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Monday 29 June 2020

अंजाम

       मन के भाव
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नक़ाब जब हटता है
और सच सामने आता है

मुखौटे में शैतान देख

रुदन तब मुस्कुराता है

चेहरा जब बदलता है

और शूल बन  चुभता है

दिल का ग़जब हाल देख

बावला वैरागी कहलाता है

उम्मीद जब टूटती  है

चिता अरमानों की सजती है

मरघट पर  मेला देख

भटका दृष्टा बन जाता है

संवेदना तब सिसकती है

जब घात बड़ों की सहती है

पढ़े -लिखो का खेल देख

हंस  बगुला बन जाता है

भावना जब धधकती है

तब काँच  बन पिघलती है

प्रतिशोध की ज्वाला देख

मानव  दानव   बन जाता है

आह तब निकलती है

जब छल मित्र का सहती है

धोखे का अंजाम देख

पारस  लौह बन जाता है !! 

   -व्याकुल पथिक


Wednesday 24 June 2020

सौदा

मन के भाव
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    "हमारा यह नटखट लल्ला बाबा जी का पक्का भक्त हो गया है। अभी साढ़े तीन साल का है ,पर देखो न ऐसा कपालभाति प्राणायाम करता है कि बड़े-बड़े योग साधक चकित रह जाते हैं..!"

      अमुक प्रतिष्ठान पर खड़ीं उन दोनों महिलाओं का वार्तालाप सुनकर मयंक ने उत्सुकतावश अपनी दृष्टि उस ओर डाली ,तो देखा कि वे औषधीय गुणयुक्त चाय का एक पैकेट खरीद रही थीं। साधारण पोशाक में लिपटी बिना साज- श्रृंगार के ये प्रौढ़ और युवा औरतें आपस में माँ-बेटी थीं। जिनकी निगाहें दुकान में करीने से सजाकर रखे गये बाबा जी के तरह-तरह के स्वास्थ्यवर्धक उत्पादों पर टिकी हुई थीं। वे दुकानदार से ऐसे कुछ उत्पादों का मूल्य पूछतीं और फ़िर उसकी क़ीमत सुनकर मनमसोस के रह जाती थीं। यहाँ से उन्होंने सिर्फ़  एक पैकेट दिव्य चाय ही लिया था। हाँ, बच्चे के ज़िद करने पर प्रौढ़ महिला अपने बटुए को टटोलती है । उसने पाँच-पाँच के दो सिक्के उसमें से निकाले और आटे से निर्मित बिस्किट का एक छोटा सा पैकेट बच्चे को थमा दिया । वह चाहती तो पाँच रुपये वाला पारले-जी बिस्किट भी उसे दिला सकती थी,पर बाबा जी के उत्पाद पर उसे पूरा भरोसा था । 


         वे माँ-बेटी बाबा जी की सच्ची अनुयायी थीं, जो दुकान पर खड़े एक अन्य योग साधक को बड़े गर्व से बता रही थीं कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य साधारण चाय नहीं पीता है। वे सभी सुबह योग-प्राणायाम कर गिलोय ,तुलसी और कालीमिर्च इत्यादि डाल के बनाये गये काढ़े का सेवन करते हैं। उनका लल्ला भी यह कड़वा काढ़ा मांग कर पीता है। यह उनके लिए जीवन संजीवनी है। बाबा जी ने बताया है।  हाँ,जब कभी घर में कोई अतिथि आता है,तभी वे इस दिव्य पदार्थों से बनी चाय के पैकेट का उपयोग करती हैं। वे उन्हें दूध-चायपत्ती वाली साधारण चाय पिला कर बाबा जी की आज्ञा का उलंघन नहीं कर सकती हैं।

     वे महिलाएँ जिनके पास स्वयं दिव्य चाय पीने का सामर्थ्य नहीं हो ,फ़िर भी गुरु में उनकी ऐसी प्रबल आस्था देख पल भर के लिए मयंक को अपने आश्रम वाले जीवन का स्मरण हो आता है। जहाँ गुरु में उसकी श्रद्धा तो थी,किन्तु उनकी वाणी को तर्क की कसौटी पर कसने का प्रयत्न करता था। वह स्वयं से सवाल करता था कि ज़ब ईश्वर एक है, तो उस तक पहुँचने का मार्ग बताने वाले धर्मगुरुओं में एक दूसरे की उपासना पद्धति को लेकर इतनी घृणा क्यों है ? वे उपासना के तरीके को लेकर अपने शिष्य के हृदय में "विश्वास परिवर्तन" कराना क्यों चाहते हैं ?  संभवः आस्था की पाठशाला में "तर्क और विज्ञान " जैसे शब्द नहीं हैं,अतः मयंक सच्चा शिष्य नहीं बन सका था। 

