मानव जीवन की वेदनाओं को समेटी हुईंं मेरी रचनाएँ अनुभूतियों पर आधारित हैं। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है । यह दुःख ही जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है,सबको परखता है।अतः पथिक को जीवन की इस धूप-छाँव से क्या घबड़ाना, हँसते-हँसते सह लो सब ।
( जीवन की पाठशाला से ) ************************ तभी उसे अपने जीवन के एक और कठोर सत्य का सामना करना पड़ा, जिस स्नेह पुष्प को बसंत समीर ने महीनों में खिलाया था , उसे संदेह की लू का एक झोंका पलक झपकते ही जला कर राख कर देता है.. ************************ ठंडी हवा के झोंके ने फिर से उसके सिर को भयानक पीड़ा दे रखी थी । दोपहर होते-होते वह बिस्तर पर यूँ गिरा कि अगले दिन सुबह ही उठने की स्थिति में था। वह अपनी इस हालत पर स्वयं को धिक्कारा है - "आखिर क्यों नहीं कनटोप लगा कर निकला , जब पता है कि तनिक-सी सर्द हवा सहन नहीं हो पाती है। देख तो दाना-पानी की व्यवस्था भी नहीं कर सका है और अब कौन ख्याल रखेगा तेरा। मौसम कैसा भी हो, बयार कैसी भी चले , तेरे लिए बसंत, शरद और ग्रीष्म ऋतु में क्या फर्क, तू तो पतझड़ है..पतझड़.. ? " यह कटु उपदेश सुनकर राघव चौककर उठ बैठता है। एक तो सिर फटा जा रहा है और उसकी यह अंतरात्मा भी कुछ ज्यादा ही जुबां चलाने लगी है। मेज पर रखे बाम को माथे पर रगड़ते हुये वह भुनभुनाता है। काश ! कोई अपना होता,जिसके स्नेहिल स्पर्श की अनुभूति इस वेदना में उसे हो पाती, परंतु कौन ढ़ाढस देता उसे ? ऐसे कष्ट में प्रियजनों को याद कर उसी आँखें डबडबा उठती हैं। मन को दिलासा देने केलिए एक गीत गुनगुनाने का प्रयत्न करता है - कब छोड़ता है, ये रोग जी को दिल भूल जाता है जब किसी को वो भूलकर भी याद आता है आदमी मुसाफिर है.. अरे हाँ ! आज तो बसंत पंचमी है। छात्रजीवन में उसका सबसे प्रिय पर्व रहा। वह अपने सुनहरे अतीत को याद करता है, जब दस वर्ष का रहा, एक वैवाहिक कार्यक्रम में दार्जिलिंग गया था। बासंती बयार चल रही थी,खिलखिलाते बड़े-बड़े पहाड़ी पुष्पों के मध्य खूबसूरत पंडालों में माँ सरस्वती की सम्मोहक प्रतिमाएँ विराजमान थीं। साँझ होने तक घर की महिलाओं संग वीणावादिनी का पूजन-वंदन करता रहा। इसके पूर्व उसने एक और माँ शारदा की विशाल प्रतिमा देखी थी,तब वह कोलकाता के उस अंग्रेजी माध्यम विद्यालय के शिशु कक्षा का छात्र था और बाद में कोलकाता और बनारस में स्वयं पंडाल सजाया करता था। एक वर्ष तो मुजफ्फरपुर में भी बच्चों संग उसने पंडाल निर्माण में अपनी कारीगरी दिखाई थी। सभी ने उसे कोलकाता वाला कलाकार कह सम्मान दिया था। इसके पश्चात उसकी उदास जिंदगी में सरस्वती पूजन का अवसर कभी नहीं आया ..। "बेवकूफ ! तेरी खुशियाँ कब की पीछे छूट चुकी हैं। अपने घाव पर खुद ही नश्तर क्यों रख रहा है ।" - दिवास्वप्न से बाहर निकल राघव स्वयं को संभालता है । ओह ! तो यह बसंत पुनः सताने आ गया। अब क्या रखा है, एक मुरझाए पुष्प-सा हो चुका है वह। अन्यथा तो कभी राघव हवा के झोंके से झूमते- इठलाते उन सरसों के फूलों को अपलक देखा करता था। इन पुष्पों को अपने जीवन की पाठशाला का एक हिस्सा समझ उसने स्वयं से कहा था- " देखो न ,एक स्निग्ध समीर का झोंका किस तरह से विश्वास फेंक जाता है। मनुष्य हो या फूल उन्हें नव स्फूर्ति की अनुभूति यह बसंत करा ही देता है, तभी तो इसे ऋतुराज कहते हैं।" और अब तो यह पीला बिछावन उसे चुभन देता है।आखिर क्यों ? वह तो सदैव प्रकृति के निकट रहा है । माँ गंगा का पावन तट और सुंदर उपवन दोनों ही उसके विश्वसनीय सखा रहे । अन्य मित्रों की तरह इन्होंने तो कभी उसकी निर्धनता का उपहास और उसकी निष्ठा पर संदेह नहीं किया । ग्रीष्मकाल में यहीं किसी बेंच पर बैठा उमसभरी गर्मी से बेचैन हो जब वह नीले आसमान वाले देवता की ओर टकटकी लगाये देखा करता , तभी कहीं से हवा का एक झोंका आता और मौन खड़े वृक्षों की टहनियों में कम्पन होते ही उसके पत्तों से निकले शीतल पवन की अनुभूति ... हम वातानुकूलित बंगलों में बैठकर नहीं कर सकते हैं । स्नेह रखने वाले बुजुर्ग उसे पछुआ और पुरवा हवा का भेद समझाया करते थें। इन्हीं अनुभवी सज्जनों के मध्य वह हँसता- रोता , लड़खड़ाता- संभलता , अपने सपनों में जीता- सोता था। जीवन के तिक्त एवं मधुर क्षण तब उसे समान लगते थे। वे बुजुर्ग कहते - " जीवन एक अग्निकुंड है, यहाँ धूप से अधिक तपन है।" प्रेम- मोह , धर्म- मोक्ष की अनेक बातें यहाँ हुआ करती थीं। और उस गंगा तट पर जहाँ उसने तैरने का अभ्यास किया था , नाविक उसे गंगा की लहरों के विपरीत दिशा में हाथ- पाँव मारते देख मुस्कुराते हुये यह पाठ पढ़ाते थे कि पवन की दिशा को देख इनके संग हो लो ,अन्यथा शीघ्र थक जाओगे और गणतव्य तक पहुँचना आसान नहीं होगा। यद्यपि जिनके पास उत्साह है, वे विपरीत परिस्थितियों में भी लक्ष्य प्राप्त करके ही दम लेते हैं । अन्यथा इन्हीं तूफानों को अनेकों बार छोटी- छोटी नौकाओं ने परास्त नहीं किया होता। ऐसी कोई तूफानी बयार इस सृष्टि में नहीं है, जो मनुष्य की हिम्मत को हमेशा केलिए कुचलकर नष्ट कर दे। हममें से कुछ मिसाइल मैन ए पी जे अब्दुल कलाम की तरह भी होते हैं , जिनके दृढ़ संकल्प के समक्ष हवा को भी मार्ग बदलना पड़ता है । इसलिए वे अपनी आत्मकथा 'अग्नि की खोज' में जार्ज बनार्ड शॉ का यह उदाहरण प्रस्तुत करते हैं- " सभी बुद्धिमान मनुष्य अपने को दुनिया के अनुरूप ढाल लेते हैं, सिर्फ कुछ ही लोग ऐसे होते हैं, जो दुनिया को अपने अनुरूप बनाने में लगे रहते हैं और दुनिया में सारी तरक्की इन दूसरे तरह के लोगों पर ही निर्भर है। " राघव भी धनी और निर्धन दोनों ही घरानों के मध्य सामंजस्य बैठा कर एक मेधावी छात्र के रूप में लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था, तभी न जाने उसके किस अपराध पर यह कहा गया था - " बड़े लोगों के साथ कुछ दिन रह क्या लिया कि तू हवा में उड़ने लगा । " अपनों की उपेक्षा का दंश राघव नहीं सहन कर सका। वह अपना आशियाना छोड़ अनजान डगर पर निकल पड़ा । संग यदि कोई था ,तो यही गीत - क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये रस्ते में हम क्या-क्या छोड़ आये मंजिल पे जा के याद आता है आदमी मुसाफिर है... मेहनत के चंद पैसों केलिए हर शाम दरवाजे -दरवाजे पुकार लगाते उसका कंठ जबकभी ग्लानि से रुँध जाता था, वह स्वयं से प्रश्न किया करता था कि क्या बचपन में उसका पालन-पोषण किसी बड़े घराने में हुआ था। हाँ, इस आस में वह टूटा नहीं कि कोई तो अपना होगा.. । और एक दिन जब उसका हृदय प्रसून प्रस्फुटित हो उठा था, तभी उसे अपने जीवन के एक और कठोर सत्य का सामना करना पड़ा। जिस स्नेह पुष्प को बसंत समीर महीनों में खिलाया था , संदेह की लू का एक झोंका पलक झपकते ही उसे जला कर राख कर देता है। जीवन के उसी खालीपन को समेटे राघव फिर से वहीं गीत गाता है- झोंका हवा का, पानी का रेला मेले में रह जाये जो अकेला फिर वो अकेला ही रह जाता है आदमी मुसाफिर है... गैरों को अपना समझने के मोह से वह कबतक जुझता रहेगा। यही तो उसके भावुक हृदय का सबसे बड़ा अपराध है। जो उसके हँसते-मुस्कुराते जीवन को चाट गया। हर मोड़ पर वह संदेह का शिकार हुआ । भलेमानुस से न जाने कब- कैसे उसे अमानुष होने का यह खिताब मिल जाता है । " जैसे दिखते हो , लिखते हो, वैसे हो नहीं। " - कानों में पिघले शीशे की तरह ये कठोर शब्द उसे बेचैन किये हुये है। उसका अंतर्मन चीत्कार कर उठा है। आदर्श और यथार्थ में आत्मा एवं शरीर जैसे संबंध का हिमायती रहा वह, भला या बुरा जैसा भी , उसे छिपाना नहीं चाहता था । उसने निश्चय किया था कि अपने हृदय के घाव को झूठे मुस्कान से नहीं ढकेगा। गुरूजनों का यह सबक उसे याद रहा- " मनुष्य चाहे जितना प्रयत्न कर ले, हवा का झोंका आते ही बनावटी आवरण खिसक जाता है और तब तुम्हारा वास्तविक रूप समाज के समक्ष होगा।" फिर किसने उसे विदूषक बना दिया ? क्या अपराध है उसका ? नहीं चाहता है वह ऐसा जीवन , जिसका इस संसार में अपना कहने को कोई न हो। लम्बी साँसें भर राघव अपनापन चित्रपट के उसी गीत की आखिरी बोल को पूरा करता है- जब डोलती है, जीवन की नैय्या कोई तो बन जाता है खिवैय्या कोई किनारे पे ही डूब जाता है आदमी मुसाफिर है... उफ ! कैसे छुड़ाए इन स्मृतियों से पीछा ? नहीं बनाना उसे ताश के पत्तों से भावनाओं का और कोई नया महल जो संदेह के हवा के तनिक झोंके से ढह जाता हो। वह निस्सहाय-सा पुनः बिस्तर में जा धंसता है। - व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला से ) ************************* धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा.. *************************** सुबह के पाँच बज रहे थे। बूँदाबादी ने ठंड को फिर से जकड़ लिया था , जो लोग चौराहे पर दिखे भी, वे बुझ रहे अलाव के इर्द-गिर्द गठरीनुमा बने बैठे मिले। ऐसे खराब मौसम से बेपरवाह दुखीराम अपनी उसी पुरानी साइकिल से नगर भ्रमण पर निकल पड़ता है। यह उसकी नियमित दिनचर्या है। बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद भी वह क्यों ऐसा करता है ? पापी पेट केलिए अथवा पैसे की वही इंसानी भूख ..? बंधु ! किसके लिए.. ? आज यह प्रश्न पुनः सिर उठाए उसके हृदय को रौंद रहा था। स्नेह की दुनिया में उस आखिरी चोट के बाद किसी से वार्तालाप , हँसी- ठिठोली में उसे तनिक भी रुचि नहीं रही ,फिरभी स्वयं को कमरे में बंद कर बुत बने रहना, विकल्प तो नहीं है ? खैर,अबतो वह इस आकांक्षा से मुक्त है। दुखीराम स्वयं से वार्तालाप कर ही रहा था कि एक वृद्ध महिला के करुण क्रंदन- " ए हमार भइया ! तनिक उठ जाते भइया !!" से उसका ध्यान भंग होता है। " अरे ! ये क्या ? " उस जाने-पहचाने से घर के करीब पहुँचते ही वह हतप्रभ रह जाता है । " अपना दीनबंधु अब नहीं रहा ! कैसे हो गया यहसब ? " दुखीराम , अपने दिमाग पर फिर से जोर डालता है कि कहीं वह स्वप्न तो नहीं देख रहा है। अभी पिछले दिनों ही तो मुख्यालय पर दुआ- सलाम हुई थी उससे ! हाथों में रत्नों की बड़ी-बड़ी अंगूठियाँ, गले में सोने की मोटी सिकड़ी और वह विदेशी चश्मा, किसी बड़े अफसर से कम नहीं दिखता था दीनबंधु । सदैव की तरह उस दिन भी वह हाय -हेलो करते हुये किसी उच्चाधिकारी के कक्ष में जा घुसा था । इससे अधिक किसी गैर व्यवसायी से कुछ और बात करने की उसे फुर्सत कहाँ थी ।मानों एक-एक मिनट की कीमत रूपये में होती हो उसकी ! दुखीराम केलिए इतना प्रयाप्त था कि दीनबंधु उसे देख अदब से हाथ ऊपर कर लेता था , अन्यथा ऐश्वर्य आने के पश्चात द्रुपद का द्रोणाचार्य से क्या रिश्ता ? भला धन के समक्ष ईमान की भी कोई कीमत है ? वैसे, इस नमस्कारी को लेकर दीनबंधु पूरी तरह से आश्वस्त था कि यह जो उसका पुराना लंगोटिया यार दुखीराम है न , वह बड़ा स्वाभिमानी है और घोर संकट पड़ने पर भी सुदामा बन उस जैसे कलयुगी कृष्ण के दरवाजे पर दस्तक देने नहीं आएगा । अन्यथा अभिवादन तो दूर उसे ( दुखीराम ) देख ऐसा लगता कि बिल्ली ने रास्ता काट दी हो। इस अर्थयुग में दीनबंधु की यह सोच बुरी न थी। अनेक पापड़ बेलकर कर उसने यह रुतबा हासिल किया था। अन्यथा, " यथा नाम , तथा गुण" जैसे नीतिवचन का अनुसरण करता तो, वह भी दुखीराम की तरह उसी टूटही साइकिल को घसीटता रह जाता । आज जो उसके पास लग्जरी गाड़ी है, उसे बाप-दादे के रोकड़े से थोड़े न खरीदी थी । यह तो उसके दीमाग की कमाई है। उसे भलिभाँति यह याद था कि यही सभ्य समाज कभी दलाल कहके उसे दुत्कारा करता था और वह था कि किसी गुलाम की भाँति सलामी दागते हुये - " भाई साहब ! कुछ खास ? सेवक हाजिर है । " कह खी खी खी..किया करता था। दिनभर इधर-उधर भटकता फिरता था,पर निगाहें उसकी चिड़िए की आँखों पर थीं। एक दिन उसने किसी मकड़ी को जाल बुनते देख लिया और बस जैसे ही वह इस विद्या में परांगत हुआ,उसके मकड़जाल में शिकार फँसने लगा। वे जेंटलमैन जो उसे ब्रोकर समझ हिकारत भरी निगाहों से देखते थे ,अब उसे " लाइजनिंग अफसर " कह अदब करने लगे। उनके लिए हर मर्ज का दवा था दीनबंधु ! कोतवाली से लेकर कलेक्ट्रेट तक यूँ समझें कि संतरी से लेकर मंत्री तक उसकी पकड़ थी। उसके नाम सिक्का चल निकला। फिर क्या ..