कोरोना काल की त्रासदी
पिछले कई दिनों से यहाँ मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर विशेष श्रमिक ट्रेनों का आगमन होता रहा है। घंटों विलंब से पहुँची इन रेलगाड़ियों ने एक बार फ़िर साबित कर दिया कि संकटकाल में भी देश का यह प्रमुख मंत्रालय "इंडियन टाइम" का कितना बड़ा अनुयायी है। रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतरते ही इन प्रवासी श्रमिकों का जिले के वरिष्ठ अधिकारियों ने ताली बजा कर स्वागत किया, किन्तु कैसा करुण दृश्य रहा, जब कोई मासूम बच्चा अपने पिता की उँगली थामे उसे लगभग बाहर की ओर खींचते हुये कह रहा था -" पापा ! अब घर आ गया है ,जल्दी चलो न ? " और माताएँ अपने ज़िगर के टुकड़े को अपने आँचल में छुपाएँ बाहर खड़ी बस की ओर टकटकी लगाए हुये थीं। रेलवे प्लेटफार्म पर उतरते ही इन सभी प्रवासियों के मलिन मुख पर चमक सी आ गयी थी । किस तरह से उन्होंने लॉकडाउन के 50-55 दिन महानगरों में एक कैदी की तरह अल्प भोजन करके गुजारे थे, इसे क्या वे आजीवन भूल पाएँगे ? फ़िर भी ये भाग्यवान हैं, जिनके लिए सरकार ने ट्रेन और बसों की व्यवस्था कर दी ,अन्यथा अनगिनत श्रमिक मुम्बई, सूरत, पुणे और अहमदाबाद जैसे महानगरों से ट्रक, आटो और साइकिल से अथवा पैदल ही आये हैं , जिनके स्वागत के लिए मार्ग में अफ़सर नहीं मौत खड़ी थी। इनमें भी कई ऐसे अभागे बीमार लोग थे, जिन्होंने अपने घर के चौखट पर दम तोड़ दिया है। जिनके प्रति शोक संवेदना व्यक्त करने की जगह गाँव वाले उन्हें कोरोना वाहक बता भाग खड़े हुये। अपने जिले का लक्ष्मण माझी भी इनमें से एक था। वह हरियाणा से पहले किसी वाहन और फ़िर पैदल सफ़र तय कर अपने गांव आया था। उसका शरीर ज्वर से तप रहा था। वाहन से गिरने के कारण सिर पर चोट लगी हुई थी। फ़िर भी पूरे धैर्य के साथ लड़खड़ाती हुई साँसों को संभाले प्रयागराज से विंध्यक्षेत्र की दूरी पैदल ही तय कर उस शाम वह अपने गाँव पहुँचा था । उसने घर के चौखट को चूमा,चार दिन पूर्व दाम्पत्य सूत्र में बंधे अपने पुत्र-पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और कुछ ही घंटों पश्चात लॉकडाउन से ही नहीं जीवन से भी सदैव के लिए मुक्त हो गया।
विपत्ति जब आती है,तो मनुष्य को चहुँओर से घेर लेती है।तनिक सोचें जरा उस माँ पर क्या गुजरी होगी, जिसने चलती ट्रेन में रेलवे स्टेशन जबलपुर से पहले बच्ची को जन्म दिया। 23 घंटे तक का माँ-बेटी का साथ रहा। तत्पश्चात इस श्रमिक ट्रेन में ही उसने आँखें बंद कर लीं। यह परिवार ट्रेन से मुम्बई से मुजफ्फरपुर जा रहा था। मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर नवजात के शव को बर्फ़ की सिल्ली पर रख उसे परिजनों को सौंप दिया गया।लॉकडाउन में मुंबई में फँसे इस श्रमिक परिवार की आँखों के आँसू भी कष्ट सहते-सहते सूख चुके थे।
मार्ग में इन प्रवासी श्रमिकों को किस-किस ने नहीं लूटा। ट्रक चालक ने प्रत्येक यात्री से 35 सौ रुपये तक लिए। वह भी एक ट्रक में 70 से अधिक प्रवासी श्रमिक ठूँस दिये गये थे। भूख के समक्ष कैसा सोशल डिस्टेंस ? किस तरह से कर्ज़ मांग कर इन्होंने ये 35 सौ रुपये एकत्र किये, इसकी एक और करुण कथा है। विशेष ट्रेन की बात करें , तो सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी कि सभी प्रवासी श्रमिकों को मुफ़्त में ट्रेन का टिकट दिया गया है। परंतु यात्रियों ने बताया कि पुलिस की उपस्थिति में दलालों ने उनसे 6 सौ से 8 सौ रुपये लिया है। अर्थात उनके पास जो थोड़ा बहुत धन शेष था, वह भी "व्यवस्था" की भेंट चढ़ गया।
इधर, राजनीति के अखाड़े में क्या हो रहा है, यही न कि पक्ष-विपक्ष इन श्रमिकों की लाश पर अपनी सियासी रोटी सेक रहे हैं। जबकि इन श्रमिकों का प्रश्न यह है कि लॉकडाउन पार्ट-1 और 2 के दौरान सरकार ने उनको महानगरों से निकाल घर भेजने के संदर्भ में क्या किया ? यदि ऐसा होता तो लॉकडाउन-3 के दौरान धैर्य खो वे इस तरह से कष्ट सहते हुये पैदल ही मीलों सफ़र तय करने को बाध्य नहीं होते। आश्चर्य है कि एक साधारण मज़दूर भी इतनी समझ रखता है।अपनी जान सबको प्रिय है। न जाने क्यों हमारे रहनुमा इसे नहीं समझ सकें कि क्षुधातुर प्राणी को चंद्र खिलौना दिखला कर अधिक देर तक बहलाया नहीं जा सकता है।
और यह कैसी विडंबना रही कि हममें से अनेक उस समय पटाखे फोड़ दीपावली मना रहे थे ,जब ये प्रवासी श्रमिक मुंबई जैसे महानगरों में कोराना और भूख से संघर्ष कर रहे थे। वे बेरोज़गार हो गये थे। ऐसे श्रमिकों की क्षुधा तृप्ति के लिए थोड़ा सा छोला और चावल अथवा छह पूड़ी और आलू की सब्जी ,क्या इसे ही सरकारी लंच पैकेट कहते हैं? जबकि टेलीविज़न पर स्वास्थ्य विशेषज्ञ सावधान कर रहे थे कि ऐसे समय में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक आहार लिया जाए।
" मेरा परिवार भूखा है। हमारे पास पैसे नहीं हैं। हमें यहाँ से बाहर निकालो। हमारी जान खतरे में है । प्लीज़ , मदद करो भाई !"