     और आज़ भी इन दोनों महिलाओं की गुरु- आस्था को देख वह आनंदित तो हुआ ,लेकिन उनकी आँखों में छिपी ग़रीबी की इस विवशता को पढ़ कर मयंक का संवेदनशील हृदय द्रवित हो उठा था। उसके मन में पुनः अनेक प्रश्न उठ खड़े हुये हैं। लेखन कार्य से जुड़ा होने के कारण वह अनेक गुरुओं के दरबार में गया है। विंध्यक्षेत्र के एक प्रमुख आश्रम में उसने देखा है कि संपन्न भक्तों को गुरु की विशेष कृपा और प्रसाद की बड़ी-बड़ी पोटलियाँ मिलती हैं,जबकि सामान्य भक्त इस सुविधा से वंचित हैं ,चाहे गुरु के प्रति उनमें कितनी भी आस्था क्यों न हो । स्वयं महामाया विंध्यवासिनी के मंदिर में मायापति (वीआईपी) भक्तों के चरणों तले आम दर्शनार्थियों की आस्था कुचली जाती है। ऐसे उपासना स्थलों पर विशिष्ट व धनाढ्य भक्तों की ही पूछ के पीछे व्यापार नहीं तो और क्या है ? फ़िर इन दोनों ग्रामीण महिलाओं की आस्था का क्या मोल है?

यह सवाल आज़ भी उसके लिए यक्ष प्रश्न है! 

  मयंक को नहीं पता कि क्या कभी इन निर्धन महिलाओं में इतना सामर्थ्य होगा कि वे बाबा जी द्वारा निर्मित स्वास्थ्यवर्धक खाद्य सामग्रियों को "गुरु प्रसाद" समझ घर ला सकेंगी। इस अर्थयुग में उसका यह कैसा विचित्र प्रश्न है ?  यह जानते हुये भी कि इस सभ्य संसार में सब-कुछ व्यापार है । अन्यथा ऐसा कोई एक सस्ता स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद तो इन ग़रीब भक्तों के लिए किसी न किसी प्रतिष्ठान पर होता ही , जिसे वे अपने परिवार के लिए आसानी से क्रय कर सकती , किसी सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान पर मिलने वाले राशन की तरह ? काश ! इनके निष्ठा और विश्वास के लिए ऐसी कोई व्यवस्था संभव हो पाती।


     यकायक मयंक को अपने एक संबंधी के उस उपदेश की याद आ गयी थी। जब वह कालिम्पोंग में रहता था। जहाँ उनकी मिठाई की दुकान थी, वहीं पहाड़ की ऊँचाई पर एक सरकारी कन्या विद्यालय भी था। लंच के समय प्रतिदिन उस पहाड़ी से नीचे उतर कर लगभग चालीस- पचास नेपाली छात्राएँ  पचास पैसे का सिक्का लिये उनके प्रतिष्ठान पर आया करती थीं। निर्धन परिवार की ये  लड़कियाँ भूजा (बेसन का नमकीन सेव)  खरीदने आती थीं। पचास पैसे में और कुछ मिलना संभवः भी नहीं था। दुकान पर इनके लिए भूजा के बड़े-बड़े पैकट तैयार कर पहले से रख दिये जाते थे। जिनमें कम से कम एक रुपये का भूजा होता था। मयंक ने स्वयं तोल कर उसे देखा था। वह समझ नहीं पाता था कि दुकान पर यह घाटे का व्यापार क्यों किया जाता है ?  आखिर एक दिन उसने अपने संबंधी से पूछ ही लिया। जिसपर प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा था-   
  " हम व्यापारी अवश्य हैं,किन्तु ये बच्चे हमारे लिए 'करेंसी' नहीं हैं ,जो सिक्के का वजन देख कर इन्हें सौदा दिया जाए। देखना ही है, तो भूजा लेने के पश्चात इनके मासूम चेहरे पर मुस्कान देखिये आप.. ।" उनका कहना था कि व्यापार में भी मानवीय संवेदनाएँ  होती हैं। 

     काश ! उनकी यह बात धर्म के तथाकथित उन ठेकेदारों को भी समझ में आ जाती, जो धर्म को ' व्यापार ' और भक्त को 'करेंसी' समझते हैं । जिसके मूल्य के अनुपात में अपना आशीर्वाद भक्त को प्रसाद की छोटी- बड़ी पोटली के रूप में देते हैं। इनमें से कोई भी धर्मगुरु घाटे का व्यापार करना नहीं चाहता है। वे उस बच्चे की तरह खरा सौदा नहीं करना चाहते हैं, जो बाद में गुरु नानक देव बना। कोई भी गुरु नानक, कबीर और रैदास नहीं बनना चाहता है। वे तो मुनाफ़े वाला व्यापार चाहते हैं। फ़िर ऐसे में वे पचास पैसे में एक रुपये का भूजा जैसा कोई उत्पाद ग़रीब भक्तों को कैसे देंगे ..?

