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Monday 18 May 2020

अभिशप्त बचपन


अभिशप्त बचपन 
"चल निकाल, दस का फुटकर ! "
  संदीप भैया की आवाज़ सुनकर चारों लड़कियों के मासूम चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ जाती है। इनमें जो सबसे छोटी थी वह सिर पर से अपनी पोटली उतार कर ज़मीन पर रखती है और फ़िर एक..दो..तीन ..चार.. कुछ इस तरह बुदबुदाते हुये भीख में मिले सिक्कों की गिनती शुरू कर देती है। मैंने देखा कि उसे गिनती-पहाड़ा तो नहीं आता फ़िर भी हिसाब में पक्की थी। उसने सिक्कों के पाँच ढेर बना कर रख दिये और उन्हीं में से एक ढेर जिसमें एक-एक के दस सिक्के थे ,संदीप भैया को थमा दिया। 
     भैया ने उन चारों को दो-दो सिक्के दिये। वे मुझे बताते हैं कि लॉकडाउन में जब बाज़ार बंद है, तो उन्होंने उन सभी भिखारियों को, जो उनकी दुकान पर आते हैं एक की जगह दो रूपये देने का निर्णय लिया है, जबकि स्वयं उनका कारोबार  ठप्प है। मैंने धंधे में उतार-चढ़ाव को लेकर उन्हें कभी विचलित होते नहीं देखा। जीवन  में परिस्थितियाँ अनुकूल-प्रतिकूल चाहे जैसी ही, उनका यह समभाव मुझे पसंद है, इसी कारण मैं शाम का कुछ वक़्त यहाँ गुजारता हूँ। अपने विकल हृदय को समझाने का प्रयत्न करता हूँ कि स्वास्थ्य, सम्पत्ति और स्वजनों के वियोग को लेकर तू इतना अधीर क्यों है ? क्या जीवन की क्षणभंगुरता का तुझे बोध नहीं है ?
  
    वैसे, आज इन चारों बच्चियों से न जाने क्यों मुझे भी चुहलबाज़ी करने की इच्छा जग गयी थी । 
    मैंने उनसे कहा -" क्यों री ! पता है न लॉकडाउन है ,फ़िर भी तुम सब झुण्ड बनाए घूम रही है। चल तुम्हें पुलिस से पकड़वाता हूँ । "

   अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि उनमें से  जो सबसे समझदार थी, वह बिना भयभीत हुये तपाक से बोल पड़ी--  " जा-जा कह दा साब , ऊ पुलिस वाले त हमने के पैसा देत हैन अऊर खाना भी। "
   सच में उन चारों ने अपनी गठरी में खाने का सामान ले रखा था। मैंने अनुभव किया कि  लॉकडाउन भले ही इस सभ्य समाज के लिए अभिश्राप हो, लेकिन इन भिक्षुक बच्चों के लिए यह वरदान है। मैं इसी चिंतन में खोया रहा कि तभी बड़ी वाली लड़की आँखें मटकाते हुये बताती है कि प्रतिदिन पचास-साठ रुपये की कमाई के साथ अब भोजन के पैकेट भी मिलते हैं। 
     इस लॉकडाउन में इन्हें दुत्कार कम और  सामान अधिक मिल रहा है। अतः वे खुश थीं। मैंने इन चारों की ग्रुप फ़ोटोग्राफ़ी की। मेरे मोबाइल के स्क्रीन पर अपना फ़ोटो देख वे खिलखिला कर हँसी और मुझसे मोबाइल की कीमत पूछती हैं।
   मैंने भी  कहा- " बीस हजार , बता तो सही कितना हुआ ? "  
 जिसपर आँखें फाड़े वे कभी मुझे और कभी मोबाइल को देखने लगती हैं। ये बच्चियाँ सौ-पचास रूपये तो जानती हैं, किन्तु इससे अधिक की गिनती नहीं मालूम। हाँ, उन्होंने हजार रुपये का नाम सुन रखा था, पर बताने में असमर्थ थीं।
  उन्हें इसतरह सिर झुकाए देख मैंने आवाज़ ऊँची कर कहा -" स्कूल तो जाती नहीं फ़िर क्या बताओगी ? बस सुबह होते ही निकल पड़ी कटोरा लेकर भीख मांगने। "
  पत्रकार हूँ,तो यहाँ भी ख़बर ढ़ूंढने लगा। सो, अपनी बातों में उलझा कर मैं उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहता था कि क्या उनमें अब भी विद्यालय जाने की अभिलाषा शेष है ? 
मैं देख रहा था कि छोटी वाली बच्ची जिसने सिक्के गिनने के बाद जिस सलीक़े से से पोटली में गाँठ लगायी, उसका यह चातुर्य बालबुद्धि से परे है। जिस अवस्था में बच्चे स्कूल न जाने के लिए सौ बहाने बनाते हैं, उसी उम्र में यह लड़की अपने सिर पर यह छोटी सी पोटली नहीं, वरन् अपने घर-परिवार का बोझ उठा रही है। 