और उधर टेलीविज़न के स्क्रीन पर विभिन्न दलों के राजनेताओं का आपस में वाकयुद्ध चल रहा था। यदि इस वक़्त कोई आम चुनाव होता, तो पक्ष-विपक्ष के ये ही नेता इन प्रवासी श्रमिकों के दरवाजे पर दस्तक़ देते दिखतें। एक प्रत्याशी आम चुनाव में करोड़ों रुपया उड़ा सकता है, किन्तु ऐसी आपदाओं में वह सिर्फ़ घड़ियाली आँसुओं से काम चलाता है। दूसरी ओर करोड़ों- अरबों में खेलने वाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लग्ज़री ओबी वैन ने ऐसी करुण पुकार लगाते लोगों का लाइव न्यूज़ तो ख़ूब दिखाया है, परंतु काश ! ऐसी कठिन परिस्थितियों में ये धन संपन्न न्यूज़ चैनलों के स्वामी अपने इसी वैन के साथ एक और वाहन भेज देते, जिसमें पीड़ितों के बच्चों के लिए खाने का कुछ सामान होता। तब इनकी भी संवेदनाओं की परख जनता को हो जाती । अन्यथा यह उक्ति "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" सरनाम है। स्मरण रहे कि श्रेष्ठ पुरुष वह है, जो पराई पीड़ा को जान कर चुप नहीं बैठता है, बल्कि उनका उपकार करता है।
शासन-सत्ता में बैठे राजनेता स्वयं ईमानदारी से बताए कि उन सघन इलाके में जहाँ लॉकडाउन के कारण श्रमिक फँसे हुये थे, सोशल डिस्टेंस का ध्यान रख पाना क्या संभव था ? यही कारण है कि अपने मीरजापुर जनपद में दिल्ली से आये तबलीग़ी मरकज़ के तीन जमातियों को छोड़ कर कोरोना के शेष जितने भी मामले आ रहे हैं, सभी का संबंध मुम्बई से है।
विद्वानों का कथन है कि राष्ट्र, समाज और परिवार तभी सुखमय होगा, जब हम समस्याओं पर अपने ही नहीं दूसरों के भी दृष्टिकोण से विचार करते हैं। तभी वह हल जो किसी पर थोपा हुआ नहीं लगेगा, बल्कि वह सर्वसम्मति से सबका उत्तर होगा। क्या हमारी सरकार भी ऐसा करती है ?
वैसे भी श्रमिक तो ऐसे हिम्मती लोग हैं, जो मझधार में पड़े होकर भी तूफान की ताकत को परखते हैं। इनके हौसले को सिर्फ़ भूख ही तोड़ सकती है और यही हुआ है। अतः लॉकडाउन-3 का उल्लंघन किस विवशता में उन्होंने किया, किसकी नादानी से किया, राजनेताओं को इस पर आत्मचिंतन करना होगा । यदि हम इन श्रमिकों के अश्रु को मुस्कान में नहीं बदल सकें,इनके पसीने की बूँदों का मोल नहीं समझ सके , तो यह इनके भाग्य का अभिशाप नहीं,वरन् व्यवस्था का दोष है।
अभी तो एक और चुनौती का सामना घर वापसी के पश्चात प्रवासी श्रमिकों को करना पड़ सकता है। क्यों कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि वर्षों बाद महानगरों से वापस घर लौटे श्रमिकों को अपने ही गाँव की माटी का रंग बदला नज़र आए अथवा इनके ही सगे-संबंधी इन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझ लें। यह "प्रवासी " होने का तमग़ा ऐसा ही होता हैं। अपने ही देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में कोई व्यक्ति आजीविका की तलाश में क्या गया कि उसकी पहचान बदल गयी। उसके प्रति अपनों का दृष्टिकोण बदल गया। न वह यहाँ का रहा,न वहाँ का । ऐसा भी होता है। अतः इन प्रवासी श्रमिकों की अगली परीक्षा आजीविका की पुनः खोज होगी। देखना है कि हमारी सरकार इन श्रमिकों को इनके गाँव के आस-पास ही रोज़गार मुहैया करवाने के लिए क्या करती है।
पूंजीपतियों की नगरी में वापस जाने की कल्पना मात्र से ये मज़दूर काँप उठ रहे हैं।
महानगरों में ये भोलेभाले इंसान जिस प्रकार स्वार्थ के तराजू पर तौले गये हैं। जिसकी दहशत अब भी उनकी नम आँखों में है, इससे स्पष्ट है कि उनकी वापसी शीघ्र संभव नहीं है। इन्होंने इन महानगरों में अपने जीवन को संवारने का मन में एक काल्पनिक सुंदर चित्र बनाया था, किन्तु वापसी पर मैंने देखा इनके झोले में कुछ बर्तन और वस्त्र के अतिरिक्त कुछ भी कीमती सामग्री न थी। मैंने इन प्रवासी श्रमिकों की मनोस्थिति को समझने की कोशिश की, मानो वह कह रही हो-
" ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रखा क्या है ?"
