मानव जीवन की वेदनाओं को समेटी हुईंं मेरी रचनाएँ अनुभूतियों पर आधारित हैं। हृदय में जमा यही बूँद-बूँद दर्द मानव की मानसमणि है । यह दुःख ही जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है,सबको परखता है।अतः पथिक को जीवन की इस धूप-छाँव से क्या घबड़ाना, हँसते-हँसते सह लो सब ।
---------- मंशा चाहे जो भी हो, स्वार्थ अथवा निःस्वार्थ, परंतु विश्व बंधुत्व की जो परिकल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी,वह इस संकटकाल में साकार होती दिख रही है। कालाबाज़ारी करने वाले मुट्ठी भर व्यापारियों की बात छोड़ दे तो आज अपने इस शहर में जनसेवा का अद्भुत दृश्य देखने को मिल रहा है। चहुँओर से एक ही आव़ाज उठ रही है - " एक अकेला थक जाएगा, मिल कर बोझ उठाना..साथी हाथ बढ़ना..।" प्रशासन,राजनेता, समाजसेवी ,सम्पन्न एवं निर्धन वर्ग के वे लोग जिनमें तनिक भी मानवता है, धर्म और जातीय भावनाओं से ऊपर उठ कर मानव बनने का प्रयास कर रहे हैं। कोरोना जैसे महामारी ने हम मनुष्यों में वसुधैव कुटुंबकम् का भाव जागृत कर दिया है।
21दिनों के इस लॉकडाउन में हममें से अनेक लोग सामर्थ्य के अनुरूप अपने संचित धनराशि में से एक हिस्सा निर्बल ,असहाय और निर्धन लोगों की क्षुधा को शांत करने के लिए स्वेच्छा से दान कर रहे हैं। इस तरह के भावपूर्ण दृश्य मैंने अपनी पत्रकारिता की लम्बी यात्रा में पहले कभी नहीं देखा था। पुलिस -पब्लिक अन्नपूर्णा बैंक के माध्यम से कोई भी भूखा नहीं रहे , ऐसा प्रयत्न किया जा रहा है। मेरे पास भी कुछ लोगों को संदेश आया है कि वे भी इस सेवाभाव में सहयोगी होना चाहते हैं। अतः मैं भी अपने सभी व्हाट्सअप न्यूज़ ग्रुपों एवं फेसबुक के माध्यम से यह अनुरोध कर रहा हूँ- मित्रों, यदि अपने मीरजापुर में कहीं कोई भूखा व्यक्ति हो तो इसकी जानकारी नोडल अधिकारी को अवश्य दें। जनपद के किसी हिस्से में कोई भूखा न रहे इसका ध्यान रखने भोजन की व्यवस्था की जिम्मेदारी पुलिस थाना और चौकी प्रभारियों को सौंपी गयी है। इसके लिए पुलिस- पब्लिक अन्नपूर्णा बैक की स्थापना की गयी है। पुलिस लाइन को केन्द्र बनाने के साथ ही इसकी जिम्मेदारी नोडल अधिकारी संजय सिंह क्षेत्राधिकारी सदर को दी गई है। उनसे सम्पर्क और सहयोग के लिए मो0-9454401591 पर वार्ता किया जा सकता हैं। इस बैंक में खाद्य सामग्री, फल,सब्जी, दवाइयाँ, दूध और पानी आदि कोई भी संस्था अथवा व्यक्ति प्रदान कर सकता है। -जय हिन्द
कोराना वायरस के भय ने हमें इतना उदार बना दिया है कि हमारी सोयी हुई मानवता जागृत हो रही है। लॉकडाउन के तीसरे दिन मैंने यह पोस्ट किया था - " ऐसा लगा है कि मनुष्य का पाखंड देख कर ईश्वर ने स्वयं अपने घर ( मंदिर) के द्वार बंद कर लिये हो। मानों वह कह रहा हो , हे मानव! एकांत में रहकर प्रायश्चित करो। कम सुविधाओं में जीना सीखो। पर्यावरण को अपने द्वारा निर्मित नाना प्रकार के वाहनों ,विमानों और कल- कारखाने के माध्यम से प्रदूषण मत करो।" हाँ, एक कार्य हमें और करना होगा कि हमारे पास जो भी है उसमें से एक हिस्सा ग़रीबों को स्वेच्छा से पहुँचा दिया जाए, अन्यथा भूख से व्याकुल हो, यदि वे लॉकडाउन का उल्लंघन कर अपने घर से बाहर निकल गये , तो हमारा 21 दिनों का यह एकांत व्रत निष्फल होगा और महामारी स्वागत के लिए हमारे द्वार पर बिन बुलाए मेहमान की तरह खड़ी मिलेगी। इससे अच्छा है कि स्वयं किसी अतिथि ( ज़रूरतमंद ) की खोज की जाए। जिस मानवता को इस अर्थयुग में हम भूल बैठे हैं, उसे पुनः अपना लिया जाए। क्योंकि कोरोना वायरस से उत्पन्न विश्वव्यापी महामारी ने इस वैज्ञानिक युग में इस सत्य से मनुष्य को पुनः अवगत करवा दिया है कि हम अपने जिस ज्ञान और विज्ञान पर इतना अहंकार करते हैं , वह वास्तव में हमारा भ्रम है। मेरा मानना है कि कोरोना वायरस ने हमें यह समझाने का प्रयत्न किया है कि इस संसार का नियंता तो एकमात्र ईश्वर अथवा प्रकृति ( अपने विश्वास और विवेक के अनुरूप ) ही है। यदि हम उसकी इच्छा के अनुसार कार्य नहीं करेंगे, तो वह कठोर दंड के माध्यम से हमें नियंत्रित करेगा , ताकि हम पुनः मानव बन सकें और उसके द्वारा प्रदत्त मानवीय गुणों से इस संसार को सिंचित करें ।
अब आप देखें न 21 दिनों के इस लॉकडाउन में वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले मानव निर्मित तमाम वाहन, विमान और कल-कारखाने सभी बंद हो गये हैं। जो जहाँ है, वह वहीं ठहर गया है। परिवहन के तमाम प्रकार के सन -साधनों के बावजूद भी अपने शहर और गाँव से बाहर लोग नहीं जा पा रहे हैं। यात्रा पर वही है, जिसमें स्वयं का पुरुषार्थ हो, जैसे श्रमिक वर्ग। जो सदैव प्रकृति के अनुरूप रहा है, इसलिए संकट कैसी भी हो उसकी प्रबल जिजीविषा उसे पराजित नहीं होने देती है। लॉकडाउन से एयर क्वालिटी इंडेक्स(AQI) अपने मानक 51-100के बीच आ गया है । पहले नई दिल्लीमें 600 तक था। इससे वायुप्रदूषण जनित रोगों पर नियंत्रण होगा। इस तरह के प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार की हर कोशिश अब तक नाक़ाम रही है। मेरे मित्र राजन गुप्ता ने घर के बाहर खड़ी अपनी स्कूटी की ओर इशारा कर कहा था कि लॉकडाउन का यह भी प्रभाव देखिए कि सुबह से शाम होने को है और इसके सीट पर धूल नहीं जमा है। पहले जब भी कहीं जाना होता था, तो गाड़ी पोछनी पड़ती थी। मैंने एक पोस्ट और भी किया था - " हो सके तो व्रत में खाए जाने वाले मेवा -पकवान न खरीद कर उसके स्थान पर ब्रेड अथवा कोई अन्य खाद्य सामग्री किसी गरीब व्यक्ति को प्रदान करें, इससे इस संकटकाल में दोनों का ही कल्याण होगा। मातारानी की कृपा आप पर बनी रहेगी। " बचपन में बड़े-बुजुर्गों कहा करते थे- "दाल-रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ। " वास्तव में अनेक लोग इन दिनों कुछ इसी प्रकार से संयमित भोजन कर रहे हैं, किन्तु ऐसे भी हृदयहीन धनाढ्य जनों की कमी नहीं है, जो अपने कल-कारखाने में काम करने वाले लोगों को दो जून की रोटी तक नहीं दे रहे हैं। जिस कारण विवश हो ये श्रमिक भूखे पेट पैदल ही अपने गाँव की ओर निकल पड़ रहे हैं। इनके साथ में महिलाएँ और मासूम बच्चे भी हैं। सैकड़ों किलोमीटर का इनका यह कठिन सफ़र है। जिसकी फैक्ट्री आदि में ये दिन- रात पसीना बहाते थे , उन्होंने तो इन्हें उपवास करने को विवश कर दिया था, किन्तु मार्ग में ऐसे कई परोपकारी ग्रामीण मिलते गये , जिन्होंने इन्हें भोजन कराया । उनके साथ प्रशासन ने भी सहयोग किया है।
अपने जिले के फैक्ट्री मालिकों की निष्ठुरता और प्रशासन की सक्रियता का एक मिसाल यहाँ प्रस्तुत है-- लॉकडाउन के चौथे दिन शाम ढलने को थी, तभी रोडवेज परिसर मीरजापुर के पास चुनार की हैण्डलूम और अन्य दो फैक्ट्रीयों के 52 मजदूर पैदल आते हुए दिखाई दिये। ये भूख से व्याकुल थे और अपने गृह जनपद सीतापुर को जाने के लिए निकले थे। क्यों कि इन कारखानों के संचालक ने उन्हें गाँव वापस जाने के लिए विवश कर दिया था। सूचना मिलने पर पुलिस द्वारा रोक लिया गया, पुलिस अधीक्षक डा0 धर्मवीर सिंह द्वारा उन्हे भोजन का पैकेट दिया गया। जिसे देखते ही इनकी आँखें चमक उठीं , हालाँकि एक श्रमिक के लिहाज़ से इसे पर्याप्त भोजन नहीं कहा जा सकता था ,फ़िर भी डूबते को तिनके का सहारा कम तो नहीं होता है। भोजन कराने के पश्चात रोड़वेज की बस की व्यवस्था कर इन्हें उसमें बैठा कर पुनः उन्हीं फैक्ट्रियों मे वापस भेजा गया। पुलिस अधीक्षक का कहना रहा कि अगले 14 अप्रैल तक इनके खाने -पीने और रहने की व्यवस्था फैक्ट्री मालिक से ही कराया जायेगा,अगर वह अक्षम है तो पुलिस प्रशासन द्वारा उनके भोजन की व्यवस्था की जायेगी और यदि मालिक उन्हें अपने यहाँ रखने मे आना कानी करते हैं तो उनके विरूद्ध वैधानिक कार्यवाही की जायेगी। लेकिन साथ ही मेरा एक प्रश्न भी है कि यदि स्थानीय पुलिस अपने क्षेत्र के ऐसे कारखानों पर पहले से