मानव जीवन की वेदनाओं को समेटी हुईंं मेरी रचनाएँ अनुभूतियों पर आधारित हैं। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है । यह दुःख ही जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है,सबको परखता है।अतः पथिक को जीवन की इस धूप-छाँव से क्या घबड़ाना, हँसते-हँसते सह लो सब ।
क्यों कैक्टस बना ? ******* मरुस्थल में पला काँटों से बना कैक्टस-सा बढ़ा औषधि से हूँ भरा। पतझड़ में रहा अड़ा वैसे ही अचल खड़ा वक़्त जैसा भी रहा रंग मेरा सम रहा । सही प्यास उर की तपिस से नहीं डरा हर सांस लड़ता रहा ज़िंदा पर मैं रहा । दुष्काल जब पड़ा आहार तब मैं बना फिर ऐसा क्या हुआ ? बेगानों में था खड़ा । झूठा-सा सबकों लगा आँखों में उनकी गड़ा छल अपनों का सहा क्यों मैं कैक्टस बना ? फूल मुझपे भी रहा लाल रक्त-सा खिला बागवां न कोई मिला संघर्ष क्यों व्यर्थ गया ? उपकार से रहा भरा सबकी बुराई को हरा दुत्कार फिर भी सहा अभिनंदन से दूर रहा ? दाना-पानी के बिना भूरे वन में रहा हरा जिजीविषा येही मेरी एक सुंदर सच रहा..!!! - व्याकुल पथिक
मेहंदी के रंग.. ------------ केश कटाने के बाद उसपर सफेदी कुछ अधिक ही झलक रही थी। सो, वर्षों बाद प्रफुल्ल ने स्वयं अपने हाथों से मेहंदी लगा ली .. । दर्पण में इन चमकीले बालों को देख एक फीकी मुस्कान संग वह स्वयं में खो गया था कि तभी किसी ने पुकारा ..। वो हैंडसम ! ..आज तो बड़े स्मार्ट दिख रहे हो .. कहीं कोई ..?
अरे ! ये किसने टोका..सकुचा सा गया था प्रफुल्ल ..। मानों चोरी पकड़ी गयी हो। वह पलट कर देखता है , परंतु कोई तो न था वहाँ.. जो अपने थे , वे कब के उसे छोड़ चले ..। उफ ! ये स्मृतियाँ भी न..। फिर से उसका मन कसैला हो उठा था। वही भूली बिसरी यादें टीस बन उसके हृदय को कुतरने लगी थीं..। ये हिना भी कैसे रंग बदलती है.. । बचपन में तीज- करवाचौथ पर्व पर वह अपनी माँ के दाहिने हाथ पर मेंहदी रचता था..तो उसे ढेरों आशीष मिलता था ..। उस समय कोई ब्यूटीपार्लर था नहीं । घर में और कोई महिला भी नहीं थी। अतः माँ के दाँए हाथ का सूनापन उसकी ही चित्रकारी से दूर होता था.. खुश होकर वो कहतीं कि तेरी दुल्हनिया तो सिर-आँखों पर तुझे बैठा कर रखेगी। पर मम्मी आपको पापा क्यों नहीं मेंहदी लगा देते हैं ? उस दिन तो रामायण पढ़ते समय आप कह रही थीं कि वन में भगवान राम ने माता सीता का पुष्पों से श्रृंगार किया था..। उसकी पेंचीदगी भरे ऐसे सवालों का भला क्या जवाब देतीं वे भी ? बस इतना कहती थीं --चल हट यहाँ से -- सब तेरे जैसे नहीं हैं । प्रफुल्ल की कोशिश यही होती थी कि वह अपनों को प्रसन्न रखे। स्नेह भरे संबंधों पर कृत्रिमता का रंग न चढ़ने पाए और वह बिल्कुल हिना के रंग की तरह सुर्ख हो..। लेकिन, बचपन में हथेली पर रची मेहंदी के चटख रंग के मामले में बाजी उसके बहन-भाई के हाथ लगती थी । यह देख उसका मन डूबने लगता था .. क्यों कि घर की महिलाओं को उसने यह कहते सुना था कि जिसके हाथों पर मेंहदी खिलती नहीं, उसे प्रेम करने वाला जीवनसाथी नहीं मिलता..। उस जमाने में दाम्पत्य जीवन में प्रीति की यह मेहंदी भी एक परीक्षा जैसी ही थी..। और समय के साथ उसकी आशंका सत्य में परिवर्तित होती गयी। जैसे-जैसे मेहंदी का रंग कृत्रित होता गया..