- व्याकुल पथिक
पिछले कई दिनों से यहाँ मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर विशेष श्रमिक ट्रेनों का आगमन होता रहा है। घंटों विलंब से पहुँची इन रेलगाड़ियों ने एक बार फ़िर साबित कर दिया कि संकटकाल में भी देश का यह प्रमुख मंत्रालय "इंडियन टाइम" का कितना बड़ा अनुयायी है। रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतरते ही इन प्रवासी श्रमिकों का जिले के वरिष्ठ अधिकारियों ने ताली बजा कर स्वागत किया, किन्तु कैसा करुण दृश्य रहा, जब कोई मासूम बच्चा अपने पिता की उँगली थामे उसे लगभग बाहर की ओर खींचते हुये कह रहा था -" पापा ! अब घर आ गया है ,जल्दी चलो न ? " और माताएँ अपने ज़िगर के टुकड़े को अपने आँचल में छुपाएँ बाहर खड़ी बस की ओर टकटकी लगाए हुये थीं। रेलवे प्लेटफार्म पर उतरते ही इन सभी प्रवासियों के मलिन मुख पर चमक सी आ गयी थी । किस तरह से उन्होंने लॉकडाउन के 50-55 दिन महानगरों में एक कैदी की तरह अल्प भोजन करके गुजारे थे, इसे क्या वे आजीवन भूल पाएँगे ? फ़िर भी ये भाग्यवान हैं, जिनके लिए सरकार ने ट्रेन और बसों की व्यवस्था कर दी ,अन्यथा अनगिनत श्रमिक मुम्बई, सूरत, पुणे और अहमदाबाद जैसे महानगरों से ट्रक, आटो और साइकिल से अथवा पैदल ही आये हैं , जिनके स्वागत के लिए मार्ग में अफ़सर नहीं मौत खड़ी थी। इनमें भी कई ऐसे अभागे बीमार लोग थे, जिन्होंने अपने घर के चौखट पर दम तोड़ दिया है। जिनके प्रति शोक संवेदना व्यक्त करने की जगह गाँव वाले उन्हें कोरोना वाहक बता भाग खड़े हुये। अपने जिले का लक्ष्मण माझी भी इनमें से एक था। वह हरियाणा से पहले किसी वाहन और फ़िर पैदल सफ़र तय कर अपने गांव आया था। उसका शरीर ज्वर से तप रहा था। वाहन से गिरने के कारण सिर पर चोट लगी हुई थी। फ़िर भी पूरे धैर्य के साथ लड़खड़ाती हुई साँसों को संभाले प्रयागराज से विंध्यक्षेत्र की दूरी पैदल ही तय कर उस शाम वह अपने गाँव पहुँचा था । उसने घर के चौखट को चूमा,चार दिन पूर्व दाम्पत्य सूत्र में बंधे अपने पुत्र-पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और कुछ ही घंटों पश्चात लॉकडाउन से ही नहीं जीवन से भी सदैव के लिए मुक्त हो गया।
विपत्ति जब आती है,तो मनुष्य को चहुँओर से घेर लेती है।तनिक सोचें जरा उस माँ पर क्या गुजरी होगी, जिसने चलती ट्रेन में रेलवे स्टेशन जबलपुर से पहले बच्ची को जन्म दिया। 23 घंटे तक का माँ-बेटी का साथ रहा। तत्पश्चात इस श्रमिक ट्रेन में ही उसने आँखें बंद कर लीं। यह परिवार ट्रेन से मुम्बई से मुजफ्फरपुर जा रहा था। मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर नवजात के शव को बर्फ़ की सिल्ली पर रख उसे परिजनों को सौंप दिया गया।लॉकडाउन में मुंबई में फँसे इस श्रमिक परिवार की आँखों के आँसू भी कष्ट सहते-सहते सूख चुके थे।
मार्ग में इन प्रवासी श्रमिकों को किस-किस ने नहीं लूटा। ट्रक चालक ने प्रत्येक यात्री से 35 सौ रुपये तक लिए। वह भी एक ट्रक में 70 से अधिक प्रवासी श्रमिक ठूँस दिये गये थे। भूख के समक्ष कैसा सोशल डिस्टेंस ? किस तरह से कर्ज़ मांग कर इन्होंने ये 35 सौ रुपये एकत्र किये, इसकी एक और करुण कथा है। विशेष ट्रेन की बात करें , तो सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी कि सभी प्रवासी श्रमिकों को मुफ़्त में ट्रेन का टिकट दिया गया है। परंतु यात्रियों ने बताया कि पुलिस की उपस्थिति में दलालों ने उनसे 6 सौ से 8 सौ रुपये लिया है। अर्थात उनके पास जो थोड़ा बहुत धन शेष था, वह भी "व्यवस्था" की भेंट चढ़ गया।
