( जीवन की पाठशाला से )
मैं प्रातः भ्रमण पर था,तभी देखा कि एक युवती संभवतः किसी कॉलेज की छात्रा होगी, अपनी पीठ पर बड़ा सा बैग लटकाए तेज़ क़दमों से स्टेशन रोड की तरफ़ बढ़ रही थी। मार्ग में उसे कोई सवारी वाहन भी नहीं मिला था। वह परेशान थी ।
इतने में स्कूटर पर सवार अधेड़ उम्र का एक व्यक्ति वहाँ आकर बड़ी आत्मीयता से उसे पिछली सीट पर बैठने को कहता है। उसने जिस अधिकार के साथ युवती को स्कूटर पर बैठने को कहा,उससे प्रतीत हो रहा था कि वह उसके परिवार का ही सदस्य है, परंतु यह क्या ? वह लड़की तो गुस्से से आगबबूला हो उठी थी ।अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हुये उसने कहा- " आप पास ही टहल रहे थे,फ़िर भी मुझे स्टेशन छोड़ने के लिए ज़ब स्कूटर नहीं निकाला था ,तो अब बीच रास्ते दुलार दिखलाने क्यों आ गये हैं?"
उसे यह भ्रम था कि अधेड़ व्यक्ति ने जानबूझ कर उसकी उपेक्षा की है। जिस पर अधेड़ व्यक्ति ने अत्यंत संयम का परिचय देते हुये उसे समझाते हुये कहा -" बेटा, विश्वास करो ,सच में मैंने नहीं देखा था कि तुम घर से कब निकली हो। "
फ़िर भी उसके क्रोध का शमन नहीं हुआ। स्कूटर पर बैठने से पुनः इंकार कर वह पैदल ही आगे बढ़े जा रही थी। उधर बिना धैर्य खोये उस व्यक्ति ने मार्ग में तीन स्थान पर उसे रोककर स्नेहपूर्ण उसका संदेह दूर करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार वह उस युवती को अपने स्कूटर पर बैठा कर समय से स्टेशन छोड़ आया। तब तक उस नासमझ लड़की को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था। उसका अशांत मन हल्का हो गया होगा। आशा करता हूँ कि उसकी यात्रा मंगलमय रही होगी। उस " सच्चे अभिभावक "को देख मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई।
आज का मेरा विषय इसी से जुड़ा हुआ है। वस्तुतः 15 से 22 वर्ष के आसपास की यह जो अवस्था है, किशोर और युवावस्था का वह पवित्र संगम है जिसमें यदि विवेकपूर्वक डुबकी लगा ली तो जीवन में अर्थ,धर्म, काम और मोक्ष सभी सुलभ है,किन्तु संयम खोया नहीं कि यह अवस्था वैतरणी बन निगलने को आतुर मिलेगी।
यौवन की दहलीज़ पर खड़े बच्चों को इस आधुनिक समाज ने दो नाव पर पाँव रखने को विवश कर दिया है। टेलीविज़न पर धारावाहिक और विज्ञापनों के माध्यम से युवावर्ग जो कुछ देख रहा है, ऐसी चकाचौंध भरी दुनिया में उसे स्वयं के लिए स्थान बना पाना आसान नहीं है। यह चंद्र खिलौने जैसा है, फ़िर भी वह उसी के पीछे भाग रहा है। वह देख रहा है कि नैतिकता की बातें सिर्फ़ पुस्तकीय ज्ञान है। भ्रष्ट आचरण से पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने वालों का यहाँ जयगान है।
अर्थयुग के इस मकड़जाल से किशोर और युवाओं की सुरक्षा का दायित्व अभिभावकों का है,किन्तु जब कभी अपने बच्चों की ऊर्जा की क्षमता को बिना परखे माता-पिता उससे अपने सपनों के बुझे दीप जलाने का प्रयत्न करते हैं,तो यही विभाजित ऊर्जा उनके कुलदीपक पर भारी पड़ती है।
ऐसे में बच्चे के समक्ष दो विकल्प शेष होता है,पहला अपने अभिभावक की खुशी अथवा उनके भय से उस निर्णय को स्वीकार करना,जिसका अनुसरण उसके लिए अत्यंत कठिन और अरूचिकर हो और दूसरा विवेक रहित विद्रोह , जिस मार्ग पर चल कर वह स्वयं को ही नष्ट कर बैठता है।
