख़र्च हो गया होता।
- व्याकुल पथिक
👌🙏
ReplyDeleteआपका आभार सुनील भैया।
Deleteहमारी अपनी होती हैं अपेक्षाएं उसका दोष हम दूसरों पर थोप देते हैं। चिट्ठों की दुनियाँ कोई अलग नहीं है। यहाँ भी हम ही हैं और हमारा व्यवहार भी वही है जो हम अपने अपने समाज में अपने लोगों के साथ करते हैं। हर कोई जब यहाँ घुसता है तो आप की तरह ही मान लेता है कि यहाँ कुछ नया होगा। यहाँ सीख मिलती है लिख चिट्ठे में डाल भूल जा अगले पन्ने के लिये राशन निकाल :)
ReplyDeleteजी अग्रज , सत्य कहा आपने।
Deleteऐसा ही होता है।
शशि जी आप और आपकी साइकिल दोनों अपने आप में सादगी की मिसाल हैं और इस रंग बदलती दुनिया में जो अपना रंग न बदले, अपने अतीत को हमेशा याद रख धरातल पर बना रहे वो ही सच्चा इंसान है। हमने अपने अब तक के जीवन काल में कई लोगों को पत्रकार बनते और पलक झपकते ही उन्हें दलाल बनते देखा है। साइकिल से मोटरसाइकिल, मोटरसाइकिल से कार ये सब कुछ अपना इमान बेच कर कमाने से कहीं बेहतर है कि इमानदारी से आँख में आँख डाल कर अपने स्वाभिमान को बनाये रखना । क्योंकि दुनिया में इससे बड़ा कोई सुकून नहीं है।
ReplyDeleteजी प्रवीण भैया।
Deleteमुझे लगा कि मेरा यह लेख कोई नहीं पढेगा, किन्तु आपकी इस समीक्षात्मक प्रतिक्रिया ने उत्साहवर्धन किया है ।भविष्य में प्रयास करूँगा कि लेख बड़ा न हो।
आपका हृदय से आभार।
वाह! गर्व से सिरोन्नत करने वाले अनुभव!!!
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार अग्रज।
Deleteप्रिय शशि जी! कल एक छोटे भाई आये और पूछा,'भइया आपकी शादी को कितने वर्ष हो गये?'मुझसे पहले ही मेरी पत्नी बोल पड़ीं "55"वर्ष ,ईश्वर की बड़ी कृपा है।बात आगे चलती चली गई,इसी तरह अमेरिका में यही बात किसी ने भारतीय से पूछा तो ऐसा ही जबाब पाकर वह हैरान हो गया और बोला कि 'तुम भारतीय लोग इतने लम्बे समय तक कैस एक साथ रह लेते हो?' उसका संक्षिप्त और सरल सा उत्तर था 'यही तो भारतीय संस्कृति की पहचान है,हम जन्म जन्मान्तर के साथी होते हैं',अस्तु आपकी साइकिल भी अच्छी है अथवा खराब,चमकदार है अथवा पुरानी सी दिखनेवाली,पर है तो आत्मविश्वास सेभरी और आपके साथ चलने को तत्पर ,उससे जो स्नेहचरी सा लगाव,आप उसे भूलना चाहें तो यह मुमकिन भी नहीं कम से कम आपके लिये,किसी लोभ में पढ़कर, किसी की तरह बनावटी जिंदगी से आराम और पैसा जरूर मिलेगा पर सकून कैसे मिलेगा?आप जो कुछ भी हैं,ठीक हैं,जैसे भी हैं अच्छे हैं,हमें पसंद हैं ,शेष आपकी मर्जी " मैं निकला सुख की तलाश में,
ReplyDeleteरास्ते में खड़े दु:खों ने कहा,
हमें साथ लिये बिना
सुखों का पता नहीं मिलता जनाब !! "--स्नेहाशीष
-रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प. "भागीरथी"
डगर पार जाये,वही तो पथिक है,
Deleteअगर हार जाये कहाॅ वह श्रमिक है?
