Followers

Wednesday 24 June 2020

सौदा

मन के भाव
********
    "हमारा यह नटखट लल्ला बाबा जी का पक्का भक्त हो गया है। अभी साढ़े तीन साल का है ,पर देखो न ऐसा कपालभाति प्राणायाम करता है कि बड़े-बड़े योग साधक चकित रह जाते हैं..!"

      अमुक प्रतिष्ठान पर खड़ीं उन दोनों महिलाओं का वार्तालाप सुनकर मयंक ने उत्सुकतावश अपनी दृष्टि उस ओर डाली ,तो देखा कि वे औषधीय गुणयुक्त चाय का एक पैकेट खरीद रही थीं। साधारण पोशाक में लिपटी बिना साज- श्रृंगार के ये प्रौढ़ और युवा औरतें आपस में माँ-बेटी थीं। जिनकी निगाहें दुकान में करीने से सजाकर रखे गये बाबा जी के तरह-तरह के स्वास्थ्यवर्धक उत्पादों पर टिकी हुई थीं। वे दुकानदार से ऐसे कुछ उत्पादों का मूल्य पूछतीं और फ़िर उसकी क़ीमत सुनकर मनमसोस के रह जाती थीं। यहाँ से उन्होंने सिर्फ़  एक पैकेट दिव्य चाय ही लिया था। हाँ, बच्चे के ज़िद करने पर प्रौढ़ महिला अपने बटुए को टटोलती है । उसने पाँच-पाँच के दो सिक्के उसमें से निकाले और आटे से निर्मित बिस्किट का एक छोटा सा पैकेट बच्चे को थमा दिया । वह चाहती तो पाँच रुपये वाला पारले-जी बिस्किट भी उसे दिला सकती थी,पर बाबा जी के उत्पाद पर उसे पूरा भरोसा था । 


         वे माँ-बेटी बाबा जी की सच्ची अनुयायी थीं, जो दुकान पर खड़े एक अन्य योग साधक को बड़े गर्व से बता रही थीं कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य साधारण चाय नहीं पीता है। वे सभी सुबह योग-प्राणायाम कर गिलोय ,तुलसी और कालीमिर्च इत्यादि डाल के बनाये गये काढ़े का सेवन करते हैं। उनका लल्ला भी यह कड़वा काढ़ा मांग कर पीता है। यह उनके लिए जीवन संजीवनी है। बाबा जी ने बताया है।  हाँ,जब कभी घर में कोई अतिथि आता है,तभी वे इस दिव्य पदार्थों से बनी चाय के पैकेट का उपयोग करती हैं। वे उन्हें दूध-चायपत्ती वाली साधारण चाय पिला कर बाबा जी की आज्ञा का उलंघन नहीं कर सकती हैं।

     वे महिलाएँ जिनके पास स्वयं दिव्य चाय पीने का सामर्थ्य नहीं हो ,फ़िर भी गुरु में उनकी ऐसी प्रबल आस्था देख पल भर के लिए मयंक को अपने आश्रम वाले जीवन का स्मरण हो आता है। जहाँ गुरु में उसकी श्रद्धा तो थी,किन्तु उनकी वाणी को तर्क की कसौटी पर कसने का प्रयत्न करता था। वह स्वयं से सवाल करता था कि ज़ब ईश्वर एक है, तो उस तक पहुँचने का मार्ग बताने वाले धर्मगुरुओं में एक दूसरे की उपासना पद्धति को लेकर इतनी घृणा क्यों है ? वे उपासना के तरीके को लेकर अपने शिष्य के हृदय में "विश्वास परिवर्तन" कराना क्यों चाहते हैं ?  संभवः आस्था की पाठशाला में "तर्क और विज्ञान " जैसे शब्द नहीं हैं,अतः मयंक सच्चा शिष्य नहीं बन सका था। 

