मानव जीवन की वेदनाओं को समेटी हुईंं मेरी रचनाएँ अनुभूतियों पर आधारित हैं। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है । यह दुःख ही जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है,सबको परखता है।अतः पथिक को जीवन की इस धूप-छाँव से क्या घबड़ाना, हँसते-हँसते सह लो सब ।
फेरीवाला ********** वही अनबुझी-सी उदासी फिर से उसके मन पर छाने लगी थी। न मालूम कैसे यह उसके जीवन का हिस्सा बन गयी है कि दिन डूबते ही सताने चली आती है। बेचैनी बढ़ने पर मुसाफ़िरख़ाने से बाहर निकल वह भुनभुनाता है-- किस मनहूस घड़ी में उसका नाम रजनीश रख दिया गया है ,जबकि उसके खुद की ज़िदगी में चाँद के खिलखिलाने का अवसर ही न आया हो । जीवन का यह पड़ाव उसे कचोट रहा है। "आखिर, किसके लिए जीता हूँ मैं ..?" किन्तु इस प्रश्न का उत्तर स्वयं उसके पास भी नहीं है। और तभी उसकी संवेदनाओं से भरी निगाहें उधर से गुजर रहे एक वृद्ध फेरीवाले पर जा टिकती हैं। वह बूढ़ा आदमी किसी प्रकार अपने दुर्बल काया, मन और प्राण लिये डगमगाते , लड़खड़ाते कदमों से उसी की ओर बढ़ा चला आ रहा था। उसके कंधे कपड़ों के गट्ठर के बोझ के कारण आगे की ओर झुक गये थे। झुर्रीदार पिचका हुआ चेहरा, आँखों के नीचे पड़े गड्ढे और माथे पर शिकन उम्र से कहीं अधिक मानो उसकी दीनता की निशानी हो। किन्तु वह मानव जीवन के उस संघर्ष का भी मिसाल है, जिससे परिस्थितियों के समक्ष अभी घुटने नहीं टेके हैं। चिलचिलाती धूप में दिन भर सड़कों पर पाँव घसीटते ,मुँह बाए गलियों में ग्राहकों को तलाशते हुये उसकी पिंडलियाँ बुरी तरह से दुखने लगी थीं।सड़क किनारे एक अतिथि भवन के चबूतरे को देख उसके बदन में थरथराहट हुई थी और वह धौंकनी-सी तेज होती अपनी साँसों को विश्राम देने के लिए धम्म से उस पर जा बैठता है। कंधे से गट्ठर का बोझ हटा वह चारदीवारी से सट कर अपनी पीठ सीधी करता है। अपने तलुओं को सहलाते हुये उस बूढ़े आदमी ने अपनी धुँधलाई आँखों से आसमान की ओर देखा था। मानो अपना अपराध पूछ रहा हो। सामने की दुकान पर कुछ लोग चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। यह देख बूढ़े ने भी अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला था और फिर न जाने क्या सोच कर दाँत किटकिटाने कुछ बुदबुदाने लगता है। उसके उदास चेहरे के भाव में यकायक परिवर्तन देख रजनीश की उत्सुकता उसमें बढ़ने लगी थी । यूँ कहें कि उसकी पत्रकारिता कुलबुला उठी थी। किन्तु बिना संवाद के किसी के अंतर्मन को पढ़ना आसान तो नहीं होता ? औरों का दर्द वही समझ सकता है जो स्वयं भी उससे गुज़रा हो। इस लोकबंदी ने रजनीश को भी फिर से पटरी पर ला खड़ा किया है। वर्षों की उसकी पत्रकारिता अब दो वक़्त की रोटी देने में भी समर्थ नहीं है। अक्सर छोटे संस्थानों में काम करने का यही हश्र होता है। किन्तु जहाँ कभी अपनत्व मिला हो, रोटी मिली हो, उसके प्रति मोह मानव स्वभाव है।उम्र के इस पड़ाव पर इस संदर्भ में हानि-लाभ की चिन्ता कर वह अपने कष्ट को सिर्फ़ और बढ़ा ही सकता है, इसलिए रजनीश इस मानसिक पीड़ा से उभरने की कोशिश कर रहा है। वह ईश्वर को धन्यवाद देता है कि उसके पास कुछ पैसे हैं ...और उस होटल के मालिक को भी जहाँ उसने शरण ले रखी है। अन्यथा आज इसी बूढ़े फेरीवाले की तरह वह भी दर-दर भटकते रहता । परिस्थितियों में समानता ने रजनीश को उस फेरीवाले के और करीब ला दिया था। उसने देखा गट्ठर में बंधे गमछे और लुंगी को चबूतरे पर छोड़ वह बूढ़ा हैंडपंप की ओर बढ़ जाता है। प्यासे कंठ को तृप्त करते समय भी उसकी निगाहें अपनी अमानत (गट्ठर) पर जमी रहीं। खुदा का शुक्र है कि ग़रीबों के लिए अब भी मुफ्त में यह जल उपलब्ध है, अन्यथा इस पर भी बाज़ारवाद की मुहर लग चुकी है। फेरीवाला अब स्वयं को कुछ हल्का महसूस कर ही रहा था कि भगौने में खदकती चाय की खुशबू उसके घ्राणेंद्रिय में अनाधिकृत रुप से प्रवेश कर जाती है, जो उसके स्वादेन्द्रिय को विद्रोह के लिए बराबर उकसा रही थी। वह फिर से अपनी जेब को टटोलने लगता है। दिन भर के मेहनत-मशक्कत के बावजूद बिक्री के कोई दो सौ रुपये मुश्किल से उसके हाथ आये थे। संभवतः इसीलिए उसने अपनी चाय की तलब को बलपूर्वक रोक रखा था । " हे ईश्वर ! ये कैसी लाचारी है कि दिन भर चप्पल घिसने के बाद भी एक कुल्हड़ चाय इस वृद्ध को नसीब नहीं है !" यह देख रजनीश के हृदय में एक तड़प-सी उठती है कि फिर किस व्यवस्था परिवर्तन की बात चुनावों में हमारे रहनुमा करते हैं। इसीबीच चबूतरे पर रखे गट्ठर को खोल लुंगी और गमछे को तह करते समय फेरीवाले की नज़रें वहीं खड़े रजनीश से मिलती हैं। "क्यों चाचा,बाज़ार तो मंदा रहा होगा न ?" रजनीश स्वयं को रोक नहीं सका था और इसी के साथ दोनों के बीच वार्तालाप शुरु हो