नहीं छोड़ता कवि कभी गीत आधा
अधूरी समर्पित हुई थी न राधा" --यशस्वी भव:
-रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प. "भागीरथी"
भाई साहब आपकी अपनी एक कला है जो सम्भवतः किसी में नही झलकती।आप गीता के उस ज्ञान की भांति है जो कहती है कर्म करते चलो,और फल की इच्छा परमात्मा पर छोड़ दो।
ReplyDeleteआप हृदय से गंगा और कर्म से अर्जुन है।और सायकिल को सम्भवतः वासुदेव मान सकते है।��
वाह!सच में यह साइकिल वासुदेव ही है।
Deleteआपका आभार मनीष जी।
ईमानदारी, सादगी और साइकिल आपके जीवन की पहचान रही है। आप इस पहचान को बदल नहीं पाएंगे। आप किसी और मिट्टी के बने हुए हैं। आपके जीवन में हमेशा त्याग ही रहा है। पत्रकारिता में अपनी प्रतिभा और परिश्रम के बल पर जो मुक़ाम हासिल किया है, वह इस नगर के लिए गर्व का विषय है। आपको हमेशा सम्मान की निगाहों से देखा जाता है। आप किसी के लिए बोझ साबित नहीं हुए। अपने सहज और सरल व्यवहार के कारण आप विवादों से हमेशा मुक्त रहे। जाति, धर्म और संप्रदाय की राजनीति से हमेशा दूर रहे। जीवन की लंबी यात्रा में निर्विवाद रहना, एक बहुत बड़ी उपलब्धि रही। आप लोगों के काम आए, किंतु दूसरों से कोई अपेक्षा आपने नहीं रखी। शशि भाई, अपनी कहानी की कड़ियों को हमेशा आगे बढ़ाते रहिए। 🌹
ReplyDeleteजी अनिल भैया , आपकी प्रतिक्रिया में कुछ इस तरह से अपनत्व का भाव होता है, जिसे मैं "आभार" बस इतना ही कह कर व्यक्त नहीं कर सकता हूँ।
Deleteआपकी टिप्पणी में एक प्रकार से मार्गदर्शन होता है।
और यह तो आपने बिल्कुल सत्य कहा है कि पत्रकार और साहित्यकार को जाति और धर्म से ऊपर उठना ही चाहिए, उसे अपनी लेखनी के माध्यम से राजनीति(इन दिनों यह जो बोलचाल की भाषा है कि राजनीति कर रहे हो ?) नहीं करनी चाहिए, वह समाज सुधारक है। उसे जनमानस के साथ छल नहीं करना चाहिए,भले ही परिणामस्वरूप जो भी दण्ड मिले, स्वीकार कर लेना चाहिए।
मैंने सदैव सबसे यही कहा कि मैं साम्प्रदायिक हो ही नहीं सकता और यह "सैक्युलर" शब्द भी मुझे पसंद नहीं है।
पुनः हृदय से आभार भैया🙏
ReplyDeleteबहुत सुन्दर , आप खूब प्रसन्न रहें और अपने सहचरी को हमेशा साथ में रक्खें।
-चंद्रांशु गोयल नगर विधायक प्रतिनिधि
*****
भैया आपकी रचनाएँ वास्तविक जीवन पटल को आत्मसात कराती हैं।
आप जैसे कलमकार को प्रणाम है🙏
-आशीष सोनी, पत्रकार
******
आपने सच्चाई का वर्णन किया है आपकी लेखनी को सादर नमस्कार हैं।
---बेचूलाल , यूपी पुलिस
***(
आप की लेखनी को प्रणाम आप यू ही अपनी लेखनी से समाज की सच्चाई उजागर करते रहे औऱ लोगो को प्रेरणा देते रहे । 👍👍👍🙏🙏🙏
अरविंद त्रिपाठी पत्रकार
👌👌बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
-आशीष बुधिया पूर्व शहर कांग्रेस अध्यक्ष
***
अविस्मरणीय भाई शशी जी मेरी संघर्ष सहचरी साईकिल औरों के संघर्ष स्वाभिमान से जीने का आईना दर्द से मर्द की दास्तान
-योगी भोला यादव
*****
भाई साहब आपकी अपनी एक कला है जो सम्भवतः किसी में नही झलकती।आप गीता के उस ज्ञान की भांति है जो कहती है कर्म करते चलो,और फल की इच्छा परमात्मा पर छोड़ दो।
आप हृदय से गंगा और कर्म से अर्जुन है।और सायकिल को सम्भवतः वासुदेव मान सकते है।🙏