   तो क्या इस दुनिया में 'करेंसी' ही अब सब-कुछ है..! धर्म,शिक्षा, चिकित्सा, साहित्य, राजनीति और यहाँ तक की समाजसेवा भी सौदा है..!
आस्था,त्याग समर्पण, संवेदना और भावना जैसे शब्द उसी प्रतिष्ठान के महंगे उत्पादों की तरह सजावट की सामग्री मात्र हैं..! जिन पर निर्धन नहीं सिर्फ़ धनिकों का अधिकार है, क्यों कि व्यवसायिक दृष्टि से वह कागज़ का टुकड़ा भारी है..? 
    परंतु याद रखें जिस दिन हमें हृदय की तुला पर वजन करना आ जाएगा, उन छात्राओं का धातु निर्मित पचास के सिक्के वाला पलड़ा भारी मिलेगा । हम करेंसी से 'इंसान' बन जाएँगे। वे व्यापारी से संत बन जाएँगे,बिल्कुल गुरु नानक देव की तरह हम खरा सौदा कर पाएँगे। 
      
  -व्याकुल पथिक
  

Wednesday 17 June 2020

अभिभावक-धर्म

 ( जीवन की पाठशाला से )
  
   मैं प्रातः भ्रमण पर था,तभी देखा कि एक युवती संभवतः किसी कॉलेज की छात्रा होगी, अपनी पीठ पर बड़ा सा बैग लटकाए तेज़ क़दमों से स्टेशन रोड की तरफ़ बढ़ रही थी। मार्ग में उसे कोई सवारी वाहन भी नहीं मिला था। वह परेशान थी ।
       इतने में स्कूटर पर सवार अधेड़ उम्र का एक व्यक्ति वहाँ आकर बड़ी आत्मीयता से उसे पिछली सीट पर बैठने को कहता है। उसने जिस अधिकार के साथ युवती को स्कूटर पर बैठने को कहा,उससे प्रतीत हो रहा था कि वह उसके परिवार का ही सदस्य है, परंतु यह क्या ? वह लड़की तो गुस्से से आगबबूला हो उठी थी ।अपनी नाराज़गी व्यक्त करते हुये उसने कहा- " आप पास ही टहल रहे थे,फ़िर भी मुझे स्टेशन छोड़ने के लिए ज़ब स्कूटर नहीं निकाला था ,तो अब बीच रास्ते दुलार दिखलाने क्यों आ गये हैं?"
      उसे यह भ्रम था कि अधेड़ व्यक्ति ने जानबूझ कर उसकी उपेक्षा की है। जिस पर अधेड़ व्यक्ति ने अत्यंत संयम का परिचय देते हुये उसे समझाते हुये कहा -"  बेटा, विश्वास करो ,सच में मैंने नहीं देखा था कि तुम घर से कब निकली हो। "
 फ़िर भी उसके क्रोध का शमन नहीं हुआ। स्कूटर पर बैठने से पुनः इंकार कर वह पैदल ही आगे बढ़े जा रही थी। उधर बिना धैर्य खोये उस व्यक्ति ने मार्ग में तीन स्थान पर उसे रोककर स्नेहपूर्ण उसका संदेह दूर करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार वह उस युवती को अपने स्कूटर पर बैठा कर समय से स्टेशन छोड़ आया। तब तक उस नासमझ लड़की को भी अपनी गलती का एहसास हो गया था। उसका अशांत मन हल्का हो गया होगा। आशा करता हूँ कि उसकी यात्रा मंगलमय रही होगी। उस " सच्चे अभिभावक "को देख मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई।   
     आज का मेरा विषय इसी से जुड़ा हुआ है। वस्तुतः 15 से 22 वर्ष के आसपास की यह जो अवस्था है,  किशोर और युवावस्था का वह पवित्र संगम है जिसमें यदि विवेकपूर्वक डुबकी लगा ली तो जीवन में अर्थ,धर्म, काम और मोक्ष सभी सुलभ है,किन्तु संयम खोया नहीं कि यह अवस्था वैतरणी बन निगलने को आतुर मिलेगी।
         यौवन की दहलीज़ पर खड़े बच्चों को इस आधुनिक समाज ने दो नाव पर पाँव रखने को विवश कर दिया है। टेलीविज़न पर  धारावाहिक और विज्ञापनों के माध्यम से युवावर्ग जो कुछ देख रहा है, ऐसी चकाचौंध भरी दुनिया में उसे स्वयं के लिए स्थान बना पाना आसान नहीं है। यह चंद्र खिलौने जैसा है, फ़िर भी वह उसी के पीछे भाग रहा है। वह देख रहा है कि नैतिकता की बातें सिर्फ़ पुस्तकीय ज्ञान है। भ्रष्ट आचरण से पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने वालों का यहाँ जयगान  है।
       अर्थयुग के इस मकड़जाल से किशोर और युवाओं की सुरक्षा का दायित्व अभिभावकों का है,किन्तु जब कभी अपने बच्चों की ऊर्जा की क्षमता को बिना परखे माता-पिता उससे अपने सपनों के बुझे दीप जलाने का प्रयत्न करते हैं,तो यही विभाजित ऊर्जा उनके कुलदीपक पर भारी पड़ती है।
      ऐसे में बच्चे के समक्ष दो विकल्प शेष होता है,पहला अपने अभिभावक की खुशी अथवा उनके भय से उस निर्णय को स्वीकार करना,जिसका अनुसरण उसके लिए अत्यंत कठिन और अरूचिकर हो और दूसरा विवेक रहित विद्रोह , जिस मार्ग पर चल कर वह स्वयं को ही नष्ट कर बैठता है।
  जबकि अभिभावकों का यह प्रयास  होना चाहिए कि बच्चे को स्वयं उसके उत्तरदायित्व का ज्ञान हो, जो उसका पथ प्रदर्शन कर सके।  जिससे उसकी शारीरिक शक्ति, मानसिक तेज,नैतिक बल और शौर्य को सही दिशा मिल सके।
