Followers

Saturday 13 June 2020

जीवन-संघर्ष

    जीवन-संघर्ष
***************************
   शनैः शनैः  समुद्र के तूफ़ानों से टकरा कर जीवनरूपी यह नाव भी थक कर एक दिन डूब जाएगी, किन्तु इसमें एक " अभियान " होगा। इसीलिए हमें यह समझना होगा कि समुद्र तट जो नावें खड़ी हैं, चक्रवात आने पर जब यह सागर उन्हें भी निगल लेगा, तब क्या इनकी "टाइटैनिक" जैसी पहचान संभव है ? 
****************************
  
    इन दिनों 68 वर्ष के फ़र्नीचर वाले भैया पहले से कहीं अधिक श्रम करने के बावजूद स्फूर्ति से लबरेज़ हैं। सुबह चार बजे से ही उनका कार्य शुरू हो जाता है। साफ़ सफाई, गमले में पानी देना, कपड़े की धुलाई, अपनी बीमार धर्मपत्नी को स्नान कराना , चाय-जलपान आदि सेवा-सुश्रुषा भी उन्हें ही करनी पड़ती है। सुबह इसी के मध्य वे अक्सर ही समीप स्थित एक वाटिका में चले जाया करते हैं, क्योंकि वे एक योग प्रशिक्षक हैं और वहाँ योगसाधक उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। इसके पश्चात प्रातः नौ बजे से रात्रि आठ बजे तक घर में ही स्थित अपने प्रतिष्ठान पर तगड़ी ड्यूटी भी उनकी होती है। इसी प्रकार पिछले कुछ दिनों से प्रतिष्ठान और घर का कार्य वे अकेले ही संभालते आ रहे हैं, क्यों कि अस्वस्थ होने के कारण उनका इकलौता पुत्र अपने उपचार के लिए सपत्नीक बाहर गया हुआ है। उसे ठीक होकर वापस लौटने में दो-ढ़ाई महीने लग सकते हैं। 
     लोकबंदी में डगमगाती अर्थव्यवस्था के मध्य पत्नी के पश्चात पुत्र की बीमारी को उन्होंने हतोत्साहित होने की जगह एक चुनौती के रुप में  लिया है। और इस संकट का मुकाबला करने के लिए स्वयं को मानसिक और शारीरिक रुप से तैयार कर लिया है। भैया कहते हैं कि उन्हें जैसे ही यह सामाचार मिला कि उनके पुत्र को दो महीने तक उपचार की दृष्टि से बाहर ही रहना है, उन्होंने अपनी सारी पीड़ा को झटक दिया है। अब उन्हें आभास नहीं होता है कि उनके घुटने में कभी दर्द भी हुआ करता था।  घर के साथ दुकान का कार्य और ख़र्च दोनों ही उनका बढ़ गया है, किन्तु जीवन संग्राम में यही स्थिरता एक सच्चे योग पुरुष की पहचान है,जिसके लिए जीवन के तिक्त और मधुर क्षण एक समान होते हैं। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों का अगर दृढ़ संकल्प के साथ सामना किया जाए,तो वे हमारे लिए अभिशाप नहीं वरदान बन सकती हैं। विपत्तियों में हमें पराक्रम दिखलाने का अवसर मिलता है। जिससे हमारे जीवन में निखार आता है। ये चुनौतियाँ मनुष्य को उसकी सोयी हुई शक्तियों से परिचित कराती हैं।
   