इधर, राजनीति के अखाड़े में क्या हो रहा है, यही न कि पक्ष-विपक्ष इन श्रमिकों की लाश पर अपनी सियासी रोटी सेक रहे हैं। जबकि इन श्रमिकों का प्रश्न यह है कि लॉकडाउन पार्ट-1 और 2 के दौरान सरकार ने उनको महानगरों से निकाल घर भेजने के संदर्भ में क्या किया ? यदि ऐसा होता तो लॉकडाउन-3 के दौरान धैर्य खो वे इस तरह से कष्ट सहते हुये पैदल ही मीलों सफ़र तय करने को बाध्य नहीं होते। आश्चर्य है कि एक साधारण मज़दूर भी इतनी समझ रखता है।अपनी जान सबको प्रिय है। न जाने क्यों हमारे रहनुमा इसे नहीं समझ सकें कि क्षुधातुर प्राणी को चंद्र खिलौना दिखला कर अधिक देर तक बहलाया नहीं जा सकता है।
और यह कैसी विडंबना रही कि हममें से अनेक उस समय पटाखे फोड़ दीपावली मना रहे थे ,जब ये प्रवासी श्रमिक मुंबई जैसे महानगरों में कोराना और भूख से संघर्ष कर रहे थे। वे बेरोज़गार हो गये थे। ऐसे श्रमिकों की क्षुधा तृप्ति के लिए थोड़ा सा छोला और चावल अथवा छह पूड़ी और आलू की सब्जी ,क्या इसे ही सरकारी लंच पैकेट कहते हैं? जबकि टेलीविज़न पर स्वास्थ्य विशेषज्ञ सावधान कर रहे थे कि ऐसे समय में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक आहार लिया जाए।
- आखिर क्यों इन श्रमिकों को कोरोना का आहार बनने के लिए छोड़ दिया गया? काश ! लॉकडाउन पार्ट 1 और 2 में धीरे-धीरे इन श्रमिकों की घर वापसी का प्रयास होता। महाराष्ट्र से प्रवासी श्रमिकों की गुहार यहाँ अपने जिले के अख़बारों के दफ़्तर में पहुँच रही थी।
" मेरा परिवार भूखा है। हमारे पास पैसे नहीं हैं। हमें यहाँ से बाहर निकालो। हमारी जान खतरे में है । प्लीज़ , मदद करो भाई !"
और उधर टेलीविज़न के स्क्रीन पर विभिन्न दलों के राजनेताओं का आपस में वाकयुद्ध चल रहा था। यदि इस वक़्त कोई आम चुनाव होता, तो पक्ष-विपक्ष के ये ही नेता इन प्रवासी श्रमिकों के दरवाजे पर दस्तक़ देते दिखतें। एक प्रत्याशी आम चुनाव में करोड़ों रुपया उड़ा सकता है, किन्तु ऐसी आपदाओं में वह सिर्फ़ घड़ियाली आँसुओं से काम चलाता है। दूसरी ओर करोड़ों- अरबों में खेलने वाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लग्ज़री ओबी वैन ने ऐसी करुण पुकार लगाते लोगों का लाइव न्यूज़ तो ख़ूब दिखाया है, परंतु काश ! ऐसी कठिन परिस्थितियों में ये धन संपन्न न्यूज़ चैनलों के स्वामी अपने इसी वैन के साथ एक और वाहन भेज देते, जिसमें पीड़ितों के बच्चों के लिए खाने का कुछ सामान होता। तब इनकी भी संवेदनाओं की परख जनता को हो जाती । अन्यथा यह उक्ति "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" सरनाम है। स्मरण रहे कि श्रेष्ठ पुरुष वह है, जो पराई पीड़ा को जान कर चुप नहीं बैठता है, बल्कि उनका उपकार करता है।
शासन-सत्ता में बैठे राजनेता स्वयं ईमानदारी से बताए कि उन सघन इलाके में जहाँ लॉकडाउन के कारण श्रमिक फँसे हुये थे, सोशल डिस्टेंस का ध्यान रख पाना क्या संभव था ? यही कारण है कि अपने मीरजापुर जनपद में दिल्ली से आये तबलीग़ी मरकज़ के तीन जमातियों को छोड़ कर कोरोना के शेष जितने भी मामले आ रहे हैं, सभी का संबंध मुम्बई से है।
विद्वानों का कथन है कि राष्ट्र, समाज और परिवार तभी सुखमय होगा, जब हम समस्याओं पर अपने ही नहीं दूसरों के भी दृष्टिकोण से विचार करते हैं। तभी वह हल जो किसी पर थोपा हुआ नहीं लगेगा, बल्कि वह सर्वसम्मति से सबका उत्तर होगा। क्या हमारी सरकार भी ऐसा करती है ?