जाती है। बूढ़े ने उसे बताया कि उसका नाम सिब्ते हसन है और वह अकबरपुर का रहने वाला है। बाल बच्चेदार है, पर पेट तो सबका अपना है। लोकबंदी के बाद पहली बार वह धंधे पर निकला है। कोरोना के भय से कब तक बैठकर खाता। बच्चों को आस लगी रहती है कि अब्बा कुछ लेकर आएँगे, किन्तु यहाँ आकर बाज़ार का जो हाल देखा,उससे उसका दिल बैठा जा रहा है। क्योंकि इन दो सौ रुपये में उसका अपना मुनाफ़ा साठ रुपये ही है। इनमें से दस के नोट तो मुसाफ़िरख़ाने के बरामदे में रात्रि गुजारने के देने होंगे और फिर पेट की आग भी तो अभी शांत करनी है। वैसे, इस लोकबंदी के पहले वह जब भी इस शहर में आता था तो हजार-बारह सौ की बिक्री हो ही जाती थी,किन्तु इस बार घर वापसी के लिए भाड़े तक का पैसा नहीं निकला है। "तो और मुझसे क्या जानना चाहते हो आप ?" सिब्ते हसन अब धीरे-धीरे उससे खुलने लगा था। "मैं एक पत्रकार हूँ। कोराना काल में आप जैसे रोज कमाने-खाने वालों के दर्द से रूबरू होना चाहता हूँ। "अपनी मंशा स्पष्ट करते हुये रजनीश ने कहा था। यह सुन बूढ़े के बदन में सिर से पाँव तक लर्ज़िश हुई थी।वह आसमान की ओर निगाहें उठा कर कहता है -" अबतक तो किसी तरह गुजारा हो गया ,आगे रब जाने ?" इस बार उसके स्वर में काफी वेदना थी। उसके पास जो थोड़ी बहुत पूंजी थी, उसे बीते साढ़े चार महीनों में घर में बैठे-बैठे खा चुका है।वह कहता है- " ठीक है कि सरकार इस संक्रमणकाल में हमें मुफ़्त में चावल दे रही है,किन्तु परिवार का ऊपरी खर्च भी तो है। बाल- बच्चों को ऐसे कैसे तरसते छोड़ दिया जाए ? आखिर सत्ता में बैठे नेता भी तो औलाद वाले हैं,क्या उन्हें हम जैसों पर जरा भी रहम नहीं है ?" सिब्ते दिल का गुबार निकाले जा रहा था। "अरे साहब ! उनके साहबज़ादे तो कैफ़े-रेस्टोरेंटों में हजारों ऊपरी उड़ा देते हैं और हम हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले ग़रीब-गुरबे अपने बच्चों को गोश्त का एक टुकड़ा तक नहीं दे पा रहे हैं। लानत है हमपर और ऐसी व्यवस्था पर ...।" हर एक बात एक आह -सी बन निकलती रही थी उसकी जुबां से। रजनीश को ऐसा लगा कि मानो ऐसे श्रमजीवियों की यह ' आह ' ज्वालामुखी में बदलने ही वाली हो , न जाने कब इनमें से लावा फूट पड़े और एक नयी क्रांति को जन्म दे। इस नयी व्यवस्था में इन्हें समानता का अधिकार प्राप्त हो, किन्तु सियासतबाज कम चालक नहीं होते, वे हर बार आमचुनाव में जातीय-मज़हबी ढोल बजा कर इन्हें बरगला ही लेते हैं और यह ज्वालामुखी फिर से ठंडा पड़ जाता है। आज पूरे दिन इस शहर में जब वह बौराया-सा घूमता रहा तो उसने महसूस किया कि वह सच में बूढ़ा हो गया है। इन साढ़े चार महीनों में सड़क पर पैदल चलने का अभ्यास क्या छूटा कि उसके बदन पर बुढ़ापे का जंग लगते देर न लगी। वह कहता है- "जब तक काम पर निकलता था मेरा शरीर रवा था,लेकिन आज तो पाँवों ने बिल्कुल जवाब ही दे दिया है। " अब दुबारा मीरजापुर में वापसी कब होगी , यह उसे भी नहीं पता। और जब धंधा है ही नहीं तो क्यों यहाँ आकर अपनी हड्डियाँ तोड़ता फिरे..। वैसे तो सिब्ते आजम धंधे के लिए बनारस और जौनपुर भी जाता रहा है, किन्तु मिर्ज़ापुर से उसका जुड़ाव-सा हो गया है। वह कहता है कि अन्य बड़े शहरों में लूटमार है,बेअदबी है और यह जिला अब भी अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब के लिए मशहूर है। यहाँ लोगों के दिल में मुहब्बत है, जो उस ग़रीब को भी ' मौलाना ' कह के बुलाते हैं। वह कहता है कि खाना और भाड़ा बनारस जैसे शहरों में सस्ता है और व्यवसाय भी ठीक ही हो जाता है,परंतु अदब से बात करने वाले लोग यहाँ की तरह वहाँ नहीं हैं। उसकी बातों से लगा कि वह खुद्दार इंसान है।अपने धंधे में भी मुनाफ़ा उताना ही लेता है, जितना वाजिब है। जैसे देश भर की ईमानदारी का जिम्मा सिब्ते जैसे मेहनतकश लोगों ने ही ले रखा हो। इस शहर में वह तब से आ रहा है, जब मुसाफ़िरख़ाने का किराया चार-पाँच रुपये हुआ करता था और अब यह बढ़ कर साठ हो गया है। इसलिए उसे गंदगी से पटे इस अतिथिगृह के बरामदे में ही रात काटनी पड़ती है। अतिथिगृह क्या इसे कूड़ाघर ही समझें,क्योंकि यहाँ सिब्ते आजम जैसे ग़रीब मुसाफ़िर जो ठहरते हैं। शहर में स्वच्छता अभियान की डुगडुगी बजाने वाले जनप्रतिनिधियों की दृष्टि न जाने क्यों इसके बदबूदार शौचालय की ओर नहीं गयी है ! मच्छरों का गीत सुनते हुये यह बूढ़ा फेरीवाला एक और रात यहीं गुजारने को विवश है। और हाँ, मुनाफ़े के साठ रुपये में से दस तो ऐसे ही चला गया, शेष बचे पचास जिसमें रात का खाना और सुबह वापस अकबरपुर जाने के लिए वाहन के भाड़े की व्यवस्था करना है। वह हाईवे पर खड़ा होकर किसी ट्रक वाले से मिन्नत करेगा, क्योंकि बस की यात्रा आज उस जैसों के लिए सपना है। किन्तु उसे अपने कष्ट की नहीं फिक्र इस बात कि है कि उसे खाली हाथ देख अपनों की वह उम्मीद टूट जाएगी,जिसके लिए वह इस शहर में आया है। ख़ैर, भारी मन से रजनीश से विदा लेते हुये वह कहता है- " आप भले आदमी जान पड़ते हो, जो मुझ जैसों में भी आपकी रूचि है। आपसे बात करके मन कुछ हल्का हुआ है,अन्यथा आज का दिन तो मेरे लिए बहुत तकलीफ़देह रहा।" रजनीश यह जान कर स्तब्ध है कि रंगीन कपड़ों को बेचने वाले की ज़िंदगी कितनी बदरंग है।