उसके वे सभी अपने जो उसे औरों से अलग बताते थे .. उसे बुरे इंसान का खिताब दे चलते बने..। काश ! उसे भी बाजारों में मिलने वाली मिलावटी, बनावटी और सजावटी मेहंदी की तरह दो-चार दिनों में ही रंग बदलना आ गया होता.. परंतु उसे तो उस उपवन की सुंगधित मेहंदी की चाह थी , जहाँ वह अपनी दादी संग जाया करता था.. वह हिना जो एक बार हाथों पर चढ़ जाती , तो उसकी लालिमा उतरती न हो .. । हाँ, इसके लिए सिल-बट्टे पर अपने स्नेह भरे हाथों से उसे रगड़ना पड़ता था..। प्रफुल्ल ने भी अपने ऐसे संबंधों को इसी प्रेम भाव से संभालना चाहा था..। लेकिन, वह भूल गया कि यह कृत्रित मेहंदी का युग है..। " यूज एंड थ्रो ..! ओह ! तभी उसे भी ऐसा ही समझा गया ..। " - भारी मन से कुछ ऐसा ही बुदबुदाते हुये प्रफुल्ल बिस्तर पर जा गिरता है । रात होते-होते उसका सिर भारी हो गया । पेट में ऐंठन होने लगी । बुखार से शरीर तपने लगा था । वह समझ गया कि वर्षों बाद मेहंदी का स्पर्श उस पर पुनः भारी पड़ा है..। हाँ , पहले यह हिना उसके मन को छलती थी,..किन्तु इसबार उसके दुर्बल तन से भी उसने भरपूर वैर निकाल लिया ..। उसकी( प्रफुल्ल) खुशियों से उसे इतनी घृणा क्यों है.. ? फिर क्यों वह ही मेहंदी को मान दे। बाजार में उसके लिए कृत्रिम रंगों की क्या कोई कमी है..? तो क्या वह भी औरों की तरह हो जाए..भावुक व्यक्ति के अंतर्मन का यह द्वंद भी कैसा विचित्र है !! - व्याकुल पथिक
" हमारे पास इतनी सकारत्मक उर्जा है कि वह आपकी नकारात्मकता दूर कर देगी .. । " एक भद्र महिला का मैसेज देख सुधीर पशोपेश में पड़ गया ..। उसे तनिक भी लालसा नहीं थी कि वह किसी स्त्री से बात करे.. पहले से मिली चोट पर नश्तर रखना कितनी बुद्धिमानी है ? उसका हृदय गवाही नहीं दे रहा था..। सो, उसने सामान्य शिष्टाचार का प्रदर्शन कर संवाद समाप्त करने का प्रयत्न किया..। और एक दिन फिर संदेश आया - " लगता है कि आपको हमसे वार्तालाप में कोई रुचि नहीं है, हम ही व्यर्थ में ये लालसा रखते हैं..।" इस बार उस स्वर में ऐसी आत्मीयता थी कि सुधीर की आँखें भर आयी थीं..। उसे रुँधे गले से कहा -- " नहीं-नहीं , ऐसा न कहे, बस डरता हूँ --सच्चे इंसान कम हैं दुनिया में ।" " परंतु मैं तो वैसी नहीं हूँ । विश्वास करें और मुझे अपना अच्छा मित्र समझें ..। " मधुरिमा की शहद घुली वाणी से सुधीर के नेत्रों में अश्रुधारा बह चली.. । कुछ ही दिनों में मधुरिमा उसके अभिभावक की भूमिका में थी। ऐसा वह स्वयं भी कहती थी । अतः वह आज्ञाकारी बालक की तरह सिर झुकाए उसकी डांट को भी स्नेह का उपहार समझता । और हाँ, समय का मारा सुधीर मधुरिमा की तनिक सी नराजगी पर अधीर हो उठता था। उसके भय