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Monday 4 May 2020

बेबसी


 लॉकडाउन बढ़ने के तीसरे चरण की घोषणा होते ही विपुल के माथे पर चिन्ता की लकीरें लकीरें और गहरी हो चली थीं। खाली बटुए को देख वह स्वयं से प्रश्न करता है कि अब क्या करें ? यद्यपि शहर में हितैषी तो कई हैं ,पर वर्षों से उसने किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाया था। उसका यह स्वाभिमान भी खंडित होने को था ,किन्तु तभी उसकी चेतना ने सावधान करते हुये कहा- " जानते हो न कि ऐसे वक़्त में किसी से आर्थिक सहयोग की मांग, आपसी संबंधों को लॉक करने जैसा है।"
   जीवन ने उसकी यह कैसी विचित्र परीक्षा लेनी शुरू कर दी है ? हाँ, राशनकार्ड पर उसे सरकार की मेहरबानी से मुफ़्त में चावल मिल गया था। अतः दाल अथवा साग-भाजी न हो तो भी चलेगा,परंतु मुन्ने के दूध के लिए पैसा कहाँ से लाए ? अभी उसने अपनी तीन साल बड़ी बहन गुड्डी की तरह मांड-भात खाना नहीं सीखा है। ऊपर से कमरे का तीन महीने का किराया सिर पर आ चढ़ा था। भवन स्वामी सहृदयी है,फ़िर भी कुछ तो देना ही था, अन्यथा भविष्य में यही बकाया पैसा पहाड़ जैसा लगेगा। अतः सेठ से वेतन के मिले आठ हजार रूपये में से आधा तो किराया चुकाने में निकल गया था। 

    परिवार का मुखिया होने के कारण पत्नी और बच्चों की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना उसका नैतिक कर्तव्य है,परंतु अब तो इस लॉकडाउन में ' दाल-रोटी' स्वप्न-सी प्रतीक हो रही है। इसी चिन्ता में घुला जा रहा विपुल समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर वह क्या करे ? सेठ ने स्पष्ट कह दिया था-- " देखो विपुल ! माना कि तुम मेरे प्रतिष्ठान के विश्वसनीय कर्मचारी हो और इसी से मैंने मार्च का तुम्हारा पूरा पगार आठ हजार गिन दिया है,किन्तु मेरी भी परिस्थितियों को समझते हुये तालाबंदी के दौरान वेतन के संदर्भ में कोई बात नहीं करना , शेष जब दुकान खुलेगी तब देखा जाएगा।"
    स्पष्ट था कि लॉकडाउन की अवधि का वेतन नहीं मिलेगा। समझदार के लिए इशारा काफ़ी है। प्रतिष्ठान स्वामी के इस रूखे व्यवहार से आहत अपने हृदय को विपुल कुछ यूँ समझाता है--"  देख भाई ! सेठ का कथन अनुचित नहीं है । व्यवसायियों के पास पैसे घर में होते ही कहाँ हैं। उनका धन उनके व्यापार में लगा होता है। उसी में से जो कुछ आता है,उसे वे महाजनों की देनदारी, नौकरों की तनख़्वाह, सरकारी टैक्स , बीमा , बच्चों की महँगी शिक्षा और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर ख़र्च करते हैं। ये सेठ-महाजन कोई दानवीर कर्ण नहीं हैं कि घर फूँक तमाशा देखें। "