ही दृष्टि रखती तो इन मजदूरों को इस संकट का सामना नहीं करना पड़ता और यदि हमारी सरकार लॉकडाउन के प्रथम दिन से ही इन मजदूरों के प्रति संवेदनशील होती , तो वे क्यों पैदल अपने गाँव की ओर प्रस्थान करते ? बहरहाल , " आज " समाचरपत्र से लम्बे समय तक जुड़े रहे सलिल पांडेय जी का भी यही कहना रहा कि मां विन्ध्यवासिनी के भक्ति-भाव वाले शहर मिर्ज़ापुर की आबोहवा में विनम्रता की ख़ुशबू विद्यमान रहती हैं। लिहाज़ा जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती हैं, तो सब के मन मे एकता और सौहार्द्रता की तरंगें उठने लगती हैं । चाहे पब्लिक हो या सरकारी तबक़ा । सब एक दूसरे की प्रायः मदद ही करते हैं कुछेक अपवादों को छोड़कर । शास्त्रों में कहा गया है कीर्ति की लालसा से परोपकार नहीं करें, किन्तु ऐसे भी लोग हैं जो सोशल मीडिया पर दानवीर कर्ण के रूप में स्वयं को प्रदर्शित कर रहे हैं। इसमें भी क्या बुराई है , वे कुछ एक का भला तो कर ही रहे हैं। मैं जब भी अपने समाचार ग्रुपों में जनसेवा के फोटो पोस्ट करता हूँ, तो इसे देख अन्य लोगों का संदेश आता है - " शशि भैया ! मैं भी कुछ करना चाहता हूँ ?" हाँ, वैसे यह कहा गया है कि नेकी यदि दिल में रहे तो नेकी, बाहर निकल आये तो बदी है। संकटकाल में किसी का काम चला देने का अर्थ यह नहीं कि हम प्रतिदान की आस लें, सेवा वहीं है जिसमें निस्वार्थता है। हम अपनी अंतरात्मा की आवाज़ का अनुसरण कर सत्यरूपी परमेश्वर का अन्वेषण निरंतर करते रहे और यह प्रकृति भी हमें इसी प्रकार श्रम और अनुशासन की पाठशाला में प्रशिक्षित करती रहेगी।
हमारे मित्र व साहित्यकार श्री अनिल यादव का भी यही कहना रहा कि 21 दिनों का लॉकडाउन धीरे-धीरे अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रहा है। विश्वास का माहौल कायम हुआ है। कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में भारी कमी आई है।इस लॉकडाउन से सीधे-सीधे भारत के नागरिकों को लाभ हो रहा है। सुबह हो, दोपहर हो या शाम हो, वातावरण बेहद सुंदर दिखाई दे रहा है। कोरोना वायरस को लेकर शासन, प्रशासन और स्थानीय निकाय सजग है। नागरिक सुविधाओं और सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। समस्त निरोधी उपाय अपनाए जा रहे हैं। सोशल डिस्टेंस एक कामयाब उपाय दिखाई पड़ रहा है। दूर रहने से मोहब्बत बढ़ रही है। वास्तव में हम प्रकृति की गोद में जा रहे हैं। मुझे ऐसा प्रतीक हो रहा है कि विफलता में विकास का अंकुर भी छिपा होता है। जब सर्वशक्तिमान होने का दर्प टूट जाता है। मानव जब अहंकार के रथ से नीचे उतर आता है। तब उसे आत्मबोध होता है कि वह कुछ भी नहीं है । जो कुछ है वह प्रकृति है और यह प्रकृति कहती है कि सबको साथ लेकर चलो । किसी का भी अत्यधिक दोहन मत करो। मुझे तो लगता है कि इन कुछ ही दिनों में मनुष्य के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है। उसमें विश्व बंधुत्व का भाव जागृत हो रहा है। - व्याकुल पथिक
मानवीयता *********** लॉक डाउन की ख़बर मिलते ही इस छोटे से शहर में भी हर कोई सब्जीमंडी और किराना दुकान की ओर भागा रहा था। लोग अपने सामर्थ्य से अधिक की खाद्य सामग्री खरीद ला रहे थे। अटकलें लगायी जा रही थी कि इसबार स्थिति गंभीर हो सकती है। इसी आशंका से ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था, जो बाज़ार की ओर न निकला हो। और उधर रामभरोसे के माथे पर चिंता की लकीर और गहरी हो चली थी। नोन-तेल की व्यवस्था उसे भी करनी थी। वह अपने खाली बटुए को टटोलते हुये बुदबुदाता है- " हे ईश्वर ! तू हम ग़रीबों की कितनी परीक्षा लेगा, जो हमपर सदैव शनि की साढ़ेसाती चढ़ा रहती है । क्या हम कामचोर हैं या तुझपे भरोसा नहीं रखते ? फ़िर यह दरिद्रता हमारे पीछे क्यों पड़ी रहती है ? " अब भला पत्थर की मूर्ति क्या बोले । एक दुर्घटना में इकलौते पुत्र को खोने के बाद विधवा बहू माधुरी और उसके तीनों बच्चों की जिम्मेदारी उसी के बूढ़े कंधे पर आ पड़ी थी। एक प्रतिष्ठान में काम करने के एवज उसे पाँच हजार रुपये हर माह पगार मिलती थी। माधुरी को थोड़ा बहुत सिलाई का काम आता तो था, पर साड़ियों में फॉल लगा कर वह कितना कमा लेती ? इनके पास जो भी थोड़ी- बहुत जमापूँजी थी होली पर बच्चों की खुशी में ख़र्च हो गयी थी। सोचा था कि सेठ से कुछ पैसे उधार ले लेगा। लेकिन , हुआ यह कि कोराना वायरस से डाँवाडोल अर्थव्यवस्था को देख सेठ ने कर्मचारियों की छँटाई क्या शुरू की कि तीन दशकों की उसकी वफ़ादारी भी काम नहीं आयी। वह जानता था कि इस अर्थ युग के सारे संबंध स्वार्थ के अधीन है। सो, अपने संकट में दूसरों की मानवता परखने की भूल न करें । फ़िर भी उसने पुत्र की मौत और शेष पाँच जनों की ज़िदगी का हवाला दे मिन्नतें की कि मालिक इस बुढ़ापे में किसके शरण में जाऊँ , परंतु उसकी इस दीनता पर भी सेठ की मानवता नहीं जगी। यह सोचकर उसकी आँखें बार- बार बरस उठती थीं । तभी बहू की आव़ाज सुनाई पड़ी. माधुरी कह रही थी -" पिताजी , यह लें ..पाँच सौ रूपये किसी तरह जोड़-तोड़ मैंने ऐसे ही संकटकाल के लिए रखे थे।" रुपये ले यह सोचते हुये रामभरोसे बाज़ार को निकला था कि चलों इतने से आटा,आलू ,प्याज और तेल आदि का जुगाड़ हो जाएगा और हाँ, माधुरी के लिए कुछ फल भी लेते चलेगा। कल उसका नवरात्र व्रत जो है। लेकिन ,यह क्या बाज़ार में सब्जी और फलों की कीमत में लॉग डाउन की ख़बर आते ही तीगुने की वृद्धि हो चुकी थी। इस कालाबाज़ारी देख गुस्से से बेक़ाबू हो रामभरोसे चींख उठता है - " इस महामारी में हमें यूँ न लूटों भाई ! ऊपरवाले से कुछ तो डरो। क्या तुममें तनिक भी मानवता नहीं ? " परंतु उसके उपदेश पर भला किसका कलेजा पिघलता । उसे ही विक्षिप्त बता दुकानदारों ने मंडी से भगा दिया साथ ही वहाँ उपस्थित भद्रजनों में से किसी ने भी हस्तक्षेप नहीं किया था, जबकि वह सत्य बोल रहा था। ये सम्पन्न लोग तो झोले भर -भर के नाना प्रकार के खाद्य पदार्थ , मेवा-मिष्ठान और फल इत्यादि खरीदने में व्यस्त थे । उनके पास पैसा था ,तो वे क्यों मूल्यवृद्धि पर प्रतिवाद करते ? प्रशासन भी मौन था। वे अफ़सर, जनप्रतिनिधि और समाजसेवी जो मनुष्यता की बड़ी-बड़ी बातें किया करते थें। वे सभी मूकदर्शक थे। ग़रीबी की पीड़ा क्या होती है, यह उनके लिए पर उपदेश से अधिक कुछ न था। संकट में तथाकथित धर्म के ठेकेदारों से किसी तरह की अपेक्षा रखना निर्बल वर्ग की सबसे बड़ी भूल होती है । इन बड़े-बड़े घोटालेबाजों के धार्मिक और सामाजिक कार्यों में निश्चित ही उनके स्वार्थ का राज छिपा होता है। इनके माध्यम से मानवीय कल्याण के बड़े- बड़े लच्छेदार और आदर्शात्मक वाक्य अवश्य सुनने को मिलते हैंं , परंतु जहाँ वास्तविकता का प्रश्न होता है, वे पाँव पीछे खींच लेते हैं। इनकी ही संकीर्ण भावनाओं के कारण मानवता खून के आँसू रोती है, फ़िर भी आश्चर्य तो यह है कि ये बुद्ध, ईसा, मुहम्मद और गांधी के उत्तराधिकारी बन बैठे हैं। ऐसा विचार करते हुये वह वापस घर लौट आता है। वह बाज़ार में स्वाभिमान के आहत होने से बुरी तरह से टूट चुका होता है। तभी उसकी दृष्टि पुनः ठाकुरबाड़ी में रखे उसी पत्थर की मूर्ति पर पड़ती है। रामभरोसे मन ही मन बड़बड़ाते हुये कहता है- " जब तुझमें ही मानवीयता नहीं है , तो तेरे बनाए इन माटी के पुतलों में कहाँ से होगी ? तू तो नाम का भगवान है रे, काम का कुछ नहीं ?" और फ़िर जैसे ही वह उस मूर्ति को बाहर फेंकने को होता है। दरवाजे पर दस्तक होती है। " अरे ! दीनानाथ तुम, कैसे इधर आना हुआ ?" - मन ही मन सकुचाते हुये रामभरोसे उससे सवाल करता है , क्यों कि आज अतिथि सत्कार केलिए चाय तक की व्यवस्था में वह असमर्थ था। " कुछ नहीं रामू काका , सोचा था कि बच्चों से मिलते चलूँ । कल से तो अपने तबेले में 21 दिन गुजरेगी । " - दीनानाथ ने उसकी मनोस्थिति को समझते हुये कहा। " ओह ! अच्छा