--मनीष कुमार खत्री
Nice writing chacha..... Inspiration.... Innovation....ideology.... Intent ....all under one pen
--डॉ राहुल चौरसिया
शशि भैया , आपका अपनी संघर्ष सहचरी को समर्पित ये लेख बहुत भावपूर्ण है और किन्ही शब्दों में अनूठा भी | अनूठा इसलिए कि साईकिल का मानवीकरण करके आपने उसे ह्रदय से सम्मान दिया है | जड़ वस्तु में भी भावनाओं का दर्शन करना अति संवेदनशीलता का प्रतीक है जो हर किसी के पास नहीं होती | साईकिल आपके गर्वोन्नत भाल और अनुकरणीय सादगी की प्रतीक है | एक जनप्रतिनिधि होने के नाते अपने क्षेत्र में आपने जो पहचान बनाई है वह निश्चित रूप से आपको अपार संतोष की अनुभूति करवाती होगी | पहचान के साथ एक ठीक- ठाक जीवन भी आपको इसी ईमानदारी के साथ साथ मिला है, जिससे आप स्वाभिमान से जी रहे हैं | | आपकी अभिन्न साथी साईकिल के साथ आप स्वस्थ , सकुशल रहें यही कामना करती हूँ | भावनाओं से भरी तीन लेखों की इस सुंदर श्रृंखला के लिए आपको आभार और बधाई
ReplyDeleteआपने सही कहा रेणु दी हमारे जैसे लोग इसी संतोष के कारण ही प्रलोभन से दूर रहे हैं। यह ठीक है कि मैं धनलक्ष्मी का वरन् नहीं कर सका और इसी कारण गृहलक्ष्मी से भी वंचित रहा , किन्तु फ़िर भी अपना कर्म पूरी ईमानदारी के साथ किया और मेरे ललाट से टपकने वाले प्रस्वेद ने ही मुझे यह पहचान ,संवेदना और संतोष प्रदान किया है। यदि स्वास्थ्य प्रतिकूल न होता तो मैं भी निश्चित ही समाज के काम आता,फ़िर भी इतना तो कर ही सकता हूँ कि अपनी अनुभूतियों को माध्यम बना स्नेह का एक दीप जलाऊँ। इस अपनत्व भाव से भरे इस प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार , प्रणाम।
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा मंगलवार (09-06-2020) को
"राख में दबी हुई, हमारे दिल की आग है।।" (चर्चा अंक-3727) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
आपका अत्यंत आभार मीना दीदी।
Deleteशशि भाई आपकी रचना पढ़ी , मन द्रवित हो गया कि आज के समय मे एक लेखक ही है जिसके दिल मे सजीव के साथ निर्जीव वस्तुओं से भी प्यार होता है , वरना लोग तो थोड़ा धन आते ही अपने परिवार का भी तिरस्कार कर देते है , मानव जीवन के पथ पर कई पड़ाव आते है कुछ अच्छे और कुछ तो बहुत दुखदायी होते है , हमे प्रसन्न रहने के लिए अपने बीते ख़ुशनुमा पलो को याद करना चाहिए , आज समाज मे बहुत ऐसे लोग भी मिलेंगे जो बहुत ही विपन्न अवस्था मे है । ईष्वर भक्ति व लेखन में ध्यान लगाएं आनन्द मिलेगा ।
ReplyDelete-अखिलेश मिश्र'बागी'
मार्मिक प्रस्तुति।
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार गुरुजी
Deleteअद्वितीय अनुपम लाजवाब प्रस्तुति भाई जी सीधे दिल पे दस्तक वाली रचना वाह ।
ReplyDelete-लव शुक्ला अधिवक्ता
***
जीवंत किरदारिक रचनाओं का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।🙏
-आशीष कुमार सोनी पत्रकार
***
सॅतोषी सम्राट
अत्यंत करीने से सॅवारा है सब कुछ ।
बहुत बहुत बधाई आपको
मॅगलकामनाये
-संपादक देवी प्रसाद गुप्ता
***
Sahachari cycle lekh ki parakashtha hai. Sadhuvaad. Radhey Shyam Vimal. Reporter