जबकि अभिभावकों का यह प्रयास होना चाहिए कि बच्चे को स्वयं उसके उत्तरदायित्व का ज्ञान हो, जो उसका पथ प्रदर्शन कर सके। जिससे उसकी शारीरिक शक्ति, मानसिक तेज,नैतिक बल और शौर्य को सही दिशा मिल सके।
पिछले सप्ताह अरुण जायसवाल भैया ने मुझे भोजन पर आमंत्रित किया था। उनका छोटा पुत्र वैज्ञानिक है। वह चेन्नई में रह कर भारत सरकार अर्थात देश की सेवा कर रहा है और बड़ा पुत्र दिल्ली में इंजीनियर है। करोड़ों की चल-अचल सम्पत्ति है। पति-पत्नी और ये दो बच्चे,छोटा सा उनका खुशहाल परिवार है। इन दोनों संतान के उज्जवल भविष्य के पीछे उनका कठोर तप है। दिल्ली में बच्चों को उच्च शिक्षा मिले, जिसके लिए उन्होंने अपनी राजनीति और पत्रकारिता दोनों छोड़ दी। उन्होंने आभूषण निर्माण कराने का व्यापार शुरू किया। इन आभूषणों को लेकर वे स्वयं मोटरसाइकिल से पड़ोसी जनपदों में जाया करते थे। उनका यह व्यवसाय अच्छा चल निकला।
भोजन करते वक़्त उन्होंने एक प्रेरक प्रसंग की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया। स्कूल में एक दिन उनके छोटे पुत्र ने बेंच पर पड़ी एक पैंसिल अपने बैग में रख ली थी। घर पर उसके पास वह पैंसिल देख उन्होंने पूछा --"बेटा,यह तो मैंने तुम्हें दी नहीं थी ?" लड़के ने कहा --"पापा, समीप बैठी फलां दीदी (अन्य छात्रा) की छूट गयी थी,जिसे मैं उठा लाया हूँ।" उसका उत्तर सुन कर अरुण भैया ने अपने माथे को हाथ से दो बार ठोका। यह देख उस मासूम बालक ने पुनः पूछा --" क्या मुझसे कोई बड़ी गलती हो गयी?"
जिस पर उन्होंने कहा --"हाँ बेटा, कल दीदी को उसकी पैंसिल वापस दे, सॉरी बोल कर आना।"
बेटे ने वैसा ही किया, पुनः ऐसी कोई भूल उससे कभी नहीं हुई और आज वह वैज्ञानिक है।
पिता का इतना आज्ञाकारी कि उसने विदेश की नौकरी ठुकरा दी। रही बात उनके बड़े बेटे की तो मैंने देखा था कि जब अपने कुछ सहपाठियों के कारण वह मार्ग भटक रहा था , तो अरुण भैया ने उसे तत्काल यहाँ से हटा कर पढ़ने के लिए दिल्ली भेज दिया था।
हमें यह समझना होगा कि किशोरावस्था में बच्चों पर निगरानी रखने के लिए माता-पिता को उनका मित्र बनना होगा, न कि मुखिया ।
पिता-पुत्र के इस मधुर संबंधों को देख मुझे जहाँ हर्ष होता है, वहीं स्वयं पर ग्लानि भी होती है,क्योंकि न मैं अपने परिवार के काम आ सका न स्वयं के, लेकिन इसके पीछे भी एक करुण कथा है। कोलकाता में जिस दिसंबर माह में नानी माँ की मृत्यु हुई थी, उसी माह वहाँ मैंने कक्षा छह की पढ़ाई पूर्ण की थी। अगले वर्ष मार्च में वाराणसी में मुझे सीधे कक्षा आठ के बोर्ड की परीक्षा में बैठा दिया गया और जुलाई में हरिश्चंद्र इंटरमीडिएट कालेज में विज्ञान वर्ग का छात्र हो गया। विद्यालय में मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बनारस हो अथवा कोलकाता सभी जगह कक्षाओं में प्रथम स्थान पर रहने वाला किशोर गणित और विज्ञान की मोटी-मोटी पुस्तकें देख सहम उठा था। वह तो चित्रकार बनना चाहता था। जो अभिभावक उसकी चित्रकला के कभी प्रशंसक थे, उन्होंने ही उसके भविष्य को संवारने के लिए उसके नीचे की स्थिति सुदृढ़ करने की उपेक्षा उसे दो पावदान ऊपर चढ़ा दिया गया,फ़िर यह इच्छा जताई कि वह प्रथम श्रेणी से परीक्षा उत्तीर्ण करे, क्योंकि उसके पिता स्वयं प्रथम श्रेणी प्राप्त करने से वंचित रह गये थे। उस किशोर ने ऐसा ही किया। रात्रि 11-12 