तभी खरीदारी कर के लौट रहे हो न ?" - राम भरोसे ने उसके हाथ में झोले भर सामान की ओर इशारे करते हुये कहा था। " काका,आपभी , अब भला अपना कौन ठहरा, जो बाज़ार दौड़ लगाते फिरूँ। कुछ बन गया तो ठीक नहीं तो व्रत ।" -- एक फीकी सी मुसकान के साथ दीनबंधु ने पूछा मुन्ना कहाँ है , तभी अंदर खेल रहा वह बालक आ जाता है। यह मुन्ना ही है , जिसके साथ कुछ पल के लिए अपनी वेदनाओं को भूल वह स्वयं भी बच्चों जैसा हो जाता है। अन्यथा तो इस मतलबी दुनिया से उसे छल -प्रपंच के अतिरिक्त मिला भी क्या है। दीनबंधु जाने को होता है, तो मुन्ना के बहाने से वह झोला वहीं छोड़ जाता है, ताकि रामू काका के आत्मसम्मान को ठेस न पहुँचे। झोले में वह सबकुछ होता है। जिसकी सख़्त ज़रूरत रामभरोसे के परिवार को इस समय थी। इसे संयोग कहे अथवा चमत्कार , उसे कुछ नहीं समझ आता और पत्थर की मूर्ति को वापस मंदिर में रख फुसफुसाता है - " हे भगवान ! तेरी दुनिया में भी अभी कुछ ऐसे लोग हैं , जो मेरे ही तरह निर्धन हैं , किन्तु उनकी आँखों में इंसानियत शेष है, अतः तू जहाँ है , वहीं रह। ( रामभरोसे को यह अबभी नहीं पता चल पाया था कि जब वह मंडी में था, तो किसी की चौकन्नी आँखें उसपर टिकी थीं ) ख़ैर, वृद्ध श्वसुर के नेत्रों से एकबार फ़िर बह चले नीर का मर्म समझ माधुरी संतोष की साँस लेती है । वह देवी पूजन के लिए कलश स्थापना की तैयारी में जुट जाती है। - व्याकुल पथिक
इतनी बड़ी सज़ा ************* शहर की उस तंग गली में सुबह से ही तवायफ़ों के ऊपर तेजाब फेंके जाने से कोहराम मचा था। मौके पर तमाशाई जुटे हुये थे। कुछ उदारमना लोग यह हृदयविदारक दृश्य देख -- " हरे राम- हरे राम ! कैसा निर्दयी इंसान था.. ! सिर्फ़ इतना कह कन्नी काट ले रहे थे। " एक दरिंदा जो इसी इलाके का हिस्ट्रीशीटर था। उसने इन चारों में से सबसे ख़ूबसूरत तवायफ़ को हिदायत दे रखी थी कि वह सिर्फ़ उसकी है। जिसके प्रतिउत्तर में तवायफ़ ने इतना ही कहा था-- उनके धंधे में सारे ग्राहक एक जैसे हैं और वे अपने सौदे में मिलावट नहीं किया करती हैं । इसी से नाराज वह युवक रात में छत की मुंडेर पर चढ़कर तेजाब फेंककर भाग गया था। सभ्य समाज में तवायफ़ की मदद केलिए हाथ बढ़ाना संदेह के नज़रिए से देखा जाता है । भद्रजनों के शब्दकोश में उन्हें पतित प्राणी जो कहा गया है। जिनकी परछाई मात्र से दूसरों का धर्म भ्रष्ट हो जाता है। अतः कुछ तो यह भी कह अपनी प्रसन्नता जता रहे थे कि चलो ग्रह कटा, पूरे मुहल्ले में इन नर्तकियों ने गंदगी फैला रखी थी। थोड़े ही देर में पुलिस संग मीडियाकर्मी भी पहुँच गये थे। उनके लिए यह आज की सबसे बड़ी मसालेदार ख़बर थी। सो, वे खंडहरनुमा गंदगी से भरे मकान में नाक दबाये जा घुसे। सारे दृश्यों को फोटोग्राफर दनादन अपने कैमरे में कैद किये जा रहे थे और तेजाब कांड से संबंधित ब्रेकिंग न्यूज़ फ्लैश होने लगी थी। पुलिस भी झुलसी हुईं नर्तकियों को अस्पताल पहुँचा आगे की कार्रवाई में जुट गयी थी । उधर ,अस्पताल बूढ़ी बाई के करुण क्रंदन से काँप उठा था । मानों चारों लड़कियाँ उसकी सगी पुत्रियाँ हो, वैसे भी इन चारों का इस बाई के अतिरिक्त और कोई हितैषी नहीं था। ज़िस्मफरोशी के दलदल में फंसने के बाद वे अपने जन्मदाता तक को भूल चुकी थीं। और आज उसी की आँखों के समक्ष इनमें से एक ने दम तोड़ दिया तो दूसरी भी तड़प रही थी। बचना उसका नामुमक़िन था, फिर भी यह बूढ़ी औरत वार्ड में कभी डाक्टर से तो कभी नर्सों से उसकी रक्षा केलिए मिन्नतें करती रही। वे तवायफ़ थी,अतः इनके प्रति उनमें भी कोई सहानुभूति नहीं थी। कोठे पर जो लोग उनकी जूतियाँ सीधी किया करते थे। गुलाबो, चमेली और पारो जैसे सुंदर सम्बोधन से इन्हें लुभाते थे। उनमें से एक भी सहायता केलिए नहीं दिख रहा था। जनता के वे रहनुमा जो चर्चित घटनाओं पर आश्वासनों की गठरी लिए मौके पर पहुँच जाते हैं। उनके लिए भी ये सभी ग़ैर थीं ,क्यों कि वे इंसान नहीं तवायफ़ थीं । झुलसी हुई इन लड़कियों की चीख-पुकार और अपनी बेबसी पर बूढ़ी बाई के आँखें बार-बार छलछला उठती थीं। बड़ी ही दीनता के साथ उस बुढ़िया ने पत्रकारों की ओर देखा , परंतु वे तो इसलिए वार्ड का चक्कर मार रहे थें कि दूसरी वाली नर्तकी के दम तोड़ते ही ख़बर अपडेट करा सकें, क्यों कि डाक्टरों ने बता रखा था कि नब्बे प्रतिशत बर्न है। उधर, अन्य दो नर्तकियाँ जो कम जली हुई थीं। वे भयभीत आँखों से चारों ओर इसतरह से देख रही थीं , मानों वह शैतान यहीं कहीं छिपा हो । वे कभी अपने बदसूरत हो चुके ज़िस्म पर नज़र डाल विचलित हो चींख उठतीं तो कभी ख़ामोश आँखों को ऊपर की ओर टिका देती थीं । जैसे पूछ रही हो - " ख़ुदाया ! हम दीनों को तू इतना क्यों सता रहा है ? " उनके अश्रुपूरित नेत्रों में अनेक प्रश्न थे। वे जानना चाहती थीं कि क़िस्मत ने उन्हें जिस ज़िस्मफरोशी के धंधे में ला पटका , क्या उसमें उन्होंने किसी प्रकार की मिलावट की ,जो यह भयानक दण्ड मिला ? हाँ, जीविका केलिए वे कुछ रुपये पैदा करती हैं,परंतु उन तवायफ़ों ने ज़िस्म के सौदे में ग्राहकों संग कोई मिलावट तो नहीं किया । वे राजा - रंक दोनों को एक जैसा बिना भेदभाव के अपना ज़िंदा गोश्त परोसती हैं। अपनी सिसकियों को छुपा कर अपना ज़िस्म हर रोज़ इनके समक्ष बिखेरती हैं। शरीर भले ही उनका मैला हो चुका हो, परंतु ग्राहकों संग सौदा उनका उतना ही साफ़ होता है। और वे लोग जो उनकी कोठियों पर पूरी रात पशुओं की तरह उनके बदन को निचोड़ते हैं। इनमें से कोई अफ़सर तो कोई संत होता है। इनके दोहरे चरित्र पर किसी ने नहीं धिक्कारा, इन्हें तो मान-प्रतिष्ठा और सभी भौतिक सुख प्राप्त है, जबकि वे तवायफ़ इस मिलावट से दूर रह कर भी समाज केलिए कलंक हैं ..? हाँ, वे सवाल करती हैं- " यह कैसा न्याय है तुम्हारा ईश्वर ! और आज तुम इतने निर्दयी कैसे हो गये। जो दो मर गयीं ,वे तो तुम्हारी इस मिलावटी, दिखावटी और बनावटी दुनिया से मुक्त हो गयीं , परंतु अब हमदोनों का क्या होगा ? इज्ज़त भरी ज़िदगी की ख्वाहिश तो हमारी तुमने कभी पूरी नहीं की। हम जब कली से कुसुम भी न बनी थीं , तब तुम्हारे इसी सभ्य संसार के भद्रजनों के पाँवों तले रौंदी गयी थीं और अब झुलसा हुआ यह बदसूरत ज़िस्म लिए हम अपने एकमात्र आश्रयस्थल इस कोठे से भी बाहर सिर्फ़ और सिर्फ़ भीख मांगने को विवश होंगे ? बोलो, क्यों मिली हमें इतनी बड़ी सज़ा ? " उनके सवाल वार्ड की दीवार से टकरा कर लौट आ रहे थे, शायद ईश्वर के पास भी उसका जवाब नहीं था..। -व्याकुल पथिक चित्रः गूगल से साभार
साँसों से रिश्ता ************* दीनाराम स्वर्गवासी होने को थे ,तो विलाप कर रही पत्नी दयावंती को धैर्य दिलाते हुये कहा था-" अरी भाग्यवान ! क्यों रोती है। ये तेरा लायक सुपुत्र रजनीश है और मेरा पेंशन भी तो तुझे मिलेगा ? " अबतक तो उन दोनों ने जीवन के सारे दुःख-सुख साथ गुजारे थे। दीनबंधु ने उसके सम्मान पर कभी कोई आँच न आने दी थी। परंतु अब दयावंती बहू-बेटे के अधीन हो जाएगी। उसकी इस आशंका से दीनाराम भी भला कहाँ अंजान थे। अतः दयावंती के अंतर्मन की भाषा पढ़ उन्होंने अपने दोनों संतान रजनीश एवं ज्योत्सना की ओर उम्मीद भरी निगाहों से आखिरी बार देखा था ,तभी अचानक उनके हृदय की धौंकनी के तेज होते ही शरीर निष्चेष्ट पड़ जाता है । पति की मृत्यु को विधि का विधान समझ विकल हृदय को बाँधने के लिए दयावंती ने स्वयं को ईश भजन में समर्पित दिया था। पुत्रवधू कलावती ने अपनी कला दिखलाते हुये सास-श्वसुर का बड़ा वाला कक्ष बहाने से हथिया लिया, तब भी बिना किसी प्रतिरोध के दयावंती बेटे-बहू की खुशी केलिए आँगन के पीछे वाली कोठरी में चली गयी थी । उसे सदैव स्मरण रहा कि उदारमना स्वर्गीय पतिदेव ने सरकारी दफ़्तर में मामूली लिपिक होकर भी कभी सामाजिक कार्यों से मुँह नहीं मोड़ा था। अपनी दोनों संतानों रजनीश एवं ज्योत्सना के विवाह के पश्चात वे जब रिटायर हुये और उनपर बीमारियों का पहाड़ टूट पड़ा , तब भी बेटे की सीमित आय को ध्यान में रखकर उन्होंने शहर के किसी नामी प्राइवेट हॉस्पिटल में अपना इलाज करवाने की जगह पेंशन का सारा पैसा घर-परिवार पर ही खर्च किया था। परंतु अब घर में अपनी उपेक्षा देख मनबहलाव केलिए दयावंती पुत्री के ससुराल जाने लगी थी। वह उसके बच्चों केलिए कुछ मिठाइयाँ और खिलौने लेती जाती थी । पति के पेंशन से बस इतना ही खर्च वह ज्योत्सना के परिवार पर अपने मद में करती थी। किंतु पुत्री के घर से वापस लौटते ही कलावती आग हो जाती ।