पर मुस्कुराते हुये वह महिला मित्र विश्वास दिलाती - " क्यों व्यर्थ में डरते हो। मैं स्वतः ही आप से बात कर रही हूँ न और यह जानती हूँ कि अन्य पुरुषों से आप अलग हो और मुझे आपसे कभी कोई परेशानी नहीं होगी..। " उसका कहना था कि शुभचिंतक सदैव साथ रहते हैं और जो अपने नहीं हैं , वे साथ छोड़ने पर पलट कर देखते तक नहीं । मेरे शुद्ध स्नेह पर विश्वास करो, यह औपचारिकता मात्र नहीं है.. । सुधीर जब कभी मोबाइल पर वार्ता के दौरान उसके बच्चों को मम्मी -मम्मी पुकारते सुनता, उसे भी अपनी माँ के छाँव का एहसास होता । वह अपने नये अभिभावक से खुश था .. बहुत खुश । और एक दिन ..सुधीर अस्पताल में पड़ा था। अन्य मरीजों के तीमारदारों को देख उसका मन भी पवित्र स्नेह के दो शब्द के लिए न जाने क्यों मचल उठा..। फिर क्या , विश्वास का यह डोर कच्चे धागे से कमजोर निकली .. सुधीर अपना अपराध पूछता रह गया था..। और एक दिन फोन पर क्रोधित मधुरिमा ने उसे धिक्कारते हुये कहा - " मुझे अपनी प्रेमिका समझ लिया था ? तुम तो बिल्कुल वैसे नहीं हो ।" " हे ईश्वर ! संदेह का यह कैसा भँवरजाल ? क्या इसे ही विश्वास कहते हैं ? " - काँप उठा था सुधीर का अंतर्मन । उसके भावुक हृदय ने दुनियादारी जो नहीं सीख रखी थी ,परंतु हाँ इतना अवश्य जानता है कि विश्वास किसे कहते हैं..। अतः वह ★ विश्वास ★ जो मित्रता के समय उसके प्रति मधुरिमा को था , उसे कायम रखने के लिए सुधीर ने अपनी वेदना पर प्रतिशोध के भाव को कभी भी भारी नहीं पड़ने दिया..। पर जब इस तिरस्कार की पीड़ा असहनीय होती है, तो अपने दिल को समझाने के लिए यूँ गुनगुनाता है - दुनिया ने कितना समझाया कौन है अपना कौन पराया फिर भी दिल की चोट छुपा कर हमने आपका दिल बहलाया..। - व्याकुल पथिक
जीवन की पाठशाला से ******************** प्रेम दिवस ( वैलेंटाइन डे ) का आकर्षण इस छोटे से शहर में भी है। भँवरों का झुंड पराग की चाह में फूलों पर यूँ मडरा रहा है, मानों प्रणय के लिए कामदेव ने रति का आह्वान किया हो। बसंत की इस मादकता में कंचन एवं काँच की पहचान करना युवावर्ग के लिए जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा है। परंतु ये कलियाँ क्यों इठला रही हैं, अभी तो परिपक्व भी नहीं हुई हैं , फिर प्रेम और वासना में भिन्नता को कैसे समझेंगी ? सत्य तो यह है कि प्रेम का संबंध आत्मा से है न कि प्रकृति से। प्रकृति से जुड़े जीतने भी संबंध हैं , वह वासना है और प्रकृति तो परिवर्तनशील है, ऐसे में बाह्य संबंध किस तरह से स्थायी होंगे। जरा विचार करें आप भी। वहीं, आत्मा अमर है, इसलिए जब हम ईश्वर को अपना प्रेम समर्पित करते हैं, तो उसमें निरंतर वृद्धि होती है और अंततः मीरा अपने आराध्य कृष्ण में समाहित हो जाती है , क्यों कि प्रेम में जयपराजय नहीं होती है। यहाँ दो का भेद नष्ट कर एकाकार हो जाता है। परंतु हम ऐसे कृत्रिम जीवन के अभ्यस्त हो गये हैं कि सहज प्रेम के निर्मल भाव को समझ ही नहीं