बजे तक मेज पर सिर झुकाए गणित के प्रश्नों को सुलझाता रहा, किन्तु उसका स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता जा रहा था। हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा के पश्चात एक दिन अचनाक उसके सिर के दाहिने भाग में भयानक दर्द शुरू हो गया। गर्दन में अकड़न आ गयी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह प्रयोगात्मक परीक्षा कैसे दे, फ़िर भी उसने दिया। अभिभावकों की इच्छा पूर्ण हुई । गणित के दोनों ही प्रश्नपत्रों में उसे 49-49 अंक प्राप्त हुये। परंतु वह सदैव के लिए सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस का रोगी बन गया। उस समय कोई नहीं समझ सका था कि उसके साथ क्या घटित हो रहा है। उसकी दादी उसके सिर के उस भाग में चूना लगा दिया करती थी। अभिभावकों को लगा कि वह बहाना बना रहा है। वह गृहत्याग के लिए विवश हो गया।
परिणाम यह रहा कि यौवनकाल के शक्ति, तेज और प्रफुल्लता की अनुभूति नहीं कर सका।
वह घर, परिवार और स्वास्थ्य तीनों से वंचित हो गया। भूख और बीमारी से निरंतर संघर्ष करते हुये किशोर से प्रौढ़ हो गया है। उसे नहीं पता कि यौवन किसे कहते हैं, क्योंकि अभिभावकों की महत्वाकाँक्षा की वेदी पर वर्षों पूर्व उसकी बलि दी जा चुकी है। आज़ भी वह बैठ कर कुछ भी नहीं पढ़ सकता है।
मित्रों ! मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि आप " सच्चे अभिभावक" हैं, तो स्कूटर वाले उस अधेड़ व्यक्ति सा अभिभावक-धर्म का पालन करें।
-- व्याकुल पथिक
हर पीढ़ी की अलग कथा होती है। हमारी पीढ़ी से पहले परिवार संयुक्त होते थे सदस्यों की संख्या अधिक होती थी एक आदमी कमाता था बीस पलते थे। बच्चों के लिये कई अभिभावक होते थे। आज एक आदमी कमा रहा है और खुद भी नहीं खा पा रहा है। समाज की दिशा कुछ अलग हो गयी है। बाजार एक अलग समस्या है। कोशिश हर अभिभावक करता है। लेकिन जब तक त्याग की भावना नहीं होगी आप बच्चों से अपेक्षाएं नहीं रख सकते हैं। आप अच्छे समय में थे फिर भी वो नहीं मिला जो आज सोच रहे हैं तो आज की सोचिये। वृद्धाश्रम पहले नहीं हुआ करते थे।
ReplyDeleteजी उचित कहा आपने, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है।
Deleteशशि भाई, यदि हर कोई अपने अभिभावक धर्म का अच्छे से पालन करे तो शायद युवओं में भटकाव न आए।
ReplyDeleteजी बिल्कुल, ज्योति दी।
Deleteमंच पर स्थान देने के लिए हृदय से आभार मीना दी।
ReplyDeleteबहुत ही नेक सलाह दी है आपने शशि जी! हर हाल में अभिभावकों को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। बच्चों का भविष्य सुनहरा बनाने में बड़ों की समझदारी बहुत मायने रखती है।
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Deleteजी जरा सी चूक अभिभावक के जीवन भर के तप और बच्चे के भविष्य दोनों को ही नष्ट कर देता है,प्रवीण जी।
"अर्थयुग के इस मकड़जाल से किशोर और युवाओं की सुरक्षा का दायित्व अभिभावकों का है,किन्तु जब कभी अपने बच्चों की ऊर्जा की क्षमता को बिना परखे माता-पिता उससे अपने सपनों के बुझे दीप जलाने का प्रयत्न करते हैं,तो यही विभाजित ऊर्जा उनके कुलदीपक पर भारी पड़ती है।" आज के माध्यम वर्ग का यह शाश्वत सत्य है. बहुत सूक्ष्मता से आपने इस सत्य को अपने लेख में उकेरा है. साधुवाद!!!!