साला ! मैं तो साहब बन गया, यह गीत आपने सुनी है न ? और आज उसी आंगन में उसका शरीर निष्चेष्ट पड़ा है, जहाँ वह बचपन में किलकारियाँ भरा करता था। जुगाड़ तंत्र का वह बड़ा खिलाड़ी जिसने धनलक्ष्मी को अपने घर मंदिर में स्थापित कर दिया था, उसी गृह का मनमंदिर सूना पड़ा है । " राम-राम ! बड़ा बुरा हुआ,बिल्कुल कच्ची गृहस्थी छोड़ गया । " - यह कह नाते-रिश्तेदारों ने लोकलाज वश आँखें तनिक गीली कर ली थीं। उसकी मौत की खबर सुनते ही कुछ भद्रजन भी दौड़े आये थे। कानाफूसी शुरु थी -" लो ससुरा, चला गया और डूबा गया हमारा लाखों रूपया ! " उन्हें उसकी मृत्यु का गम नहीं था , वरन् दुःखी वे इसलिए थे कि अपने जिन कामों केलिए बयाना जो दे रखा था, वह सब बट्टे खाते में गया। वे सभी हाथ मल ही रहे थे कि तभी रामनाम सत्य है , का वही कर्णप्रिय उद्घोष दुखीराम को सुनाई पड़ता है । चौक उठता है वह , उसे स्मरण हो आया उस अभागे व्यक्ति का जो कुछ माह पूर्व इसी श्मशानघाट मार्ग पर मिला था। जीवन की राह में भटकता- लड़खड़ा- गिड़गिड़ाता वह इंसान, जो स्नेह के दो बूँद केलिए पग- पग छला गया , तो लगा था, कुछ इसीतरह के शब्दों को बुदबुदाने ... और हाँ ,उसके जीवन का यह कटु सत्य किसी को इतना कड़वा लगा कि पूछे न ,उसे किन तिरस्कार भरे शब्दों के प्रयोग से दुत्कारा गया था।आखिर उस बावले से छुटकारा जो पाना था। परंतु पागल वह नहीं यह दुनिया है। मृत्यु से पूर्व ही हर लौकिक सम्बंधों से मुक्त होना , यही तो रामराम नाम सत्य है ? जिसे दुखीराम तो समझ गया , लेकिन यह दीनबंधु धन के दौड़ में रमा रहा । इसकी लालसा निरंतर " और -और " कह शोर मचाती रही। यह सत्य है कि लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है, परंतु जब उसका सुनहरा आवरण हटता है, तो वास्तविकता नग्न स्वरूप में सामने आ जाती है। अति-महत्वाकांक्षी मनुष्य को जीवन की इस क्षणभंगुरता का बोध भला कहाँ हो पाता है । वह अपनी आकांक्षा को गहरी नींव देने में इसप्रकार खोया रहता है कि स्वयं को चिरंजीवी समझ बैठता है । अतः एक दिन दीनबंधु के " जुगड़तंत्र" को भी झटका लगता है। उसका खेल बिगड़ जाता है। और फिर अवसादग्रस्त दीनबंधु को असमय ही मौत की यह पुकार सुनाई पड़ती है- "तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला ।" धन के प्रति उसकी लिप्सा उसके मानवधर्म केलिए अभिशाप बन गयी थी। अतः उसकी मृत्यु को भी अपने आर्थिक हितों से जोड़कर समाज ने देखा। -व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला से) *************************** परंतु हे गणतंत्र ! क्या मैं एक प्रश्न तुमसे कर सकता हूँ ? बोलो यह लहरतंत्र तुम्हें मुँह क्यों चिढ़ा रहा है। हमारे समाज ने जिस राजनीति को " प्राण " के पद पर प्रतिष्ठित कर के रखा है। वह भीड़तंत्र के अधीन क्यों है ? **************************** हे गणतंत्र ! तुम्हारी जय हो -जय हो । सैकड़ों वर्ष के घोषित-अघोषित देशी- विदेशी राजतंत्र से मुक्तिदाता हमारे प्यारे गणतंत्र तुमसे ही हमारा मान है ,संविधान है और हमारा भारत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य है, किन्तु तुम भी कहाँ परम स्वतंत्र हो ! आजाद भारत में एक "लहरतंत्र" है, जिसका अंधभक्त " भीड़तंत्र " है , उसके समक्ष तुम्हारा पराक्रम जबतक बौना पड़ जाता है । नतीजतन, तुम्हारी ही प्रणाली में सेंधमारी कर जनसेवा का " ककहरा " तक न जानने वाले लोग हमारे रहनुमा बन जाते हैं, क्या ऐसी माननीयों को अपने से दूर रखने केलिए कोई सुरक्षा कवच विकसित किया है तुमने ? अब तो तुम प्रौढ़ हो चुके हो और मैं भी, बचपन में जब से विद्यालय जाने योग्य हुआ, राष्ट्रीय पर्वों पर गुरुजनों के उद्बोधन के माध्यम से तुम्हें जानने की उत्सुकता बढ़ी और बड़ा हुआ तो पुस्तकों के पन्नों में तुम्हें ढ़ूंढने लगा। 26 जनवरी को राजपथ पर देश के विकास से संबंधित जो झाँकियाँ निकलती हैं , जवानों के शौर्य का प्रदर्शन होता है और साथ ही हमारे प्रतिनिधित्वकर्ता प्रधानमंत्री के भाषण में तुम्हारी झलक पाने को लालायित रहा हूँ । जब भी नीले अंबर की ओर मस्तक ऊँचा किये पूरे आन ,बान और शान के साथ अपने राष्ट्रीय ध्वज को लहराते देखता हूँ , हे गणतंत्र ! तब मनमयूर नाच उठता है और जुबां ये पँक्तियाँ होती हैं- सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्ताँ हमारा... वास्तव में मुझे ऐसा प्रतीक होता है कि अपने तिरंगे में त्रिगुणात्मक शक्तियाँ समाहित हैं। हमारे विंध्यक्षेत्र की तीनों देवियों के तेज से युक्त है हमारा राष्ट्रीय ध्वज। महाकाली( संघारकर्ता स्वरूपा ) से शौर्य महासरस्वती ( सृष्टिकर्ता स्वरूपा ) से शांति एवं महालक्ष्मी ( पालनकर्ता स्वरूपा) से समृद्धि इसे प्राप्त है । इसके केंद्र में कालचक्र के स्वामी महाकाल सदाशिव विराजमान हैं।
परंतु हे गणतंत्र ! क्या मैं एक प्रश्न तुमसे कर सकता हूँ ? तुम्हारे होते हुए भी यह " लहरतंत्र " कहाँ से आ गया है ? तुमने तो ऐसी व्यवस्था दे रखी है कि अपने देश में जो भी कार्य हो, वह संवैधानिक तरीके से हो। तुमतो जनता द्वारा निर्मित प्रणाली के संचालन केलिए अस्तित्व में आये हो न ? बोलो फिर यह लहरतंत्र तुम्हें मुँह क्यों चिढ़ा रहा है । हमारे समाज ने जिस राजनीति को " प्राण " के पद पर प्रतिष्ठित कर के रखा है। वह इस लहरतंत्र के अधीन क्यों है ? तुम्हे याद है न कि वर्ष 1974 में जेपी ( लोकनायक ) के " सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन " से लहरतंत्र ने सिर उठाया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आपातकाल भी इसके समक्ष नतमस्तक हो गया । वर्ष 1977 में उनकी सत्ता का पराभव स्वतंत्र भारत में एक ऐतिहासिक घटना रही। और फिर वर्ष 1984 में जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तब उनके पुत्र राजीव गांधी के नेतृत्व में आमचुनाव में तो कांग्रेस ने इस " सहानुभूति लहर " में इतिहास रच दी । कांग्रेस को लोकसभा में प्रचंड बहुमत ( 542 में से 415 सीट ) मिला था। बाद में अपने यूपी एवं बिहार में कमंडल एवं मंडल की भी दहलाने वाली लहर रही न , मजहब एवं जातीय सियासत में देश का एक बड़ा हिस्सा