     परंतु मेरी वाणी में आयी इस कठोरता पर वे सहम गयी थी और बिना कुछ कहे गठरी अपने सिर पर रख चलने को हुईं, मैंने उन्हें फ़िर से रोक लिया और कहा- 
 " अच्छा चल यह बता कि तेरे माँ-बाप क्या करते हैं ? वे तुझे पढ़ने क्यों नहीं भेजते है ?

  जिस पर इन चारों लड़कियों ने बताया कि वे शहर के बाहरी इलाके में रहती हैं। उनके पिता कुछ नहीं करते हैं, जबकि महिलाएँ और वे सभी लड़कियाँ भीख मांगती हैं। सुबह होते वे अलग-अलग टोली में शहर की ओर निकल पड़ती हैं। उन चारों में अच्छी पटती है, सो वे एक साथ निकलती हैं। उन्होंने कहा कि वे नहीं जानती कि स्कूल कैसा होता है। हाँ, उन्होंने बच्चों  को स्कूल जाते देखा था और उनकी भी लालसा थी कि वैसा ही पोशाक पहन कर वे भी पढ़ने जातीं, परंतु यह कैसे संभव है।
  " पढ़े बेटियाँ, बढ़े बेटियाँ ", यह जो सरकारी जुमला है , इससे भिखारियों की बच्चियों के लिए साक्षर होना संभवतः नहीं है।
    ख़ैर, बच्चों की भिक्षावृत्ति के संदर्भ में संदीप भैया के संपर्क में आने से पूर्व मेरा दृष्टिकोण यह रहा कि इन्हें भीख देना अनुचित है। ऐसा करके हम इनके विकास का मार्ग अवरुद्ध कर रहे हैं। 
 एकदिन मैंने उनसे भी कहा था- " बूढ़े और अपंग भिखमंगों की टोली में आप इन मासूमों को भी न खड़ा करें, अन्यथा राष्ट्र के ये कर्णधार , भविष्य में उसपर बोझ बन कर रह जाएँगे ? " 
     प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा था कि इन बच्चों का भविष्य उज्जवल हो,क्या इसके लिए ऐसी कोई व्यवस्था है ? कम से कम उनके द्वारा दिया गया यह एक-दो रुपया उन बच्चों के उदर को तो तृप्त करता है। इसी पैसे से कोई समोसा खरीदता है, तो कोई केला अथवा चाकलेट भी, अन्यथा इनकी कौन सुधि ले ? 
    उनका कथन अनुचित नहीं है। सरकार और समाज के पास इन बच्चियों के लिए तनिक सहानुभूति के अतिरिक्त और है भी क्या ?