पाते हैं। पर मुझे क्या , जब ये कलिया असमय ही पराग एवं अनुराग से वंचित हो जाएँगी , तब स्वतः ही इश्क की खुमारी उतर जाएगी, नहीं आएगा इनके समीप फिर कोई भँवरा। पास न आते भँवरे जिन फूलों के पास पराग नहीं मिलन व्यर्थ है छलक सके जो आँखों से अनुराग नहीं... ' महावीर प्रसाद ' मधुप ' की यह कविता संभवतः इन्होंने नहीं पढ़ी है । पत्रकार होने के कारण कुछ अधिक ही चिंतनशील हो गया हूँ। और तभी यह गंभीर वाणी सुनाई पड़ती है - " पर उपदेश कुशल बहुतेरे..." अरे ! ऐसा किसने कहा मुझसे , मैं तो इस स्नेह लोक का प्राणी नहीं रहा अब .. ? " मूर्ख ! ये तो तुम्हारे गुरुदेव हैं। पहचना नहीं क्या इन्हें। " -अंतर्मन के इस फटकार पर मैं चैतन्य हो गया था । हाँ, साक्षात गुरु महाराज ही तो हैं ये। वैसा ही श्वेत वस्त्र , केश रहित विशाल ललाट, मुखमंडल पर अद्भुत तेज एवं मंद-मंद मुस्कान ..। प्रश्न उनका वही था -- लगभग तीन दशक पूर्व ' पराग और अनुराग ' के लिए तुमने मेरा आश्रम क्यों त्यागा था। क्या तेरी यह खोज पूरी हुई ? सत्य तो यही है कि मैंने जिस अनुराग के लिए आश्रम त्यागा था , उस लौकिक स्नेह के लिए जीवनपर्यन्त भटकता रह गया । जहाँ अनुराग ही न हो , वहाँ परागण ( पुष्प में परागकण का नर भाग से मादा भाग में स्थानांतरण ) क्या सम्भव है ? अतः परागकण की कामना निर्रथक रह गयी। काशी में वह लघु आश्रम जीवन मेरी जिंदगी का एक ऐसा सुखद पड़ाव रहा है, जिसकी स्मृति मात्र से हृदय में पवित्रता , निश्छलता एवं निर्लिप्तता जैसे सकरात्मक भावों का संचार होने लगता है, चाहे वह क्षणिक ही क्यों न हो। महापुरुषों की संगत एवं उनकी वाणी में ऐसा कौन सा ' पराग ' होता है , जो हमें अपरिष्कृत लौह से फौलाद ( इस्पात ) बना देता है ,यह तत्काल समझ में नहीं आता है। इसके लिए तपना होता है। गुरु के प्रति समर्पण और विश्वास होना चाहिए । जिसप्रकार गोस्वामी तुलसीदास को रहा- बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा । अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू ।। ( मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है) अन्यथा गुरु की कृपा शिष्य को नहीं मिलती है। जब मैं प्रस्थान कर रहा था ,तो गुरु ने भी मुझे नहीं रोका। हाँ ,यह कह सजग अवश्य किया था कि माया का बंधन अत्यंत प्रबल होता है, अनुराग और पराग के पीछे मत भाग । हमें यह सदैव याद रखना चाहिए कि सद्गुरु कम बोलते हैं और जब भी बोलते हैं ,तो उसमें शिष्य का हित निहित होता है। हम किसी भी संत-महात्मा की शरण में जाए , तो उनकी वाणी को आत्मसात करने करने का प्रयत्न करे, यहाँ तर्क को प्रधानता न दिया जाए। सेवा, आज्ञापालन एवं संग ये तीन गुण हममें होना चाहिए। जो उपदेश उन्होंने दिया उसका अनुसरण करना चाहिए । ऐसा न करने के कारण ही मैं ' गुरु पद पदुम पराग ' से वंचित रह गया।