धू-धू कर जल उठा था, जिसकी भयानक तपिश में कितने ही निर्दोषों की जान गयी। फिर आयी वर्ष 2014 में मोदी की लहर । अच्छे दिन आने वाले हैं , का यह मोदी मैजिक वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कायम रहा। परंतु तुमने देखा होगा कि ऐसी चुनावी लहरों में गोता लगाने कैसे-कैसे लोग उतर आये थे। तब " गणतंत्र, तेरी गंगा मैली हो गयी " का चित्कार लोकतंत्र लगाने लगा था । तुम्हारा संविधान मौन रहने केलिए विवश क्यों था । कैसे समझाऊँ तुम्हें ? अच्छा सुनो न ! जैसे मानव शरीर में हृदय सबसे शुद्ध रक्त कहाँ भेजता है, मस्तिष्क को ही न ? तो तुम्हारी गणतांत्रिक व्यवस्था में भी आम चुनाव प्रणाली तुम्हारा हृदय ही तो है , जहाँ से छनकर ( फिल्टर) शुद्धरक्त हमारे जनप्रतिनिधि के रुप में देश के सर्वोच्च सदन संसद अथार्त तुम्हारे मस्तिष्क में ही तो आता है ? क्यों चौक गये न, असत्य तो कुछ नहीं कहा मैंने ? किन्तु यदि यह लहरतंत्र तुम्हारे हृदय के स्पंदन ( लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली ) को ही प्रभावित करने लगे तो क्या होगा ? फिर कैसे करोंगे अपनी व्यवस्था पर नियंत्रण ? तुम्हारे मस्तिष्क में वह उर्जा फिर किसतरह से संचालित होगी , जिससे देश की संवैधानिक व्यवस्था हमारे राष्ट्रपति महात्मा गांधी के स्वप्न के अनुकूल हो, जिसके लिए हर आमचुनाव में राजनेता जनता से वायदे पर वायदे करते आ रहे हैं। और यही कारण है कि लूटतंत्र , झूठतंत्र और इनसे भी ऊपर जुगाड़तंत्र विकसित हो चुका है , क्यों ठीक कहा न मैंने ? साथ ही नक्सलवाद, उग्रवाद और अलगाववाद भी है । हे गणतंत्र ! तुम्हारी धमनियाँ ( व्यवस्थित प्रणाली ) इनके आघात से क्षतविक्षत होती जा रही हैं। जिसकी शल्यक्रिया ( सर्जरी ) केलिए योग्य चिकित्सक ( मार्गदर्शन) नहीं मिल रहे हैं, क्योंकि ऐसे कर्मठ पथप्रदर्शक इसी " लहरतंत्र " के कारण कुंठित , उपेक्षित एवं अपमानित होकर " भीड़तंत्र " में न जाने कहाँ गुम होते जा रहे हैं, वहीं गण ( जनता) गांधी जी के तीन बंदरों की तरह मूकदर्शक बन तंत्र ( सिस्टम ) पर प्रहार होते देख रहा है। सत्यमेव जयते जो तुम्हारा आदर्श वाक्य है। सच बताना तुम ,राजपथ पर विकास से संबंधित जो झाँकियाँ विभिन्न प्रांतों द्वारा प्रस्तुत की जाती हैं , क्या उसके अनुरूप आम आदमी के अच्छे दिन आ गये हैं ? गरीबी हटाओ का जुमला जब बुलंदी पर था, तो मैंने आँखें खोली थीं और इसके पश्चात देश में साइनिंग इंडिया की धूम रही , परंतु क्या कभी " राइजिंग इंडिया" का भी दर्शन कर पाऊँगा ,अपने जीवनकाल में , इस यक्षप्रश्न का उत्तर है तुम्हारे पास ? जिन नौजवानों के पास सरकारी नौकरी नहीं है,जिनके पास व्यवसाय नहीं है,जो किसी के प्रतिष्ठान पर कार्यरत हैं , क्या इनके साथ तुम्हारी ही प्रणाली के अनुरूप समानता का व्यवहार हो रहा है ? किसी की प्रतिमाह आय लाख रुपये तक है और किसी की मात्र पाँच हजार । क्या यह न्यायसंगत है ? क्यों समानता का अधिकार नहीं है उनके पास ? हमारे देश के कर्णधार कहते हैं -" सबका साथ, सबका विकास।" परंतु निम्न-मध्य वर्ग के अनेक ऐसे भी स्वाभिमानी लोग हैं,जो दिन-रात श्रम करके भी उसके प्रतिदान से वंचित हैं। किसी के बच्चे को हजार- पाँच सौ रुपये के चाकलेट,पिज्जा और आइसक्रीम कम पड़ रहे हैं और किसी का लाडला आज भी एक मिष्ठान केलिए तरस रहा है। उसके लिए एक गिलास दूध की व्यवस्था उसकी माँ नहीं कर पा रही है। हे गणतंत्र ! ऐसे अभिभावकों की डबडबाई आँखों में झाँक कर देखो अपनी परछाई । और एक बात पूछना चाहता हूँ कि हमारे जैसे करोड़ों भारतीय जो तुम्हारे संविधान में निष्ठा रखते हैं , वे " दास " और चंद सफेदपोश माफिया जो कानून को जेब में रखते हैं, वे " प्रभु " क्यों कहे जाते हैं ? फिर कैसे होगी बापू के रामराज्य की स्थापना ? कैसे करें अमर शहीदों के बलिदान का मूल्यांकन?? बोलो न अब तो कुछ कि हम कैसे यह गीत गुनगुनाएँ - मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती...' । वैसे, आज तुम्हारा वर्षगाँठ है , अतः तुमसे ऐसे कड़वे सवाल मुझे नहीं करना चाहिए फिर व्याकुल हृदय को कैसे समझाऊँ । - व्याकुल पथिक
मस्ती भरी दुनिया में, छेड़ो तराना जो नहीं हैं , उनको भूल जाना । था छोटा-सा घर,अब न ठिकाना मुसाफ़िर हो तुम, बढ़ते ही जाना। मन की उदासी से,खुद को बहलाना ग़ैरों की महफ़िल ,खुशियाँ न चाहना। मिलते है लोग, करके ठिठोली अपना न कोई , है कैसा जमाना ! राज जो भी हो, दिल में छुपाना बनके तमाशा, तुम जग को हँसाना। खुशबू तेरे मन की,जबतक न महके इस दुनिया से, यूँ वापस न जाना । टूटे सपने हो , झूठे सब वादे ज़ख़्मी जिगर तेरा ,उसे न रुलाना। देखो जरा तुम , किसने पुकारा ये ख़्वाहिश है तेरी,या झूठा बहाना !!! - व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला) मीरजापुर की एक घटना पर आधारित मार्मिक कथा
**************************** उसका स्वाभिमान मंदिर के चौखट पर कुचल गया..! आज भगवान जी की मूर्ति के समक्ष यह कैसा अन्याय हो गया.. !! भिक्षुकों की टोली में एक नया भिखारी आखिर क्यों शामिल हो गया.. !!! **************************** 【 दृश्य-1】 सुबह हो चुकी थी ,परंतु ठंड कुछ ऐसी थी कि गरम कपड़ों के अंदर घुसकर हड्डियों को गलाए जा रही थी। बर्फीली हवाओं से बचने केलिए राघव बार-बार साइकिल की गति धीमी कर मफलर को टोपी पर कस रहा था। तभी भिक्षुकों का एक समूह हाथों में कटोरा लिए " दान-पुण्य " की पुकार लगाते हुये नगर के एक प्रमुख मंदिर के समीप जा पहुँचा । बूढ़े,जवान,महिला और बच्चे सभी इस टोली में शामिल थें। मर्द जहाँ बड़ी- बड़ी गठरियों को बांस के सहारे कंधे से लटकाए हुये थे , तो वहीं स्त्रियों ने भी दान में मिली पुरानी चादरों में गाँठ लगी बड़ी- बड़ी झोलियाँ ले रखी थीं। ये सभी अनाज से भरी हुई थीं और बच्चों के चेहरे की चमक भी देखते ही बनती , इन्हें खाने केलिए भरपूर सामग्री मिल गयी थी। इन्हें देख राघव भुनभुनाता है- " कैसे निर्लज्ज लोग हैं ये ? मानों पुरुषार्थ न करने की कसम खा रखी हो और मर्द तो खासे हट्टे-खट्टे हैं , फिर भी भिक्षा