     और आज़ भी इन दोनों महिलाओं की गुरु- आस्था को देख वह आनंदित तो हुआ ,लेकिन उनकी आँखों में छिपी ग़रीबी की इस विवशता को पढ़ कर मयंक का संवेदनशील हृदय द्रवित हो उठा था। उसके मन में पुनः अनेक प्रश्न उठ खड़े हुये हैं। लेखन कार्य से जुड़ा होने के कारण वह अनेक गुरुओं के दरबार में गया है। विंध्यक्षेत्र के एक प्रमुख आश्रम में उसने देखा है कि संपन्न भक्तों को गुरु की विशेष कृपा और प्रसाद की बड़ी-बड़ी पोटलियाँ मिलती हैं,जबकि सामान्य भक्त इस सुविधा से वंचित हैं ,चाहे गुरु के प्रति उनमें कितनी भी आस्था क्यों न हो । स्वयं महामाया विंध्यवासिनी के मंदिर में मायापति (वीआईपी) भक्तों के चरणों तले आम दर्शनार्थियों की आस्था कुचली जाती है। ऐसे उपासना स्थलों पर विशिष्ट व धनाढ्य भक्तों की ही पूछ के पीछे व्यापार नहीं तो और क्या है ? फ़िर इन दोनों ग्रामीण महिलाओं की आस्था का क्या मोल है?

यह सवाल आज़ भी उसके लिए यक्ष प्रश्न है! 

  मयंक को नहीं पता कि क्या कभी इन निर्धन महिलाओं में इतना सामर्थ्य होगा कि वे बाबा जी द्वारा निर्मित स्वास्थ्यवर्धक खाद्य सामग्रियों को "गुरु प्रसाद" समझ घर ला सकेंगी। इस अर्थयुग में उसका यह कैसा विचित्र प्रश्न है ?  यह जानते हुये भी कि इस सभ्य संसार में सब-कुछ व्यापार है । अन्यथा ऐसा कोई एक सस्ता स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद तो इन ग़रीब भक्तों के लिए किसी न किसी प्रतिष्ठान पर होता ही , जिसे वे अपने परिवार के लिए आसानी से क्रय कर सकती , किसी सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान पर मिलने वाले राशन की तरह ? काश ! इनके निष्ठा और विश्वास के लिए ऐसी कोई व्यवस्था संभव हो पाती।


     यकायक मयंक को अपने एक संबंधी के उस उपदेश की याद आ गयी थी। जब वह कालिम्पोंग में रहता था। जहाँ उनकी मिठाई की दुकान थी, वहीं पहाड़ की ऊँचाई पर एक सरकारी कन्या विद्यालय भी था। लंच के समय प्रतिदिन उस पहाड़ी से नीचे उतर कर लगभग चालीस- पचास नेपाली छात्राएँ  पचास पैसे का सिक्का लिये उनके प्रतिष्ठान पर आया करती थीं। निर्धन परिवार की ये  लड़कियाँ भूजा (बेसन का नमकीन सेव)  खरीदने आती थीं। पचास पैसे में और कुछ मिलना संभवः भी नहीं था। दुकान पर इनके लिए भूजा के बड़े-बड़े पैकट तैयार कर पहले से रख दिये जाते थे। जिनमें कम से कम एक रुपये का भूजा होता था। मयंक ने स्वयं तोल कर उसे देखा था। वह समझ नहीं पाता था कि दुकान पर यह घाटे का व्यापार क्यों किया जाता है ?  आखिर एक दिन उसने अपने संबंधी से पूछ ही लिया। जिसपर प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा था-   
  " हम व्यापारी अवश्य हैं,किन्तु ये बच्चे हमारे लिए 'करेंसी' नहीं हैं ,जो सिक्के का वजन देख कर इन्हें सौदा दिया जाए। देखना ही है, तो भूजा लेने के पश्चात इनके मासूम चेहरे पर मुस्कान देखिये आप.. ।" उनका कहना था कि व्यापार में भी मानवीय संवेदनाएँ  होती हैं। 

     काश ! उनकी यह बात धर्म के तथाकथित उन ठेकेदारों को भी समझ में आ जाती, जो धर्म को ' व्यापार ' और भक्त को 'करेंसी' समझते हैं । जिसके मूल्य के अनुपात में अपना आशीर्वाद भक्त को प्रसाद की छोटी- बड़ी पोटली के रूप में देते हैं। इनमें से कोई भी धर्मगुरु घाटे का व्यापार करना नहीं चाहता है। वे उस बच्चे की तरह खरा सौदा नहीं करना चाहते हैं, जो बाद में गुरु नानक देव बना। कोई भी गुरु नानक, कबीर और रैदास नहीं बनना चाहता है। वे तो मुनाफ़े वाला व्यापार चाहते हैं। फ़िर ऐसे में वे पचास पैसे में एक रुपये का भूजा जैसा कोई उत्पाद ग़रीब भक्तों को कैसे देंगे ..?