वह ताना देती -" देखते हैं आखिरी वक़्त में बेटी दामाद इस बुढ़िया के कितने काम आयेंगे।" अतंतः उसने ज्योत्सना के घर जाना बंद कर दिया। अब वह उसी छोटी-सी कोठरी में मौन निस्सहाय -सी पड़ी रहती। मानों अपनों ने ही उसका अपहरण कर लिया हो। बेटे-बहू के दुर्व्यवहार का संताप उसे दीमक की तरह खाये जा रहा था। छोटी पौत्री चाय और दो वक़्त की रोटी पहुँचा जाती, जिसके बदले में उसकी सारी पेंशन बेटा-बहू दबा लेते थे। पके आम- से जिस वय में उसे प्यार की आवश्यकता थी, वहाँ तिरस्कार और दुत्कार से उसका स्वागत होता था। परिस्थितियों से समझौता कर चुकी दयावंती ने अपने आँसुओं को आँखों में ही छिपा लिया था और पुत्री को भी नहीं बताया कि उसके भैया-भाभी उसे कितनी यातना दे रहे हैं। परंतु मन को ढाढ़स बँधाने का उसका प्रयत्न धीरे-धीरे विफल होने लगा और हृदय से यह आवाज़ उठने लगी थी - " जिसकी किसी को ज़रूरत नहीं उसे मर जाना ही अच्छा है। " अंततः उसने मन ही मन कुछ निश्चय कर लिया ...और फिर एक दिन गंगातट पर भारी भीड़ जुटी हुई थी । एक अचेत वृद्धा, जिसका शरीर बुरी तरह से ज़ख्मी था, किन्तु साँसें चल रही थीं , को कुछ लोग घेरे हुये थे। वे उसकी पहचान का प्रयास कर रहे थे, तभी पुलिस भी आ जाती है। नाविकों ने बताया कि बुढ़िया ने पुल पर से गंगा में छलांग लगायी थी , परंतु संयोग से उसे बचा लिया गया। सूचना मिलते ही परिवार के सदस्य भी दौड़े आते हैं। और उधर, अस्पताल में रजनीश अपनी पत्नी को देख शिकायत भरे लहजे में फुसफुसाता है - " अरे मंदबुद्धी ! मुर्गी को ही हलाल कर देगी तो तू सोने का अंडे कैसे पाएगी। माँ की साँसें सुरक्षित रहे,तनिक इसका भी ख़्याल रख , नहीं तो तेरी गृहस्थी की गाड़ी बेपटरी होते देर न लगेगी। " लेकिन , उसे यह नहीं पता रहता है कि पीछे खड़ा ज्योत्सना का पति ने यहसब सुन लिया था। स्वस्थ होने के बाद दयावंती को जब घर ले जाने की बारी आयी ,तो बेटे-बहू दुलार दिखलाते हुये आगे बढ़े ही थे कि ज्योत्सना ने रास्ता रोक लिया। यह देख सशंकित रजनीश ने विरोध करते हुये कहा -" ज्योत्सना, यह कैसी अभद्रता है तुम्हारी। माँ , हमारी जिम्मेदारी है। वह तुम्हारे घर जाकर रहे । यह मैं कैसे सहन कर लूँ। " तभी पीछे से आवाज आती है - " साले साहब ! आप चिन्ता मत करो । माँ जी का पेंशन आप तक पहुँच जाएगा करेगा और हाँ, उनकी साँसें हमारे घर अधिक सुरक्षित रहेंगी , यह दोनों ही गारंटी हम लेते हैं। " सबके समक्ष अपना स्वार्थ उजागर होते देख रजनीश का चेहरा सफेद पड़ जाता है। उसकी आँखें झुक जाती हैं । और दयांवती ज्योत्सना की हाथ थामे शीतल छाँव से भरे नये आशियाने की ओर प्रस्थान करती है। आज भी उसके नेत्रों में अश्रुधार थे, परंतु वे मुस्कुरा रहे थे, क्यों कि उस तपन से वह मुक्त हो गयी थी, जो पति की मृत्यु के पश्चात रजनीश से उसे मिली थी। पुत्री के घर जाते समय उसकी साँसों से दुआ निकल रही थी, जिसपर सिर्फ़ ज्योत्सना के परिवार का अधिकार था। - व्याकुल पथिक चित्रः गूगल से साभार
दोहरा मापदंड ********** " पैसे तो पूरा लेते हो और दूध बिल्कुल गंगाजल। तुम्हें रोज़ाना टोकते हुये अब मुझे ही लज्जा आती है। बंद करो ये मिलावट या फिर कल से दूध मत देना । " -- मालती ने झल्लाते हुये एक ही साँस में ग्वाले को आज खूब खरीखोटी सुनाई थी। और उधर ग्वाला रामू सिर झुकाए बड़ी दीनता से चिरौरी किये जा रहा था कि मालकिन इस महंगाई में चालीस रुपये लीटर भैंस का शुद्ध दूध वह कहाँ से लाकर दे। इससे कहीं अधिक तो उसे दूध की दुहाई देनी पड़ती है। उसके भी अपने बाल-बच्चे हैं। सुबह-शाम दोनों व़क्त गांव-शहर साइकिल से एक किये रहता है। तब किसी तरह से उसके परिवार के पाँच जनों के पेट की आग बुझती है । उसका कथन सत्य था , फिर भी पचास रुपया लीटर में दूध लेने को मालती तैयार नहीं थी और शुद्धता की गारंटी भी चाहती थी । वह बड़बड़ाए जा रही थी कि न जाने कब ऐसे लोगों की धन-लिप्सा कम होगी। अब ये गरीब कहाँ रहे, पूरे ठग हैं ठग..। न मालूम कब इन मिलावटखोरों की ख़बर लेगा प्रशासन। ये अपने को भगवान कृष्ण का वंशज कहते हैं। लेकिन ,दूध-पानी एक करने से बाज नहीं आते, मिलावटखोर कहीं के.. ! और तभी उसकी पुत्री स्नेहा हाँफते हुये तेजी से घर में प्रवेश करती है। " अरे ! स्नेह क्या हुआ ? इतनी घबड़ाई क्यों हो ? कालेज में कुछ हुआ तो नहीं ? " -- मालती स्वयं भी पुत्री की यह दशा देख चिंतित एवं तनिक भयभीत भी हो उठी थी । स्नेहा -- " मम्मी ! वो ताऊजी की दुकान है न। वहाँ रेड पड़ा है । निखिल भैया को वे लोग साथ ले गये हैं । वहाँ तमाशाइयों की बड़ी भीड़ लगी हुई है।" मालती -- " पर.. क्यों, कुछ बताओगी भी अब !" स्नेहा - " वे लोग कह रहे थे कि भैया की दुकान से ढेर सारे मिलावटी और नकली सामान पकड़े गये हैं । कई बड़ी कम्पनियों के अधिकारियों ने यह शिकायत की थी कि भैया काफी दिनों से डुप्लीकेट सामान बेचकर उनकी कंपनी को ही नहीं, सरकार को भी राजस्व की क्षति पहुँचा रहे हैं और ग्राहकों को ठग रहे हैं।अच्छा हुआ कि मेरी सहेलियों को नहीं मालूम था कि यह मेरे चचेरे भाई की दुकान है, नहीं तो मुझे बहुत लज्जा आती। तभी तो वे लोग इतनी जल्दी अमीर हो गए हैं न मम्मी ? " " अरे ! चुप कर , तू अब एक शब्द भी नहीं कहेगी। जानती नहीं है क्या कि सोसायटी में जगह बनाने के लिए कुछ इधर-उधर करना ही पड़ता है। सत्यवादी हरिश्चंद्र बनने से काम नहीं चलता। भूल गयी क्या पिछले रक्षाबंधन पर्व पर निखिल ने तुझे सोने का कंगन दिया था। और हमें भी जब आवश्यकता होती है तो उसकी कार मंगा लेते हैं। वे तेरे विवाह में भी कम मदद नहीं करेंगे। दोनों परिवार में तू ही इकलौती लड़की है । हाँ ,और सुन इसे बड़े लोग मिलावटखोरी नहीं बिजनेस कहते हैं। बड़ा आदमी बनने के लिए बड़ा दांव लगाना पड़ता है। " -- पुत्री को तनिक झिड़कते हुये मालती ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया था। " परंतु मम्मी अभी तो थोड़ी देर पहले ही आप रामू काका को मिलावटखोर कह डाँट रही थी। मैंने घर में प्रवेश करते हुये सुना था। कठिन परिश्रम के कारण काका के ढीले पड़े कंधे, आँखों के नीचे गड्ढे और माथे पर शिकन भी आपको भला कहाँ दिखे थे। क्या उनकी धन-लिप्सा निखिल भैया से अधिक है। यह कैसा दोहरा मापदंड है आपका.. !" -- यह बुदबुदाते हुये स्नेहा अपने कक्ष की ओर बढ़ चली, क्योंकि शब्द नहीं अनेक प्रश्न टंगे हुये थे उसके चेहरे पर । निखिल के लिए मालती का यह प्रशस्तिगान उसके कानों को भारी पड़ रहा था। -व्याकुल पथिक