और अब मुझे यह दृढ़ विश्वास है कि गुरु के पास वह दिव्य दृष्टि होती है , जिससे वे शिष्य के भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों से अवगत होते हैं। अतः मेरी अभिलाषा है कि मैं एक बार अवश्य अपने आश्रम स्थल पर जाऊँ और उस चबूतरे को जहाँ गुरुदेव का निवास था , नमन कर आऊँ। धर्मशास्त्रों में ऐसा वर्णन है कि तपोस्थली पर सदैव ऊर्जा प्रभावित होती है। सम्भव है कि वह रज ( पराग) मेरे विकल हृदय में उस नवपुष्प का सृजन करे , जिसमें मानवता की सुगंध हो और जिस अनुराग से मैं वंचित रह गया , उसकी प्राप्ति हो जाए। परंतु इसके लिए हमारा कर्म एवं उद्देश्य भी महान होना चाहिए। - व्याकुल पथिक
प्रीति का ये कैसा रंग ..! --------------- " जान ! ये मेरा आखिरी वैलेंटाइन डे है।" मोबाइल पर बात करते हुये सोनाक्षी कुछ इसतरह रुआँसी हो गयी थी कि सुमित तड़प उठा था। उसने खुद को संभालते हुये कहा- " यूँ उदास न हो ,मेरे मनमंदिर में तुम सदैव रहोगी।" सोनाक्षी- " मैं तो अगले वर्ष बहुत दूर चली जाऊँगी, परंतु तुम..?" सुमित- " तुम्हारी ये तस्वीर है न..ताउम्र साथ निभाएगी .. । " सोनाक्षी- " तुम भी न जान , पागल कहीं के .. काश ! मैं हमेशा केलिए तुम्हारी हो पाती ..।" 【 ठीक एक वर्ष बाद पुनः वैलेंटाइन डे पर..】 उदास सुमित मन की थकान मिटाने एक कॉफी हाउस में इंट्री करता है। तभी उसकी निगाहें पीछे की कुर्सी पर बैठी बादामी रंग का शूट पहने एक युवती पर जा टिकती हैं । हाथ में कॉफी का कप लिये खिलखिला रही उस लड़की को वह फटी आँखों से देखते रह जाता है..। " अरे ! ये तो सोनाक्षी ही है। और साथ में यह युवक कौन है ? " " केशव के फोटो से तो इसकी शक्ल मिलती नहीं है.. फिर कौन है ? " जो दृश्य वहाँ देखा उसपर विश्वास नहीं कर पा रहा था सुमित..। और फिर अगले दिन हृदय के बोझ को कम करने केलिए वह सोनाक्षी को फोन करता है। " अच्छा- अच्छा , तो तुम हमारी जासूसी करने लगे हो..।"
( जीवन की पाठशाला से ) *************************** माना कि समय से पूर्व पंखुड़ियों में परिवर्तित हो गया हूँ , किन्तु इत्र (सुगंध) बनने की सम्भावना अभी समाप्त नहीं हुई है .. *************************** तमाशा चलता रहा और पंखुड़ी मुरझाती रही बेबस पड़ी ज़मीन पर पाँव तले कुचली जाती रही.. क्या " पंखुड़ी की यही नियति है ..? बचपन से ही भावुक प्रवृत्ति का होने से प्रियजनों का वियोग मेरे लिये असहनीय था और यह मेरी सबसे बड़ी दुर्बलता भी है। कोलकाता में बाबा द्वारा मंगाए गये वे पाँच गमले , जिसमें विभिन्न प्रजातियों के पौधे लगे थें, के संरक्षण ( धूप- छाँव से बचाव ) केलिए मैंने न जाने कितनी बार सीढ़ियों पर ऊपर-नीचे की होगी । इनमें खिले हुये गुलाब के फूलों को मैंने कभी नहीं तोड़ा। इन्हें देख हर्षित होता और जब इनकी पंखुड़िया झड़ने लगती ,तो बालमन प्रश्न करता मुझसे - " इनकी सेवा में तुझसे कहीं कोई कमी तो नहीं रह गयी । " आज जब प्रियजनों के सानिध्य से वंचित हूँ , तब भी मेरा प्रश्न वही है,जो उस बाल्यावस्था में था । क्या मेरे स्नेह में कोई कमी