     मैं इसी संदर्भ में उन्हीं के प्रतिष्ठान पर बैठा चिंतन कर रहा था कि तभी एक अंग्रेज़ी फ़िल्म का स्मरण हो आया। कोलकाता में छोटे नाना जी के घर मैंने इस फ़िल्म को देखी थी। जिसकी कहानी यह है कि एक फ़ौजी राह भटक कर जंगल में चला गया , जहाँ उसका सामना ऐसे विचित्र भयावह जीव से हुआ , जिस पर उसकी राइफ़ल की गोलियाँ निष्प्रभावी थी । यह देख वह सैनिक छद्म युद्ध कर रहा था। उस विचित्र जीव का कई दिनों तक इसी पर  प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष साहसपूर्वक सामना करते हुये वह बूरी तरह से घायल होकर थक गया था। उसे ऐसा लगने लगा था कि उसकी मानवीय शक्ति इस हिंसक प्राणी का मुकाबला नहीं कर पाएगी, फ़िर भी उसने अपनी मृत्यु के समक्ष शुतुरमुर्ग सा नेत्र बंद कर समर्पण नहीं किया। अंततः जब वह युद्ध करने में पूरी तरह से असमर्थ हो जाता है, तो उस विचित्र प्राणी को ललकारा है, मानों अपनी मौत की आँखों में आँखें डाल कह रहा हो - 
 "आ, अब तू मेरा भक्षण कर ले।" 
 और जैसे ही वह प्राणी सैनिक पर हमला करने को होता है। हेलीकॉप्टर की आवाज़ सुनाई पड़ती है, जिसमें बैठे उसके मित्र ने लेज़र गन से उस हिंसक जीव पर प्रहार कर के उसका काम तमाम कर दिया था। सैनिक जीवित बच जाता है। किन्तु दो घंटे की फ़िल्म के प्रारम्भ में सैनिक ने यदि बिना संघर्ष किये ही उसे अपनी मौत समझ घुटने टेक देता तो क्या होता  ? पहला उसकी मृत्यु , क्यों कि उसे खोज रहा उसका मित्र उसतक नहीं पहुँच पाता और दूसरा यह कि एक सैनिक के दुर्दम जिजीविषा भरी यह रोमांचकारी संघर्ष कथा इस चलचित्र पर नहीं होती।

    यदि मैं अपनी बात कहूँ तो , इस लोकबंदी में पिछले दो माह तक मैं सुबह साइकिल से अख़बार वितरण के लिए नहीं निकला। किसी तरह का शारीरिक श्रम भी नहीं किया। परंतु मेरे स्वास्थ्य में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया।   वर्ष 1998 में जब से मैं मलेरिया से पीड़ित हुआ हूँ और इसी प्रकार के शारीरिक कष्ट में ही दो दशक तक प्रतिदिन सुबह से दोपहर तक समाचार संकलन और लेखन , पुनः मौसम कैसा भी हो उसी साइकिल से शास्त्रीपुल पर जाना, वहाँ से बस में खड़े होकर औराई जाना, जहाँ अखबार की प्रतीक्षा में आधे-एक घंटे तक सड़क पर प्रदूषित वातावरण में अंधकार में खड़े रहना,पुनः मीरजापुर वापसी, रात्रि दस बजे तक समाचार पत्र का वितरण, अपने लिए भोजन और काढ़ा बनाना, इतने सारे कार्य किया करता था। इसी शारीरिक श्रम के कारण मैं अपनी मानसिक पीड़ा को भूल गया। शुभचिंतकों ने कहा कि तुम अधिक श्रम करते हो, इसलिये स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है,परंतु इस लॉकडाउन में जब मैंने पूर्ण विश्राम किया,तब भी स्वस्थ नहीं हो सका।  
   अतः एक जून से मैं पुनः सुबह चार बजे उठ कर प्रातः भ्रमण को निकल पड़ता हूँ। मार्ग में मांसपेशियों के दर्द से संघर्ष करते हुये अपने चिंतन को गति देता हूँ । मेरा यह असाध्य रोग  उसी हिंसक जीव की तरह मेरे शरीर और मनोबल पर प्रहार करता रहता है। इस युद्ध में कभी-कभी मैं उसे परास्त कर देता हूँ, फ़िर भी वह मुझ पर निरंतर भारी पड़ते जा रहा है। ख़ैर,परिणाम अभी  शेष है।  
    हाँ, इस संघर्ष में जीवन के इस सत्य को समझ गया हूँ कि नाव समुद्र के किनारे खड़ी रहे अथवा उसमें उतरे, उसे डूबना तो है ही, इसीलिए परिस्थितियाँ अनुकूल न भी हो, तब भी क्यों न हम पूरी शक्ति के साथ संघर्ष करें।जीवन-संग्राम से पलायन की जगह अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ते जाए। शनैः शनैः  समुद्र के तूफ़ानों से टकरा कर जीवनरूपी यह नाव भी थक कर एक दिन डूब जाएगी, किन्तु इसमें एक " अभियान " होगा। इसीलिए हमें यह समझना होगा कि समुद्र तट जो नावें खड़ी हैं, चक्रवात आने पर जब यह सागर उन्हें भी निगल लेगा, तब क्या इनकी "टाइटैनिक" जैसी पहचान संभव है ? आज इसी संघर्ष के कारण ही मुझे भी इस शहर में एक पहचान और सम्मान मिला है। 

    -व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला से)

21 comments:

  1. संसार नश्वर है ये सत्य है पर गतिशीलता बनी रहती है। मनोबल बना रहे ये ज्यादा मह्त्वपूर्ण है अन्यथा हर जीवन के साथ छोटी मोटी दुश्वारियाँ तो साथ चलती रहती हैं। डूबना ही मोक्ष है मान कर चला जाये।