मांगने में आत्महीनता का भाव उनमें तनिक न है। भीख मांगना उनके लिए बिना श्रम और धन खर्च किये बढ़िया व्यापार है । हाँ, जन्मसिद्ध अधिकार भी !" जब भी ग्रहण लगता है, न जाने कहाँ से डेढ़-दो हजार की संख्या में ऐसे लोग शहर में डेरा डाल लेते हैं। मैले-कुचैले वस्त्र , बिखरे केश , मलिन मुख और शरीर से निकलती दुर्गंध , इनके तो समीप से होकर गुजरना भी कष्टकारी है। इन्हें देख राघव को न जाने ऐसा क्यों लगा कि " शाइनिंग इंडिया " की ये सभी सजीव तस्वीर हैं। स्वामी विवेकानंद के शिकागो धर्मसभा में पहुँचने से पहले अपने देश के संदर्भ में विदेशी लोग जो सोच रखते थे। इन्हें देख राघव को लगा कि वे गोरे कुछभी गलत तो नहीं कहते थे। उधर, मंदिर के बाहर तिराहे पर अलाव को घेरे भिखारियों के भी क्या ठाठ हैं। कोई टांग फैलाए, तो कोई उकडूँ बैठ हाथ सेक रहा था। जब हाथ में कटोरा हो , तो पेट भरने की फिक्र काहे की ! भगवान का वास्ता दिये बिना भी इनकी रसना यहाँ तृप्त हो जाया करती है। राघव ने देखा कि एक धर्मभीरु भक्त सामने वाली चाय की दुकान से इन्हें आवाज लगा रहा है। अबतो चाय के साथ बिस्किट भी इन्हें मिल गये थें । चायवाले ने उसे बताया कि ठंड के मौसम में इन भिखमंगों की मानों लाटरी निकल आती है। एक मौसम में पाँच से सात कंबलों का जुगाड़ मजे से हो जाता है। इसबार तो मंदिर पर आकर जिले के दयालु कप्तान साहब ने अपने हाथों से इनके ठिठुरते बदन पर बढ़िया किस्म का कंबल डाला था। परंतु अगले दिन ये कंबल न जाने कहाँ गायब हो गये थे । ये भिखारी फिर से फटी-पुरानी चादरों में लिपटे मिले । संग्रह की इनकी यही लालसा इन्हें ऐसे सामग्रियों के उपभोग से वंचित कर देती है। 【दृश्य-2】 मंदिर के दूसरे छोर से एक और पुकार राघव को सुनाई पड़ती है। उसने देखा सुबह से बोहनी न होने से निराश ठंड से ठिठुरते उस बूढ़े रिक्शावाले की आँखों में एक भद्रपुरुष को देख तनिक चमक- सी आ गयी है। उसने अतिविनम्र भाव से कहा-" सा'ब ! टेशन -बस अड्डा ? " जिसपर उसकी ओर बिन देखे ही भद्रपुरुष ने कहा- " नहीं । " " तो सा'ब जी जहाँ आप कहो ?" रिक्शावाले ने तनिक दीनता प्रदर्शित करते हुये पुनः अनुरोध किया। परंतु यह क्या ? इसबार उस भद्रपुरुष की भावभंगिमा कुछ ऐसी थी कि मानों बिल्ली ने रास्ता काट दी हो। उसने झुंझलाते हुये कहा - " जहन्नुम में जाना है, चलोगे? एक तो पैसे भी अधिक लोगे और चाल बैलगाड़ी-सी भी नहीं..!" तभी ई-रिक्शे का हार्न सुन वह उसपर सवार हो निकल लेता है । बेवस निगाहों से बूढ़ा कभी अपने रिक्शे तो कभी ई-रिक्शे की गति को देखते रह जाता है और फिर मंदिर की ओर निगाहें उठा कर कुछ बुदबुदाता है । शायद विधाता से पूछ रहा हो कि उसके पुरुषार्थ का कोई मोल नहीं ? अबतो उससे यहाँ ठहरा नहींं जा रहा था। फिरभी जाड़े से संघर्ष करने केलिए वह शरीर पर पड़े पुराने शाल को और कसकर लपेट लेता है। सवारी की प्रतीक्षा में पिछले दो घंटे रिक्शे पर बैठे-बैठे उसके हाथ-पांव को मानों पाला मार दिया हो । बदन थरथराने लगा था। वह कभी मंदिर तो कभी सड़क की ओर दृष्टि उठाके देखे रहा था। इन भिखमंगों को देख उसे कुढ़न हो रही थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि दयामयी ईश्वर के दरबार में उसके साथ यह पक्षपात क्यों हो रहा है। भिखारियों को बिना तन डोलाए ही नाना प्रकार के भोज्यपदार्थ मिल रहे हैं और रिक्शा खींच कर भी उसके पेट में न जाने क्यों आग लगी रहती है। आज तो उसे ऐसा लग रहा था कि उसके स्वाभिमान को यह ठंड ग्रहण बन निगलने को आतुर है। पौ फटने से पहले उसने यह सोचकर रिक्शा निकाला था कि चार-छह चक्कर मार लेगा तो सुबह की चाय और कचहरी के पास वाले ठेले से बाटी-चोखा मिल जाता। बोहनी न होने से वह स्वयं पर यह कह झल्लाता है- " ससुरा ! ई पापी पेट बुढ़ापे में भी हलकान किये है। " पर वह जानता है कि पेट केलिए मजूरी तो करनी ही है और नहीं तो दिनभर ई-रिक्शा और आटो की धमाचौकड़ी के सामने उसके बूढ़े रिक्शे की सवारी कौन भलामानुष पसंद करेगा। परंतु आज तो बाबू-भैया की हाँक लगाते- लगाते उसकी जुबां थक चुकी थी । अपने श्रम के इस उपहास पर किसकी अदालत में अपील करता वह ? 【 दृश्य-3 】 अचानक गरम हलवे की सुगंध ने उसे फिर से बेचैन कर दिया था । सुबह से चाय भी तो नहीं पी रखी थी। सुर्ती मलकर तलब मिटाने की कोशिश नाकाम हो चुकी थी। रिक्शे की सीट पर घुटने को छाती से चिपकाए बैठे इस वृद्ध की निगाहें एक बार फिर अलाव के समीप हो रहे कोलाहल की ओर जाती है । यहाँ एक समाजिक संस्था के मुखिया के जन्मदिन पर मंदिर के बाहर बैठे भिक्षुकों को हलवा-घुघरी परोसा जा रहा था। राघव ने देखा कि मीडिया के लोग भी पहुँच चुके हैं। जिन्होंने मुखिया जी के इस " दरिद्र नारायण सेवा " वाली कई खूबसूरत तस्वीरें ली ,वीडियोग्राफी भी हुई है । तभी मुखियाजी के कानों में ये मीडियावाले कुछ फुसफुसाते हैं और फिर प्रसाद संग एक-एक लिफाफा इनसभी के हाथों में होता है। अब यह पक्का था कि उनकी यह तस्वीर कल के अखबारों में समाजसेवा की मिसाल बनेगी। ललचायी आँखों से उसने खाली हो रहे हलवे के भगौने को फिर से देखा। अबतक संस्था के किसी कार्यकर्ता में यह भलमनसाहत नहीं थी कि इधर आकर उससे कहता कि बाबा, तुम भी मुखिया जी की लम्बी आयु केलिए दुआएँ करो और यह लो हलवा-घुघरी। उनमें तो सेल्फी लेने की होड़ मची हुई थी। धीरे-धीरे कोलाहल थमने लगा था। याचना भरे नेत्रों से उसने मंदिर में विराजमान भगवान की ओर भी देखा। मुखिया जी ने आज विशेष श्रृंगार करवा रखा था। नाना प्रकार के मेवा-मिष्ठान मूर्ति के समक्ष रखे हुये थें। अबतो उससे बिल्कुल ही रहा नहीं जा रहा था।