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Friday, 25 January 2019

वो सुबह कभी तो आयेगी..

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युवाओं के लिये यह "अवसाद युग" है। अनापेक्षित आंकाक्षा रूपी यह "ऑक्टोपस"  अपनी मजबूत भुजाओं में युवा वर्ग के मन- मस्तिष्क को इस तरह से जकड़ ले रहा है कि वह संज्ञा शून्य हो जा रहा है।
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 इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नज़्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी..

   उस सुबह की उम्मीद जब टूट जाती है, मानव जीवन पर जब अंधकार पूर्ण ग्रहण लगा देता है ,हृदय जब यह समझ लेता है कि ऐसा कोई नहीं है जिससे स्नेह का प्रतिदान या अवलंबन इस जग से प्राप्त कर सके,संसार के हर रिश्ते बेगाने लगने लगते , तब व्यथित हृदय की पीड़ा शब्द बन जाती है-

क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है
हद-ए-निगाह तक जहां गुबार ही गुबार है
ये किस मुकाम पर हयात, मुझको लेके आ गई
न बस खुशी पे कहां, न ग़म पे इख्तियार है ...

  यही अवसाद है , जब भी मानव अपने सामान्य जीवन से राह भटक जाता है, परिस्थितियाँ चाहे जो भी हो,  प्रेम का बंधन छलावा लगता है, महत्वाकांक्षाएँ बोझ बन जाती हैं,पद- प्रतिष्ठा और वैभव नष्ट हो जाते हैं , भ्रष्टतंत्र में ईमानदारी का उपहास होता है, श्रम का मूल्य नहीं मिलता है, जुगाड़ तंत्र प्रतिभाओं का गला घोंट देता है,तब हृदय चित्कार कर उठता है। वह नियति से सवाल करता है-

 हसरत ही रही मेरे दिल में बनूँ तेरे गले का हार
दर्पण को देखा, तूने जब जब किया श्रृंगार
फूलों को देखा, तूने जब जब आई बहार
एक बदनसीब हूँ मैं मुझे नहीं देखा एक बार..
     
      पत्रकारिता के क्षेत्र में रह कर ऐसी कितनी ही हृदय विदारक घटनाओं को देखा और समझने का प्रयास करता रहा हूँ , आखिर क्यों अवसादग्रस्त व्यक्ति को मौत को गले लगाना ही मुक्ति पथ समझ में आता है।

     नगर के एक ख्याति प्राप्त चिकित्सक की पुत्री , जो की इंटरमीडिएट की छात्रा थी, ने गत वर्ष अपने बंगले में फांसी लगा ली।  रात्रि में उसने अपने परिवार के साथ भोजन किया,  इसके बाद अपने कमरे में गयी और सुबह सब कुछ समाप्त।
शुभचिंतकों की भीड़ जुट गयी,तमाशबीनों की तरह- तरह की बातें शोकाकुलपरिजनों के हृदय और प्रतिष्ठा को कहीं और अधिक आहत कर रही थीं। पता चला कि अभिभावकों की उम्मीद उसकी महत्वाकांक्षा बन गयी और प्रवेश परीक्षा में मिली असफलता ने जिस अवसाद को जन्म दिया, वह जीवन पर भारी पड़ा। यह अवसाद ही  तो है, जब कोमल हृदय की महिलाएँ अपने मासूम बच्चों संग मौत की छलांग लगा लेती हैं। प्रेम के बंधन को टूटते देख कितने ही युगल एक दूसरे का हाथ थाम साथ मरेंगे की राह पर बढ़ लेते हैं।

       युवाओं के लिये यह "अवसाद युग" है। अनापेक्षित आंकाक्षा रूपी यह "ऑक्टोपस"  अपनी मजबूत भुजाओं में युवा वर्ग के मन- मस्तिष्क को इस तरह से जकड़ ले रहा है कि वह संज्ञा शून्य हो जा रहा है।

            मैं जिस अवसाद की बात करना चाहता हूँ, वह है सतकर्म का उपहास ,यह एक ऐसी सजा है , जो इंसान के हृदय को सर्वाधिक चोट पहुँचाती है। हर क्षेत्र में एक सच्चे व अच्छे व्यक्ति को उपेक्षा का दंश सहते देखा है मैंने। बात राजनीति से शुरू करूँ, तो माननीय बनने का अवसर किसे मिल रहा है। उसे ही न जो धनबल, जातिबल और बाहुबल से सम्पन्न हो। आमतौर पर निष्ठावान आम कार्यकर्ताओं की हिस्सेदारी राजनीति में दोयम दर्जे के पदाधिकारियों तक ही सीमित है, उस राजनेता की पीड़ा जब अवसाद बन जाती है,तो पूरे समाज पर उसका आवरण छाने लगता है। सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है। यही तो हो रहा है न वर्तमान में ?