थी ? इस स्थिति केलिए दोषी कौन ? मैं और मेरा प्रारब्ध अथवा दोनों ही नहीं ? क्यों कि इस नश्वर जगत में ये जो लौकिक संबंध हैं, वे संयोग -वियोग पर आधारित हैं। मिलन तो एक ही सत्य है, ईश्वर एवं भक्त का -" तुम चंदन हम पानी।" पुनः मूल विषय पर आते हैं। कलिकाएँ जब पुष्प बनकर खिलती हैं ,तो उसपर तितली, मधुमक्खियाँ एवं भँवरे सभी मंडराते हैं , तदुपरान्त फूल मुरझाने लगता है, उसकी पंखुड़ियाँ झड़ने लगती हैं , उसका रंग- रूप बिखर जाता है, तब क्या होता है ? उस मुरझा रहे प्रसून की वेदना में सहयोगी बनना इनमें से किसी ने पसंद किया ? ऐसा ही मनुष्य का जीवन है,यदि वह संकट में है, तो संबंध निभाने वाले विरले ही मिलते हैं। हाँ, उससे मुक्ति पाने केलिए, उसकी किसी दुर्बलता को बड़ा अपराध बता तिरस्कृत करने वाले अनेक हैं। मुरझाई पंखुड़ियों के रुदन में किसी को रूचि नहीं होती है , साथ चाहिए तो हमें मुस्कुराते पुष्प सा दिखना होगा, परंतु कब तक ..? अधिक खिलखिलाने वाले भी अंदर से खोखले होते हैं, कृत्रिमता का आवरण स्थायी नहीं होता है। सत्य तो यही है कि यह जिंदगी हिस्सों में बिखरी हुई है। कली, फूल और उसकी पंखुड़ियाँ..यदि इन्हें प्रतीक समझ कर हम अपने सम्पूर्ण जीवन ( जन्म, यौवन ,जरा एवं मृत्यु ) पर दृष्टि डाले तो यही पाते है- " नानक दुखिया सब संसारा..। " विचार करें , जन्म एवं विवाह के वर्षगाँठ समारोह क्या हैं ? हर वर्ष मृत्यु की " पदचाप " की और निकटता से अनुभूति का उत्सव है यह .. । जन्म लेते ही हम निरंतर बिखराव की ओर बढ़ते जाते है। संबंधों की परिभाषाएँ तेजी से बदलती रहती हैं। यौवनावस्था में जब हम सर्व समर्थ होते हैं ,तो पुष्प के सदृश्य ही प्रियजनों से घिर जाते हैं। हमें अपने सामर्थ्य पर अहम होता है , फिर वह समय आता है जब वृद्धावस्था में चकाचौंध भरे संसार में इस सत्य का बोध होता है कि यह क्या , अपना तो कोई नहीं ! ऐसा भी लगता है कि हमारा जीवन अपनों केलिए बोझ बन गया है। दो शब्द स्नेह के सुनने की लालसा हमें उसी मुरझाए सुमन का पुनः स्मरण करवाती है, जिसके विश्वसनीय मित्र भँवरे, तितलियाँ एवं मधुमक्खियाँ सभी उसकी उपेक्षा कर चले जाते हैं। ' जनम जनम का साथ है ' यह कह, कसमें खाने वाले पति-पत्नी भी अंततः एक दूसरे से बिछुड़ जाते हैं , क्योंकि कली का अंत बिखरी पंखुड़ियों के रूप में होना ही शाश्वत सत्य है। यही सृष्टि का नियम है। हाँ , जब कभी परिस्थितिजन्य कारणों अथवा किसी के आघात से पुष्प लक्ष्य को प्राप्त किये बिना ही पंखुड़ियों में बिखर जाता है , तो उसका विकल हृदय चीत्कार कर उठता है- " न माला गुथी और फूल कुम्हला गया ? " यह ठोकर हमने क्यों खाई ? इस प्रश्न का उत्तर तलाशना तनिक कठिन है, क्यों कि इस दशा में किसी की सहानुभूति के दो शब्द हमें उसका निर्मल स्नेह समझ में आता है और इस धोखे में हम एक बार पुनः ठोकर खा बैठते हैं, जिंदगी तय समय से पूर्व पंखुड़ी बन बिखर जाती है । यद्यपि प्रत्येक