उसकी समस्त इंद्रियाँ जवाब देने को थीं, यद्यपि उसका स्वाभिमान किसी के समक्ष उसे हाथ पसारने नहीं दे रहा था । भीख ही मांगनी होती तो क्यों इस बुढ़ापे में रिक्शा चलाता वह। जिंदगीभर की कमाई यूँ ही चली जाए,यह उसे मंजूर न था । उसने एकबार फिर से चारों ओर निगाहें दौड़ाई। काश! कोई सवारी मिल जाए और वह यहाँ से दूर चला जाता। उफ! नियति भी उससे आज ये कैसा खिलवाड़ कर रही है। पुरखों को वह क्या मुँह दिखाएगा ? वह अपने इच्छाओं के प्रवाह को बलपूर्वक रोके हुये था। और अचानक .. उसके दुर्बल काया में तेज कंपन होती है। इससे पहले कि वह रिक्शे पर से नीचे गिरता ,उसने किसीतरह स्वयं को संभाल लिया । उसके मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया था और पांव अलाव की ओर बढ़ते चले गये। चेतनाशून्य हो वह उन भिक्षुकों के बीच जा बैठा था । तभी मुखिया जी की आवाज उसके कान में पड़ती है -" अरे देखो ! एक तो छूट ही गया। इसके लिए भी दो दोने लेते आना जरा ? " यह देख वह जोर से चिल्लाना चाहता था - " भिखमंगा नहीं रिक्शेवाला हूँ मैं..।" लेकिन, गला उसका रुँध गया ...। उसका स्वाभिमान मंदिर के चौखट पर कुचल गया..!आज भगवान जी की मूर्ति के समक्ष यह कैसा अन्याय हो गया.. !! भिक्षुकों की टोली में एक नया भिखारी आखिर क्यों शामिल हो गया.. !!! रिक्शावाले के श्रम का प्रतिदान ...यह भीख ? कैसे हैं हम और हमारी सामाजिक व्यवस्था.. !!!! - व्याकुल पथिक
( एक सत्यकथा ) ************* होटल के रिसेप्शन से लेकर चौराहे तक खासा मजमा लगा हुआ था। दरोगा और सहयोगी सिपाही एक वृद्ध व्यक्ति को गिरफ्तार कर समीप के कोतवाली ले जा रहे थें। साथ में एक महिला पुलिसकर्मी थी और उसकी उँँगली थामे वह मासूम बच्ची बिल्कुल डरी-सहमी कभी उस वृद्ध को तो कभी अपने इस नये अभिभावक को देख रही थी । तभी तमाशाइयों की भीड़ में शामिल एक आदमी बुदबुदाता है- " अरे ! कैसा घिनौना मिथ्या आरोप !! सत्तर साल का बुड्ढा और आठ साल की यह लड़की.. !!! " लगता है कि धूर्त होटल मैनेजर से कोई तकरार हो गयी होगी , जिसका ऐसा प्रतिशोध उसने लिया है। अन्यथा बेचारा यह बाबा तो पड़ोसी प्रांत मध्यप्रदेश से इस कन्या का दवा-दारू कराने यहाँ आया करता था । बड़ी भलमनसाहत से सबसे मिलता था । एक से बढ़ कर एक ज्ञान की बातें बताया करता था। कैसा अंधेर है ! इस भले आदमी को शैतान बता दिया, अबतो नेकी का ..। उसने अपना संदेह तनिक इस दार्शनिक अंदाज में व्यक्त किया कि मौजूद लोगों में से अन्य कई भद्रजन भी सुर में सुर मिला कर गुटूर गू करने लगते हैं- " हाँ , भाई ! आज कल ऐसा ही जमाना है। " यदि पुलिस न होती तो बाबा के प्रति उनकी यह अंधभक्ति उस होटल मैनेजर पर भारी पड़ सकती थी। दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही यहाँ एक साथ चोंच भिड़ाए खड़े थें। मानों मैनेजर से उनकी कोई पुरानी खुन्नस हो ? सत्य का अन्वेषण इनमें से कोई नहीं करना चाहता था। बकबक करने वालों में से किसी को भी लड़की के भयाक्रांत मुखमण्डल की ओर देखने की फुर्सत न थी, यद्यपि वे सभी अंतर्जामी बने मैनेजर को पानी पी-पी कर कोस रहे थें..। आखिर क्या कसूर था होटल के उस अनुशासनप्रिय मैनेजर का ..? जो उससे प्रतिशोध लेने केलिए भद्रजन यूँ हुंकार लगा रहे थे ..! उस बाबा को तो कोई नहीं कह रहा था - " मारो ऐसे पापी को।" ऐसी क्या अंधभक्ति है ? बाबा, ज्ञानी- ध्यानी था इसलिए ? और उस अबोध बच्ची की आपबीती भला जानते भी कैसे ये भलेमानुस । यदि कानून अपना काम नहीं करे तो ऐसे ढोगी बाबाओं की जय जयकार होती रहे ? मीडियावाले भी पहुँच चुके थे। ऐसी घटनाएँ उनके लिए मसालेदार खबर तब भी थी और आज ढ़ाई दशक बाद भी है । ये पत्रकार दनदनाते हुये सीधे होटल की गैलरी में जा पहुँचे थे । यहीं मैनेजर , कर्मचारी और होटल का मालिक सभी एकत्र थे। कोई होटल के अंदर तो कोई बाहर जा कर मौका मुआयना कर रहा था। मैनेजर का बयान भी लिया गया । और तभी बाबा का वह धनाढ्य अनुयायी इनके समक्ष पुनः प्रगट होता है । वह कनखियों से इशारा कर एक पत्रकार को बुला उसके कान में कुछ फुसफुसाया है । उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कान फिर से आ जाती है। उसे लगता है कि उसकी योजना सफल होगी। भला घर आयी लक्ष्मी को कौन ठुकराता है ? मीडियाकर्मियों के पास होटल मालिक से हिसाब चुकता करने का यह एक सुनहरा अवसर था ; क्यों कि स्वामीभक्त मैनेजर ने उनके मेहमानों को ठहरने केलिए कभी मुफ्त में एक कमरा तक नहीं दिया था । वे चाहते तो खबर को ट्विस्ट (विकृत) कर सकते थें। लेकिन, तब की पत्रकारिता में वह गंदगी नहीं थी। एक ने कोशिश की भी, तो अन्य सहयोगियों का असहयोग देख डर गया कि कहीं अखबार का सम्पादक तलब न कर ले। वैसे, आज का दौर भी बुरा नहीं है। सोशल मीडिया अपना काम बखूबी कर रहा है । यदि इसका दुरुपयोग न हो तो यह जनता केलिए सच उगलने की मशीन है। हाँ तो, मैनेजर ने बताया कि यह बाबा उस बच्ची के साथ होटल में बराबर आता रहा है,परंतु उसको इलाज केलिए कमरे के बाहर कहीं ले जाते कभी नहीं देखा गया , फिरभी उसपर संदेह करना आसान तो नह था ; क्योंकि एक तो उसकी अवस्था और दूसरा उसकी धार्मिक प्रवृत्ति दीवार बने खड़ी थीं । अतः काफी धर्मसंकट में था वह । कमरे के अंदर की गतिविधि जानने की मैनेजर की उत्सुकता ने उसकी राह आसान कर दी। बाबा जिस कमरे में ठहरता था , उसकी खिड़की में जहाँ कुलर रखा था ,वहीं एक सुराख था। और उस रात उसी से उसने यह कैसा घिनौना दृश्य देखा था ! बिस्तर पर बेसुध पड़ी वह बच्ची और उसके मुख में मदिरा उड़ेलता बाबा ! अरे ! अब यह क्या ? छी-छी ! धूर्त बूढ़े ने अपनी पिपासा शांत करने का यह कैसा माध्यम बनाया है ..! राम ! राम!! कमीना कहीं का..। क्रोध से भरे मैनेजर की ललकार सुनते ही अन्य कर्मचारी दौड़ पड़े, फिर क्या था, दरवाजा खुलवा ढोगी बाबा की लात-घूंसे से खातिरदारी शुरू हो गयी। और जब उसने देखा कि प्राणरक्षा केलिए कोई उपाय शेष नहीं है ,तब बाबा के चोंगे से शैतान बाहर आ गया। पुलिस ने भी बताया कि बाबा ने अपराध स्वीकार कर लिया है कि वह बच्ची के साथ कुकृत्य किया करता था। थानेदार का बयान आते ही बाबा का वह भक्त चुपचाप खिसक लेता है और तमाशाई मैनेजर की वाहवाही करते हुये अपने रास्त..। यह घटना पिछले दिनों बातों ही बातों में मैनेजर ने जब मुझे बतायी, तभी से मैं इस चिंतन में खोया हूँ कि शारीरिक रूप से असमर्थ और विवेकशील होकर भी बाबा ऐसा घृणित कर्म करने को विवश क्यों था ? यह कैसी पिपासा है..!!! मैं तो अब तक यह समझता रहा हूँ कि पिपासा तृप्त होने की वस्तु नहीं है । यह संवेदनशील मानव हृदय की वह आग है, जिसे पानी की नहीं घृत की आवश्यकता है, जिससे यह और भड़के । तब तक भड़के जब तक मनुष्य बुद्ध न हो जाए; क्योंकि मानव जीवन एक पिपासा ही तो है। शिशु के जन्म के साथ ही जैसे ही उसे ज्ञान का बोध होता है , उसकी पिपासा अपना कार्य करने लगती है। किन्तु ज्ञान पिपासा, प्रेम पिपासा ही नहीं , काम पिपासा भी तो है और यही तृष्णा हमारे सारे सद्कर्मों का क्षण भर में भक्षण कर लेती है। अतः तृष्णा हमारे दुख का कारण है। शरीर के लिए आवश्यक वस्तुओं के उपभोग को तृष्णा नहीं कहते हैं । जब वस्तुओं की लालसा बढ़ने लगती है , तो यह मनुष्य के जीवन में विषय वासना उत्पन्न कर उसे पथभ्रष्ट कर देती है। हाँ, रक्त पिपासुओं ने भी मानवता को कम आघात नहीं पहुँचाया है। -व्याकुल पथिक