भाईचारा शहर का वातावरण बिल्कुल सामान्य था। सभी अपने दिनचर्या के अनुरूप कार्यों में लगे हुये थे। यहाँ के शांतिप्रिय लोगों के आपसी भाईचारे की सराहना पूरे प्रदेश में थी। बाहरी लोग इस साँझा विरासत को देख आश्चर्यचकित हो कहते थे - "वाह भाई! बहुत खूब ,आपके शहर की इस गंगा- जमुनी संस्कृति को सलाम ।" और उधर नेताजी इसे लेकर ख़ासे परेशान थे। वे नहीं समझ पा रहे थे कि इतने सुलझे हुये नगरवासियों के मध्य कैसे फूट डाली जाए । उन्हें अपनी राजनीति की रोटी जो सेकनींं थी । अब तो आम चुनाव की आहट भी सुनाई पड़ने लगी थी और हाल यहाँ यह था कि चुनावी लहर नापने वाली मशीन का पारा तनिक भी ऊपर नहीं खिसक रहा था। सतारूढ़ दल के राजनेता काम बोलता है का जुमला उछाले हुये थे,तो विपक्ष ने इन्हीं कथित विकास कार्यों पर घेराबंदी कर रखी थी, पर वोटर ख़ामोश थे, क्योंकि जनता को किसी ने भी फीलगुड का एहसास नहीं करवाया था । अतः दोनों ही तरफ के राजनेता स्वार्थ भरे प्रेम का गंगाजल छलका कर हार मान चुके थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि पिटे हुये इन पासों से चुनाव में जीत कैसे हासिल करे। मंत्रणा कक्ष में हितैषियों संग नेताजी सिर झुकाए बैठे हुये थे। और तभी एक कुटिल मुस्कान उनके चेहरे पर आती है। जिसके साथ ही सभा विसर्जित हो जाती है। *** दो दिन पश्चात एक बड़े धार्मिक समारोह में जुलूस के साथ एक मज़हब के लोग दूसरे संप्रदाय बाहुल्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। अचानक धार्मिक नारा लगाने वालों के स्वर की तल्खी बढ़ जाती है। कुछ ही देर में पत्थरबाजी और आगजनी भी होने लगती है। जुलूस संग धार्मिक दुर्व्यवहार की ख़बर तेजी से पूरे शहर में फैलती है। युवाओं का एक बड़ा तबका दोनों तरफ से मोर्चा संभालने के लिए सड़कों पर आ डटता है। आपसी भाईचारे पर सीना फुलाने वाले लोग अब हिंदू और मुसलमान में बंटे हुये होते है । जिधर देखो भय की परछाई आंखों में डोल रही थी । दम तोड़ते छटपटाते जिस्मों को देख मानवता चीत्कार कर उठी थी। स्थिति नियंत्रण के लिए कई स्थानों पर उपद्रवियों संग पुलिस का संघर्ष जारी था। *** और उधर ,नगर के उस प्रसिद्ध कॉफी-हाउस में नेताजी टीवी स्क्रीन पर नज़र टिकाए चुस्कियाँ ले रहे थे। अब उनका काम सचमुच बोल रहा था..। तभी विपक्षी दल के प्रत्याशी की भी उसी कॉफी-हाउस में एंट्री होती है। जैसे ही दिनों की निगाहें मिली हैं, उनमें आक्रोश के स्थान पर अद्भुत आत्मीयता दिखती है। "भाई साहब " और "भाई जान" के अभिवादन के साथ दोनों एक ही मेज पर आमने-सामने बैठ ठहाका लगा रहे होते हैं। वे कहते हैं - " जनाब ! इस बेवकूफ़ जनता के लिए हम-आप क्यों अपने रिश्ते खराब करे। इलेक्शन कोई जीते ,पर यह कॉफी हाउस वाला हमारा भाईचारा कायम रहना चाहिए ..!" पर जनता इन दोनों प्रतिद्वंद्वी नेताओं के ख़ामोश भाईचारे से कल भी अंजान थी और आज भी है..!! -व्याकुल पथिक चित्रः गूगल से साभार
*********************** पिछले पखवाड़े भर से टारगेट (लक्ष्य) पूरा करने के लिए विज्ञापनदाताओं के चौखट पर दस्तक़ देता रहा। वर्ष में एक बार झोली फैलाता हूँ , अतः इंकार कोई नहीं करता है। कितने ही घरों से तो तीन पीढ़ियों का मेरा संबंध इसी समाचारपत्र के कारण जुड़ा हुआ है। जब आया था तो पुत्रवत स्नेह मिला, कुछ वर्षों पश्चात उनके पुत्रों के लिए अनुज जैसा हो गया और अब उनके भी बच्चे युवा हैं , जो मुझे चाचा कह के बुलाते हैं। अपना तो सबकुछ पीछे छूट चुका है। अब पूरी तरह से मुसाफ़िर हूँ और सौभाग्य से वैसा ही उपयुक्त आशियाना भी मिल गया है। जो कुछ अपना है, इसी शहर में शेष है। ख़ैर ,पिछले वर्षों की तरह होली का कार्टून बनवाना , संबंधित लेख लिखना और इसके पश्चात ढेर सारे समाचारपत्रों का वितरण करना और करवाना , इतना सब करने के पश्चात होली पर्व की पूर्व संध्या पर जब वापस लौटा तो पाँव लड़खड़ाने लगे थे, परंतु पद्मदेव द्विवेदी जी ने रोक कर घर के बने हुये आलू के पापड़ के साथ बढ़िया चाय पिलाई , जिससे कुछ राहत मिल गयी थी । यहाँ यही मेरी कमाई है। होटल पर पहुँच कर साइकिल किनारे खड़ी की और उससे कहा कि मित्र दो दिनों तक तू भी जरा आराम कर ले और मैं भी सुस्ता लूँ , हम दोनों के लिए होली,दीपावली और दशहरा जैसे पर्व इस लिहाज़ से ख़ास मायने रखता है, क्यों कि भरपूर विश्राम जो मिल जाता है। ऊपर कमरे की ओर बढ़ने को था कि कुछ मित्रों ने पूछा , " शशि भाई, क्या इस बार गुझिया नहीं खिलाओगे ? पूर्व में तो राजनेताओं के यहाँ से तुम्हारे पास कई डिब्बे मिठाइयाँ आया करती थीं। " जिस पर मैंने तनिक मुस्कुराते हुये कहा कि पिछले वर्षों की तरह इस बार इलेक्शन (आम चुनाव) नहीं है मेरे भाई ,जो मेरे जैसे छोटे समाचारपत्र के प्रतिनिधि की खोज- ख़बर लिया जाए। उन्होंने अख़बार के लिए विज्ञापन दे दिया, यही मेरे लिए कम नहीं है। हाँ, सपा के नये जिलाध्यक्ष देवीप्रसाद चौधरी और पूर्व राज्यमंत्री कैलाश चौरसिया ने एक- एक डिब्बा गुझिया दी, जिन्हें दोस्तों में बाँट दिया । परिस्थितियाँँ सदैव सभी की एक जैसी नहीं होती हैं। मेरे लिए तो आपसभी का स्नेह ही काफी है। मैं तो वैसे भी नहीं खाता हूँ। मेरा ज़वाब सुनकर वे वही पुराना सबक़ मुझे याद दिलाते हैं कि यार , तुम दुनियादारी को कब समझोगे ? जब अवसर आता है , तो सौदेबाज़ी में पीछे रह जाते हो और घर आया धन भी ठुकरा देते हो। इन्हें कैसे समझाऊँ मैं कि यदि सौदा ही करना होता, तो अपने पुश्तैनी घर को यूँ क्यों जाने देता । वैसे आज सुबह भी नींद समय से खुल गई थी चर्चा मंच पर कामिनी जी ने मेरे होली हुड़दंग वाले कार्टून को स्थान दे रखा था । अतः मैंने वहाँ जाकर टिप्पणी की और पुनः रजाई तान ली ।बूँदा-बाँदी से मौसम खराब होने के बावजूद भी बाहर सड़क पर होली खेलने वालों की टोली मौजूद थी। प्रथम बार आसमान को होली खेलते मैंने देखा। लेकिन बच्चों एवं युवाओं पर ठंड का असर नहीं रहा । प्रशासन का होमवर्क अच्छा रहा। जिससे किसी तरह का उपद्रव नहीं हुआ और आपसी " भाईचारा " कायम रहा। वैसे तो यह पर्व भी भाईचारे का है। होली कहती है कि आग से न जल पाने का वरदान प्राप्त होने के बावजूद छल-छद्म और असत्य रूपी हिरण्यकश्यप का साथ देने की वजह से वह जल गयी । इसीलिए मैंने बनावट, दिखावट और मिलावट इन तीन शब्दों का सदैव विरोध किया है। तभी अनिल जायसवाल जी का फोन आया कि भैया होटल पर हैं न , नास्ता लेकर आ रहा हूँ। मैंने उसी से सुबह - दोपहर का काम चला लिया। पर्व तो वैसे भी मेरे लिए उपवास के लिए बने हुये हैं , इसीलिए तो दोनों ही दिन दूधिये ने भी हाथ खड़ा कर दिया । जहाँ सुबह से किसी अपने का फोन नहीं आया , वहीं ग़ैर होकर भी अनिल भाई द्वारा अपने घर से होली की सुबह नास्ता लेकर आना, यह मेरे लिए किसी उपहार से कम नहीं था। हाँ ,शाम को हरियाणा से रेणु दी ने अवश्य मुझे होली पर्व की शुभकामनाएँ दीं। इन तीन दशक में अपने घर- परिवार से दूर हो मैं अपनी जड़ से पूरी तरह से कट चुका हूँ। फिर भी यदि मैं यह उम्मीद करूँ कि परिवार के सदस्य मेरा ध्यान रखें ,तो यह मेरी एक और बड़ी मूर्खता होगी। इस छोटे से शहर में मुझे जो पहचान मिली है, वहीं मेरे श्रम और मेरी ईमानदारी का पुरस्कार है। यही मेरे जीवन का आधार है। यहाँ हिन्दू- मुस्लिम, निर्धन-धनिक और कुलीन-अकुलीन सभी वर्ग के लोगों में मेरा बराबरी का सम्मान और अधिकार है। जबकि मेरा बचपन वाराणसी के दंगाग्रस्त क्षेत्र में गुजरा है ,परंतु मैं यह कैसे भूल जाऊँ कि हमारा राष्ट्र आदिकाल से " विश्व बंधुत्व " का उद्घोष करता रहा है। यह भाव मेरे आंतरिक ऊर्जा का स्त्रोत है। कोलकाता में माँ की मृत्यु के पश्चात ही मैंने होली- दीपावली जैसे पर्वों से लगभग दूरी ही बना ली थी और अब तो उसकी कोई औपचारिकता भी नहीं रही है। हृदय में भले ही उदासी हो कोई बात नहीं, परंतु सोशल मीडिया पर शुभकामनाएँ तो देनी ही पड़ती है। सुबह से मैं भी यही कर रहा हूँ, यह सामान्य शिष्टाचार है। इसे कृत्रिम नहीं कहा जा सकता है , क्यों कि औरों की खुशियों को बदरंग करने का हमें कोई अधिकार नहीं है।
दो दिनों के विश्राम के पश्चात मेरी तीव्र इच्छा यही है कि किसी प्रकार से मैं अपने इस कठोर शारीरिक एवं मानसिक श्रम ,परंतु अत्यंत सीमित आय वाले व्यवसाय से मुक्त हो जाऊँ। कल से पुनः उसी प्रकार सुबह साढ़े चार बजे अपनी साइकिल लेकर नगर भ्रमण पर निकलना पड़ेगा। मौसम भी ख़राब है और मेरे रुग्ण शरीर की स्थिति ठीक उसी प्रकार है ,जैसा मैं सुबह देखा करता हूँ कि किसी दुर्बलकाय खच्चर के पीठ पर उसकी क्षमता से अधिक ईंट का बोझ रख दिया जाता है और जब वह थक कर अड़ता है , तो चाबुक की मार ऊपर से सहनी पड़ती है। परंतु कब तक, एक दिन तो उसके पाँव लड़खड़ाते ही हैं और गिरने के पश्चात वह फिर कभी नहीं उठता। वह मुक्त हो जाता है इस बोझ और अपने जीवन से भी। तभी स्मरण हो आया कि पिछले महीने अत्यधिक ठंड के मौसम में जब इतनी सुबह प्रतिदिन ढ़ाई घंटे साइकिल चलाने की मुझे बिल्कुल भी हिम्मत नहीं पड़ रही थी और उच्चरक्तचाप के कारण सिर फटा जा रहा था, तब मैंने इन्हीं सड़कों पर उस बूढ़े बाबा को रिक्शा खींचते देखा था। जिसके पाँव मुझसे कहीं अधिक लड़खड़ा रहे थे। परंतु संकटमोचन मंदिर के समक्ष बैठ भीख मांगना उसे स्वीकार नहीं था । और मैंने उन अब्दुल चाचा को भी देखा था जो नियमित इसी प्रकार सुबह की नमाज़ के लिए लाठी का सहारा लिए आहिस्ता- आहिस्ता मस्जिद की ओर पाँव बढ़ाये जा रहे थे। ऐसे ही कर्मयोगी मेरे लिए " ऊर्जा " के केंद्र हैं। जिनका नित्य दर्शन इन्हीं सड़कों पर मुझे हुआ करता है। इनमें से किसी ने भी अभी तक अपनी पराजय स्वीकार नहीं की है ,तो फिर मैं कैसे पीछे हट जाऊँ ? - व्याकुल पथिक