वैसे भी श्रमिक तो ऐसे हिम्मती लोग हैं, जो मझधार में पड़े होकर भी तूफान की ताकत को परखते हैं। इनके हौसले को सिर्फ़ भूख ही तोड़ सकती है और यही हुआ है। अतः लॉकडाउन-3 का उल्लंघन किस विवशता में उन्होंने किया, किसकी नादानी से किया, राजनेताओं को इस पर आत्मचिंतन करना होगा । यदि हम इन श्रमिकों के अश्रु को मुस्कान में नहीं बदल सकें,इनके पसीने की बूँदों का मोल नहीं समझ सके , तो यह इनके भाग्य का अभिशाप नहीं,वरन् व्यवस्था का दोष है।
अभी तो एक और चुनौती का सामना घर वापसी के पश्चात प्रवासी श्रमिकों को करना पड़ सकता है। क्यों कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि वर्षों बाद महानगरों से वापस घर लौटे श्रमिकों को अपने ही गाँव की माटी का रंग बदला नज़र आए अथवा इनके ही सगे-संबंधी इन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझ लें। यह "प्रवासी " होने का तमग़ा ऐसा ही होता हैं। अपने ही देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में कोई व्यक्ति आजीविका की तलाश में क्या गया कि उसकी पहचान बदल गयी। उसके प्रति अपनों का दृष्टिकोण बदल गया। न वह यहाँ का रहा,न वहाँ का । ऐसा भी होता है। अतः इन प्रवासी श्रमिकों की अगली परीक्षा आजीविका की पुनः खोज होगी। देखना है कि हमारी सरकार इन श्रमिकों को इनके गाँव के आस-पास ही रोज़गार मुहैया करवाने के लिए क्या करती है।
पूंजीपतियों की नगरी में वापस जाने की कल्पना मात्र से ये मज़दूर काँप उठ रहे हैं।
महानगरों में ये भोलेभाले इंसान जिस प्रकार स्वार्थ के तराजू पर तौले गये हैं। जिसकी दहशत अब भी उनकी नम आँखों में है, इससे स्पष्ट है कि उनकी वापसी शीघ्र संभव नहीं है। इन्होंने इन महानगरों में अपने जीवन को संवारने का मन में एक काल्पनिक सुंदर चित्र बनाया था, किन्तु वापसी पर मैंने देखा इनके झोले में कुछ बर्तन और वस्त्र के अतिरिक्त कुछ भी कीमती सामग्री न थी। मैंने इन प्रवासी श्रमिकों की मनोस्थिति को समझने की कोशिश की, मानो वह कह रही हो-
" ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रखा क्या है ?"
- व्याकुल पथिक
👌👌🙏🙏
ReplyDeleteआभार सुनील भैया।
Deleteइस दर्द की इंतेहा नही है समीर भैया और आपकी लेखनी ने सब कुछ बंया कर दिया।
ReplyDeleteइस दर्द की इंतेहा नही है समीर भैया और आपकी लेखनी ने सब कुछ बंया कर दिया।
ReplyDeleteआभार आशीष जी।
Deleteनग्न सत्य को बेनाकाब करती आपकी लेखनी को सलाम! नौकरशाही ने एक बार फिर साबित किया कि वह भ्रष्टाचार और अक्षमता का घिनौना नमूना है।
ReplyDeleteजी आभार भैया जी, इस बहुमूल्य प्रतिक्रिया के लिए,
Deleteनौकरशाहों को जिस दिन जनता "सरकार" कह कर बुलाना छोड़ दे
और जिस दिन
उनके पदनाम के आगे यह लिख दिया जाए कि जनता का सेवक।
शशि जी प्रवासी मजदूरों के हालात का आपने जो विवरण दिया है वो सच में कोरोना काल की सबसे बड़ी त्रासदी है। नित्य जो तस्वीरें सामने आ रही हैं वो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर देने वाली हैं और जिनके साथ ये सच में घटित हो रहा है उनकी पीड़ा तो हम सब शब्दों में बयां नहीं कर सकते। आज इनकी इस दशा के लिए सिर्फ और सिर्फ देश-प्रदेश की सरकारें हैं। इन्होंने हमेशा की तरह अपने फायदे नुकसान को ध्यान में रखा और इन मजदूरों को इनके हाल पर छोड़ दिया। कोरोना इन पर कहर बरपा रहा है और अभी आगे जैसा कि दिख रहा है स्थिति और भयंकर रुप ले सकती है और हालात बद से बदतर ही होंगे क्योंकि नीति-निर्माताओं के पास कोई ठोस कार्य योजना नहीं है सिवाय झूठे सपने दिखाने के। ये लॉकडाउन एक फ्लॉप शो बन कर रह गया है और इसने हमारे समाज के ठेकेदारों की अच्छे से पोल खोल दी है।
ReplyDeleteजी प्रवीण भैया, उचित कहा आपने।
ReplyDeleteलॉकडाउन पार्ट -1 और 2 में सरकार - प्रशासन ने लोगों को घर में रखने के अतिरिक्त और क्या होमवर्क किया, मैं नहीं समझ पाया।
बहुत सही चित्रण भाई साहब
ReplyDelete- डा0 एस एन पांडेय
बहुत सुंदर भैया