वह मोबाइल फोन निकाल फेरीवाले से उसका एक फ़ोटो लेने की इजाजत मांगता है। यह देख उत्सुकतावश सिब्ते उससे पूछता है- "आप जो छापोगे, क्या उसका कुछ लाभ मुझ जैसों को मिलेगा ?" यह सुन फिर से रजनीश का मन तड़प उठता है, वह अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुये कहता है -" बड़े मियां , मैं तो एक मामूली पत्रकार हूँ, तुम्हारी समस्या से बस अख़बार का पन्ना रंग सकता हूँ, इससे अधिक मुझमें कुछ भी सामर्थ्य नहीं है। " अच्छा, खुदा हाफिज़ ..! और फेरीवाला आहिस्ता-आहिस्ता मुसाफ़िरख़ाने की ओर बढ़ जाता है। उन दोनों में फ़र्क़ इतना है कि सिब्ते को सिर्फ़ एक रात अतिथिगृह में गुजारनी है और रजनीश को ताउम्र।
लेकिन कुछ अनसुलझे प्रश्न रजनीश का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं ----- ऐसे मेहनती लोग जिन्होंने कभी किसी को दबाने-सताने का प्रयास नहीं किया, उन्हें किस बात की सज़ा मिली है? क्यों मिल रही है ? इन मेहनतकश लोगों की ये कैसी भाग्य-रेखा है? क्या यह इनके पिछले जन्मों के कर्म का परिणाम है अथवा इसके लिए हमारी सामूहिक अर्थव्यवस्था दोषी है ? ग़रीबी से मुक्ति के लिए क्या ये इसीप्रकार ताउम्र छटपटाते रहेंगे ? है कोई मसीहा जिसकी आँखों में इनके लिए इंसाफ़ हो? तो क्या यही ईश्वरीय न्याय है...!!! - व्याकुल पथिक
सज़ा **** पौ फटते ही उस मनहूस रेलवे ट्रैक के समीप आज फिर से भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी। यहाँ रेल पटरी के किनारे पड़ी मृत विवाहिता जिसकी अवस्था अठाइस वर्ष के आस-पास थी, को देखकर उसकी पहचान का प्रयास किया जा रहा था। सूचना पाकर पुलिस भी आ चुकी था। मृत स्त्री के चम्पई रंग वाले मुखड़े पर जिस किसी की भी दृष्टि पड़ती उसका हृदय करुणा से भर उठता था। माथे पर बड़ी-सी लाल बिंदी,गले में मंगलसूत्र , नाक में कील और टब्स पहने रखे वह किसी अच्छे घराने की लग रही थी। किन्तु मृत्यु के बाद भी उसके शांत मुख पर एक दर्दभरी कहानी थी। वहाँ जुटी भीड़ ट्रेन से कटने का सवाल भी और आकलन भी कर रही थी। लाल वस्त्रों में लिपटी मृतका के सिर के पिछले हिस्से से लहू का रिसाव हो रहा था, जिससे आसपास की जमीन लाल हो गई थी । सिर में लगी इस चोट के अतिरिक्त उसके शरीर पर अन्यत्र घाव नहीं थे। जिसे देख कर ऐसा महसूस हुआ कि नगर के इस सुसाइड प्वाइंट पर मरने से पहले वह जान देने की विवशता से विचलित हुई होगी । जिस कारण वह रेलगाड़ी के समक्ष छलांग लगाने का साहस नहीं जुटा सकी थी किन्तु फिर भी इंजन के धक्के ने उसके जीवन की इहलीला को हमेशा के खत्म कर दिया। जिसके लिए वह गहरी रात घर से दबे पाँव मृत्यु के लिए ही निकली थी। उसने अपनी पहचान के लिए कोई पत्र अथवा सुसाइड नोट नहीं छोड़ रखा था। लाश देखते ही झल्लाते हुये दरोगा ने सिपाही से कहा था-" यार ! क्या मुसीबत है ? लोग यहीं आ क्यों कट मरते हैं ?" यदि शिनाख़्त नहीं होती तो रेलवे पुलिस पूर्व में इसी रेलवे ट्रैक पर मिले कुछ अन्य लाशों की तरह इस मृत महिला के शव का भी पोस्टमार्टम कर फाइल बंद कर देती। परंतु निकटवर्ती मुहल्ले की होने के कारण शव की पहचान हो गई। जैसे ही उसके द्वारा आत्महत्या करने की सूचना ससुरालवालों के माध्यम से उसके मायके तक पहुँची वज्राघात-सा हुआ था उनपर। रक्षाबंधन पर्व से पूर्व ममता का भाई उसके ससुराल आया था। तभी उसने अपनी इकलौती बहन की डबडबाई आँखों में छिपी वेदना को पढ़ लिया था। वह अपनी लडली बहन को कुछ दिनों के लिए साथ ले जाना चाहता था, ताकि उसमें नव जीवन का संचार हो सके। उसके इस प्रस्ताव को जब ससुरालवालों ने इंकार किया तो भाई संग मायके जाने के लिए ममता ने भी हाथ-पाँव जोड़े थे, फिर भी उसकी सास का कलेजा नहीं पसीजा । और तो और उसके दोनों मासूम बच्चों को माँ की ममतामयी आँचल से दूर कर उन्हें मामा के साथ ननिहाल भेज दिया गया। ऐसा होते देख ममता ने रुँधे कंठ से इसका विरोध किया था। उसे यह बात बिल्कुल भी नहीं समझ में आ रही थी कि जब वह स्वस्थ हो चुकी है, तब भी उसके अपने ही सगे-संबंधी इस प्रकार उसे अछूत क्यों समझ रहे हैं। उसे किस अपराध की सज़ा मिल रही है ? ममता को कुछ दिनों पूर्व कोरोना हुआ था। पूरे चौदह दिन वह अपनों से दूर आइसोलेशन सेंटर में पड़ी रही। कोविड अस्पताल