       राजनीति की बात छोड़े,  मैं अपने पत्रकारिता जगत और स्वयं से जुड़े कटू अनुभूतियों को बताना चाहूँगा। इस क्षेत्र में छब्बीस वर्ष गुजारा हूँ। आज भी बेरोजगारों जैसा हूँ । लेखनी , निर्भिकता और निष्पक्षता की सराहना कभी हुई भी थी । लम्बे समय से राजकीय मान्यता प्राप्त पत्रकार हूँ। लेकिन पत्रकारिता पूरी तरह से व्यवसाय बन गयी, हम जैसे पत्रकार जो नहीं बदलें, जीवन की खुशियों से वंचित रह गये,चले पुरस्कार नहीं सही लेकिन इस कर्तव्य का जब जुगाड़ तंत्र में उपहास होता है,तो यही अवसाद को जन्म देता है। चुनाव में पराजय के बाद सत्ता की चकाचौंध से वंचित राजनेता  आसमान से जब जमीन पर गिरते हैं,तो अवसाद में वे ऐसे सिद्धांत विहीन गठबंधन की राजनीति करते हैं  कि  लोकतंत्र की गरिमा गिरती है।

     धर्मग्रंथों पर दृष्टि डाले , तो परिजनों को युद्ध क्षेत्र में देख अर्जुन को जो अवसाद हुआ, कृष्ण ने विराट रूप के माध्यम से उसका ही निवारण किया है, जो गीता में वर्णित है । रामचरित मानस में जब सीता की खोज में निकले बंदरों ने समुंद्र उस पार लंका जा , वापसी में संदेह जताया,हनुमान भी मौन थें, अवसाद छाने लगा,तभी जामवंत के जादुई शब्द ने-

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना, पवन तनय बल पवन समाना।बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ...
 
      पल भर में इसका निवारण कर दिया, उल्लास से भर उठे हनुमान ,उन्हें अपने पराक्रम का अनुमान हो गया।  दुर्गासप्तशती के पहले  ही अध्याय में मेधा ऋषि ने अवसाद ग्रस्त राजा सुरथ और समाधि वैश्य को भगवती के रुप में उस तेजपुंज का अवलंबन दे , इन दोनों के जीवन में उल्लास का संचार किया। मेधा क्या है ,बुद्धि ही तो है न ?

     आशय यह है कि अवसाद दूर हो सकता है, यदि कोई अवलंबन हो। बुद्ध, विवेकानंद सभी ने इसी तरह से अपने अवसाद को दूर किया।  सामान्य मानव जीवन में पति, पत्नी प्रेयसी , मित्र, अभिभावक और गुरुजनों में से किसी ने भी स्नेह वर्षा यदि उचित समय पर की , तो यह भावनात्मक आश्रय विवेक का सृजन करता है, अवसाद निवारण के लिये वृद्ध माता- पिता के लिये भी हमारा यही स्नेह होना चाहिए। जो लोग अपनों के स्नेह से वंचित रह गये हैं, बंजारों सा जीवन जी रहे हैं,अवसाद में हैं ,उनके आहत हृदय को यह प्रार्थना भी सुकून दे सकती है-

तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो
तुम्ही हो साथी तुम्ही सहारे
कोई ना अपने सिवा तुम्हारे
जो खिल सके ना वो फूल हम हैं
तुम्हारे चरणों की धूल हम हैं...

  वैसे तो, अवसाद का घटाटोप इस अर्थयुग में छाता ही जा रहा है। दौलत से शोहरत हासिल करना चाहता है, आज का इंसान। इस दौड़ में जो पीछे छूट जाता, किसी मोड़ पर वह अकेला हो जाता,उसके अपने ही जब उसकी असफलता पर उपहास करते हैं , कोई अपना नहीं होता जो आगे बढ़कर हाथ थाम ले, फिर भी कोई अवलंबन तलाशें, जो यह विश्वास दिलाता रहे-

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी, राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी, गलियों भीख न मांगेगा
ह़क मांगने वालों को जिस दिन, सूली न दिखाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी..

   सदाबहार गीतों और दर्द भरे नगमों में मैं अपने इसी अवलंबन को ढ़ूंढ़ लेता हूँ।

    पथिक का जीवन भी स्नेहीजनों के बिछुड़ने से अवसाद से भरा रहा है। पत्रकारिता की परिभाषा अब जबकि व्यापार हो गयी है,तो इसमें गुजरे लम्बे जीवन और उस अनुभव का भी मोल नहीं रहा। वह तो ऐसा सौदागर बन गया है कि जो दर्द खरीदता और बेचता है । जहाँ सकारात्मकता के अमृत कलश की पूछ हो , वहाँ दर्द का सौदा कौन करता है। सो, वह पथ पर बिल्कुल अकेला है। उसका तो यही  मानना है कि उजाले का सब रिश्ता है, अंधेरे का संबंध दो लाशों के मिलन  या फिर तन्हाई से है। इस मिलन की चाह और तन्हाई से जो बाहर निकल सका ,वही अवसाद से मुक्त हो सका।

    जब भला मानुष बन कर भी किसी का स्नेह नहीं मिल रहा हो, इस अवसाद को यूं समझ गले लगा लो बंधु-

 ठोकर तू जब न खाएगा,
पास किसी ग़म को न जब तक बुलाएगा
ज़िंदगी है चीज़ क्या नहीं जान पायेगा
रोता हुआ आया है चला जाएगा...

  मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म "जोकर" का है यह गीत , जिसे कवि गोपालदास "नीरज" ने लिखा है। इसी अंदाज में दुनिया के सर्कस को समझ रहा हूँ। जो स्नेह की राह में मिल रहे हर ठोकर पर सावधान करता रहा है , ये भाई जरा देख कर चलो..

      जीवन का यह कड़ुवा अनुभव (गम) ही अवसाद में पथिक का दीपक बन जाता है। जब कोई अवलंबन नहीं हो, यह दर्द पथिक की किस्मत बन जाता है। जिसने उसे ब्लॉग पर सृजन का अवसर दिया है।
    यह सदैव याद रखें कि नेत्रों की नमी से नहीं हृदय में दबी  वेदनाओं के पिघलने से अवसाद दूर होता है।