    ReplyDelete
  2. जीना इसी का नाम है। बहुत बढ़िया । बधाई
    -चंद्रांशु गोयल ,नगर विधायक प्रतिनिधि
    *****
    प्रेरणादायक , जब हम हौसलों से उड़ान की बात करते है बहुत बड़ा उदाहरण । ऐसे व्यक्तित्व को नमन एवं जानकारी देने वाले शशि भाई को भी नमन ।
    -आनंद सिंह पटेल, राजनेता
    ******
    ब्यक्ति का कर्म ही उसे महान बनाता है ।
    उस कर्म को आपने अपनी लेखनी मे जिस बारीकी से पिरोया यह काबिले तारीफ है ।
    अरविंद त्रिपाठी, पत्रकार
    **********

    बहुत ही प्रेरक प्रसंग है, उन बुजुर्ग महानुभाव को सादर प्रणाम करते हुए उनके जज्बे को सलाम करते है।आपकी लेखनी बहुत सशक्त है, नमस्कार ।
    -आशीष बुधिया पूर्व अध्यक्ष शहर कांग्रेस कमेटी

    ReplyDelete
  3. शशि जी हर पल जीवन का एक चुनौती है। आपका ये लेख बहुत प्रेरणादायक है। जीवन चुनौतियों को स्वीकार कर आगे बढ़ने का नाम है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आभार प्रवीण जी।
      उचित कहा आपने , जब पशु-पक्षी प्रकृति की चुनौतियों को स्वीकार करते हैं, तो मनुष्य क्यों नहीं ?

      Delete
  4. प्रणाम भाई साहब मैं आपके सभी लेखों को बराबर पढ़ता हूं आप की तुलना मुंशी प्रेमचंद से की जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।
    - संजय कुमार सिंह, पुलिस उपाधीक्षक मीरजापुर।

    ReplyDelete
  5. बिना संघर्ष के जीवन का कोई मोल नहीं। अपने से जुड़े हुए लोगों को बेसहारा नहीं छोड़ा जा सकता। ख़ुद की मदद करना और दूसरों की भी मदद करना ज़िंदगी का मक़सद होना चाहिए। परिवार हमेशा महत्त्वपूर्ण होता है। जय-पराजय, मान-अपमान, सुख-दुःख, आशा-निराशा के समय परिवार ही काम आता है। सच्चे मित्र भी कई बार ईश्वर की कृपा से आपका साथ देते हैं। फिर भी परिवार का अपना स्थान है। घर के अंदर एक-दूसरे की मदद हो जाए, एक-दूसरे की सेवा हो जाए, इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है। जिनका अपने वर्णन किया है, निश्चित रूप से मनुष्य होने का प्रमाण देते हैं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ और प्रसन्न रखे। उनका पुत्र स्वस्थ होकर घर वापस लौट कर आए। ऐसी कामनाओं के साथ आपके लेखन को नमन। 🌹

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी अनिल भैया
      सच्चा मित्र जिसे मिल गया, उससे अधिक भाग्यवान भला और कौन है?
      परंतु हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि "समाज कभी भी "परिवार" नहीं हो सकता है। समाज से हमको "पहचान और सम्मान" मिल सकता है, किंतु संकट काल में सदैव सहयोग नहीं मिलता है। जब हम किन्हीं कारणों से स्वास्थ्य खो देते हैं,तब हमारे इर्द-गिर्द सिर्फ़ "सहानुभूति" दिखती है, "अपनत्व" नहीं। चाहे हम कितने ही प्रभावशाली व्यक्तियों के संपर्क में हो, पर "संबंध" नहीं दिखता। अतः अपने परिवार का "स्नेहपूर्वक और धैर्यपूर्वक" संरक्षण करना ही हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है।
      सदैव की तरह विषय को विस्तार देती प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार🙏

      Delete
  6. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (08-06-2020) को 'कुछ किताबों के सफेद पन्नों पर' (चर्चा अंक-3733) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

    ReplyDelete
    Replies
    1. मंच पर स्थान देने के लिए आपका आभार।

      Delete

  7. जीवन की चुनोतियो को अंगीकार कर आपके सामयिक उत्तरोतर विचारोत्तेजक एवं विकासोन्मुख लेख की प्रशंसा करना सूर्य को दीपक दिखाने जैसा होगा! राधेश्याम विमल पत्रकार