   तो क्या इस दुनिया में 'करेंसी' ही अब सब-कुछ है..! धर्म,शिक्षा, चिकित्सा, साहित्य, राजनीति और यहाँ तक की समाजसेवा भी सौदा है..!
आस्था,त्याग समर्पण, संवेदना और भावना जैसे शब्द उसी प्रतिष्ठान के महंगे उत्पादों की तरह सजावट की सामग्री मात्र हैं..! जिन पर निर्धन नहीं सिर्फ़ धनिकों का अधिकार है, क्यों कि व्यवसायिक दृष्टि से वह कागज़ का टुकड़ा भारी है..? 
    परंतु याद रखें जिस दिन हमें हृदय की तुला पर वजन करना आ जाएगा, उन छात्राओं का धातु निर्मित पचास के सिक्के वाला पलड़ा भारी मिलेगा । हम करेंसी से 'इंसान' बन जाएँगे। वे व्यापारी से संत बन जाएँगे,बिल्कुल गुरु नानक देव की तरह हम खरा सौदा कर पाएँगे। 
      
  -व्याकुल पथिक
  

28 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सन्देशप्रद।

    ReplyDelete
  2. जी आभार
    मीना दीदी।

    ReplyDelete
  3. शशि भाई, आज भी दुनिया में अच्छे लोग हैं, जो पैसा कमाने की जगह किसी की मुस्कराहटो को तज्जवो देते है। इस बात का सबूत ही अच्छा सबूत पेश किया उस दुकानदार ने।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी ज्योति दी
      वह कहा गया है कि अच्छाई पर दुनिया टिकी है, परंतु जिन्हें जनकल्याण करना है, वे व्यापार कर रहे हैं। विंध्यक्षेत्र और काशी में रह कर मैंने ऐसा देखा है। मंदिर -मठ सभी जगह व्यापार ।

      Delete
  4. उत्कृष्ट रचना! भौतिकवादी संस्कृति का प्रभाव अब कुछ ऐसा हो गया है कि मानवीय संवेदनाएं शून्य हो चुकी हैं। अध्यात्म भी बाजारवाद की भेंट चढ़ता जा रहा है। ऐसे में ऐसी रचनाएँ मानवीय संवेदनाओं को जगाने में अहम् भूमिका अदा कर सकती हैं।

    ReplyDelete
    Replies

    1. चर्चा को अपनी सार्थक प्रतिक्रिया के माध्यम से आगे बढ़ाने के लिए आपका अत्यंत आभार प्रवीण जी।