- राजू सिंह, पत्रकार
Bhai sb, vartan trasad sthiti par bidambanaaon se bhara lagabhag sampoorn lekh.🙏🏻🌹
- एक प्रबुद्ध पाठक
मार्मिक पोस्ट
ReplyDeleteजी आभार, गुरुजी
Delete🙏 🌹
ReplyDeleteजी आभार।
Delete👌शशि भाई रेलवे स्टेशन पर अपने गृह जनपद अथवा आसपास पहुंच चुके श्रमिकों के परिवार जनों की भावनाओं को जिस प्रकार से आपने महसूस किया और शब्दों में पिरोया है। इस पर कहने और लिखने के लिए कुछ बचा ही नहीं है आपकी लेखनी इसी प्रकार से मानव जीवन की गहराइयों को स्पर्श करती रहे । शुभकामनाएं 🎂
ReplyDelete- प्रदीप शुक्ला, पर्यावरणविद
कोरोना का क़िस्सा बहुत पीछे छूट गया। कोरोना काल की भयानक पीड़ा से हम सभी रू-ब-रू हो रहे हैं। भारत की सड़कों पर पैदल चलते बेबस मज़दूर, औरतें और बच्चे भारत की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था की पोल खोलते हैं। लंबी-लंबी बातें करने वाले अब भी बातों को बनाने से बाज नहीं आ रहे हैं। प्रवासी मज़दूर लॉकडाउन के पहले ही चरण में आर्थिक समस्याओं को देखते हुए अपने-अपने घरों की ओर किसी भी तरह से जाने लगे थे। जब तक चंद ट्रेनें इन मजदूरों को लाने के लिए चलतीं, तब तक तो लाखों मज़दूर अपने घरों को पैदल टूटे हुए ख़्वाबों को लेकर जा चुके थे। फिर भी लाखों को बाहर जाना था। धैर्य टूटने लगा। नियम-क़ानून पीछे छूटने लगा। शायद सरकारी तंत्र ने मज़दूरों की एक बड़ी संख्या का सही-सही आकलन नहीं किया था।
ReplyDeleteलॉकडाउन के माध्यम से एक समस्या के समाधान के लिए अन्य होने वाली समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया जा सका। प्रवासी मज़दूर हमारी आँखों से दूर थे। लॉकडाउन के दौरान हमने मनोरंजन के लिए सतही चीज़ों पर ज़ोर दिया। सुदूर रहने वाले मज़दूरों पर कोई ध्यान नहीं दिया। और जब ध्यान आया तो राज्यों की केंद्र और राज्य की सरकारों में तालमेल का अभाव दिखने लगा। राजनीति आरोप-प्रत्यारोप से ताक़त पाने लगी। सारे घटनाक्रम में यदि सबसे बड़ी क्षति किसी को उठानी पड़ी तो वह मज़दूरों को उठानी पड़ी। भूखे-प्यासे, मार खाते हुए मज़दूरों को देखना हृदय विदारक रहा। आज भी मज़दूर अपने अपने घरों को लौट रहे हैं। माना कि यह बुरा समय है और यह भी बीत जाएगा। अब बड़ी ईमानदारी से इन मज़दूरों को सूचीबद्ध करना होगा। उन्हें लाभकारी योजनाओं से प्रभावी ढंग से जोड़ना होगा। वास्तविक वंचितों का विशेष ध्यान रखना होगा। यह सबकी ज़िम्मेदारी है कि इन कार्यों को सफलतापूर्वक उसके अंजाम तक पहुँचाएं।
इस त्रासदी के दौरान हमने देखा कि तमाम मज़दूर माताएँ और बहनें अपने परिवार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर पैरों में छाले लिए बड़ी उम्मीद के साथ अपने घरों को और बढ़ती रहीं। बिहार की बेटी ने तो अपने घायल पिता को साइकिल पर बिठाकर 1000 किलोमीटर से ज़्यादा की यात्रा की। उस बेटी ने देश और समाज के सामने एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया कि आँखों में आँसू आ गए। माता-पिता की सेवा कैसे की जाती है, इस घटना ने एक बार फिर हम सब को बता दिया है।
हमें यह नहीं भूलना है कि कई हाथ मदद के लिए भी उठे और उस मदद से कइयों को आगे बढ़ने का हौसला मिला। सरकारों के इंतज़ाम भी कमोबेश ठीक थे। भले ही देर से किया गया इंतज़ाम था। शशि भाई आपकी पत्रकारिता, पीत पत्रकारिता नहीं है। गुमराह करने वाली प्रशंसा की पत्रकारिता नहीं है। आपकी पत्रकारिता देश और समाज की आईना है। इस पत्रकारिता में कोई राजनीति नहीं है। आप पत्रकार होने का धर्म नहीं निभा रहे हैं, बल्कि महामानव होने का धर्म निभा रहे हैं। हमें आप पर गर्व है। हमेशा की तरह हृदय को छू लेने वाला लेखन।🌹
जी अनिल भैया,सदैव की तरह आपने अपनी प्रतिक्रिया के माध्यम से लेख को विस्तार दिया है।
Deleteउचित यह होगा कि हमारे रहनुमाओं को यह सोचना होगा कि अब इन प्रवासी श्रमिकों के लिए वह क्या कर सकते हैं। ये श्रमिक गाँव तो आ गये हैं, परंतु आजीविका के लिए क्या करेंगे ?