ReplyDeleteजी भाई साहब,
Deleteमेरी इस रचना पर गहराई से दृष्टि डालने और प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार।
एक अभिभावक को अपने परिवार की चिंता होती है। उसे होनी भी चाहिए। इससे क्या होता है कि एक-दूसरे की चिंता करने की परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती रहती है। हम जो देते हैं, वही पाते हैं। अच्छे संस्कार और विचार किसी भी व्यक्तित्व को आगे बढ़ाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। शशि भाई, आपका सुझाव बहुत बढ़िया है।🌹
ReplyDeleteAnil Yadav
Deleteजी अनिल भैया, अभिभावक को निश्चित ही अपने परिवार की चिंता होती है और होनी भी चाहिए , किन्तु फ़िर भी चूक हो जाती है, पर क्यों, यह यहाँ मैंने कम शब्दों में लिखा हूँ, क्योंकि बड़ा लेख कोई पढ़ना नहीं चाहता।
प्रतिक्रिया के लिए आभार भैया🌹
सत्य है महोदय अभिभावक चकाचौंध से प्रभावित है और मनोैज्ञानिक तौर से कहीं ना कहीं उस के अंदर की कामयाबी या नाकामयाबी उस प्रेरित करती है के उस का बच्चा भी वह करे
ReplyDeleteजी ऐसी अनुभूति मुझे है, आपका आभार।
Deleteबहुत सार्थक,अभिभावक को का मार्गदर्शन करता सार्थक लेख ।
ReplyDeleteसाथ ही हृदय स्पर्शी।
जी प्रणाम, आभार।
Deleteप्रेरक कथा।
ReplyDeleteआभार गुरूजी
Deleteअभिभावकों के लिए सही प्रेणना देती हुई रचना
ReplyDeleteजी आपका अत्यंत आभार।
Deleteशशि भैया , ये अक्सर होता है कि अभिभावक अपने अधूरे सपनों का बोझ अपने बच्चों के रूप में पूरा करने का प्रयास करते हैं | कभी- कभी वे खुद के असुरक्षित जीवन से डरकर -- अपनी संतान के जीवन को पूर्णरूपेण सुरक्षित बनाने के लिए--- उनपर सख्ती करते हुए उन्हें जीवन में सफल बनाने का प्रयास करते हैं | पर सबका मानसिक स्तर अलग अलग है | कई बच्चे ये मानसिक और शारीरिक दबाव झेल जाते हैं तो कई असंतुलित हो मानसिक और दैहिक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं | पर आज सभी अभिभावकों को इस विषय पर चिंतन करने की जरूरत है | वैसे तो आज की पीढ़ी बहुत साहसी है और अपने मन की करने की जिद में काफी हद तक सफल हो जाती है ,पर कई बार माता पिता के साथ ना दे पाने की स्थिति में -- इसकी परिणिति असाध्य मानसिक , शारीरिक रोगों या आत्महत्या जैसे दुस्साहसी और दुखद कर्म के रूप में होती है | अभिभावक का परम कर्तव्य ये ही है कि वह बछे के मन को पढ़कर उसे सही मार्गदर्शन दे | हर कोई हरेक काम नहीं कर सकता | बच्चे के रुझान और क्षमता को परखना जरूरी है | बहुत सुंदर प्रेरक लेख लिखा आपने | अपनेऔर दूसरों के अनुभव से लेख में अतुलनीय जीवंतता आई है | माँ बाप को बच्चे को एक मानवीय इकाई के रूप में परखना होगा ना कि एक सम्पति जैसे | ताकि कोई दूसरा व्याकुल पथिक बनकर वेदना और एकाकीपन की राह ना चले | सादर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर टिपण्णी रेनू जी!