जाते वक़्त उसे सांत्वना देना तो दूर पुराने विचारों वाली उसकी बूढ़ी सास ने उसे कोसने में कोई कसर नहीं छोड़ रखा था। उसने भरे मन से एम्बुलेंस में पाँव रखा ही था कि तभी पीछे से सास कि कर्कश गर्जना सुनाई पड़ती है। वह कह रही थी-"यह अभागिन सबके लिए संकट बन गयी है। पता नहीं कहाँ से बीमारी उठा लाई है। ख़बरदार जो इससे मिलने अस्पताल में कोई गया, नहीं तो सबको महामारी दे देगी यह।" सास के इस कटु-वचन ने रोग से उसके बीमार तन से कहीं अधिक कोमल मन पर प्रहार किया था। तब जाते-जाते उसने अपने पति देवांश की ओर आशाभरी निगाहों से देखा था ,परंतु उसने भी उपेक्षात्मक रुख अपनाया *** आइसोलेशन सेंटर से 14 दिन बाद निकल कर जब ममता वापस घर लौट रही थी । उसे साँस लेने में अब भी कुछ कठिनाई हो रही थी, किन्तु अपने दोनों मासूम बच्चों की यादों में खोयी हुई थी। जिन्हें देखने के लिए उसकी आँखें तरस रही थी। ममता सोचा रही थी कि इस एकांतवास के पश्चात घर पहुँचते ही बच्चे माँ-माँ पुकारते हुये उसकी आँचल में आ छिपेंगे । स्वस्थ होकर फिर से सास, ससुर और पति की सेवा में जुट जाएगी। परंतु यह क्या ? उसके ससुराल लौटने पर परिवार के सदस्यों ने उसका स्वागत नहीं किया। सभी उससे सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस ) बनाए हुये थे। सास ने चरणस्पर्श करने से मना कर दिया। पतिदेव नीचे अपनी दुकान पर आसन जमाये हुये थे। बच्चों को भी उसके निकट आने नहीं दिया गया और तभी दूर खड़ी ननद ने उसे पीछे वाली कोठरी में जाने के लिए इशारा किया। बिना रोशनदान वाले इस छोटे से कक्ष और उसमें रखे तख्त को देख उसका कलेजा बैठा जा रहा था। और तभी सास फिर से आग उगलते हुये कहा- "मेरी बात कान खोल कर सुन लो, इस कमरे के बाहर कदम मत रखना,जब तक हमें यह न लगे कि तुम पूरी तरह ठीक हो।" आइसोलेशन सेंटर से ममता को कोरोना मुक्त होने का प्रमाणपत्र मिलने के बावजूद ससुरालवाले पुनः संक्रमण फैलने को लेकर भयभीत थे। उसकी सास और ननद के लिए उसके आत्मसम्मान पर चोंट पहुँचाने का यह सुनहरा अवसर था। अब इस घर में कबाड़ रखने वाली कोठरी में उससे बात करने वाला कोई नहीं था। स्नेह न सही उसके प्रति दयाभाव का प्रदर्शन भी नहीं किया जा रहा था। वह अकेली पड़ी दीवारों से बातें करती या सिसकती रहती थी। इसके बावजूद सास की अविश्रान्त कैंची उसके नाज़ुक दिल पर चलती रही। वह दरवाजे से दूर खड़ी हो उसे ताना देती -"इस महारानी को जरा देखों, कैसे आराम से खांट तोड़ रही है।चौका -बर्तन के लिए हम माँ-बेटी तो हैं ही। ऊपर से इसके शरारती बच्चों ने नाक में दम कर रखा है।" तनिक-सी भूल हुई नहीं की वे दोनों उसके बच्चों का गाल लाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं। यह देख वह स्वयं से सवाल करती कि विवाह के पश्चात पिछले सात वर्षों से जिन ससुरालवालों की इच्छापूर्ति के लिए उनकी उँगलियों के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचती रहती ,वे ही आज इतने निष्ठुर कैसे हो गये हैं ? फोन पर उससे बातचीत के दौरान भाई को ममता की पीड़ा का आभास हो गया था, इसीलिए वह उसे अपने साथ ले जाने के लिए बहन के ससुराल आया था। किन्तु उसकी सास ने बड़ी चतुराई से बच्चों की उनकी सुरक्षा का हवाला देकर मामा के साथ जाने दिया, परंतु ममता को नहीं जाने दिया । बहू की भवनाओं से सास संभवतः परिचित हो गयी थी कि यदि इसे खरी-खोटी सुनाती रहेगी तो वह सदा-सदा के लिए घर का पिंड छोड़ देगी, क्योंकि वह कोरोना को खतरनाक छुआ-छूत वाली बीमारी समझती थी। आखिर इसका अंततः असर हुआ भी। **** पुत्रों के जाने के पश्चात ममता बिल्कुल अकेली पड़ गयी थी। प्रियजनों के दुर्व्यवहार का संताप उसके मन-मस्तिष्क को कोरोना से भी घातक विषाणु की तरह चाट कर खोखला कर चुका था। इस हालात में भी उसपर दया करने वाला कोई नहीं था। तिरस्कार से उपजी वेदना ग्लानि में परिवर्तित हो गयी थी। उसे अपने जीवन से कोई आशा और उमंग शेष नहीं रह गया था। एक दिन उसके चोट खाये हृदय में आतंकमय कंपन-सा हुआ था। उसकी आत्मा इस कैदखाने से मुक्त होने के लिए छटपटाने लगी थी। मोह का बंधन टूट चुका था। अनुकूल वातावरण मिलते ही नकारात्मकता रुपी काली परछाई 'कोरोना' बनकर उसे दबोचने के लिए प्रगट हो जाती है। यह देख भय से आँखें बंद करते ही, वह उस शैतान के काले जादू के वशीभूत हो जाती है।