मोदी कs मुरचहुउवा पिचकारी टाईट हो गइल.. ******************** . इहो होलिया पे मोदी ब्रॉड पिचकारी कs डिमांड तेज बा.. बुढ़वन से लइके जवनकन तक ई वाला ले... कही-कही के बौराए हैन..। पता त इहो चलल बा की भगवा खोल पार्टी कs प्राइवेट प्रैक्टिस अपने विधायक मिसिर जी के रत्नाकर होटल के पिछवे शुरू बा.. अउर इहाँ होली खेले के जउन भी मनसेधू- मेहरारू आवत हैन , उनके दिमाग कs बल्ब फ्यूज करें के खातिर जिले कs दुलरुआ बिजली मिस्त्री .. मिनिस्टर रमाशंकर फटेल लगायल गयन हैन..। काहे से की प्लानिंग ई बा कि सीएए के लइके विरोधी दलन कs खजुराहट ठंडा करे के लिए इहे होली में उनके घेरी-घेरी के भोलेबाबा कs केसरिया बरफी अउर ठंडईया खिलाए पियाए के टुन्न करेके बा.. .. दस लाख लोगन के चोली भगवा मय करे कs टारगेट मिलल बा..। पार्टी के होम मिनिस्टर कs इहे हुकुम जारी भईल बा कि खाली घरे बइठ के मोदी ब्रांड गिलौरी गटके से काम नाही चले के बा ..। तs बिग्रेड कs जितने भी लखैरुआ अउर खदेड़ुवा सरदार हैन , ऊ सब अपनी मुरचहुउवा पिचकारी के होलिया के पहिले बहरे निकाल के सर्विसिंग कराई ले ..। तेल और पानी लगाई के टनाटन्न पकरे रहे, काहे से कि प्रधानी से लइके यूपी के चुनउवा तक एकरा के टाइट रखे के बा..। शरीरिवा से बरियार मिसिर जी क कहना बा कि जब उनकरे पार्टी में ई बड़का फाइन सेंसर ज्ञानचंदर अगरवाल, विश्वनाथ अगरवाल , नीरज अगरवार, बंशीधर अगरवाल, सतीश अगरवाल , शैम्फूड स्कूल कs टुनटुन गुरु, विवेक भरनवाल , दुलरुआ लइका चंद्रांशु गो-गो-यल अउर भौकाली योगगुरू संदीप गुप्त हैन... तs चिन्ता काहे करी.. फिरो जे न मानी त धइ के खाटे प अइसन मसकल जाई की ऊ सीधे घाटे पर नजर आई ..। नाही तs मिनिस्टर फटेल भइयो त हैन न मोदी ब्रांड पेठा खीयावे खातिर..।
फटफटईया से मारे पिचकारी, ई तीन सवारी.. ******************** इहाँ के एक्स मिनिस्टर अनप्रिया के विकास ब्रांड कप- प्लेट कs ई प्रताप बा कि लहर मापे कs मशीन का पैरामीटर उनकरे चुनाव में बेजान रहल .. बम्पर वोट कs बरसात तs भयल ही.. अउर पर्टियो अब बरियार बा..। एमएलसी आशीष फटेल कs सोशल इंजीनियरिंग अइसन कमाल देख उनकरे दुआरे इहे ढोल बजत बा -- फटफटईया से मारे पिचकारी भैया-भौजी संग देवरों करे छेड़खानी तनिक देख ला ई तीन सवारी .रउवा , बउराई गयलन कs.... पर हाँ, ऊ मंत्री ना भइन एकर मलाल मीरजापुरीयन के बा..। लोग इहे विचार करत हैन कि वोट लेवे के लिए तs भाइयों- बहनों कही के नेकुरा रगड़त रहलन इहा.. अउर जब देवे कs बारी आइल तs अपने जिले के ई फटफटइया गाड़ी कs " बत्ती " गुल हो गइल..।इहाँ के सुपरफास्ट विकास गाड़ी के मालगाड़ी बना देहलन..। इहे अच्छे दिन कs भोंपू बजा के गयल रहलन कि अपने तो दुबारा पीएम बन गईलन और इहाँ का कइलन.. बाबा जी कs ठुल्लू ? रउवा ई खाली कप - प्लेट में तोहरे ब्लैक टी से काम न चली.. ..। झूठ बोले कौवा काटे.. ई माई विंध्याचली कs दरबार बा.. इहाँ बड़कन- बड़कन अइसन ठुनकिया गइलन कि कखते फिरत रहेन..। एक बात इहो बा कि एक्स मंत्री के दफ्तर कs गुड़हवा जलेबी खाइके उनकरे फस्ट पाली में मोटायल रहेन नेतवन कs दाल ई बार नाही गलत बा.. ऊ फटेहाल कउने बिल -बिलुक्का में घुसल हैन , एकर तलाश होत बा..। इहाँ त ए गो नयका लेमनचूस बाबा आइ गयल हैन..जउन कभो मीडिया बिरादरी कs रहल ..लेकिन अब त पत्रकारन कs फोन उठाएँ में भी अइसन शरमात हैन, जैसे नयकी बहुरिया ..उनकर कउनो जरुरतों नाही बा..डीलिंग त बड़के दरबार में होत है..। नाही तs अपने दुलरुआ विधायक राहुल हैन न..!
बौरउवा एवार्ड से नवाजे जाएंगे डा0 बिसराम *********************** अपने जिला में कभो सिटी मजिस्टर रहलन डा0 बिसराम साब को बौरउवा एवार्ड मिले कs बा..। वइसे साब कs प्रयागराज में बाजार चउचक टाइट बा.. आप उहवाँ सरकारी रेवन्यू कलेक्शन सेंटर कs बड़का पैरोकार हैन .. अउर अइसन कड़क अफ़सर बायन की बड़कन- बड़कन के नेकुरा रगड़े के पड़त बs.. नाही त ऊ कोर्ट कचहरी में खोंखते फिरत हैन..। इनकर बारे में इहे सरनाम बा कि चाहे केतनो लावा- दूध चढ़ावा , लेकिन भयवा इनकर होत सरकारी खजाने के केऊ उँगलिया न पइबा.. ई समझले रहा..नाही त टें हो जइबा..। त भयवा , इनकर लीला कs बखान मीरजापुरी , बनारसी, बलिया अउर प्रतापगढ़ी करते रहेन , अब सरकारी माल पचाये में नंबर एक रहलन ई इलाहाबदियन कs पैजमवा फटल जात बा.. बिचार ई भइल बा कि इनकर पुरुषार्थ के बिसराम देवे के लिए मीरजापुरी अखाड़ेबाजन के लगायल जाए..अउर होली के भोरीहरिया में डाक्टर साहब के इहाँ बौरउवा एवार्ड देवे खातिर अमरदीप भैया के रिसार्ट रिट्रीट में बुलायल जाए..। काहे से की बड़कन- बड़कन हथियारबंद पुरुषार्थीयन कs पिचकारी इहे मैरिज हाल में अठन्नीवा कुलफी की तरह चुचुक गइल बा..। अब डाक्टर साहब शक्ति परीक्षण कs बारी बा.. पर सवाल ई फंसल बा कि ठंडाई में ऊ समान मिलाए कs काम केके सौंपल जाए.. त इकरे लिए सिक्रेट टीम बनल बा .. जेमे नामित मेंबर हैं गैलेक्सी होटल कs बजनिया रजी मियां, शक्ति मंच कs पुरनका अखाड़ेबाज ठाकुर सिद्धन भैया, सत्येंद्र फटेल, ठाकुर ज्ञानप्रताप गुड़गोबर अउर गुरुवर भगवा पछाड़ पद्मदेव दुरवेदी ..। इहे दिन रसड़ा नरेश बाबू उमाशंकर विधायक के भी बुलउवा बा.. काहे से की फाइनेंसर त उहे हैन ..जिनकरे प्रताप से कभो बलिया ही नाही यूपी कsबड़कन से लइके लटकन तक चिचियात रहेन .. एकरे लिए विधायक बाबू कs दुलरुआ भौकाली सरदार सोनू सिंह के ठुनकियायल जात बा..। ---------
अफीमची हई कs रे ! अइसन हूरा हूर देइब न ... ******************* पिछले अखिलेश सरकार में मनिस्टर रहलेन अपने कैलाश चउलसिया भइया न जाने कउन अफीम ई समाजवादी नेतवन के चटा दिहले हैन कि लोहवा ट्रस्ट के नउका सरदार चउदली देवी परसाद , प्रदेश सचिव जोहाजिर लाल मोरिया उअर सहकारी बैंक क पूर्व फेयरमैन सुरंग फटेल एडवोकट कs बौराहट बढ़ते जात बा... । बिल- बिलुक्का छोड़ अब त ई अइसन फुंफकारत हैन की इनकर जोड़दारन कs पैजमवे तर होइ जात बा..। मंत्री जी कs एगो इहे कहानी बा कि हम कउनो गांधी बाबा क ऊ बंदर नाही हईं कि आँख -कान मूंद के मुहँवा पे ताला मार लेई.. ई फोटू में तोहरा के लउकत बा न कि हम के हई.. ? त भयवा हमके बऊवा समझे क तनिको भूल न करें .. हम त हल्ला बोल पार्टी क मेंबर हई... अइसन हूरा हूर देइब न कि चुनउवा तक निपटते रह जइबे..। अउर दवाई खातिर पप्पू भाई कs डायल मेडिकल पर गिड़गिड़इते रहबा.. काहे से कि उहो ठन-ठन गोपाल हैन ई घरी..। अउर इहो जानत रहा कि हमार संगी है आयरन मैन धीर प्रताप जायकेवाली , कामिक्स में त इनके पढ़ले होबा न..। वइसे त सेक्युलर फ्रंट पर अउरो पर्टियन कs मूषक चंद्र मास्टर हमारे संग हैन.. जइसे कांग्रेस कs ई दू गो सरदार आशीष बुधुआ अउर मनोज खंड- खंड वाले तोहे लउकत है की नाही..। .... भयाकुल पथिक