      Delete
  5. बहुत ही सुंदर संदेश ,सादर नमन शशि जी

    ReplyDelete
  6. आस्था और विश्वास न जाने कब कारोबार का विषय बन गए, पता भी नहीं चला। जागरूक समाज में अब इसके हर पहलू पर चर्चा होती है। त्याग, तपस्या, धर्म-कर्म, अध्यात्म की बातें करने वाले भव्य आश्रमों में रहते हैं। उनके सैकड़ों अनुचर-परिचर होते हैं। कहाँ से आता है इतना पैसा? हज़ारों एकड़ ज़मीन और उस पर विशाल परिसरों का निर्माण देखते ही बनता है। तड़क-भड़क देखकर लगता नहीं कि यहाँ पर किसी संन्यासी का राज है। परिसर में खड़ी हुई शानदार विलासिता युक्त गाड़ियाँ कुछ और ही कहानी बयान करते हैं। ‌ मोटे तगड़े भक्तों के सामने जब धनहीन-भाग्यहीन भक्त पड़ता है तो ख़ुद ही उनसे कतराकर निकल जाता है। वह तो अपने भाग्य को बदलने आया है, प्रसाद की पोटली में उसकी कोई रुचि नहीं है। प्रसाद की बड़ी-बड़ी पोटलियों की प्राप्ति बजाय उसकी ज़िंदगी की सारी कठिनाई दूर हो जाए, तो ज़्यादा अच्छा। संन्यासी और साधुओं की आँखें धनवान भक्तों को देखते ही पुलकित हो उठती हैं। गरीब ने क्या देगा? धनवान भक्तों से तो वातानुकूलित यंत्र मिल सकते हैं। अन्य संसाधन मिल सकते हैं। इस आश्रम से उस आश्रम जाने के लिए शानदार गाड़ियाँ उपहार में मिल सकती हैं। एक बार जब आदत पड़ जाती है, तो फिर इनसे मुक्त होने का मन भी तो नहीं करता। ऐसा नहीं है कि त्यागी पुरुष इस दुनिया में नहीं है, पर उनकी चर्चा बहुत ही कम होती है। इस भौतिकवादी युग में उनकी चर्चा करने के लिए आप जैसे संवेदनशील लेखक की क़लम जब चलती है, तो बहुत सुकून मिलता है। हाशिए पर पड़े हुए लोगों के लिए जीने वाले लोगों का आपकी कहानी बख़ूबी चित्रण करती है। बहुत ही सुंदर लेखन शशि जी। 🌹

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी अनिल भैया लेख से कहीं अधिक आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिये महत्वपूर्ण है। अब ब्लॉग पर कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं होती है। ब्लॉग पर आकर कतिपय साहित्यकारों के पक्षपात और दुर्भाग्यपूर्ण व्यवहार से मैं परिचय हो सका, यह मेरा सौभाग्य है। इसी प्रकार मंदिर और आश्रमों में जाकर भी वहाँ का सच देख आया हूँ।
      यह भी भलीभांति समझ गया हूँ कि जो जितनी ऊँचाई पर है, उसने दूसरों का उतना ही पतन किया है।
      यही कड़वा सच है कतिपय महान लोगों का।
      आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहती है, अन्यथा इस प्रकार के लेख कूड़ेदान की सामग्री है।🙏

      Delete
  7. भाव शून्य होते मानव जगत में अगर इन पर अमल किया जाए तो क्या ही अच्छा हो.
    सुंदर सृजन हेतु बधाई 💐

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार,बस एक कोशिश करता हूँ कि मानव संवेदनाओं को जगा सकूँ और स्वयं भी जागता रहूँ।

      Delete
  8. कॉर्पोरेट घराने ही उपभोक्तावाद में लगे हे बाकी छोटे व्यापारियों में आज भी मानवता हे

    ReplyDelete
    Replies
    1. बिल्कुल सही कहा आपने, ऐसा ही मैं देख रहा हूँ।
      जी आभार।

      Delete
  9. बहुत सुंदर और सार्थक सृजन 👌👌

    ReplyDelete
  10. शशि भैया, मानवता को हर धर्म में सदैव सर्वोत्तम माना गया पर बहुत दुखद रहा कि कोई भी धर्मावलंबी इस पर कायम ना रह पाया और देखते ही देखते धर्म स्थान और गुरु दरवार सभी कारोबार में बदलते गए । कोई भी मानवता की मुस्कान को सच्चा सौदा ना मान सका जैसा उस दुकानदार ने, 50 पैसे के बदले 1 रुपये का भूजा देकर बच्चों की मुस्कान के रूप में खरीद कर माना। उनके शब्द उन उपदेशकों को करारा जवाब हैं, जो --'परहित सरिस धर्म नहीं भाई ' गाते तो खूब हैं , पर उस के स्थान पर धनोपार्जन को ही सर्वोच्च धर्म मानते है ।सुंदर लेख पाठकों को सार्थक चिंतन कर लिए प्रेरित करता हुआ। हार्दिक शुभकामनायें। 🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. रेणु दी मैंने देखा साधारण लोगों में कहीं अधिक मानवता है, संवेदना है , भावना है, परोपकार की क्षमता है ,जबकि विशिष्ट लोगों के लिए यह सब गुण व्यापार मात्र है.. वे यहाँ अपना हित देखते हैं और ब्लॉग पर आकर मैंने इसे अत्यंत करीब से देखा है, किसी को अपमानित और तिरस्कृत कर लोग यहाँ बड़े आराम से निकल लेते हैं और पीछे ताली बजाने वालों को छोड़ जाते हैं। विचित्र है यह पढ़े लिखे लोगों की दुनिया, ज्ञानियों की दुनिया, महात्माओं की दुनिया ।
      आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहती है, वह भी अधिकार के साथ 🙏