जीवन की पाठशाला से ******************* नज़रों में न हो दुनिया तेरी हौसले को गिराते क्यों हो यादों के दीये जलाओ मगर रोशनी से मुंह छिपाते क्यों हो तेरी नज़्मों में अश्क हो गर ग़ैरों को ज़ख्म दिखाते क्यों हो इंसानों की नहीं ये बस्ती है मुर्दों को जगाते क्यों हो तेरी क़िस्मत में मंज़िल नहीं दोस्ती को आजमाते क्यों हो है सफर में अभी मोड़ कई पथिक ! राह भुलाते क्यों हो वक्त के साथ यूँ बढ़ते चलो ग़म को प्यार जताते क्यों हो जो न हुये थे कभी अपने दिल उनपे लुटाते क्यों हो - व्याकुल पथिक
कांटों पे खिलने की चाहत थी तुझमें, राह जैसी भी रही हो चला करते थे । न मिली मंज़िल ,हर मोड़ पर फिरभी अपनी पहचान तुम बनाया करते थे। है विकल क्यों ये हृदय अब बोल तेरा दर्द ऐसा नहीं कोई जिसे तुमने न सहा। ज़ख्म जो भी मिले इस जग से तुझे समझ,ये पाठशाला है तेरे जीवन की। शुक्रिया कह उसे ,जिसने ये दर्द दिये तेरी संवेदना सुंगध बन,जो महकती है। पहचान उन्हें भी जो न थें अपने कभी ग़ैर हैं जो उनके लिये,न रोया करते हैं। करे उपहास-तिरस्कार न हो फ़र्क़ तुझे इस सफर में मुसाफिर तो चला करते हैं। माँ को ढ़ूँढो नहीं इस तरह पगले उनमें तेरी आँसुओं पे वाह-वाह किया करते हैं। न तू अपराध है न पाप फिर से सुन ले कहने दे गुनाह, दोस्ती को न समझते हैं। तेरी बगिया नहीं वीरान है फूल खिले तेरे कर्मों की पहचान,ये दुआ करते हैं बात ऐसी भी न कर ये राही खुद से जीत की बाजी यूँ न गंवाया करते हैं । है चिर विधुर तू, न तेरा कोई पर्व यहाँ विधाता की नियत पे,नहीं शक करते हैं। - व्याकुल पथिक
************************ और हृदय को दहलाने वाली वह आवाज आज फिर मैंने सुनी। ऐसी करुण पुकार सुन मुझे ग्लानि होती है कि मैं इनकी रक्षा केलिए कुछ भी नहीं कर पाता हूँ... ************************ नववर्ष के प्रथम दिन सुबह होते ही यह सुनने को मिला कि ईसाई हो या हिन्दू.. ! मैंने सोचा , चलो अच्छा हुआ कि किसी ने मुसलमान तो नहीं कहा और कह भी देता तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता मुझपर, जब हम यही मानते हैं कि सबका मालिक एक है, तो फिर मजहब को लेकर यह बखेड़ा क्यों ? मुझे नहीं पता ऐसे व्यर्थ के खुचड़ निकालने वाले लोग अपने सारे कार्य क्या हिन्दी पंचांग से करते हैं ? हिन्दी महीने और तिथियों की इनमें से कितने को जानकारी है ।भारतीय पंचांग के अनुसार संवत, नक्षत्र, तिथि, दिन, घटी, दण्ड, पल, मुहूर्त आदि के संदर्भ में आप इनसे प्रश्न करके देख लें। वैसे, मेरा भी यही मत है कि अपनी संस्कृति, संस्कार, पर्व और भाषा का संरक्षण करना चाहिए, परंतु इसतरह से शोर मचा कर उन्माद फैलाने वालों से मुझे घृणा है। वाराणसी के दंगाग्रस्त क्षेत्रों में मेरा बचपन गुजरा है और कर्फ्यू लगने पर किस तरह की कठिनाइयों का सामना हमें करना पड़ा, उसे ये क्या समझ सकेंगे ? अतः मैंने सभी मित्रों एवं शुभचिंतकों को नववर्ष की पूर्व संध्या पर यह शुभकामना संदेश प्रेषित किया-"वैमनस्यता से दूर हम सभी अपने हृदय को सद्भाव रुपी जवाहरात से भरे, मानसिक, आध्यात्मिक एवं शारीरिक उन्नति करें, ऐसी कामना नववर्ष की पूर्व संध्या पर करता हूँ।" हम हिन्दीभाषी सच पूछे तो परिस्थितिजन्य कारणों से दो नावों की सवारी के आदती हो गये हैं और हमारे पास अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति एवं संस्कार का विपुल भण्डार होकर भी ऐसा क्यों लगता है कि अपना कुछ भी नहीं है ! खैर, अपनी दिनचर्या के अनुरूप प्रतिष्ठित ब्लॉग पर टिप्पणी संग शुभकामना संदेश देने के पश्चात मैं पौने पाँच बजे सुबह होटल राही की चौथी मंजिल से जैसे ही नीचे उतरा , मुख्यद्वार पर सामने ही आलिंगनबद्ध बंदरों की टोली मिल गयी। इस ठंड के मौसम में यह सुखद आलिंगन उन्हें उष्मा प्रदान कर रहा था। सत्य तो यही है कि आलिंगन ही सृष्टि का वह अनमोल उपहार है ,जो न सिर्फ सृजन करता है, वरन् प्रत्येक प्राणी को स्नेह और प्रेम से सराबोर कर जीवन को सार्थकता प्रदान करता है। अभी कुछ आगे बढ़ा ही था कि मुकेरी बाजार तिराहे पर गोवंशों पर दृष्टि टिक गयी। ये सभी बिल्कुल शांत बैठे हुये थें। उनमें न काले,गोरे और चितकबरे होने को लेकर मतभेद था, न ही भूमि के स्वामित्व केलिए संघर्ष। काश ! हम मनुष्य भी इनसे कुछ सीख पाते। मैं आज अपने चिंतन को बिल्कुल भी विराम नहीं देना चाहता था। चिंतन, अध्ययन और लेखन ये तीनों ही अवसाद से हमें दूर रखते हैं। हम इनमें जितना डूबेंगे ,हमारे विचारों में उतनी ही अधिक उर्जा संचित होगी। सो, मार्ग में जो भी मिल रहा था,उसपर निरंतर विचार किये जा रहा था। भले ही बुद्ध न बन सकूँ, फिर भी शुद्ध तो हो ही सकता हूँ। इतने में कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई पड़ती है। मैंने देखा एक कुत्ता दुम दबाये भागा जा रहा था और चार-पाँच कुत्ते उसे घेरे हुये थे। मैं समझ गया कि पहले वाले कुत्ते ने अनाधिकृत रूप से इन पाँचों के इलाके में जाने-अनजाने में घुसने का दुस्साहस किया है। अतः स्वजातीय होकर भी उसपर तनिक भी रहम वे पाँचों नहीं कर रहे थे। इनका व्यवहार कुछ ऐसा ही है, जैसा दो शत्रु राष्ट्रों की सीमा पर घुसपैठ को लेकर हम इंसानों का। इसीबीच प्रातः भ्रमण पर निकले कुछ बच्चों ने इनपर ईंट-पत्थर चला