तब इस कोठरी में एक ही आवाज़ गूँज रही थी- "ममता ! जब किसी को भी तेरी जरुरत नहीं है। प्रियजन भी तेरे संग आत्मीयतापूर्ण व्यवहार नहीं कर रहे हैं,तो तू मर क्यों नहीं जाती ?" धीरे-धीरे ममता का चेहरा अत्यंत कठोर होता गया। उसे लगा कि सारा दोष उसका और उसके प्रारब्ध का है। उसने अपने लिए सज़ा निश्चित कर लिया था और इसका प्रायश्चित करने के लिए उसी रात वह घर से निकली तो मौत उसके साथ हो गई । जिस स्त्री ने घर के बाहर पाँव तक नहीं रखा था, वह न जाने किस प्रकार शहर के दूसरे छोर पर स्थित इस सुसाइड प्वाइंट पर जा पहुँची थी । **** पोस्टमार्टम के पश्चात ममता का शव घर पर आ चुका था। अंतिम संस्कार की औपचारिकता पूर्ण की जा रही थी। उसके आभागे बच्चों को लेकर मायके वाले भी आ चुके थे। जिनके करुण-क्रंदन से वातावरण ग़मगीन हो उठा था। ससुराल पक्ष की महिलाएँ भी अपनी आँखों पर रुमाल अथवा आँचल रख नाक सुरसुराने लगी थीं ताकि मुहल्ले-टोले को लोगों को यह लगे कि बहूँ की मौत से वे भी अत्यंत दुःखी हैं। ममता के इस तरह से ट्रेन से कट मरने से समाज में उनकी प्रतिष्ठा को कहीं आघात न पहुँचे , दिखावे के लिए हर व्यवस्था सास-ननद ने कर रखी थी। उसका पति किंकर्तव्यविमूढ़ बना खड़ा था। अब उसकी अर्थी सज चुकी थी। वापस घर लौटते समय हर कोई मेहता परिवार को कोस रहा था। लोग आपस में गुफ्तगू कर रहे थे- "हे ईश्वर ! इस दुखिया को किस बात की सज़ा दी है। कितनी कुशांगी थी बेचारी। सिर पर साड़ी का पल्लू रखे बिना कभी बारजे से झाँकती न थी।" पहले ने कहा था। "हाँ, साहब ! बिल्कुल गऊ थी । सुनने में तो यही आ रहा है , जब से उसे कोरोन हुआ था,मेहता परिवार का हर सदस्य उसके पीछे पड़ गया था। " दूसरे ने अपनी बात रखी। " राम-राम ! कितना बुरा हुआ उसके साथ। कैसी मृदुल मुस्कान थी उसकी। घर में कोई मेहमान आ जाए तो अतिथि सत्कार के लिए एक पाँव से खड़ी रहती थी। " तीसरा भी टपक पड़ा था।" हाय रे! कैसी कर्कशा स्त्री है यह बुढ़िया, अपनी बहू पर तनिक भी रहम नहीं आया। काश ! उसे मायके भेज दिया गया होता, तो जान बच जाती । " वापस लौट रही पड़ोस की काकी की संवेदना भी फूट पड़ी थी । इनको इस प्रकार से ताना मारते देख ममता के पति देवांश को अब वहाँ और ठहरना कठिन प्रतीत हो रहा था। देवी स्वरूपा पत्नी द्वारा इस प्रकार से आत्मघात करने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने उसके असंवेदनशील हृदय को भी झकझोर कर रख दिया। उसकी सुप्त अंतरात्मा चीत्कार कर रही थी । उसके विवेक ने उसे पूरे घटनाक्रम पर दृष्टि डालने के लिए विवश कर दिया था। वह यह समझने का प्रयत्न कर रहा था कि इस कोरोना काल में यह सब क्या हो रहा है? कोरोना कोविड-19 न तो प्लेग जैसा खतरनाक महामारी है, जिससे अत्यधिक घबड़ाने की जरुरत है न ही वह एड्स जैसा भयावह रोग है,जिसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए छिपाना पड़ता है।फिर यह कोरोना किस प्रकार से मनुष्य के सारे आत्मीय संबंधों को निगलता चला जा रहा है। यदि इसे संक्रमण से मृत्यु हो भी रही है, इनमें से अधिकांश लोगों को कोई न कोई अन्य रोग था। उसके केस हिस्ट्री को सामने लाना चाहिए, न कि उसे 'सामाजिक दूरी' बनाए रखने के लिए विवश किया जाए। कुछ इसी प्रकार का चिंतन करते हुये देवांश का मन बदल जाता है । उसका देवत्व जाग उठता है। मामूली बीमारी को लेकर सर्वगुण सम्पन्न पत्नी को जिस तरह से यातना दी गयी, उसपर वह पश्चाताप करने लगता है । अचानक उसकी भृकुटि तन जाती है और वह जोर से चींख उठता है- " हाँ, मैं हूँ दोषी । मेरी मति मारी गयी थी।किन्तु उनसे भी सवाल करो,जो हमें 'शारीरिक दूरी' की जगह 'सामाजिक दूरी' बनाने का पाठ पढ़ा रहे हैं। ये मीडिया क्या अँधी है ? उसकी भी तो इसमें भूमिका है ? हमसब यह कैसे भूल गये कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ..!" पत्नी को खोकर वह विक्षिप्त-सा हुआ जा रहा था। उसका अंतर्मन उसे धिक्कार रहा था, तो ऐसी परिस्थिति उत्पन्न क्यों हुई , इसपर प्रश्न भी कर रहा था। फिर इस अपराध के लिए सज़ा किसे मिलनी चाहिए.... ? --व्याकुल पथिक 15-8-2020
Wednesday, 12 August 2020
माँ का रुदन ************** अरे ! ये कैसा रुदन है..? स्वतंत्रता दिवस पर्व पर उल्लासपूर्ण वातावरण में देशभक्ति के गीत गुनगुनाते हुये चिरौरीलाल शहीद उद्यान से निकला ही था कि किसी स्त्री के सिसकने की आवाज़ से उसके कदम ठिठक गये थे। ऐसे खुशनुमा माहौल में रुदन का स्वर सुन चकित हो वह इधर-उधर देखने लगा था। उसने अपने कान उस ओर कर यह सुनने का प्रयत्न किया कि मन को विकल करने वाली यह आवाज़ किसकी है। और फिर जब पीछे पलट कर देखा तो स्तब्ध रह गया था चिरौरी । क्योंकि इसी उद्यान में अमर शहीदों की आदमकद प्रतिमाओं के समक्ष एक स्त्री बैठी हुई थी, जो कभी देश की स्वतंत्रता के लिए सर्वोच्च बलिदान करने वाले भारत माता के इन वीर सपूतों के मुखमंडल को अपना सिर उठाकर गर्व से निहारती, तो कभी आँखें नीचे कर विलाप करती दिखी । उसकी वाणी में अथाह वेदना थी। मानों दर्द का समुंदर इस उपवन में उमड़ पड़ा हो। चकित हृदय से वह स्वयं से प्रश्न करता है --अभी कुछ देर