सच्चा सम्मान ************ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर नगर के कई स्थानों पर सम्मान समारोह आयोजित था। ऐसी गोष्ठियों में नारी सशक्तिकरण पर बढ़-चढ़कर चर्चा हो रही थी। समाजसेवा सहित अन्य क्षेत्र में पहचान रखने वालीं महिलाएँ, आयोजक एवं मंच संचालक पूरी तैयारी से आये हुये थे। आधी आबादी के समर्थन में , उनके विकास, समानता के अधिकार और मान-सम्मान पर हो रहे आघात के लिए शेष आधी आबादी के तथाकथित दोषियों के विरुद्ध आग उगलते एक से बढ़कर एक शब्दबाणों ने कार्यक्रम में चार चाँद लगा दिये थे। जिससे तालियों की गड़गड़ाहट से कार्यक्रम स्थल गुंजायमान हो उठा था। मुख्य अतिथि से सम्मान पत्र लेने के लिए कार्यक्रम में सभ्य समाज की आमंत्रित महिलाओं के चेहरों पर मुसकान था। संचालक प्रत्येक का नाम पुकारता और फिर जैसे ही वह उनके सामाजिक कार्यों का वर्णन करता; कक्ष एक बार पुनः इनके जयघोष से गूंज उठता था। इस सफल कार्यक्रम से सभी हर्षित थे। सेल्फी और ग्रुप फोटोग्राफी के माध्यम से इन यादगार पलों को तत्क्षण सोशल मीडिया में साझा किया जा रहा था। इन महिलाओं के मध्य एक भी स्त्री ऐसी नहीं दिखीं, जो श्रमिक वर्ग से हो, जिनके श्रमजल अश्रु बन मुसकाते हो , क्योंकि यहाँ भी जुगाड़तंत्र का कड़ा पहरा था, तो फिर इस वर्ग की महिलाओं की खोज की आवश्यकता ही किसे थी कि उन्हें भी महिला दिवस पर सम्मान मिले। उधर, इस आयोजन से दूर शहर के मध्य स्थित सभ्य जनों की रैदानी कालोनी के समीप एक अस्सी वर्षीया वृद्धा गिट्टी तोड़ रही थी। ऐसे किसी समाजसेवक की दृष्टि उसकी ओर नहीं गयी थी। उसके श्रम को पुरस्कृत करना तो दूर, सम्भवतः किसी ने उसे सम्मान से पुकारा भी न होगा। इनमें से किसी को भी उसमें कोई रुचि नहीं थी। वह बुढ़िया सिर झुकाएँ पत्थर तोड़े ही जा रही थी। अचानक आज का दिन उसके लिए तब विशेष हो गया, जब मंडलीय अस्पताल चौकी प्रभारी रामवंत यादव की नज़र पड़ गयी । धूप में ईंट-पत्थर तोड़ती वृद्धा को पूरे जोश के साथ अपने बुढ़ापे को चुनौती देते देखकर वे बिल्कुल चकित रह गये। यह सोचकर कि वह निराश्रित होगी, इसी जिज्ञासा में उन्होंने उससे प्रश्न किया- " मैया , क्या घर पर कोई नहीं है ? " "नाही दरोगा बाबू , सबलोग हैय अउर ऊ हमके मानत भी हैन ..।" वृद्धा की ये बातें उपनिरीक्षक श्री यादव को पहेली-सी लगी। अतः उन्होंने उससे इस अवस्था में अर्जुनपुर गाँव से शहर आकर इतना कठोर परिश्रम करने का कारण जानना चाहा। वृद्धा ने स्वाभिमान से कहा- ''जब तक भुजाओं में बल है , तब तक वह मेहनत- मशक्कत से पीछे क्यों हटे।" नारी दिवस पर उस अनपढ़ वृद्धा की कर्मठता के समक्ष दरोगा जी नतमस्तक थे । वे मन ही मन बुदबुदाते हैं कि "काश ! किसी विशेष दिवस पर ऐसी भी महिलाओं को प्रतिष्ठित मंच से सम्मान मिलता।" और तभी श्री यादव को ख्याल आता है कि वृद्धा भूखी भी हो सकती है। प्रतिउत्तर में जब उसने सकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाया तो चौकी प्रभारी श्री यादव ने बड़ी आत्मीयता से उस वृद्ध मैया को भोजन ग्रहण करवाया । इस पर बुढ़िया की आँखें छलक उठीं। वह दरोगा बाबू को अपने संतानों से भी कहीं अधिक दुआ देती है।
आज नारी दिवस पर किसी स्त्री का एक पुरूष के हाथों यह सबसे बड़ा सम्मान था। - व्याकुल पथिक
************* बाहर बाजार में ख़ासी चहलपहल है। सभी अपने सामर्थ्य के अनुरूप ख़रीदारी करने में व्यस्त हैं । कार एवं बाइक से पत्नी और बच्चों के संग पुरुष नगर के छोटे-बड़े वस्त्रालय की ओर निकल पड़े हैं। जिनकी आय बिल्कुल सीमित है , ऐसे परिवार की महिलाएँ भी फुटपाथ पर लगे कपड़े की दुकानों पर दिख रही हैं। पर बच्चों की विशेष रुचि तो रंग एवं पिचकारियों में ही होती है। वे ज़िद मचाए हुये है -" पापा वहाँ चलिए, यह देखिए ,मुझे तो इसे ही लेना है। " गृहणियों ने पहले से ही गुझिया एवं मालपुआ बनाने के लिए पतिदेव से खोवा और मेवा लाने की फ़रमाइश कर रखी है। हाँ, अनेक सम्पन्न घरों में होली के ऐसे ख़ास पकवान भी अब तो बने बनाए ही किसी प्रतिष्ठित मिष्ठान भंडार से आ जाते हैं। भले ही उसमें घर जैसे स्नेह भरा स्वाद न हो, पर क्या फ़र्क पड़ता है। यह कृत्रित युग है। बस जेब खाली न हो। और उधर,पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त अर्पित अपने हृदय के सूने आँगन को टटोल रहा था । उसके पास और है भी क्या काम ? ऐसे पर्व पर अपने जीवन के दर्द और शून्यता को समेटने में उसे स्वयं से कठिन संघर्ष करना पड़ता है। वह कभी महापुरुषों की तरह अपने व्याकुल मन को समझाता है, तो कभी किसी विदूषक-सा खिलखिलाने का स्वांग रचता है और जब फिर भी मन-आँगन का सूनापन दूर नहीं होता है, तो उसे अश्रुबुंदों से तृप्त करने का असफल प्रयत्न भी करता है। तभी उसे अचानक अपने घर की याद आती है। वह आशियाना जिसे छोड़े तीन दशक हो गये हैं। फिर भी जब कोई उससे पूछता, तब अपना स्थाई पता-ठिकाना बताने में उसे गर्व की अनुभूति होती रही कि इस मुसाफ़िरखाने से इतर वहाँ उस शहर में उसका अपना भी एक पुश्तैनी मकान है। कितनी ही होली एवं दीपावली उसकी इसी घर में गुजरी हैं। वह आँगन जहाँ कृष्णजन्माष्टमी और सरस्वती पूजन पर्व पर अर्पित अपने कलाकौशल को भगवान जी के श्रीचरणों में समर्पित किया था । हाँ, वहीं आँगन जहाँ ग्रीष्म ऋतु में पानी भरे टब के समीप अपने भाई-बहनों के साथ बैठकर खूब शरारतें किया करता और वर्षा ऋतु में उसकी नाली बंद कर कागज की नाव चलाता था । काश.. ! वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी लिए उसका निश्छल बचपन फिर से वापस लौट आता। अपने घर-आँगन का स्मरण कर अर्पित का मन भारी होने लगा था। विकल हो वह अपने सिरहाने रखी पानी की बोतल उठाता है। परंतु समय तेजी से पीछे भाग रहा था। अरे हाँ ! अभी घर पर होता तो गुझिया बन रही होती । नये वस्त्र साथ में पिचकारी और रंग इत्यादि सामग्री अब तक आ गयी होती । इसी आँगन में तो छोटा ड्रम भर कर रंग घोलकर दिया करते थे,पिताजी। तीन घंटे तक घर के बाहर वाली गली में रंग डालने की छूट मिलती थी और ठीक बारह बजे फिर से वे दोनों भाई उसी आँगन में स्नान के लिए हाज़िर होते थे । मुख पर लगे रंग छुड़ाने में कुछ अधिक ही व़क्त लगता था। वह बार-बार आईना देखा करता था । तभी माता जी की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती थी- " चलो, ऊपर आ जाओ तुम सभी । भोजन का समय हो गया है। " अभिभावकों का अनुशासन कुछ अधिक ही था। अतः ना-नुकुर करने की गुंजाइश कम होती थी। दहीबड़ा, कांजीबड़ा सहित अनेक पकवान सामने देख दोनों ही भाइयों एवं बहन के चेहरे पर चमक क्या आती थी कि उनके अभिभावकों की खुशी पूछे मत। परंतु ,अबतो इन तीन दशक में घर के भोजन की थाली का स्वाद कैसा होता है , यह अर्पित भूल चुका है और ऐसे विशेष पर्व उसके लिए अनेक बार व्रत-उपवास की दृष्टि से उपयोगी साबित हुये हैं। ख़ैर, वह व़क्त उसके अभिभावकों के लिए संघर्ष भरा था। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी , परंतु कठोर श्रम , अर्जित धन का अपव्यय न करना एवं अनुशासन , इन तीन गुणों के कारण उसका परिवार खुशहाल था। जिसका परिणाम रहा कि उस सरस्वती मंदिर की स्थापना ,जिससे उसके अभिभावकों को अपने जीवन में प्रथम बार धनलक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी। जिस कारण उनके जीवनशैली एवं विचारों में भी परिवर्तन आने लगा , वहीं अर्पित ने भी किशोरावस्था से आगे की ओर पाँव बढ़ा दिया था। आधुनिक सभ्य समाज के तीन प्रमुख गुण मिलावट, बनावट एवं दिखावाट से दूर रहने के कारण अर्पित अभिभावकों के स्वभाव में हो रहे इस बदलाव को सहन नहीं कर पा रहा था। अतः अपने कालेज का मेधावी विद्यार्थी होकर भी उसकी शिक्षा अधूरी रह गयी। वह अपने घर-आँगन से दूर ममता के सागर की खोज में निकल पड़ा। और समय के साथ जमाने भर की ठोकर ने उसे कटी और फटी पतंग बना तमाशाइयों के पाँव तले कुचलने को विवश कर दिया था । परंतु अर्पित न थका- न रुका , वह संघर्ष का पर्याय बन गया था , क्योंकि उसके हृदय- आँगन में आशा की एक किरण जगमगा रही थी और आँखों में एक सपना तैर रहा था कि इस खूबसूरत दुनिया के झिलमिल सितारों भरे आँगन में कोई तो ऐसी भी प्रेम की गली होगी जिसमें उसका भी अपना छोटा-सा घर होगा। स्नेह के इसी दो शब्द के लिए वह इस जग में जहाँ माँ जैसा ममत्व की तलाश में था , तो वहीं यह सभ्य समाज उसे अपने स्वार्थ के तराजू पर तौलते रहा । उसकी मासूमियत उसके लिए अभिश्राप बन गयी। उसके मन का आँगन सूना ही रह गया। उसकी सारी खुशियाँ उसकी माँ की चिता की राख जैसी बन चुकी थी और अब तो यही उसका अपना आभूषण है। यही नहीं , उसका वह पुश्तैनी घर भी अपना नहीं रहा। पिछले माह ही तो यह दुःखद सूचना मिली थी कि उसे भगोड़ा बता कर उसके परिवार के शेष सदस्यों ने मकान को बेच दिया है। अथार्त वह पूरी तरह से बंजारा हो चुका है। इस समाचार के मिलते ही उसकी वेदना चरम पर पहुँच चुकी थी। जिस घर को विशेष पर्व पर वह स्वयं सजाया करता था। आँगन के पीछे स्थित उसका शयनकक्ष, जिसमें रखी अटैची, अलमारी और वह कमंडल जो उसकी दादी की आखिरी निशानी थी । सबकुछ छोड़ कर ही तो वह घर से निकला था,तो अब क्यों उसका हृदय चीत्कार कर रहा है ? इसलिए न कि जिस घर के आँगन ने उसके परिवार के चार-चार सदस्यों के पार्थिव शरीर को अपना हृदय पत्थर -सा कठोर कर संभाला था , उनके ही प्रियजनों ने उसका सौदा कर दिया । उह ! इतनी भी निष्ठुरता क्यों ? उसने तो कभी भी अपने घर के आँगन का बँटवारा नहीं चाहा था। वह अपना अधिकार तक इसपर से तीन दशक पूर्व छोड़ कर चला गया था, क्यों कर दिया गया फिर पूर्वजों की इस आखिरी पहचान का सौदा ? अबतो अर्पित के शुभचिंतक तक उसे बुद्धू कह कर उसके इस त्याग पर परिहास कर रहे हैं। उनका कहना है कि तुम्हें भगोड़ा भी बता दिया गया, बावजूद इसके तुमने इस पैतृक सम्पत्ति में से अपने अधिकार को पाने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। हाँ, तभी तो तुम सच में भगोड़े हो.. भगोड़े । इसलिए जीवन में कुछ नहीं पाया और सुनो.. ! तुम्हारे मन का यह सूना आँगन इसीप्रकार हर पर्व पर तुम्हें तड़पाता, तरसाता एवं रुलाता रहेगा । कभी नहीं बसेगा इसमें किसी का प्यार। - व्याकुल पथिक
******* ( दृश्य -1) नये साहब ने आते ही ताबड़तोड़ छापेमारी कर जिले को हिला रखा था.. उनका एक पाँव दफ़्तर में तो दूसरा फ़ील्ड में होता .. जिस भी विभाग में पहुँचते ,वहाँ के अफ़सर से लेकर स्टॉफ तक पसीना पोंछते दिखते.. उपस्थिति पंजिका और भंडारगृह पर उनकी पैनी निगाहें थीं ..। जनाब ! ग्रामीण क्षेत्र में लगे हैंडपंपों की पाइप तक निकलवा बोरिंग की जाँच करवाने लगते..उनकी हनक की धमक अगले दिन अख़बारों की सुर्ख़ियाँ होतीं..। वे फरियादियों और मातहतों से धर्म-कर्म की बातें भी गज़ब की किया करते थे ..। उधर, नये हाकिम की ईमानदारी के किस्से सुनकर नेकराम ख़ुशी से फूला न समा रहा था..। उसे पूरा विश्वास हो गया था कि उसके मुहल्ले में चल रही तेल,घी और मसाले की नकली फैक्ट्री का भंडाफोड़ ऐसे ही अफ़सर कर सकते हैं..। वैसे तो , सेठ दोखीराम के काले धंधे को जानते सभी थे ..लेकिन , क्या मज़ाल कि उसके कारख़ाने की ओर भूल से किसी परिंदे ने भी पर मारा हो..। उधर, नये साहब की इस धुँआधार छापेमारी के समाचार के मध्य नेकराम रोज़ाना ही यह बाट जोहता कि उनका पदार्पण उसके मुहल्ले में कब होगा ..। अब तो उनको आये भी माहभर होने को था, पर उसे आश्चर्य इस बात पर था कि उसके इलाक़े में न तो उनका खौफ़ दिख रहा है और न ही दोखीराम के काले क़ारोबार पर कोई आँच आ रही है ..। वह समझ गया कि सेठ के जुगड़तंत्र ने उसके धंधे की भनक को नये अधिकारी को नहीं लगने दिया है..और फिर एक दिन नेकराम ने हिम्मत जुटा कर बिल्ली के गले में घंटी बांधने की ठान ली..वह सीधे जा पहुँचा नये हाकिम के दफ़्तर..। अफ़सर - " हाँ , तो बोलो क्या बात है ? " नेकराम -" साहब , सबके सामने न बोल पाऊँगा , इसमें लिखा है...। " उसने हाथ में ले रखे पर्ची की ओर संकेत किया..। " हूँ ..! " - अफ़सर उससे वह कागज़ ले बड़े ग़ौर से देखता है ..। उसकी आँखों में एक चमक- सी आ जाती है..। " साब ! मेरा नाम गुप्त रहे.. ' जल में रह मगर से बैर' लेने की मेरी औक़ात नहीं ..।" - हकलाते हुये नेकराम ने अपनी चिन्ता जाहिर की थी ..। " अरे भाई ! चिन्ता न कर.. कल मैं स्वयं आऊँगा..। " - शाबाशी देते नये साहब ने उसकी पीठ थपथपाई थी..। - साहब के ठोस आश्वासन और मुखमुद्रा पर मुस्कान देख नेकराम को पूरा विश्वास हो गया था कि अब सेठ दोखीराम के बुरे दिन आने को है । अतः उसने जोश में आकर इस कॉकस में सम्मिलित कई कनिष्ठ अधिकारियों के नाम वाला दूसरा चिट्ठा भी उन्हें सौंप दिया था..। ( दृश्य- 2 ) हाकिम की पूरी टीम को लिए आधा दर्जन गाड़ियाँ दनदनाती हुई अलसुबह ही फैक्ट्री में जा घुसी , छापेमारी से पूर्व किसी को भनक तक नहीं लग सकी थी..। सेठ दोखीराम का चेहरा सफेद पड़ गया था..। देर शाम तक मीडियावाले भी बाइट के लिए डटे रहे ..। ख़ासा मजमा लगा हुआ था मुहल्ले में..। तमाशाइयों में कोई कहता कि आज तो गया यह सेठ काम से.. सुना है कि बड़ा कड़क अफ़सर है नया साहब ..। सरकारी वेतन को छोड़ ऊपरी कुछ लेता नहीं..। तो वहीं कुछ बुद्धिमान लोग मुस्कुराते हुये इनसे सवाल करते कि हाथी के खाने का दाँत देखा है क्या तुमने ? छापेमारी टीम के प्रस्थान के पश्चात नेकराम रातभर इसी सोच में करवटें बदलता रहा कि जरा देखा तो जाए कि सेठ के विरुद्ध पुलिस ने क्या मामला दर्ज किया है..। ( दृश्य-3) अगले दिन सुबह समाचार पत्रों को देखते ही नेकराम का मुख मलिन पड़ जाता है..। " हे भगवान ! यह कैसे हो गया.. ? नहीं - नहीं ऐसा नहीं हो सकता है.. !!"
- नेकराम बुदबुदाता है..। उसी नये अफ़सर के हवाले से छपी इस ख़बर ' आल इज ओके ' के साथ उसे यह भी पढ़ने को मिला था कि किसी पड़ोसी ने द्वेष भावना से धर्मात्मा सेठ के विरुद्ध झूठी शिकायत की थी..। साथ ही समाचार पत्रों में आगे यह भी लिखा हुआ था कि सेठजी का नागरिक अभिनंदन ' भ्रष्टाचार मिटाओ ' संस्था के बैनर तले किया जाएगा.. जिस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि स्वयं नये साहब ही होंगे..और दोखीराम जी नये साल में अपनी फैक्ट्री की ओर से किये जाने वाले धर्मार्थ कार्यों जैसे निर्धन कन्याओं का विवाह , गरीब मेधावी छात्रों को आर्थिक मदद और मुहल्ले में स्थित मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए मोटी रक़म देने की घोषणा इसी मंच से करेंगे..। पासा उलटा पड़ा देख , नेकराम अज्ञात भय से सिहर उठा था ..। सप्ताह भर बाद नेकराम पर दुष्कर्म का मामला दर्ज हो जाता है.. हालाँकि उसपर लगा आरोप बिल्कुल झूठा था ..परंतु वह जेल चला जाता है.. बंदीगृह में विक्षिप्त- सा हो गया था नेकराम.. जुगाड़तंत्र ने उसके स्वाभिमान को बड़े ही निर्दयता से कुचल दिया गया था.. । यहाँ तक कि कोर्ट-कचहरी के खर्च और आरोप लगाने वाली महिला से सुलह- समझौता करने में उसका घर तक बिक जाता है..। घर खाली कर जब वह जा रहा होता है..तो मुहल्ले वाले तंज़ कसते है.. बड़ा तोप बन रहा था ससुरा..। राम - राम ! ऐसे धर्मात्मा सेठ को फंसा रहा था..अब भुगते अपने करनी का फल..। मुहल्लेवासियों के मुख से ऐसे कठोर वचन सुन नेकराम की आँखें डबडबा गयी थीं..उसका हृदय यह कह चीत्कार कर उठा था कि उसने तो सबकी भलाई के लिए ही इतना बड़ा खतरा मोल लिया .. और उसके साथ हुये इस अन्याय का प्रतिकार न सही, पर यह तिरस्कार क्यों कर रहे हैं ये सभी ..? ..अपने ही मुहल्ले में पल भर ठहरना भी अब उसके लिए भारी पड़ रहा था..। वह समझ चुका था कि नये साहब की ईमानदारी पर उसका विश्वास ही झूठा था .. ! अन्यथा यह तथाकथित सभ्य समाज उसे " झुठ्ठा " क्यों कहता...? - व्याकुल पथिक