मनुष्य सम्पूर्ण जीवन बिखराव को समेटते रहता है। ऐसा एहसास भी होता है कि वह सिमट रही है,परंतु ऐसा होता नहीं , फिर भी उसे समेटने की ललक उसे मंजिल तक पहुँचा देती है। बिखराव को समेटने केलिए ही हमारे धर्मशास्त्रों में जिन चार आश्रम की व्यवस्था है। इनमें से ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ के पश्चात जो वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम है,यह हमारे बिखराव को सही दिशा देन केलिए ही है। मेरे कहने का आशय यह है कि इन बिखरी पँखुड़ियों को सुंगधित इत्र में परिवर्तित करने में यदि पुष्प सफल रहा ,तो यही मानव जीवन की सार्थकता है। एक संदर्भ यह है कि एक अंग्रेज लेखक ने एक स्थान पर उल्लेख किया कि वह जब भी जन्म लेगा तो गोस्वामी तुलसीदास को जीवित पाएगा। उसके कथन का अभिप्राय क्या यह रहा कि सशरीर तुलसी बाबा उसे जीवित मिलेंगे, नहीं यह जो उनकी कृतियाँ है , उन्हें अमरता प्रदान किये है। बुद्ध, नानक, कबीर और गांधी भी तो अनश्वर हैं ? इनकी विचार तरंगें हमें आकर्षित करती रहेंगी । श्री सत्यनारायण भगवान की कथा में लीलावती और कलावती नामक दो पात्रों का वर्णन है। आशय यह है कि हम अपनी लीला का विस्तार कर उसे ऐसी कला में रूपांतरित कर दे , जिसमें हमारी पहचान निहित हो। यही " पंखुड़ी " की सार्थकता है। अध्यात्म की दृष्टि से " पाँखुरी " ऐसा आवरण है जो परागकण का संरक्षण करता है और नवजीवन प्रदान करता है। उसका यह समर्पण व्यर्थ नहीं जाता। इन्हीं से उत्पन्न नये पुष्पों को देख वह गुनगुनाता है- रहें न रहें हम महका करेंगे बन के कली बन के सबा बाग-ए-वफा में..। माना कि समय से पूर्व पंखुड़ियों में परिवर्तित हो गया हूँ , किन्तु इत्र ( सुगंध) बनने की सम्भावना अभी समाप्त नहीं हुई है । - व्याकुल पथिक
बड़े लोग *********** ( दृश्य -1) देर रात तक चले देवी जागरण में सम्मिलित भद्रजन भजन कम सेठ धर्मदास के अतिथि सत्कार का कीर्तन अधिक करते दिख रहे थे ..। एक दिन पहले हुये इकलौते बेटे की शादी में उसने दिल खोल कर धन लुटाया था.. मैरिज हॉल और होटलों की लाइटिंग से लेकर कैटरीन तक की व्यवस्था चकाचौंध करने वाली थी.. अतः तारीफ तो बनती थी..। " छप्पनभोग भी फीका समझे जनाब ..! कैसा अद्भुत दावत-भोज था .. ? " - एक ने लार टपकाते हुये मेवा युक्त व्यंजनों की बात क्या छेड़ी, कईयों ने सुर मिलाना शुरु कर दिया .. । " भाई जी ! छोड़ो आप भी न कहाँ भोजन पर आ अटके.. । यह बोलो न कि बरातियों को दिया गिफ्ट पैकेट क्या गजब का था ..। मेहमानों का ऐसा स्वागत हमने तो नहीं देखा.. ! " - दूसरे ने कहा..।
" यथा नाम तथा गुण ,जैसे छप्पर फाड़ के ऊपरवाले ने दिया है , उतना बड़ा कलेजा भी है, अपने धरमु भाई का ..।"