सरकार ऐसे तमाम मज़दूरों की पहचान कर ले, यह भी एक बड़ी उपलब्धि होगी उसकी।
***
चंद्रांशु भैया के पास इस संदर्भ में कुछ बढ़िया सुझाव है।
***
शेष क्या कहूँ , यह आपका स्नेह भैया, जो मेरे संदर्भ में कुछ विशेष ही कह देते हैं। 🙏
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26 -5 -2020 ) को "कहो मुबारक ईद" (चर्चा अंक 3713) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
---
कामिनी सिन्हा
आपका हृदय से आभार।
Deleteकोरोना काल की त्रासदी :-
ReplyDeleteमजदूर होना जैसे दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप हो जबकि मजदूर किसी बड़ी इमारत की वह नीव की ईंट है जिसके ऊपर पूरी भब्य इमारत टिकी है , आजादी के इतने वर्षों के बाद भी हम आर्थिक रूप से इतने गुलाम है कि अपना पेट भरने के लिए महानगरों में जाकर चाकरी करनी पड़ती है हमारे जानकारी में कई ऐसे परिवार है जिनकी कई पीढियां कलकत्ता , बम्बई में नौकरी कर रही है , आखिर क्यों राज्य सरकार उन्हें रोजगार नही दे पा रही है , इतने वर्षों तक जो मजदूर अपना शरीर जला कर मालिक की फैक्ट्री का ईंधन बनते रहे उन मालिको की क्रूरता ने तो अंग्रेजो को भी पीछे छोड़ दिया । अब वापस आये इन मजदूरों को सोचना पड़ेगा कि परदेश में जाकर बाबूसाहबी से तो अच्छा है अपने गांव में मजदूरी करना।
-अखिलेश मिश्र' बागी'
पत्रकार।
जो भी लिखा है ये दर्पण है, बहुत ही बुरी दशा रही है, बस ऊपर वाले से प्रार्थना है अब परीक्षा ना ले, इस त्रासदी से सभी की रक्षा करे 🙏
ReplyDelete- राजीव शुक्ला
दर्पण की तरह साफ है सारी स्थिति, सब कुछ बहुत दर्दनाक है और यह सब पढ़ते समय हम मध्यम वर्ग वालों के मन में तो फिर भी एक हूक सी उठती है परंतु जो लोग इन्ही श्रमजीवियों के द्वारा बनाए गए आलीशान बँगलों में बैठकर कर मौज उड़ा रहे हैं उनका हृदय पसीज जाता तो हालत इतनी खराब नहीं होती।
ReplyDeleteजी मीना दी,
Deleteविचित्र विडंबना है कि हम मानव कब बनेंगे।
प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार।
आप स्वयं ही कर्म से सम्मानित है ।आप का ही काम देखकर खुश रहता हूँ ।आशीर्वाद् ✋🏻🤚🏻
ReplyDelete- गुलाबचंद्र तिवारी, अवकाश प्राप्त प्रवक्ता
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बहुत सुंदर आपकी लेखनी का जोड़ नही
***जे पी यादव
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आपकी सभी रचनायें समाज की कसौटी पर खरी होती हैं । पत्रकारिता मे आपके अनुभव रचनाओं में दिखती है । भगवान आपकों इसी तरह प्रेरणा देते रहे । आपकी लेखनी को राष्ट्रीय अंतर्राष्टीय स्तर पर सम्मान मिले ।
अरविंद त्रिपाठी , पत्रकार।
शब्दों से ऐसा चित्रण रचा हे के मंजर आंखो के सामने बंया होता दिख रहा है सटीक चित्रण
ReplyDeleteजी अत्यंत आभार, प्रणाम।
Deleteशशि भैया, कोरोना का में,लॉक डॉउन की विकट स्थितियों में जहाँ सुविधा संपन्न लोगों ने जीवन का सबसे आरामदायक समय व्यतीत किया वहीं अर्थव्यवस्था के आधारभूत स्तंभ श्रमिक ने जीवन का सबसे मुश्किल दौर देखा। श्रमिक , जिसकी निष्ठा पर कोई भी प्रश्न नहीं उठा सकता , उसी के अथक योगदान का सदियाँ भी मूल्यांकन नहीं कर पाई। उसे हर दौर में शोषित होना पड़ा। पर कोरोना ने उस पर इतना कहर बरपाया कि उसकी व्यथा कथा शब्दों में नहीं समाती।
ReplyDeleteपाँव के छाले और दरबदर जिंदगी की भयावह तस्वीरें इस सदी की सबसे भयावह और मर्मांतक तस्वीरें थी। सड़कों और रेल की पटरी पर उनकी मौत को देखकर मानवता भी शर्मिंदा हुई होगी । हमारे जैसे लोग भी आरामदायक जीवन जीते हुये शायद उनकी पीड़ा का सही सही आकलन करने में असमर्थ हैं, भले सोशल मीडिया पर बिखरी उनकी वेदना के पलों की कहानी अनायास मन को भिगो जाती है। पर आप उन्हें प्रत्यक्ष देखते हैं और एक संवेदनशील जनप्रतिनिधि होने के नाते उनकी हर व्यथा से वाक़िफ़ हैं। आपका ये लेख सरकारी दावों से परे जमीनी हकीकत से रूबरू करवाता है। उनका आज भी संकट में है और आने वाला कल भी चुनौतियों भरा होगा।ईश्वर और प्रकृति उन्हें शक्ति प्रदान करे ताकि वे हालात का मजबूती से सामना कर सके।इस संवेदनशील लेख के लिए आपको साधुवाद और शुभकामनायें।