पूर्व ही तो इस उद्यान में अनेक राजनेता, अफ़सर और अन्य विशिष्टजन जुटे हुये थे। जिन्होंने इन शहीदों की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के पश्चात शहीद स्तंभ के समक्ष आत्मनिर्भर भारत पर बड़ी-बड़ी लच्छेदार बातें कही थीं। झंडारोहण कर मुख्य अतिथि ने 'सबका विकास, सबको काम, सबका कल्याण और सबका साथ ' ऐसा उद्घोष करते हुये राष्ट्र के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई थी। कैसा पावन वातावरण था ? जैसे लग रहा था कि गाँधी बाबा के सारे अनुयायी खादी धारण किये उनके सपने को साकार करने यहाँ आ पहुँचे हों। वर्ष में दो बार यह अद्भुत दृश्य इस उद्यान में अवश्य देखने को मिलता है। देशभक्ति वाले गीत भी सुनने को मिलते हैं। किन्तु पंद्रह अगस्त के दिन इस पार्क में रोने की आवाज़ उसने इससे पूर्व कभी नहीं सुनी थी या यूँ भी कह लें कि उसने इस रुदन को सुनने का प्रयत्न ही नहीं किया था। उसके जीवन का अधिकांश समय तो अपनी शिक्षा की डिग्री लिये आजीविका की खोज में बड़े लोगों की चिरौरी करते गुजर गया है। और तभी से न जाने कैसे उसका नाम चिरौरीलाल पड़ गया है।कर्तव्यनिष्ठ हो कर भी आज़ाद भारत में वह स्वालंबी नहीं बन सका। जब भी सरकार बदलती, उसे लगता कि जैस रामराज्य आने वाला है,किन्तु चुनावी बुखार उतरते ही उस जैसे करोड़ों निम्न-मध्यवर्गीय लोगों की झोली खाली ही रह जाती है। जब स्वतंत्र राष्ट्र में भी लोकतंत्रीय शासन की व्यवहारिक क्रियाओं से देश के युवा नैराश्य की अवस्था में हों, उनकी शिक्षा का कोई मोल नहीं हो,तो ऐसी व्यवस्था अराजकता को जन्म देती है। वक़्त के थपेड़ों की मार सहते-सहते चिरौरीलाल का पौरूष अब थकने को है,किन्तु बेरोजगारी साढ़ेसाती बनी सिर पर चढ़ी हुई है । वह समझ गया था कि यह ग़रीबी किसी एक व्यक्ति की व्यक्तिगत व्यवस्था का फल नहीं है, इसके लिए सामूहिक व्यवस्था दोषी है। हाँ,एक काम यह अच्छा हुआ है कि इस जीवन संघर्ष ने उसकी शुष्क संवेदनाओं के तंतुओं में स्पंदन ला दिया है, तभी इस उल्लास भरे दिन में भी इस स्त्री की अस्फुट-सी आवाज़ उस तक पहुँच पायी थी , अन्यथा समारोह समापन से लौट रहे अन्य किसी ने महिला के विलाप को नहीं सुना था । ओह ! कितना दर्द है इस नारी के स्वर में ! उत्सुकतावश चिरौरी दबे पाँव वापस उद्यान की ओर बढ़ जाता है। और जहाँ वह विस्मयपूर्ण नेत्रों से उस महिला को देखता ही रह जाता है...! " हाय ! यह कैसा अनर्थ है? ये तो अपनी भारत माता हैं ! आज़ के दिन इन्हीं का तो पूजन-वंदन देश का हर नागरिक करता है। और ये यहाँ आपने शहीद पुत्रों के समक्ष विलाप रही हैं।" यह मार्मिक दृश्य देख भय से उसका हृदय काँप उठा था । इस स्थिति में माता से आँखें मिलाने का साहस नहीं जुटा पाता है। वह शहीद स्तंभ के ओट में छिपकर रुदन कर रही माँ भारती की बातें सुनने लगता है।
उसने देखा भारत माता खुदीराम बोस की प्रतिमा से कुछ कह रही थीं। हाँ ,याद हो आया..इसी अमर क्रांति दूत की शहादत से जुड़ा यह गीत उसने ऐसे राष्ट्रीय पर्वों पर कोलकाता में अपने विद्यालय में सुना था । मात्र 19 वर्ष की अवस्था में खुदीराम आजादी के दस्तावेज़ पर सुनहरे अक्षरों में अपना हस्ताक्षर बना बढ़ गये थे , उस मंजिल की ओर जिसके समक्ष यदि अमृत कलश भी बेमानी है। बंगाल का हर शख़्स इस बालक के चरणों में नतमस्तक दिखा था उसे उस दिन। माँ भारती अपने इसी बलिदानी सपूत से रुँधे कंठ से शिकायत कर रही थी-- रे खुदी ! स्मरण कर जाने से पूर्व तूने अपनी माता से क्या वादा किया था, यही न.. एक बार बिदाई दे माँ घुरे आशी। आमी हाँसी- हाँसी पोरबो फाँसी, देखबे भारतवासी । पर देख न मेरे लाल ,आज जब देश आज़ाद है, तो तू नहीं आया, तेरे बलिदानी भाई-बंधु भी नहीं आए । और मेरे इस तिरंगे की डोर जिनके हाथों में हैं, वे सफ़ेदपोश जो तेरे उत्तराधिकारी बन बैठे हैं। वे ऐसे राष्ट्रीय पर्वों पर वैसे तो कितनी अच्छी बातें करते हैं। वे कहते हैं -- नये दौर में लिख देंगे मिल के नयी कहानी, हम हैं हिन्दुस्तानी । किन्तु मंच बदलते ही गिरगिट के तरह रंग बदल लेते हैं। फिर शुरू हो जाती है जातिवाद,क्षेत्रवाद ,धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर नफ़रत की सियासत। मर जाती है इंसानियत। वे पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद का ढोल बजाकर देश की भोली जनता को छल रहे हैं। आज अवाम में ख़ासी कड़ुवाहट है। अपनी बादशाहत बचाने के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। सत्ता पाते ही ये राजनेता निरंकुशता का पर्याय बन जाते हैं। और अब तो माफ़िया भी माननीय बन कर मेरे तिरंगे को अपावन कर रहे हैं। जिनके शासन में मेरी बेटियों की अस्मत सुरक्षित नहीं है। दुराचारी मेरे आँचल को मैला कर रहे