    पिछले सप्ताह अरुण जायसवाल भैया ने मुझे भोजन पर आमंत्रित किया था। उनका छोटा पुत्र वैज्ञानिक है। वह चेन्नई में रह कर भारत सरकार अर्थात देश की सेवा कर रहा है और बड़ा पुत्र दिल्ली में इंजीनियर है। करोड़ों की चल-अचल सम्पत्ति है। पति-पत्नी और ये दो बच्चे,छोटा सा उनका खुशहाल परिवार है। इन दोनों संतान के उज्जवल भविष्य के पीछे उनका कठोर तप है। दिल्ली में बच्चों को उच्च शिक्षा मिले, जिसके लिए उन्होंने अपनी राजनीति और पत्रकारिता दोनों छोड़ दी। उन्होंने आभूषण निर्माण कराने का व्यापार शुरू किया। इन आभूषणों को लेकर वे स्वयं मोटरसाइकिल से पड़ोसी जनपदों में जाया करते थे। उनका यह व्यवसाय अच्छा चल निकला। 
      भोजन करते वक़्त उन्होंने एक प्रेरक प्रसंग की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया। स्कूल में एक दिन उनके छोटे पुत्र ने बेंच पर पड़ी एक पैंसिल अपने बैग में रख ली थी। घर पर उसके पास वह पैंसिल देख उन्होंने पूछा --"बेटा,यह तो मैंने तुम्हें दी नहीं थी ?"  लड़के ने कहा --"पापा, समीप बैठी फलां दीदी (अन्य छात्रा) की छूट गयी थी,जिसे मैं उठा लाया हूँ।" उसका उत्तर सुन कर अरुण भैया ने अपने माथे को हाथ से दो बार ठोका। यह देख उस मासूम बालक ने पुनः पूछा --" क्या मुझसे कोई बड़ी गलती हो गयी?"
 जिस पर उन्होंने कहा --"हाँ बेटा, कल दीदी को उसकी पैंसिल वापस दे, सॉरी बोल कर आना।"    
     बेटे ने वैसा ही किया, पुनः ऐसी कोई भूल उससे कभी नहीं हुई और आज वह वैज्ञानिक है।
पिता का इतना आज्ञाकारी कि उसने विदेश की नौकरी ठुकरा दी। रही बात उनके बड़े बेटे की तो मैंने देखा था कि जब अपने कुछ सहपाठियों के कारण वह मार्ग भटक रहा था , तो अरुण भैया ने  उसे तत्काल यहाँ से हटा कर पढ़ने के लिए दिल्ली भेज दिया था।
   हमें यह समझना होगा कि किशोरावस्था में बच्चों पर निगरानी रखने के लिए माता-पिता को उनका मित्र बनना होगा, न कि मुखिया ।
        पिता-पुत्र के इस मधुर संबंधों को देख मुझे जहाँ हर्ष होता है, वहीं स्वयं पर ग्लानि भी होती है,क्योंकि न मैं अपने परिवार के काम आ सका न स्वयं के, लेकिन इसके पीछे भी एक करुण कथा है। कोलकाता में जिस दिसंबर माह में नानी माँ की मृत्यु हुई थी, उसी माह वहाँ मैंने कक्षा छह की पढ़ाई पूर्ण की थी। अगले वर्ष मार्च में वाराणसी में मुझे सीधे कक्षा आठ के बोर्ड की परीक्षा में बैठा दिया गया और जुलाई में हरिश्चंद्र इंटरमीडिएट कालेज में विज्ञान वर्ग का छात्र हो गया। विद्यालय में मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बनारस हो अथवा कोलकाता सभी जगह कक्षाओं में प्रथम स्थान पर रहने वाला किशोर गणित और विज्ञान की मोटी-मोटी पुस्तकें देख सहम उठा था। वह तो चित्रकार बनना चाहता था। जो अभिभावक उसकी चित्रकला के कभी प्रशंसक थे, उन्होंने ही उसके भविष्य को संवारने के लिए उसके नीचे की स्थिति सुदृढ़ करने की उपेक्षा उसे दो पावदान ऊपर चढ़ा दिया गया,फ़िर यह इच्छा जताई कि वह प्रथम श्रेणी से परीक्षा उत्तीर्ण करे, क्योंकि उसके पिता स्वयं प्रथम श्रेणी प्राप्त करने से वंचित रह गये थे। उस किशोर ने ऐसा ही किया। रात्रि 11-12 बजे तक मेज पर सिर झुकाए गणित के प्रश्नों को सुलझाता रहा, किन्तु उसका स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता जा रहा था। हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा के पश्चात एक दिन अचनाक उसके सिर के दाहिने भाग में भयानक दर्द शुरू हो गया। गर्दन में अकड़न आ गयी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह प्रयोगात्मक परीक्षा कैसे दे, फ़िर भी उसने दिया। अभिभावकों की इच्छा पूर्ण हुई । गणित के दोनों ही प्रश्नपत्रों में उसे 49-49 अंक प्राप्त हुये। परंतु वह सदैव के लिए सर्वाइकल स्पांडिलाइटिस का रोगी बन गया। उस समय कोई नहीं समझ सका था कि उसके साथ क्या घटित हो रहा है। उसकी दादी उसके सिर के उस भाग में चूना लगा दिया करती थी। अभिभावकों को लगा कि वह बहाना बना रहा है। वह गृहत्याग के लिए विवश हो गया।
परिणाम यह रहा कि यौवनकाल के शक्ति, तेज और प्रफुल्लता की अनुभूति नहीं कर सका।
वह घर, परिवार और स्वास्थ्य तीनों से वंचित हो गया। भूख और बीमारी से निरंतर संघर्ष करते हुये किशोर से प्रौढ़ हो गया है। उसे नहीं पता कि यौवन किसे कहते हैं, क्योंकि अभिभावकों की महत्वाकाँक्षा की वेदी पर वर्षों पूर्व उसकी बलि दी जा चुकी है। आज़ भी वह बैठ कर कुछ भी नहीं पढ़ सकता है।
     मित्रों ! मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि आप " सच्चे अभिभावक" हैं, तो स्कूटर वाले उस अधेड़ व्यक्ति सा अभिभावक-धर्म का पालन करें।
          -- व्याकुल पथिक
    