- तीसरे ने भी हामी भरते हुये कह दिया..। इन्हें अपनी तारीफ में कसीदे पढ़ते देख धर्मदास मंद-मंद मुस्कुराता है .. मेहमानों का अभिवादन करते हुये वह सपत्नीक मुख्य यजमान के रूप में माँ दुर्गा की प्रतिमा के समक्ष जा विराजा ..। आभूषणों से लकदक पति-पत्नी पर पुष्प वर्षा होती है और फिर देवी गीत -संगीत के साथ सभी थिरकने लगते हैं ...। ( दृश्य- 2 ) उधर, इस मेहमान नवाजी का सारा खर्च अपने बूढ़े कंधे पर लिए दुल्हन का पिता चुप्पी साधे इस तमाशे को देख रहा था..। ' थूक से सत्तू सानने वाले ' अपने समधी साहब की " वाह-वाह" से उसका कलेजा फटा जा रहा था ..। उसकी आँखों में अनेक प्रश्न थें , पर जुबां खामोश..। बिटिया की खुशी के खातिर उसने अपने औकात से बाहर जाकर सेठ धरमु के इस दरियादिली का सारा बोझ अपने सिर पर उठा रखा था, फिर भी उससे किसी ने यह नहीं पूछा - " कर्मचंद ! कैसे सहा तुमने घराती और बराती दोनों का इतना सारा खर्च। यह समाज भी कैसा विचित्र है .. दिल बड़ा तो लड़की के पिता का होता है , पर ढोल लड़के वालों का बजता है..। " धर्मदास के इस दिखावे से उसे कुढ़न हो रही थी..। और तभी किसी मेहमान ने उसके इस घाव पर यह कह नश्तर रख दिया- " अरे करमू भाई ! कहाँ खो गये हो । देखो तो कितने भाग्यवान हो तुम.. विशाल हृदयवाले धरमु बाबू के समधी जो बने हो..। राज करेगी .. राज , तुम्हारी बिटिया.. । " सत्य पर झूठ के इस आवरण से अंतर्नाद कर रहे कर्मदास के हृदय की यहाँ सुधि लेता भी कौन.. ? ( दृश्य -3 ) सुबह हो चुकी थी और मेहमानों का प्रस्थान भी.. धर्मदास अपनी पत्नी संग उपहार में मिले कीमती सामानों को अपनी कड़ी निगरानी में घर भेजने में व्यस्त था ..। तभी एक वृद्धा भिखमंगी अनाधिकृत रूप से भोजन कक्ष तक जा पहुँचती है.. अवशेष मिष्ठानों को देख उसकी रसना बेकाबू हो उठती है.. ।
" ये बाबू.. ! एक ठे रसगुल्ला ..! " - यह कह वह दुआएँ देती है..। और तभी जैसे ही उसने अल्युमिनियम का अपना कटोरा आगे बढ़ाया धर्मदास का असली चेहरा सामने आ जाता है..। वह क्रोध से भर नौकरों को आवाज लगाता है- " अरे रमुआ ! मर गया क्या .. ? यह अपशगुनी कहाँ से चली आई.. दफा कर इसे..। " सेठ की डांट सुन तीनों ही नौकर भागे आते हैं.. वे बुढ़िया का हाथ पकड़ उसे लगभग घसीटते हुये होटल के मुख्यद्वार पर ला पटकते हैं..। इतने पर भी उस वृद्धा की स्वादेन्द्रिय न जाने क्यों आज हठ ही कर बैठी थी.. बुढ़ापा होता ही ऐसा है..जब दीपक बुझने को होता है तो भभक उठता है..। वह होटल पर खड़े एक युवक से पुनः वही विनती करती है - " बबुआ ! एक ठे रसगुल्ला दिलवा देत ना ..।" अपने इच्छाओं के प्रवाह को रोक नहीं पा रही थी.. वृद्धा की मनोदशा देख उस युवक का मन पसीज गया और कहता है- " माई ! हम त ई होटल क नौकर हई..अउर सुन ई सेठ एक नंबर क कंजूस बा..इहा कुछ न मिले तोहे.. ई सब बड़े लोगन क झूठा माया बा । " यह सुन मन मसोस कर वृद्धा आगे को बढ़ती है, तभी जेब टटोलते हुये नौकर ने बड़ी आत्मियता से पुकार लगायी - " सुन मावा ! चल चाय पी लियल जाय..। " बुढ़िया की आँखें फिर से भर आती हैं..। अबकि उसकी दुआ में सच्चाई होती है- " बेटवा ! असली बड़ मनई त तू ही है..।" -व्याकुल पथिक