    वैसे, छोटे शहर में अधिकांश प्रतिष्ठान ' सफ़ेद हाथी' की तरह होते हैं। समान चाहे जितना रख लो, फ़िर भी बोहनी की प्रतीक्षा में दिन चढ़ जाता है। उसके सेठ ने भी लगन-विवाह को देख लाखों का माल मंगा रखा था। जिससे आमदनी तो दूर , बक़ाये का भुगतान भी मुश्किल है, क्योंकि लॉकडाउन के बाद वैश्विक स्तर पर आर्थिकमंदी तय है। वे ख़र्च का बोझ कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी कर सकते हैं। यदि उसने और दबाव बनाया तो क्या पता कि पहला नंबर उसी का हो ।
  " नहीं-नहीं ! वह बेरोज़गार होना नहीं चाहता।"
 --विपुल ऐसी कल्पना मात्र से सिहर उठता है। वह सोनाली से अपनी व्यथा कथा कह मन हल्का कर सकता था ,किन्तु पत्नी को और व्यथित करना नहीं चाहता था । विवाह के पश्चात अपनी जीवनसंगिनी को उसने दो संतानों के अतिरिक्त और दिया ही क्या है? बेचारी नोन-तेल की चिन्ता में उलझी रहती है।  यह एक कमरा ही उसका घर है। इसी में  शयनकक्ष और रसोईकक्ष दोनों हैं। ऐसे में कभी कोई मेहमान आ जाए तो सोनाली शर्मसार हो उठती है। किसी प्रकार ईंट के सहारे पलंग को थोड़ा ऊँचा कर , उसके नीचे गृहस्थी के सारे समान छिपाकर वह रखा करती है। कमरे को सजा-सँवार कर रखने का पत्नी का यह हुनर देख वह चकित रह जाता है। उसने प्रयास किया था कि कोई ऐसा मकान मिले, जिसमें किचन  अलग से हो। पर क्या करे वह , ढ़ाई हजार से अधिक किराए का कमरा लेने का उसमें सामर्थ्य नहीं है। अरे हाँ ! इसी जुलाई से गुड्डी को किसी स्कूल में दाख़िला दिलवाना है। लेकिन पैसे की व्यवस्था कैसे हो ? कमरे का किराया देने के पश्चात वेतन के शेष बचे हुये रूपये में से हजार-बारह सौ मुन्ना के दूध का होता है। उसके इस मामूली पगार में से भी सोनाली कुछ रूपये ऐसी ही आपाताकालीन परिस्थितियों के लिए कतर-ब्योंत कर बचा लेती थी ।  बच्चे यदि बीमार हो जाए तो उन्हें गोद में उठाए जिला अस्पताल की दौड़ हो अथवा  सरकारी गल्ले की दुकान से राशन लाना, गृहस्थी से संबंधित सारे कार्य बिना किसी शिकायत के सोनाली किया करती थी, क्योंकि वह सुबह निकला तो फ़िर सेठ की दुकान  बंद करवा कर ही रात्रि को लौटता था। अपनी  ड्यूटी के प्रति ज़िम्मेदार जो था । 

    विवाह के पश्चात बीते सात वर्षों से सोनाली कुशल गृहिणी की तरह सबकुछ संभाल रही है। सोनाली चाहती है कि घर पर ही कोई  काम मिल जाए, जिससे बच्चों की देखभाल के साथ ही गृहस्थी की नैया पार लगाने में विपुल की सहायिका बन सके। पत्नी की यह जिजीविषा और उसकी मुस्कान की मृदुलता ही इस दौड़ती-भागती संघर्षमय ज़िदगी में विपुल की औषधि है। किन्तु इसबार की होली उन्हें ख़ासी महंगी पड़ी है। उसी के कहने पर सलोनी ने न चाहकर भी वह कुछ रुपया जो संचित कर रखा था, सभी के नये वस्त्र और मिष्ठान आदि पर ख़र्च दिया था। तब उसे क्या पता था कि ऐसी भी कोई वैश्विक महामारी आ जाएगी कि हाथ पर हाथ रख घर बैठना पड़ेगा। 
     
     आज भगौने ने सिर्फ़ चावल देख विपुल अधीर हो उठा था। पत्नी का स्नेहिल स्पर्श उसके मन के ताप को कम नहीं कर पा रहा था। अपनी इस दीनता पर वह स्वयं को धिक्कारता और सवाल करता कि कर्मपथ पर होकर भी उसके श्रम का कोई मोल क्यों नहीं है ? उसका पुरुषार्थ व्यर्थ है। समय और भाग्य का यह अत्याचार उसके लिए असहनीय था। 
 वह स्वयं से कहता है- " वाह ! क्या नाम रखा था घरवालों ने विपुल ! और यहाँ दरिद्रता सुरसा की तरह मुँह फैलाए खड़ी है।"