  

  

Saturday 13 June 2020

जीवन-संघर्ष

    जीवन-संघर्ष
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   शनैः शनैः  समुद्र के तूफ़ानों से टकरा कर जीवनरूपी यह नाव भी थक कर एक दिन डूब जाएगी, किन्तु इसमें एक " अभियान " होगा। इसीलिए हमें यह समझना होगा कि समुद्र तट जो नावें खड़ी हैं, चक्रवात आने पर जब यह सागर उन्हें भी निगल लेगा, तब क्या इनकी "टाइटैनिक" जैसी पहचान संभव है ? 
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    इन दिनों 68 वर्ष के फ़र्नीचर वाले भैया पहले से कहीं अधिक श्रम करने के बावजूद स्फूर्ति से लबरेज़ हैं। सुबह चार बजे से ही उनका कार्य शुरू हो जाता है। साफ़ सफाई, गमले में पानी देना, कपड़े की धुलाई, अपनी बीमार धर्मपत्नी को स्नान कराना , चाय-जलपान आदि सेवा-सुश्रुषा भी उन्हें ही करनी पड़ती है। सुबह इसी के मध्य वे अक्सर ही समीप स्थित एक वाटिका में चले जाया करते हैं, क्योंकि वे एक योग प्रशिक्षक हैं और वहाँ योगसाधक उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। इसके पश्चात प्रातः नौ बजे से रात्रि आठ बजे तक घर में ही स्थित अपने प्रतिष्ठान पर तगड़ी ड्यूटी भी उनकी होती है। इसी प्रकार पिछले कुछ दिनों से प्रतिष्ठान और घर का कार्य वे अकेले ही संभालते आ रहे हैं, क्यों कि अस्वस्थ होने के कारण उनका इकलौता पुत्र अपने उपचार के लिए सपत्नीक बाहर गया हुआ है। उसे ठीक होकर वापस लौटने में दो-ढ़ाई महीने लग सकते हैं। 
     लोकबंदी में डगमगाती अर्थव्यवस्था के मध्य पत्नी के पश्चात पुत्र की बीमारी को उन्होंने हतोत्साहित होने की जगह एक चुनौती के रुप में  लिया है। और इस संकट का मुकाबला करने के लिए स्वयं को मानसिक और शारीरिक रुप से तैयार कर लिया है। भैया कहते हैं कि उन्हें जैसे ही यह सामाचार मिला कि उनके पुत्र को दो महीने तक उपचार की दृष्टि से बाहर ही रहना है, उन्होंने अपनी सारी पीड़ा को झटक दिया है। अब उन्हें आभास नहीं होता है कि उनके घुटने में कभी दर्द भी हुआ करता था।  घर के साथ दुकान का कार्य और ख़र्च दोनों ही उनका बढ़ गया है, किन्तु जीवन संग्राम में यही स्थिरता एक सच्चे योग पुरुष की पहचान है,जिसके लिए जीवन के तिक्त और मधुर क्षण एक समान होते हैं। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों का अगर दृढ़ संकल्प के साथ सामना किया जाए,तो वे हमारे लिए अभिशाप नहीं वरदान बन सकती हैं। विपत्तियों में हमें पराक्रम दिखलाने का अवसर मिलता है। जिससे हमारे जीवन में निखार आता है। ये चुनौतियाँ मनुष्य को उसकी सोयी हुई शक्तियों से परिचित कराती हैं।
   