  " भिक्षावृत्ति एक अभिश्राप " ऐसे अनेक निबंध छात्र जीवन में पढ़ने-लिखने को मिला हैं। कई डरावनी कहानियाँ भी पढ़ी थीं कि बच्चा चोर गिरोह किस तरह से छोटे बच्चों को उठा ले जाता है और फ़िर उन्हें भीख मांगने के लिए प्रताड़ित करता है। महानगरों में ऐसा हो सकता है। परंतु अधिकांशतः यही देखने को मिलता है कि भिखमंगे अपने बच्चों से भी यही कार्य करवाते हैं। यही इन कर्महीनों की आजीविका है। जबकि वे भी समझते हैं कि समाज की दृष्टि में भिखारी एक तुच्छ वस्तु है।  
      इस लॉकडाउन की बात करूँ, तो ये बच्चे मेरे जैसे निम्न-मध्यवर्गीय व्यक्ति की तरह निर्धन नहीं हैं, जिनके पास इस वैश्विक महामारी में आय का कोई साधन शेष नहीं है। और प्रतिष्ठान अथवा संस्थान के मुखिया ने भी अपनी विवशता बता ,जिन्हें  भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है। ये बच्चे उन प्रवासी श्रमिकों की तरह हतभाग्य भी नहीं हैं, जिन्होंने पेट थाम कर कितनी ही रातें गुजारी हैं। और जब भूख की पीड़ा असहनीय हो गयी तो घर वापसी के लिए ऐसे कष्टदायक यात्रा पर निकल पड़े, जहाँ राह में मौत खड़ी थी। 

  मेरा मानना है कि मलिन वस्त्र धारण करने वाले इन बच्चों के पास अब भी दूसरों को देने के लिए वह निश्छल मुस्कान है,जो इस सभ्य समाज के भद्रजनों के पास नहीं है। इन भिखारी बच्चों ने छल का वह चश्मा नहीं पहन रखा है कि मीठी वाणी बोल कर दूसरों के वैभव को हर लें। ये मन के सच्चे बच्चे हैं,नियति ने इन्हें अपनों की आँख का तारा न बनाया हो तो भी, इनके पास अपने परिजनों को देने के लिए धन और भोजन दोनों  है। 
   इनमें आपस में कितना सहयोग का भाव यह भी देखा मैंने , जब संदीप भैया किसी बच्ची से यह पूछते हैं- " क रे ! तू त लिये है न,फ़िर कइसे ?"
 जिस पर संबंधित लड़की दूसरी बच्ची की ओर इशारा कर कहती है-"  हम एके दिलावे आये हय न ।"
    जब तक वह एक का सिक्का नहीं मिलता है, कितने धैर्य के साथ ये चुपचाप खड़ी रहती हैं। और परिश्रम भी क्या ये कम करती हैं । इन्हीं नन्हे पाँवों से ये प्रतिदिन सुबह से शाम तक नगर का एक बड़ा हिस्सा भ्रमण करती हैं। सभ्य समाज के बच्चों की तरह वे किसी प्रिय वस्तु के लिए लोभ नहीं करती हैं। किसी से स्नेह और सहानुभूति के दो शब्द की मांग नहीं करते हैं,  फ़िर भी इनके जीवन-संघर्ष का बिना मूल्यांकन किये, हम कहते हैं कि ये भिखारी हैं ?

  हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इन मासूमों के भी कुछ स्वप्न हैं। जिन्हें पूर्ण करने का दायित्व इस सभ्य समाज का है और यदि इस समाज ने इन्हें ऐसा कोई अवसर नहीं दिया है कि वे अपने गुणों का विकास करें,तो इनका तिरस्कार कैसा और क्यों ? जीवन और जगत की यह कैसी विचित्र विडंबना है !!

     - व्याकुल पथिक

   

38 comments:

  1. आपका हर एक लेख सच्चाई के बहुत करीब होता है

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  2. भिक्षावृत्ति समाज के लिए अभिशाप है और जब हमें इतने छोटे-छोटे बच्चों को इसमें लिप्त पाते हैं तो ये और भी बड़ा अभिशाप लगने लगती है। आपका इन लड़कियों से किये गए वार्तालाप का विवरण और कैमरे में कैद की गई इनकी तस्वीर इनकी मासूमियत और लाचारी को बखूबी दर्शाती है और इनके वास्तविक हालात से परिचित कराती है। आपकी सार्थक पत्रकारिता के लिए शशि जी आपको बहुत-बहुत साधुवाद!