     रात के बारह बज चुके थे ,किन्तु आँखों में नींद की जगह उसका उद्विग्न हृदय प्रकृति और मनुष्य की न्याय व्यवस्था के प्रति विद्रोह का शंखनाद कर रहा था। उस जैसे निम्न-मध्यवर्गीय व्यक्ति के साथ इस विपत्ति में भी यह पक्षपात क्यों हो रहा है ? क्या श्रमिकों से उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी है ? इस संकट में सरकार, उसके किसी जनप्रतिनिधि और सामाजिक कार्यकर्ताओं को यह बोध क्यों नहीं हो रहा है कि   उनका ज़ेब भी खाली है। सरकार की तरह उनके प्रतिष्ठान स्वामी उन्हें तालाबंदी के दौरान वेतन नहीं दे सकते है। अतःश्रमिकों और किसानों की तरह निम्न-मध्यवर्गीय लोगों की मदद के लिए  सरकार कब आगे आएगी ? क्या ये रहनुमा इतने अबोध हैं, जो इनके यह कहने मात्र से कि लॉकडाउन में कर्मचारियों का वेतन न काटा जाए , ये सेठ -महाजन मान जाएँगे? शासन-सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधियों का यह राजधर्म नहीं है कि निम्न-मध्यम वर्ग को भी सरकार से मदद प्राप्त हो ?क्या वे भी अपने स्वाभिमान को ताक पर रख हाथ फ़ैलाये सड़क पर उतर आए ,तभी सरकार की दृष्टि में वे ग़रीब समझे जाएँगे ? क्या इसीलिए वह अपना गाँव छोड़ शहर आया है कि उसकी आँखों के समक्ष उसकी पत्नी नमक, तेल संग चावल खाकर दिन गुजारे। धिक्कार है ऐसी शिक्षा पर कि पेट की चिन्ता उसकी चिता बनती जा रही हो ।  
   वह अनपढ़ ही क्यों नहीं रह गया। अपने गाँव में चाहे जैसे भी रह लेता। खेती- किसानी अथवा मज़दूरी कुछ भी कर लेता। परंतु ऐसे बूरे दिन नहीं आते । उसे स्मरण है कि यहाँ शहर के एक कॉलेज से डिग्री लेने के पश्चात अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न किया था,किन्तु एक ग़रीब किसान के पुत्र को इस अनज़ान डगर में कोई मार्गदर्शक नहीं मिला। भाग्य ने भी छल किया। सीढ़ी- साँप के खेल में वह सफलता के करीब पहुँच कर भी फिसलता रहा। और फ़िर एक दिन जब उसे यह आभास हुआ कि सरकारी नौकरी मिलने की कोई संभावना शेष नहीं रही ,तो अपने सेठ की दुकान पर आजीविका की तलाश में जा पहुँचा। एक साधारण कर्मचारी से अब मैनेज़र के पद पर आसीन है , किन्तु वेतन आठ हजार ही है। इस छोटे शहर में इससे अधिक की उम्मीद किसी भी प्रतिष्ठान से नहीं की जा सकती है। 
     यद्यपि आज वह न धनिक है ,न श्रमिक है और न ही अपनी सरकार , प्रतिष्ठान स्वामी और सामाजिक संगठनों की दृष्टि में सहानुभूति का पात्र है। वे सभी इस लॉकडाउन में सच्चे जनसेवक का तमग़ा लेने के लिए दलित-मलिन बस्तियों की ओर दौड़ रहे हैं। श्रमिकों को तलाश रहे हैं। ऐसे वर्ग के साथ ग्रुप फ़ोटोग्राफ़ी से उनके यश में वृद्धि  होगी और जनता उन्हें 'कोरोना योद्धा' कह सम्मानित करेगी। उधर, वह ठहरा निम्न-मध्यवर्गीय ,बिना घर से बाहर निकले , बिना दीनता प्रदर्शित किये, बिना फ़ोटोग्राफ़ी कराए कौन करेगा उसकी मदद ?  उसके वार्ड में कई राजनेता-समाजसेवी है। आश्चर्य तो यह है कि इनमें से किसी ने भी उसके द्वार पर यह पूछने के लिए दस्तक नहीं दी कि विपुल भाई कैसे हो ! 
   
   उसका अशांत चित प्रश्न किये जा रहा था--
  "ओह ! विपुल ,कितने नासमझ हो तुम, जो गाँव छोड़ शहर चले आए । पाषण निर्मित ये ख़ूबसूरत इमारतें तुम्हारी विवशता नहीं समझ सकती हैं। इन ऊँची चारदीवारियों के उस पर तेरी मौन पुकार कोई नहीं सुनेगा। "
  
  विपुल बुदबुदाता है- "  काश ! वह पुनः किसान और मजदूर पुत्र बन कर गाँव वापस लौट पाता। शासन के रिकॉर्ड में उसकी कोई तो प्रमाणिक श्रेणी होती , ताकि इस विपत्ति से उभरने के लिए दिये जा रहे सरकारी अनुदान में उसका भी  हिस्सा तय होता। "
   परंतु वह जिस जीवनधारा में बह रहा है, शायद   उसका किनारा नहीं है। उसके कठोर श्रम, अनुशासित जीवन और स्वामिभक्ति का मूल्य नहीं है।वह आजीविका के लिए ऐसा कार्य करने को विवश है जिसमें आत्मनिर्भरता नहीं है। विपत्ति में किसी से सहयोग की आशा नहीं है। ऐसा जीवन संघर्ष देख वह स्वयं पर से विश्वास खोता जा रहा है। निर्धनता से उत्पन्न लज्जा, ग्लानि और कुंठा ने उसे तेजहीन कर दिया था। 
 निम्न-मध्य वर्ग की यह कैसी बेबसी है ?

      ---व्याकुल पथिक
    
चित्रः गूगल से साभार