    ****
    जीवन पथ के ब्याकुल पथिक की जीवंत प्रतिभा को नमन है, वंदन है।
    वास्तव में भैया जीना इसी का नाम है।

    आशीष सोनी
    पत्रकार भदोही
    -

    ReplyDelete
  8. शशि भैया , कहते हैं जो सोना अग्नि में जितना तपता है उतना ही चमकता है | यही बात जीवन संघर्ष में तपने वाले पथिकों पर लागू होती है | कोई भी इंसान ऐसा दावा नहीं कर सकता कि उसे सुख के साथ दुःख ना मिले हों | बात बस इतनी समझनी है यदि सुख के दिन ना रहे तो दुःख के भी क्यों रहेंगे ? फ़र्नीचर वाले भैया वाले भैया हों या चलचित्र का पात्र सैनिक दोनों का जीवन चरित्र प्रेरक है | दोनों ने विषम परिस्थितयों में अपना मनोबल बनाये रखा जिससे एक जित गया तो दूसरे की जीत निश्चित है | सुंदर आलेख | आप भी अपनी सेहत का ध्यान रखें और मनोबल के साथ आगे बढ़ते राहें | हार्दिक शुभकामनाएं|

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी रेणु दी,आपने बिल्कुल सही कहा है।
      मनोबल जीवन के अंतिम क्षण तक जिसका ऊँचा रहता है,इस जग में वह मृत के पश्चात भी अमर रहता है।

      Delete
  9. प्रिय शशि,
    इस आत्मकथा में जिस फ़िल्म का जिक्र है, उसके प्रतीकार्थों पर दृष्टि डाली जाए और हिंसक वन्यजीव से संघर्ष करते नायक के अदम्य साहस पर गौर किया जाए तो यह स्पष्ट है कि विपरीत परिस्थितियों से आत्मबल ही संघर्ष करता है। यह आत्मबल न तो एक दिन में मिलता है और न दूसरों से उधार में मिलता है । आत्मबल खुद को जीवन-आग में तपाने से मिलता है। तभी तो कबीर ललकार कर *घर फूंक तमाशा* की बात करते हैं । उसे ही अपने साथ चलने का निमंत्रण देते हैं । सकारात्मक काम करने वाले के लिए साहस रूपी ईश्वर साथ हो जाते हैं। यही है *हिम्मते मर्द मददे खुदा* का आशय । वरना नकारात्मक काम से दीन-हीन स्थितियां बनती हैं और जब वृद्धावस्था आती है तो सिर्फ और सिर्फ कुढ़ने, दूसरों पर दोष मढ़ने, दूसरों के घर आग और लुत्ती लगाने के सिवाय सकारात्मक काम हो ही नहीं पाता । विपरीत हालात से लड़ने वाला ही नायक होता है । जैसे श्रीराम और श्रीकृष्ण आदि हुए ।
    मनुष्य भी भवसागर का टाइटैनिक है। इस सागर में छल-छद्म का तूफान आता ही रहता है। पूरी आत्मकथा में *...खुदा बंदे से यह पूछे बता तेरी रज़ा क्या है* ध्वनित हो रहा है। शरीर बोझिल होता है तो भी 68 वर्षीय भैयाजी की तरह चुनौतियों से लड़ने की हिम्मत होती है लेकिन जब मन बोझिल हो जाता है तो घर में बैठकर कुढ़ने के सिवाय कुछ नहीं पल्ले पड़ता । यह आत्मकथा टूटे मन के लिए प्रेरणादायी है।
    -सलिल पांडेय, मिर्जापुर।

    ReplyDelete
  10. प्रेरक प्रस्तुति

    ReplyDelete
  11. Aap aisa llikhte hai jaise koi chalchitra aapne aankho k aage chal rahi ho....😘😘
    पुनम मौसी, सिलीगुड़ी से

    ReplyDelete
  12. आपके इस लेख से मुझे बड़ी प्रेरणा मिली है। ऐसा ही लिखते रहिए। सकारात्मक भावों का निर्माण करके जीवनऊर्जा का संचार करना भी किसी समाजसेवा से कम नहीं है शशिभैया। ईश्वर आपको अच्छा स्वास्थ्य दें। सस्नेह।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी मीना दीदी
      आपका मार्गदर्शन प्राप्त हुआ और आपके कथनानुसार लिखने का प्रयास भी करूँगा।
      प्रणाम।

      Delete
  13. सही कहा आपने जीवन की चुनौतियों से डर कर नहीं डट कर मुकाबला करना चाहिए। बहुत सुंदर और प्रेरणादायक लेख लिखा आपने शशि भाई।

    ReplyDelete

yes