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    1. आभार प्रवीण जी
      आपकी प्रतिक्रिया सदैव उत्साहवर्धन करती है।

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  3. भैया जी आप के लेख ने मन द्रवित कर दिया। बहुत इच्छा है कि किसी दो गरीब बच्चियों को पढ़ाने का पूरा खर्च उठाने को तैयार हूं जब तक बालिकाएं अपने स्वयं के बल पर चलने लगे। लेकिन नाम व पता किसी को नही पता लगना चाहिए कि कौन खर्च रहा है। वैसे 8 साल पहले तक कई बच्चों का फीस मैं कई सालों तक जमा कर चुका हूं परंतु उनके परिवार वाले कह रहे है आप हमें नगद पैसा देदें । बच्चों को नही पढ़ाएंगे। इससे मेरे को काफी धक्का लगा तो हमने और नए बच्चों की फीस देना बंद कर दिया।परंतु अभी भी मैं तैयार हूं।
    - चंद्रांशु गोयल,
    प्रतिनिधि नगर विधायक , मीरजापुर

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    1. - चंद्रांशु गोयल जी, मानवता को गर्व है आप जैसे मानवीय संवेदनाओं से भरे इंसानों पर | यदि कोई समर्थ है और एसा कर सकता है तो उसे जरुर करना चाहिए | जो माता पिता भिक्षावृति करवाते हैं उन्हें जेल में डाल कुछ दिन काम सिखाना चाहिए ताकि वे स्वाभिमान से आजीविका कमा सकें | ज्यादातर ऐसे भिखारी हैं जो स्वाभिमान गिरा चुके और आलसवश बस भीख को सबसे सुविधाजनक मानकर यही काम करते हैं |पर अपने बच्चों का जीवन वे खराब करें ये बहुत बड़ा अपराध है | अब समय आ गया सरकार ऐसे नौनिहालों को अपने संरक्षण में ले , पर कुत्सित व्यवस्था में यहाँ भी इन बच्चों के शोषण से इनकार नहीं किया जा सकता | हार्दिक आभार |

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    2. एकदम सटीक लेखन, रेणु जी!👍💐💐

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  4. शशि भाई आपके ऐसे लेख ने तो मन को झकझोर देता है,आपके लेख को पढ़ कुछ करने को मजबूर कर देता है

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    1. आभार दीपक जी, आप स्वयं समाजसेवी हैं।

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  5. *शानदार अद्भुत लेख भैया, वर्तमान की स्थिति से साफ साफ अवगत कराया, हम लोगों को इस लेख को पढ़कर सीखने की जरूरत है ☺️☺️*
    - मुकेश पांडेय , पत्रकार
    ****

    दिल को छू लेने वाला सारगर्भित लेख।
    - टी सी विश्वकर्मा, अपराध कथा लेखक।

    ******

    जीवन व जगत की नहीं संदीप भैया और शशि भैया इन बच्चों के लिये समाजिक सगंठन या शासन-प्राशासन और आप जैसे लोग इन बच्चों को पाठशाला तक जरूर पहुँचा देंगे। आप दोनों लोगों पर विश्वास है। 🙏🌹🙏🌹🙏🌹🙏

    -कुंदन लाल, विंध्याचल।

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  6. Bahut sunder. satyata jo sabhi nazar andaz kar dete hai.spast ave pardarshita wale is kahani me samaj ke kai wargo ko darshaya hai .
    Karunamai kahani.

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  7. आपकी हर रचना सामाजिक दृश्यों को दर्शाती प्रेरणा देने वाली होती है । 👏👏👏
    -अरविंद त्रिपाठी पत्रकार।

    वाह बहुत सुंदर👌👌👌👌
    -विपिन सिंह पत्रकार।

    बहुत सुंदर शशि भाई
    - समर चंद्र, पत्रकार।

    ह्रदय को स्पर्श करने वाली सुंदर लेखनी
    -कृष्णा सिंह , पत्रकार।

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  8. दिल को छू लेने वाली घटना🙏🙏
    -संतोष मिश्र, पत्रकार