हैं। बोल,कैसे करूँ मैं अपने स्वाभिमान की रक्षा,जब देश की निर्बल जनता गाँधी जी के उन तीन बंदरों की भाँति अपने मुख, आँख और कानों को बंद किये हो ? क्या अहिंसा के पुजारी ऐसे ही होते हैं ? पुत्रों, तुम सभी ने मुझे फ़िरंगियों की बेड़ियों से मुक्त करवाने के लिए खुशी-खुशी अनेक कष्ट सहे थे । अपना सब कुछ मुझ पर न्यौछावर कर दिया था। और ये दौलत के पुजारी देश को बेच रहे हैं। अब तो मुझे भी नहीं पता कि इनमें से कौन जयचंद और कौन शकुनि है। कहाँ गये तुम्हारे जैसे पुत्र , जिन्होंने अपने पवित्र रक्त से भक्तिपूर्वक अपनी इस प्यारी भारतमाता के पाँव पखारे थे, किन्तु इन सफ़ेदपोशों में से कितने मेरे लिए रक्तदान किया है ? तुम्हारे मिशन का इन्होंने जनाज़ा निकाल दिया है। चाल, चरित्र, चिंतन जैसे आदर्श वाक्य इतिहास के पन्ने में दफ़न हो चुके हैं। भारत माता कहती ही जा रही थीं-- क्या प्राचीन भारतवर्ष के मानचित्र में तूने कभी मेरी भव्य तस्वीर को देखा है ? क्या स्वतंत्र भारत में भी मैं वैसी ही हूँ ? और तो और ये मुझे इण्डिया कहने लगे हैं। क्या मैं इनके लिए माता नहीं रही ? खुदी, मेरी व्यथा-कथा को समझ रहे हो ? विचार और कार्य की स्वतंत्रता अवश्य ही मनुष्य को जीवन की उन्नति का मार्ग दिखलाता है, परंतु स्वतंत्रता का अर्थ स्वछंदता तो नहीं होता न पुत्र ? यह सब सुनकर चिरौरीलाल अश्रु से भरी माँ भारती की आँखों में झाँकने का साहस नहीं कर सका था। ग्लानि से उसका हृदय विकल हो उठा था। किन्तु अडानी-अंबानी बनने की चाहत रखने वालों के इस देश में अब भगत सिंह बनना कौन चाहेगा ? वह भी नहीं..? अकस्मात उसे ऐसा लगा कि मानों अपनी दुखियारी माँ की चीत्कार सुनकर इन शहीदों के मुखमंडल पर कठोरता छाने लगी हो। नाक के नथुने फड़फड़ाने लगे हों। नेत्र लाल अंगार हो गए हों।जैसे किसी सुप्त ज्वालामुखी ने मुँह खोल दिया हो। जिसमें से धुँआ निकल रहा था। उसे ऐसा लगा मानों ये प्रतिमाएँ कह रही हों- वक़्त गुलशन पे पड़ा तब तो लहू हमने दिया। अब बहार आई तो कहते हो तेरा काम नहीं।। चिरौरीलाल से इस उद्यान में और ठहरते नहीं बन रहा था। उसका दम घुटने लगा था । तभी उसकी चेतना ने आवाज़ लगायी --इससे पहले कि इनमें से लावा बहे , भाग चिरौरी.. भाग..।
यादों की ज़ंजीर रात्रि का दूसरा प्रहर बीत चुका था, किन्तु विभु आँखें बंद किये करवटें बदलता रहा। एकाकी जीवन में वर्षों के कठोर श्रम,असाध्य रोग और अपनों के तिरस्कार ने उसकी खुशियों पर वर्षों पूर्व वक्र-दृष्टि क्या डाली कि वह पुनः इस दर्द से उभर नहीं सका है। फ़िर भी इन बुझी हुई आशाओं,टूटे हुये हृदय के आँसुओं और मिटती हुई स्मृतियों में न जाने कौन सा सुख है,जो उसे बिखरने नहीं देता है। वह जानता है कि ज़िदगी के सभी अक्षर फूलों से नहीं अंगारों से भी लिखे जाते हैं। संवेदनाओं को जागृत करने वाली ऐसी मार्मिक अनुभूति उसके लिए किसी दुर्लभ निधि से कम नहीं है।अब तो मनुष्य कृत्रिम जीवन का अभ्यस्त हो गया है, उसमें सहज प्रेम है कहाँ। फ़िर क्यों यही स्मृति आज़ उसके चित्त को पुनः उद्विग्न किये हुये थी ? " उफ ! यह मनहूस दिवस हर वर्ष न जाने क्यों मेरे उस घाव को हरा करने चला आता है,जिसे समय और विस्मृति ने भर दिया है।" --सिर को तकिए में धँसाते हुये भरे मन से बुदबुदाया था विभु। हाँ, यह दिन उसके लिए विशेष हो सकता था ,यदि कोई अपना समीप होता। ऐसे ख़ास अवसर पर वह बिल्कुल असहज हो उठता है, क्योंकि स्नेह की ही नहीं पेट की भूख भी शांत करना उसे कठिन प्रतीत होने लगता है । माँ की मृत्यु के पश्चात उसे अपने जन्मदिन पर बढ़िया व्यंजन खाने को नहीं मिला है। यूँ तो जेब में पैसे हैं,परंतु इच्छाएँ मर चुकी हैं। उसके हृदय में एक टीस सी उठती है, उन दिनों को याद कर के । वैसे तो वह दिन भर मित्रों द्वारा भेजे ढेर सारे शुभकामना संदेशों में खोया रहा। परंतु ऐसे सुंदर शब्दों से मनुष्य के उदर की क्षुधा तो शांत नहीं होती है , इसलिए शाम ढलते ही आत्माराम का रुदन शुरू हो गया था । पेट में चूहे उधम मचाने लगे थे। आज़ अपने अवतरण दिवस पर वह कुछ अच्छा भोज्य सामग्री मांग रहा था। उसकी यह गुस्ताख़ी विभु के लिए असहनीय थी। वह बूरी तरह से झुंझला कर कल के बचे हुये दो करेले उबाल लाता है। " चल अब खा इस कड़वे चोखे संग ये सूखी रोटियाँ, आज़ भी तुझे यही मिलेगा। सsss..