Deleteजी दी ,
Deleteमैं जिन राहों से गुजरा हूँ। इस दौरान क्या पाया और क्या खोया हूँ, मेरा प्रयास होता है कि अपनी रचना के माध्यम से पाठकों तक अपनी इन बातों को रखूँ।
अतः जागते रहो कहता रहता हूँ और स्वयं भी इस मोह रूपी भवसागर से बाहर आने का प्रयत्न करता हूँ।
विस्तार पूर्व प्रतिक्रिया के लिए आपका अत्यंत आभार रेणु दी।
बहुत ही सारगर्भित लेख है शशि जी, बधाई! रेनू जी ने आपके लेख पर जिस सुंदरता से टिपण्णी की है, उअसके बाद और कुछ कहना शेष नहीं रह जाता।
ReplyDeleteइयह ब्लॉग भी एक प्रकार से रेणु दी का ही है और इस ब्लॉग को संवारने में एकमात्र उन्हीं का योगदान है। इस ब्लॉग पर
Deleteप्रथम और आखिरी टिप्पणी भी महीनों तक उन्हीं का रहा है।
प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार हृदयेश जी।
बहुत ही सुंदर और वास्तविकता से परिचय करवाने वाले लेख।
ReplyDeleteजी आभार ।
Deleteप्रेरक कथा 🌹🙏🙏
ReplyDeleteइस फरेबी दुनिया मे सच कहने में बहुत हिम्मत चाहती हैं,आप वास्तव में बहुत सच्चे व निर्भीक इंसान हैं, आपको हमारा अभिवादन!
ReplyDelete🙏
-आशीष बुधिया, पूर्व शहर कांग्रेस अध्यक्ष
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जीवन के पड़ाव का सजीव चित्रण। अभिभावकों को भी संयम एवम धैर्य से निर्णय लेना चाहिए। धन्यवाद
चंद्रांशु गोयल नगर विधायक प्रतिनिधि
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प्रेरक प्रसंग बच्चों का मित्र बनना बहुत ही आवश्यक है मोबाइल युग मे कब क्या हो पता ही नही चलेगा।
देवेंद्र पांडेय पत्रकार
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Jimmedari hi inshan ko inshan ya abhibhavak banati hai
-रामयश, यूपी पुलिस
सही बात है । जैसे अभिभावक होंगे वैसी ही पीढ़ी निर्मित होती है। अभिभावक यदि किन्हीं कारणों से सही दिशा-निर्देशन नहीं कर सके तो गुरु का दायित्व होता है कि वह अनगढ़ को बारीकी से गढ़े। श्रीराम को गुरु विश्वामित्र और गुरु वशिष्ठ ने गढ़ा न कि पिता दशरथ ने । गुरु वशिष्ठ के मार्ग-दर्शन का ग्रन्थ ही है *योग-वाशिष्ठ'* जिसे आज गुरु बनने वालों को पढ़ना चाहिए, पर पढ़े बिना गुरु बने लोग *गुरु-घण्टाल* बनना ज्यादा पसंद करते हैं । जीवन का कोई क्षेत्र हो, अधिकांश गुरु इसी तरह के दिखते हैं । मतलब साधने के लिए शिष्य को हमेशा बेवकूफ बनाए रखते हैं । ऐसे गुरु नरक के अधिकारी बताए गए हैं ।- सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।
ReplyDeleteअच्छी सीख अच्छे विचार अच्छे संस्कार देने के लिए प्रेरित किया है
ReplyDeleteडॉक्टर एसएन पांडेय
🙏🙏🙏भैया आपकी लेखनीय निर्भीकता और पूर्ण साहस से भरी होती है जिसकी जितनी तारीफ की जाय कम है
राजाराम यादव एडवोकेट
पत्रकार🙏🙏🙏
Apny youva awastha ky dekhbhal aur unko jimmydari kaa yehsas karany jo vardan kia hi wo sarahniye hi...sath hi apny bare jo apny likha hi....sayad us daur ka vritant jab Mirzapur aye thy too hum logo sy apny sare kiya thaa....ye har abhibhawak ky liye achha sujhav hi....apki lekhni hamesa margdarsan karti hi.....
- इंद्रदेव यादव
हर अभिभावक के लिए सीख भरा प्रेरक लेख । धन्यवाद । राधेश्याम विमल मिर्जापुर
ReplyDeleteप्रेरक लेख। आपने सही कहा कि कई बार अभिभावकों को मुखिया नहीं अपितु मित्र बनना होता है वहीं उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि वह अपने खुद के सपनों के बोझ तले बच्चों के जीवन को खराब न कर दें।
ReplyDeleteजी आभार, नमस्ते।
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