    ****
    👏👏👌👌 बहुत सुन्दर लेख है भैया..
    --चंदन कुमार पत्रकार
    ***
    आपकी लेखनी को बारंबार प्रणाम
    -- बेचूलाल

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  9. शशि भाई भिक्षाबृत्ति अभिशाप के साथ सामाजिक अपराध है ऐसा सरकार कहती है लेकिन कोई भी सरकार हो वह किसी न किसी रूप में भीख मांगने की आदत में बढ़ावा देने का कार्य करती रही है । अब तो बाकायदा भीख मांगने बालो की श्रेणी भी बन गयी है , एक वह है जो पूरे समय तक हाथ मे कटोरा लिए भीख मांगते रहते है दूसरे वह है जिनको सरकार ने इसकी आदत डाली है , उज्ज्वला, प्रधानमंत्री आवास, बेरोजगारी भत्ता, लैपटॉप, सिलाई मशीन फ्री में देने की योजनाएं अधिकांश लोगो को अकर्मण्यता की ओर अग्रसर करने का काम रही है जबकि आवश्यकता थी कि उन्हें रोजगार उपलब्ध करा कर देश के निर्माण में उनका उपयोग किया जाता ।
    लिखना तो नही चाहिए लेकिन सच्चाई को बिना कहे रहा नही जाता , इन गरीबो बच्चों के मां बाप भी इसको सिस्टमेटिक रोजगार बना दिये है बच्चों के ऊपर लोगो को दया ज्यादा आती है इसलिए इनके कामचोर माँ बाप इस तरह के कुकृत्य को बढ़ावा देते है ।

    --अखिलेश मिश्र' बागी', पत्रकार

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  10. सरकार और समाज के पास इन बच्चियों के लिए तनिक सहानुभूति के अतिरिक्त और है भी क्या?
    बिल्कुल सही कहा आपने, शशि भाई।

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    1. जी आभार, ज्योति दी।

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    2. शशि भाई आपने तो साहित्य के पटल पर जीवन कि मानवीय संघर्षों के बीच एक मार्मिक सच उकेर कर रख दिया है। हृदय से आभार

      -प्रदीप शुक्ला,सामाजिक कार्यकर्ता

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  11. दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 72 वर्ष के उपरांत भी बाल श्रम, भिक्षाटन, यौनशोषण,बाल तस्करी इत्यादि भारत में लगभग खुलेआम जारी है।शशि जी जैसे जागरूक पत्रकार इसकी ओर बारंबार ध्यान आकृष्ट करते रहे हैं।इस कुकृत्य में लिप्त अपराधी, पुलिस और दुर्भाग्य से समाज के तथाकथित प्रभावी लोग भी जुड़े हुए हैं।कुछ वर्ग तो इसे पीढ़ी दर पीढ़ी व्यवसाय के रूप में अपना चुके हैं जैसाकि चंद्राशु जी के अनुभव से स्वतः स्पष्ट है ।इसके लिए स्पष्ट कानून और प्रभावित वर्ग के उत्थान के लिए व्यावहारिक हल वांछित है ।
    - डा0 सरजीत सिंह डंग
    पूर्व कैबिनेट मंत्री, उत्तरप्रदेश ।

    (आप मीरजापुर नगर से चार बार लगातार विधायक रहे और कल्याण सिंह की सरकार में वन एवं पीडब्ल्यूडी मंत्री रहे हैं।)

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  12. कोई भीख माँगे, यह किसी भी समाज के लिए अच्छा नहीं माना जाता। भारत के बारे में कहा जाता है कि समृद्धि इसके क़दम चूमती थी, लेकिन जब भी इन दृश्यों से हम दो-चार होते हैं, तो लगता है कि ये सब कल्पना की बातें हैं। एक मासूम बचपन जिसके हाथों में क़लम और क़िताब होनी चाहिए, उसके हाथ में कटोरा होना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। लोक कल्याणकारी राज्य का कर्त्तव्य है कि वंचित वर्गों को मुख्यधारा में लाकर उन्हें ज्ञान और मान से समृद्ध करे। उन्हें उत्पादक बनाए, ताकि देश और समाज उनके योगदान पर गर्व कर सके। सत्ता प्रतिष्ठानों की इन पर दृष्टि जानी चाहिए। इनकी बेहतरी के लिए निरंतर प्रयास करने चाहिए। कई बार देखा गया है कि ऐसे लोगों के पास जीविका के विकल्प नहीं होते और यही कारण है कि ऐसे लोग भिक्षावृत्ति के धंधे में चले जाते हैं। भारत की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में दोपहर के भोजन के माध्यम से ऐसे बच्चों को आकर्षित करने का प्रयत्न किया गया है। प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाने वाले अध्यापकों का कर्त्तव्य है कि विद्यालय के आस-पास रहने वाले बच्चों को सम्मान और प्यार देते हुए उन्हें शैक्षिक पाठ्यक्रमों से जोड़ें। उन्हें अपनी शैक्षिक साधना के माध्यम से योग्य लोगों के समकक्ष खड़ा करें, ताकि फिर उन्हें हाथ फ़ैलाने की ज़रूरत न पड़े। एक पत्रकार के रूप में आपका लेखन आपको और लोगों से अलग करता है। यही बात हर पाठक को बहुत अच्छी लगती है। शशि भाई, लिखते रहिए।🌹