ले ! मिठाई चाहिए न ?" -उसकी फटकार सुन आत्माराम किसी मासूम बच्चे-सा सहम उठता है । उदर की पीड़ा शांत होते ही कमरे की बत्ती बुझा कर वह धम्म से बिस्तर पर जा गिरा था और फ़िर से यादों ने उसे अपने आगोश में लेना शुरू कर दिया। वह कहता है-" माँ ! काश तुम्हारे ही जैसा स्नेह करने वाला कोई और उसके जीवन में होता। किसी के हृदय में उसके लिए भी प्रेम होता। " तेज गति से भाग रहे मन से वह क्यों बार-बार एक ही प्रश्न करता है-"उफ! ये यादें रात में ही क्यों इतना सताती हैं ! क्या किसी दुःखी इंसान के हृदय को कुरेदने के लिए इन्हें भी एकांत की तलाश होती है ?" तभी उसके मानसपटल पर चलचित्र की तरह अनेक स्याह-श्वेत दृश्य उभर आते हैं। और फ़िर वह बचपन की मधुर स्मृतियों में खोता चला जाता है। माँ के जीवनकाल में अपने उस आखिरी जन्मदिवस की एक-एक बात उसे स्मरण होने लगी थी । इस सुखद अनुभूति ने मानों उसके तप्त हृदय पर ठंडे पानी की फुहार डाल दिया हो, किन्तु वह नादान यह कब समझेगा कि ये यादें उस जंजीर की तरह हैं, जिससे मुक्त हुये बिना आगे की यात्रा संभवः नहीं है। जीवन में कुछ ऐसे क्षण होते हैं ,जब मन के आगे मस्तिष्क का बस नहीं चलता है। विभु को माँ के हाथों से निर्मित नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों की याद आने लगती थी। तब घर में सुबह से ही कितना चहल-पहल रहती थी। बाबा ने टोकरी भर कर रजनीगंधा और गुलाब के पुष्पहार मंगा रखे थे। ठाकुरबाड़ी को ही नहीं, कमरे में जितनी भी तस्वीरें लगी होती थीं, वे सभी इस दिन इनसे सुशोभित होती थीं। देवी-देवताओं की मूर्तियों पर रोली और चंदन लगाये जाते थे। रंग-बिरंगे झालर और गुब्बारों से दुल्हन की तरह कमरे और बारजे को सजाने की व्यवस्था का दायित्व स्वयं उसके नाजुक हाथों में होता था। अब तो यह सोच कर उसे विश्वास ही नहीं होता है कि इतनी छोटी-सी अवस्था में ऐसे जटिल कार्य वह कैसे कर लेता था ! वो कहते हैं न कि उत्साह में कष्ट सहने की दृढ़ता के साथ ही कर्म में प्रवृत्त होने का आनंद भी होता है। इसीलिए उसकी अस्वस्थ माँ में इस दिन न जाने कहाँ से इतना साहस आ जाता था कि रुग्ण शैय्या का त्याग कर वे दिन भर भोजनालय में डटी रहती थीं। कारखाने का वह बूढ़ा नौकर बड़े से भगौने में दूध पहुँचा जाता था। आहा ! मेवे से निर्मित केशर युक्त खीर का स्वाद भला वह कैसे भूल सकता है ! पाकशास्त्र में माँ का मुकाबला करना उनके मायके और यहाँ ससुराल में ,किसी भी स्त्री के लिए संभव नहींं था। देखते ही देखते कांजी बड़ा, दही बड़ा और कैर-सांगरी की सब्जी वे तैयार कर लेती थीं। अतिथि कितने भी हो, द्रौपदी का यह भंडार खाली नहीं होता था। उसके वैष्णव भक्त परिवार में बाज़ार से केक लाना संभव नहीं था। यह भ्रांति थी कि हर प्रकार के केक में अंडे का प्रयोग होता है। इसीलिए प्रसिद्ध बंगाली मिठाई संदेश और कैटबरी कोको पाउडर से निर्मित केक तैयार करने की ज़िम्मेदारी उस बड़े से तोंद वाले कारीगर को सौंपी जाती थी, जिसे वह हाड़ी दादू कहता था। शाम होते ही विभु नये वस्त्रों में खिलखिलाते हुये केक के मेज के समक्ष जा पहुँचता। माँ के हाथों से केक खाने का आनंद ही कुछ और था। उपहार और धन की तब भी उसे लालसा नहीं थी, लेकिन माँ के द्वारा बनाए गये व्यंजनों पर टूट पड़ता था। भोजन करते वक़्त उनके लाडले को किसी की नज़र न लगे , इस पर माँ का सदैव ध्यान रहता था। ऐसे खुशनुमा माहौल के मध्य पल रहे बालक को उस दिन यह कैसे अंदेशा होता कि यह शाम फ़िर कभी उसके किसी जन्मदिन पर लौट कर नहीं आएगी। वह तो ममता का सागर लुटाने वाली माँ के लाड़ और दुलार की थपकियों में खोया हुआ था। माँ और बाबा दोनों ही उसकी शिक्षा को लेकर गंभीर थे। अपनी कक्षा में प्रथम आने पर उसे विशेष उपहार मिलने वाला था। किन्तु क्रूर नियति ने उपहार की जगह उसकी माँ को ही छीन लिया। मरघट पर बहे उसके अश्रु फ़िर कभी नहीं मुसकाये। अपना ही आशियाना उसके लिए पराया हो गया था। आँखों में डोलते सपने भयभीत करने लगे थे। किसी अपने की खोज में मिले दुत्कार ने उसके कोमल हृदय की भावनाओं को जला कर राख कर दिया था। वह निस्सहाय- हो गया था। उसके माथे पर ममत्व का चुंबन करने वाला कोई नहीं रहा। तभी विभु को आभास होता है कि इस धुप्प अंधेरे में एक डरावनी परछाई उसे घेरे जा रही है। यह देख उसकी बरसती आँखें भय से झपकने लगती हैं। वह रुँधे गले से मदद के लिए स्मृतिशेष उन सभी प्रियजनों को पुकारता है, जिनसे उसे अत्यंत स्नेह है, किन्तु इस बंद कमरे में उसे सिर्फ़ उस काली परछाई का अट्टहास सुनाई पड़ रहा था। मानों वह पूछ रही हो - " यहाँ मेरे सिवा,तेरा हैं कौन ?" यह भयावह परछाई और कोई नहीं उसका सुनहरा अतीत था। वह जानता है कि मनुष्य स्मृति-लोभ से मुक्त हुये बिना आत्मोत्थान को नहीं प्राप्त कर सकता है,क्योंकि यह ज़ंजीर बनकर हमारे पैरों में लिपट जाती है,यदि हमें आगे बढ़ना है, तो इस क़ैदखाने से बाहर निकलना होगा, फ़िर भी उसके विवेक पर भावना भारी पड़ जाती है... और साथ ही यादों की जंजीर की जकड़न भी। उफ! परिस्थितियों ने उसके जीवन को किस द्वंद्व में उलझा दिया है ! ...अब तो कोई अवलंबन तलाशो विभु । - व्याकुल पथिक