जी रेणु दी ,
Deleteइन श्रमिकों का क्या गुनाह है ? प्रारब्ध, पूर्व जन्म का दंड यह सब केवल मन को समझाने की चीज है। मैं तो यही कहूँगा कि यह दंड जबरदस्ती की लाठी है। अपनी कमज़ोरियों को छिपाने के लिए और दूसरों पर आघात करने के लिए इसे प्रारब्ध का नाम दे दिया जाता है।
अन्यथा श्रमिकों ने ऐसा कौन सा पाप किया था, जिन्हें यह सजा मिल रही है।
आपकी प्रतिक्रिया सदैव मुझे प्रेरित करती है। जब ब्लॉग पर आया था ,तो एकमात्र प्रतिक्रिया आपकी ही होती थी।
प्रवासी श्रमिकों की मनोस्थिति का बहुत ही मार्मिक चित्रण किया आपने, बेहद हृदयस्पर्शी प्रस्तुति।
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका।
Deleteशशि भाई, गरीबों-मजदूरों के लाकडाउन काल की तकलीफों का मार्मिक वर्णन किया है. अब तो श्रमिक स्पेशल रेलगाड़ियां यातना स्पेशल में तब्दील हो झारही हैं.2दिन का सफर9दिन में40-40रेलगाड़ियां अपने गंतव्य की जगह दूसरी जगह पहुंच जा रहीं हैं. ये सब कैसे संभव है? किसी के भी सामर्थ्य और चातुर्य की परीक्षा संकट काल में ही होती है. और हमारे पूरे तंत्र की असलियत कोरोना ने खोल दी है. केवल झूठ-लफ्फाज़ी और निकम्मे पन के कुछ नहीं है. पिछले60दिनों मे कोई आपातकालीन योजना न बन सकी.WHOने जनवरी में ही भारत को गंभीर चेतावनी जारी की थी.पर दंभ और अंहकार से भरे लोगों ने हिकारत से अनसुना कर दिया. अब जब मरीजों की तयदाद लाखों में है. और मजदूर वर्ग की दारुण स्थिति का आपने वर्णन किया ही है. इनके कानूनी अधिकार भी समाप्त कर दिये गये हैं. आपने सही अंत किया कि इस दुनिया में रखा ही क्या है? पर यह सब गरीब जनता याद रखेगी. हाँ गले तक खा कर लाकडाउन में पिकनिक मना रहे लोग अभी भी मजदूरों को गाली देने और इन्हीं को गलत बताने में लगे हैं. समय का पहिया घूम रहा है. सबका हिसाब होगा.
ReplyDeleteशशि भाई, गरीबों-मजदूरों के लाकडाउन काल की तकलीफों का मार्मिक वर्णन किया है. अब तो श्रमिक स्पेशल रेलगाड़ियां यातना स्पेशल में तब्दील हो झारही हैं.2दिन का सफर9दिन में40-40रेलगाड़ियां अपने गंतव्य की जगह दूसरी जगह पहुंच जा रहीं हैं. ये सब कैसे संभव है? किसी के भी सामर्थ्य और चातुर्य की परीक्षा संकट काल में ही होती है. और हमारे पूरे तंत्र की असलियत कोरोना ने खोल दी है. केवल झूठ-लफ्फाज़ी और निकम्मे पन के कुछ नहीं है. पिछले60दिनों मे कोई आपातकालीन योजना न बन सकी.WHOने जनवरी में ही भारत को गंभीर चेतावनी जारी की थी.पर दंभ और अंहकार से भरे लोगों ने हिकारत से अनसुना कर दिया. अब जब मरीजों की तयदाद लाखों में है. और मजदूर वर्ग की दारुण स्थिति का आपने वर्णन किया ही है. इनके कानूनी अधिकार भी समाप्त कर दिये गये हैं. आपने सही अंत किया कि इस दुनिया में रखा ही क्या है? पर यह सब गरीब जनता याद रखेगी. हाँ गले तक खा कर लाकडाउन में पिकनिक मना रहे लोग अभी भी मजदूरों को गाली देने और इन्हीं को गलत बताने में लगे हैं. समय का पहिया घूम रहा है. सबका हिसाब होगा.
ReplyDeleteजी उचित कहा आपने ,वक़्त सबसे हिसाब मांगता है।
Deleteसारगर्भित प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार।
🙏 आप ने श्रमिकों के ऊपर बड़ा ही मार्मिक लेख लिखा है🙏 आपकी लेखनी का मैं दीवाना हो गया हूं🙏✍ जादूगर रतन कुमार विंध्याचल मिर्जापुर🎩🙏
ReplyDeleteशशि भाई, कोरोना में श्रमिको की दुर्दशा देलह कर मन मे बार बार यही आता हैं कि लाश, हम उनके लिए कुछ कर पाते। आपने उनके दर्द को सटीक शब्दो मे बयान किया हैं।
ReplyDeleteआभार ज्योति दी, यह कैसी विडंबना है।
Deleteकरे कोई और मरे ये मज़दूर
👍💐💐
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