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    1. जी अनिल भैया
      आपने सत्य कहा कि बचपन अनमोल है और यह यदि भिक्षावृत्ति में व्यतीत हो जाए ,तो उस बच्चे से कहीं अधिक यह देश और समाज का दुर्भाग्य है ।
      चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए आपका पुनः आभार भैया।

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  13. हृदयस्पर्शी लेखनी...बच्चियों से बात कर उनके मन की थाह लेने जैसा काम आप जैसा संवेदनशील व्यक्ति ही कर सकता है शशि
    भाई ।

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    1. जी आभार मीना दी,
      परंतु हम जैसे लोग इनके लिए कुछ भी तो नहीं कर सकते हैं न ?

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  14. दायित्व सभ्य समाज जैसे शब्द शायद अब तालाबन्द हो चुके हैं शब्दकोषों में। सुन्दर।

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    1. जी उचित कहा,आभार।
      प्रणाम।

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  15. अतिसुंदर दिल को छू लेने वाली कहानी।
    -प्रदीप सिंह

    प्रेमचंद की कहानी की याद दिला दी आपने 🙏🙏🙏🙏🙏
    -आकाश रंजन

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  16. बेहद हृदयस्पर्शी लेख लिखा आपने शशि भाई 👌👌

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  17. बहुत ही हृदयस्पर्शी लेख...भीख लेती इन बच्चियों से सहानुभूति और बातें आपको समानुभूतिक कारुणिक एवं संवेदनशील होने का परिचय देता है....सुन्दर सार्थक लेख हेतु अत्यंत बधाई आपको।

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  18. शशि भैया , आपका ये जीवंत शब्द चित्र मन में अपार करुणा जगा - मन को विदीर्ण कर गया | ऐसी बातें सभ्य समाज का काला सच हैं | जो समाज मंडल ग्रह तक जाने के साधन जुटाए बैठा है पर उसका भविष्य पेट भरने के लिए - हाथ फैलाए भीख मांग रहा है | चित्र में नन्हीं बालिकाओं के निर्मल और निश्छल मुखड़े और विस्मय से भरी आँखें - आँखें नम कर गये | कितने NGO , कितने समर्पित समाजसेवी और सरकार की अनगिन योजनायें मिलकर भी इनका नसीब ना संवार सके इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी ? काश कोई मसीहा इन भोली भाली बच्चियों का भविष्य संवार दे ताकि ये भी स्वाभिमान और गौरवान्वित हो अपना जीवन जी सके और कथित सभ्य समाज से नजरें मिला कर जीने में सक्षम हों | समाज के अनदेखे पहलू से अवगत कराते मार्मिक लेख के लिए साधुवाद |

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    1. इनके लिए तो "जीना यहाँ, मरना यहाँ" यही इनका नसीब है रेणु दी।

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  19. Apki ptrakarita nisandeh samaj ky liye samarpit hi...apky dwara abodh bachpan kaa prastutikaran bahut hi marmik hi..app nirantar app samaj ko darpad dikhany kaa kaam kr rhy hi....isky liye apko sadhuwad..
    __इंद्रदेव यादव

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  20. संवेदनशील व तथ्यात्मक रचना बन्धु पथिक जी!

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  22. दुखियारी समाज के इन नौनिहालों के जीवन में यही सब लिखा है.
    तमाम कल्याणकारी योजनाओं से वंचित भिक्षाटन के सिवा बचता ही क्या है...
    --राजेश मिश्र, साहित्यकार

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yes