     मैं इसी संदर्भ में उन्हीं के प्रतिष्ठान पर बैठा चिंतन कर रहा था कि तभी एक अंग्रेज़ी फ़िल्म का स्मरण हो आया। कोलकाता में छोटे नाना जी के घर मैंने इस फ़िल्म को देखी थी। जिसकी कहानी यह है कि एक फ़ौजी राह भटक कर जंगल में चला गया , जहाँ उसका सामना ऐसे विचित्र भयावह जीव से हुआ , जिस पर उसकी राइफ़ल की गोलियाँ निष्प्रभावी थी । यह देख वह सैनिक छद्म युद्ध कर रहा था। उस विचित्र जीव का कई दिनों तक इसी पर  प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष साहसपूर्वक सामना करते हुये वह बूरी तरह से घायल होकर थक गया था। उसे ऐसा लगने लगा था कि उसकी मानवीय शक्ति इस हिंसक प्राणी का मुकाबला नहीं कर पाएगी, फ़िर भी उसने अपनी मृत्यु के समक्ष शुतुरमुर्ग सा नेत्र बंद कर समर्पण नहीं किया। अंततः जब वह युद्ध करने में पूरी तरह से असमर्थ हो जाता है, तो उस विचित्र प्राणी को ललकारा है, मानों अपनी मौत की आँखों में आँखें डाल कह रहा हो - 
 "आ, अब तू मेरा भक्षण कर ले।" 
 और जैसे ही वह प्राणी सैनिक पर हमला करने को होता है। हेलीकॉप्टर की आवाज़ सुनाई पड़ती है, जिसमें बैठे उसके मित्र ने लेज़र गन से उस हिंसक जीव पर प्रहार कर के उसका काम तमाम कर दिया था। सैनिक जीवित बच जाता है। किन्तु दो घंटे की फ़िल्म के प्रारम्भ में सैनिक ने यदि बिना संघर्ष किये ही उसे अपनी मौत समझ घुटने टेक देता तो क्या होता  ? पहला उसकी मृत्यु , क्यों कि उसे खोज रहा उसका मित्र उसतक नहीं पहुँच पाता और दूसरा यह कि एक सैनिक के दुर्दम जिजीविषा भरी यह रोमांचकारी संघर्ष कथा इस चलचित्र पर नहीं होती।