दिया। फिर क्या था, पें- पें करते ये सभी वहाँ से भाग खड़े हुये और भूमि वहीं की वहीं रह गयी। मुझे स्मरण हो आया कि अपने कबीर बाबा ने यही तो कहा है - " ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन । " न जाने क्या हो गया था आज सुबह से ही मुझे कि जो भी प्राणी सामने दिखा , मैं उसकी क्रियाकलापों को अपने " जीवन की पाठशाला " का एक अध्याय समझता गया । हाँ तो , इसी क्रम में गणेशगंज में नाली के समीप शिकार (चूहा) की प्रतीक्षा में बैठी बिल्ली मौसी दिख गयी। बिल्कुल कान खड़ा कर अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित किये हुये , साथ ही अपने शत्रु ( कुत्ता ) के आहट से भी सतर्क थी वह। यह आवश्यक नहीं है कि उसे इस तप का फल(चूहा) मिल ही जाए , परंतु प्रतिदिन सुबह मैं इन बिल्लियों को नगर के विभिन्न गलियों और सड़क किनारे बनीं नालियों के समीप शिकार पकड़ने केलिए प्रयत्न करते देखता हूँ। यह देख मैंने स्वयं से पूछा - " बंधु ! क्या तुमने भी कभी लक्ष्य प्राप्ति केलिए इतना कठोर अभ्यास किया है ? यदि नहीं तो फिर फल न मिलने पर इतने विकल क्यों हो । " और आगे वासलीगंज में मैंने क्या देखा वह भी बता दूँ ? मैंने देखा एक कुतिया अपने बच्चों को दूध पिला रही थी और समीप ही एक पिल्ला मृत पड़ा था। मैं समझ गया कि वह ठंड नहीं सह सका है। यहाँ भी दो बातें सीखने को मुझे मिलीं। पहला तो यह कि प्रकृति (परिस्थिति) के अनुरूप स्वयं को ढाल लेने का सामर्थ्य हममें होना चाहिए अन्यथा इसी पिल्ले की तरह मृत्यु (अवसाद ) को प्राप्त होंगे और दूसरा उस कुतिया कि तरह जिसे अपने मृत बच्चे के प्रति तनिक मोह नहीं था, उसका कर्तव्य तो बचे हुये बच्चों की देखभाल करना है। मनुष्य यदि मृत अतीत को गले लगा कर बैठा रहेगा, तब वह वर्तमान का पोषण किस प्रकार करेगा ? और हृदय को दहलाने वाली वह आवाज आज फिर मैंने सुनी। ऐसी करुण पुकार सुन मुझे ग्लानि होती है कि मैं इनकी रक्षा केलिए कुछ भी नहीं कर पाता हूँ। मुझे ऐसा महसूस होता है कि सम्भवतः कत्ल से पूर्व रुदन करते हुए पशु-पक्षी अपने पालक से यह पूछते हो कि कलतक जिन हाथों ने उन्हें स्नेह भरा स्पर्श और दाना-पानी दिया , आज उसमें छूरा क्यों है? क्या कसूर है उनका ? क्या उन्होंने अपने पालक से किसी प्रकार का विश्वासघात किया अथवा उनके आचरण में ऐसा कोई परिवर्तन आया ? बिना अपराध बताए किस कारण उन्हें सजा-ए- मौत मिल रही है ? मैंने देखा कि नये साल पर इनके गोश्त की मांग बढ़ गयी थी और वधिक इन निरीह प्राणियों के गर्दन पर दनादन छूरा चलाये जा रहा था। उसके हृदय में इतनी कोमलता नहीं थी कि वह मृत्युपूर्व इनकी इस आखिरी इच्छा का समाधान करता। हाँ , इन निरीह प्राणियों की चीत्कार पर मुझे वेदना भी हुई और उनकी मूढता पर तरस भी आया। मैंने लगभग डपटते हुये उनसे कहा_ " अरे मूर्खों ! यह जल्लाद तुझपे क्यों मुरौवत करेगा । मुझसे सुन , ऐसे पालक के प्रति यह "अति विश्वास" है न जो , वहीं तेरी सबसे बड़ी भूल है। बावले , इस झूठे जगत में कोई अपना नहीं होता। जो चतुर हैं,वे अपने मनोविनोद अथवा आर्थिक हित में हमजैसे भावुक प्राणियों का गर्दन हो या हृदय , छूरा घोंपने में तनिक न संकोच करते हैं । व्यर्थ वफादारी की शपथें ले और अश्रुपात न कर , मत फड़फड़ा , शांत हो जा सदैव केलिए शांत..! ये तमाशबीन भी तेरी मदद नहीं करेंगे। अरे पगले , ये तेरे गोश्त के ग्राहक हैं, स्नेहीजन नहीं निष्ठुर और कपटी हैं। ये तेरे मांस को अपनी निगाहों से तोल रहे हैं । तूने क्या सोचा की वे तेरे मित्र हैं ! फिर न कहना इन्हें दोस्त । मैं जानता हूँ तेरे पास वक्त कम है, परंतु यह भी सुनता जा , कुर्बान होने से पहले यह संकल्प ले कि पुनर्जन्म होने पर ध्येय के प्रति अपना विश्वास ,अपनी निष्ठा सौंपते समय सजग रहेगा । " यूँ समझ लें- " जीवन की पाठशाला" में इस कठोर सत्य की अनुभूति आभासी दुनिया से हुई है। और आपसभी कहा चलें जनाब ! तनिक ठहरे !! संक्षिप्त में ही तो नववर्ष के प्रथम दिन का आँखों देखा हाल बयां कर रहा हूँ। क्या पता मेरी फालतू बातों में कुछ आपके मतलब की भी निकल जाए। जब सड़कों को नापता वापस लौटा तो देखा कि मेरे एक बुजुर्ग मित्र बेहद उदास थे । उनकी जीवनसंगिनी का कुछ दिनों पूर्व निधन जो हुआ था । भरापूरा परिवार है। परंतु नववर्ष की सुबह का जलपान किये घर से निकले क्या थे कि फिर दोपहर भोजन पर घर जाने की इच्छा ही नहीं हुई। काफी कुरेदने पर उन्होंने लम्बी सांस भर बुझे मन से कहा -- "वो (पत्नी) होती तो कितनी ही बार फोन आ गया होता, अब कौन ?" मैं उनका दर्द समझ सकता हूँ। नववर्ष पर मेरे लिए भी कहीं से टिफिन नहीं आता है । दूध, दलिया और ब्रेड यही अपने रसोईघर का साथी है। सो,जो था उसे ग्रहण किया और न्यूरोलॉजिस्ट द्वारा लिखी दवाइयों को ली और फिर रात्रि के दस बजते- बजते निंद्रा देवी के आगोश में समा गया । सत्य तो यह भी है कि मैंने भावनाओं की दुनिया से दूर खुली आँखों से इंसान को पहचानना नहीं सीखा है, अन्यथा मित्रता का आघात नहीं सहता। हाँ , नववर्ष पर मेरा उत्साह बढ़ाया दर्शन, साहित्य एवं अध्यात्म में हस्तक्षेप रखने वाले एसपी सिटी श्री प्रकाश स्वरूप पांडेय ने, जिन्होंने मेरे ब्लॉग की सराहना की और पुलिस अधीक्षक डा0 धर्मवीर सिंह से पत्रकार से इतर एक संवेदनशील लेखक के रूप में मेरा परिचय करवाया। यह मेरे लिए बड़ी बात थी। इस अवसर पर उनके द्वारा दी गयी गीता-दैनन्दिनी संग कलम और पुष्प नववर्ष पर एक ब्लॉगर के रूप में मेरे लिए अबतक का सबसे श्रेष्ठ उपहार रहा। हाँ, एक बात और कहना चाहूँगा कि वेदना ने मुझे वह संवेदना दी, जिससे मैं औरों के दर्द को समझ पा रहा हूँ । साहित्यिक भाषा का ज्ञाता न होकर भी मैं उनकी पीड़ा को शब्द देने की कोशिश करता हूँ। वैसे, मैंने कोई नया संकल्प इस वर्ष नहीं लिया । नेताओं-सा वायदों की झड़ी लगानी मुझे नहीं आती,अभी तो पुराने काम ही अधूरे थें कि स्नेह की दो बूँद की ललक में कष्टदायी अंधकूप में जा फिसला था । कैसी विचित्र दुनिया है यह , जहाँ विशुद्ध प्रेम को भी धूर्तता समझते है लोग.. !!! - व्याकुल पथिक