      Delete
  11. बहुत ही सुंदर 🙏

    ReplyDelete
  12. कुएं में जब भांग पड़ी हो और उसे गुरु भी पी रहा हो तो फिर गुरु-शिष्य में फर्क कहां रह जाएगा ? वर्तमान दौर की विषमता का कारण ही है कि गुरु का मन विकारों से इतना गरिष्ठ हो गया है कि वह शिष्य को उलझाए रखना चाहता है ताकि शिष्य उसके स्वार्थ के पंजे से बाहर न निकल सके। यदि निकल गया तो गुरु के छल-छद्म की आढ़त पर कौन आएगा ? आढ़त इसलिए कि अब गुरु-गृह ज्ञान-विवेक का पवित्रधाम नहीं बल्कि स्वार्थ साधने का अड्डा हो गया हो, दौड़ में पिछड़ जाने वाला गुरु शिष्य को उकसा कर अपनी भड़ास निकाल रहा हो तो उसे गुरु-धाम नहीं कहा जा सकता।
    इन परिस्थितियों में खुद ही सत्साहित्य के अध्ययन को गुरु का चरण मानकर मन को वहीं झुकाना चाहिए। जिस क्षण विवेक रूपी गुरु जागृत हो जाएगा और अच्छे-बुरे का निर्णय वही करने लगेगा । फिर बिना गुरु के गुरुत्व (वजन) बढ़ बनाएगा। वरना एक न एक दिन तो पश्चाताप करना ही पड़ेगा कि गुरु के चक्कर में न पड़ते तो बुरा दिन देखना न पड़ता ।
    *सलिल पांडेय, मिर्जापुर।*
    (अध्यात्मवेत्ता )

    ReplyDelete
  13. गए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास - लगभग सभी बाबा लोगो के ऊपर यह मुहावरा लागू होता दिख रहा है सन्यास लेने के बाद जब की गई तपस्या फलीभूत होकर भक्तों को आकर्षित करने लगती है तो साधना करने बाला साधु तपस्या का मोल लगा कर आशीर्वाद को भी बेचने का धंधा बना लिया है योग के आड़ में दवा बेचने का धंधा जब चल निकला तो समाजसेवा की भावना बिलुप्त होकर धंधेबाज बन जाते है बाबा लोग और उनका आश्रम शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बन जाता है ।
    - अखिलेश कुमार मित्र पत्रकार

    ReplyDelete
  14. बहुत ही अच्छा लगा भाई साहब 🙏 🌹

    ReplyDelete
  15. भाव शून्य होते मानव जगत में अगर इन पर अमल किया जाए तो बहुत अच्छा हो.
    सब को चाहिए कि आपका लेख विचार युक्त है विचार करना चाहिए

    ReplyDelete
  16. जीवंत कहानी,उत्कृष्ट लेखनी शशी भैया जीवन के पथ पर ब्याकुल पथिक की रचनाओं का कोई तोड़ नही। आपकी लेखनी को बारम्बार प्रणाम।

    आशीष सोनी, पत्रकार ( भदोही)

    ReplyDelete
  17. बच्चो के होठों पर मुस्कान देखने वाले उस दुकानदार की सीख यदि व्यापारी समूह ले तो फिर गरीबो का कल्याण संभव हो सकेगा साथ ही समाज पर इसका अच्छा असर पड़ेगा। लेख तार्किक, बौद्धिक एवं चिंतनशील है। पोस्ट के लिए शशि भाई को बहुत-बहुत बधाई।
    राधेश्याम विमल
    पत्रकार
    ****

    वाह काश ठुल्लू बाबाओ तक भी यह लेख पहुँच पाता कि सब यही रह जायेगा लुटेरा बाबा कहलायेगा।
    देवेंद्र पांडेय पत्रकार

    ReplyDelete

yes