    यदि मैं अपनी बात कहूँ तो , इस लोकबंदी में पिछले दो माह तक मैं सुबह साइकिल से अख़बार वितरण के लिए नहीं निकला। किसी तरह का शारीरिक श्रम भी नहीं किया। परंतु मेरे स्वास्थ्य में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया।   वर्ष 1998 में जब से मैं मलेरिया से पीड़ित हुआ हूँ और इसी प्रकार के शारीरिक कष्ट में ही दो दशक तक प्रतिदिन सुबह से दोपहर तक समाचार संकलन और लेखन , पुनः मौसम कैसा भी हो उसी साइकिल से शास्त्रीपुल पर जाना, वहाँ से बस में खड़े होकर औराई जाना, जहाँ अखबार की प्रतीक्षा में आधे-एक घंटे तक सड़क पर प्रदूषित वातावरण में अंधकार में खड़े रहना,पुनः मीरजापुर वापसी, रात्रि दस बजे तक समाचार पत्र का वितरण, अपने लिए भोजन और काढ़ा बनाना, इतने सारे कार्य किया करता था। इसी शारीरिक श्रम के कारण मैं अपनी मानसिक पीड़ा को भूल गया। शुभचिंतकों ने कहा कि तुम अधिक श्रम करते हो, इसलिये स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है,परंतु इस लॉकडाउन में जब मैंने पूर्ण विश्राम किया,तब भी स्वस्थ नहीं हो सका।  
   अतः एक जून से मैं पुनः सुबह चार बजे उठ कर प्रातः भ्रमण को निकल पड़ता हूँ। मार्ग में मांसपेशियों के दर्द से संघर्ष करते हुये अपने चिंतन को गति देता हूँ । मेरा यह असाध्य रोग  उसी हिंसक जीव की तरह मेरे शरीर और मनोबल पर प्रहार करता रहता है। इस युद्ध में कभी-कभी मैं उसे परास्त कर देता हूँ, फ़िर भी वह मुझ पर निरंतर भारी पड़ते जा रहा है। ख़ैर,परिणाम अभी  शेष है।  
    हाँ, इस संघर्ष में जीवन के इस सत्य को समझ गया हूँ कि नाव समुद्र के किनारे खड़ी रहे अथवा उसमें उतरे, उसे डूबना तो है ही, इसीलिए परिस्थितियाँ अनुकूल न भी हो, तब भी क्यों न हम पूरी शक्ति के साथ संघर्ष करें।जीवन-संग्राम से पलायन की जगह अपने लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़ते जाए। शनैः शनैः  समुद्र के तूफ़ानों से टकरा कर जीवनरूपी यह नाव भी थक कर एक दिन डूब जाएगी, किन्तु इसमें एक " अभियान " होगा। इसीलिए हमें यह समझना होगा कि समुद्र तट जो नावें खड़ी हैं, चक्रवात आने पर जब यह सागर उन्हें भी निगल लेगा, तब क्या इनकी "टाइटैनिक" जैसी पहचान संभव है ? आज इसी संघर्ष के कारण ही मुझे भी इस शहर में एक पहचान और सम्मान मिला है। 

    -व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला से)

Saturday 6 June 2020

मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल -3[ अंतिम भाग]

(जीवन की पाठशाला से)
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       लॉकडाउन -5 ने मुझे लगभग तीन दशक पश्चात यहाँ मीरजापुर में पुनः 'अनलॉक' होने का   स्वर्णिम अवसर दिया है। मैं ब्रह्ममुहूर्त में उठ कर भी वर्षों से प्रातः भ्रमण का आनंद नहीं उठा पाया रहा था, क्योंकि अपनी संघर्ष सहचरी साइकिल संग अख़बार वितरण के लिए निकलना होता था।
इससे पूर्व 22 वर्षों तक जब रात्रि में समाचारपत्र वितरित करता था, तब भी सुबह होते ही समाचार संकलन की चिन्ता सताने लगती थी,किन्तु लोकबंदी के करीब दो महीने पश्चात एक जून को प्रातः साढ़े चार बजे जैसे ही होटल का मुख्यद्वार खोला, वहाँ खड़ी मेरी साइकिल ने आवाज़ लगाई -" मित्र, आज अकेले ही यात्रा पर,क्या मुझसे नाराज़ हो ? " 
    वे स्नेहीजन जो संघर्ष के साथी रहे हो ,उनके प्रति कृतज्ञता तो पशु भी व्यक्त करते हैं,फ़िर मैं मानव होकर अपनी साइकिल का उपकार कैसे भूल सकता हूँ, इसलिये मैंने उससे कहा - 
" अरी पगली, ऐसा कुछ नहीं है। इस रंग बदलती दुनिया में एक तू ही तो है,जिसने कभी मेरे साथ छल नहीं किया है, लेकिन उम्र के ढलान पर तुझे भी विश्राम की आवश्यकता है। बहुत हो गया यह काम-वाम, अब हम दोनों अपनी मौज़ के लिए साथ निकलेंगे। "
      मित्रता तभी निभती है जब प्रेम दोनों तरफ़ से हो। साइकिल यदि मेरे संघर्ष में सहायिका रही है,तो मैंने भी इसके सम्मान के साथ कभी समझौता नहीं किया है। बड़े से बड़े राजनेताओं से लेकर अफ़सर और उद्योगपतियों तक की पत्रकार वार्ता और पार्टियों में मैं इस पर सवार हो कर गर्व से मस्तक ऊँचा किये जाता रहा हूँ। जहाँ कीमती कार और मोटर साइकिलें खड़ी रहती हैं, उन्हीं के मध्य मेरी साइकिल भी विराजमान रहती है। 
    जो संघर्ष के साथी हो,ऐसे सच्चे हितैषी के स्वाभिमान को ठेस नहीं पहुँचे, यह हमारा दायित्व है। इसके लिए मैंने कई बार मोटरसाइकिल के प्रलोभन को ठुकराया है,क्योंकि मुझे कभी यह ग्लानि नहीं हुई कि मैं साइकिल वाला पत्रकार हूँ और वे बाइक -मोटर वाले। जिसके पास ईमानदारी का धन होता है, वह अपने संतोष से सम्राट बना रहता है, न कि अभिलाषाओं से दरिद्र,इसीलिये धनी और निर्धन के प्रश्न पर मेरे साथ कभी भेदभाव नहीं हुआ। क्या ये "साइकिल वाले " राजनेता भी ऐसा ही कर रहे हैं ? यहाँ तो मैंने देखा है कि कार वाले बड़े पदाधिकारी हैं और साइकिल वाले दरी बिछा रहे हैं। इनके मध्य स्वामी और दास जैसा संबंध है।
     विडंबना यह भी देखें कि विश्व साइकिल दिवस पर देश की सबसे पुरानी साइकिल कंपनी एटलस के प्लांट पर फ़ैक्ट्री बंद करने का नोटिस लग गया। कोरोना के दंश का सीधा प्रभाव  इस कंपनी और उसके कर्मचारियों पर पड़ा है।
    अनेक राजनेता, समाज सेवक, पर्यावरणविद , कवि और लेखक इस दिन साइकिल की उपयोगिता पर अनेक लच्छेदार बातें करते हैं, किन्तु इनमें से कितने साइकिल की सवारी पसंद करते हैं। इनके लिए साइकिल यात्रा एक फ़ैशन शो से अधिक कुछ भी नहीं है। कैसा आश्चर्य है कि साइकिल समाज के एक बड़े वर्ग की आवश्यकता है, पहचान है, लोकबंदी में इसने कितने ही श्रमिकों को उनके गाँव सुरक्षित पहुँचाया है,किन्तु आज़ यह उनका सम्मान नहीं बन सकी है ! 
     हाँ, यदि राजनेता ,अभिनेता और संपन्न लोग अपनी महंगी मोटर गाड़ी की तरह साइकिल की सवारी करने लगें, तो अवश्य ही यह सर्वसमाज के लिए शानदार सवारी बन सकती है। परंतु ध्यान रहे कि वह लखटकिया बाइसिकल न हो, जिसे सामान्य जन क्रय ही नहीं कर सके।
    हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने खादी को सम्मान दिलवाने के लिए पहले स्वयं उसे धारण किया था, ताकि भारत की ग़रीब जनता खादी से निर्मित वस्त्र पहन कर हीनभावना से ग्रसित न हो। और अब क्या हो रहा है खादी अमीरों की शान है और ग़रीब उससे वंचित हो गये हैं।  
बापू के साबरमती आश्रम में विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति भी चरखा चलाते हैं । और विडंबना देखें कि गांधी आश्रम के नाम से खुले किसी भी वस्त्रालय में खादी की एक सदरी का मूल्य तीन हजार से कम नहीं है। खादी आम आदमी से दूर ख़ास आदमी की पोशाक बन कर रह गयी है। यदि साइकिल के साथ भी ऐसा ही कुछ करना हो, तो उचित यही है कि ये भलेमानुष इसकी सवारी नहीं करें ।  इसे गांधीवाद और समाजवाद नहीं कहते हैं। यह तो सामंतवाद है। ग़रीबोंं की वस्तुओं पर डाका डालना है।
     किसी  विशेष अवसर पर गांधी टोपी तो अनेक भद्रजन सिर पर रख लेते हैं, परंतु समाज पर प्रभाव रखने वाले विशिष्ट लोग क्या कभी टेलीविज़न स्क्रीन पर ऐसे किसी सस्ते उत्पाद का प्रचार-प्रसार करते दिखते हैं, जो स्वास्थयवर्धक हो और जनसामान्य तक उसकी पहुँच हो ? तब गांधी जी के चरखे की याद उन्हें क्यों नहीं रहती है ?
        मैं इन दिनों सुबह ज़िंदगी की आपाधापी से दूर ऐसे ही विचारों में खोया कदमों से सड़कों को नापते रहता हूँ। सच में इस लोकबंदी ने मेरे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है। मौसम कैसा भी हो नियमित अख़बार लाना और उसे पाठकों तक पहुँचाया, अब मैं इस बंधन से मुक्त हूँ। एक जून से सुबह जो भी प्रतियाँ बंडल में प्राप्त होती हैं,उन्हें प्रातःभ्रमण का आनंद उठाते हुये चुनिंदा पाठकों तक पहुँचा देता हूँ। किसी प्रकार का तनाव नहीं है। मैं आज़ाद हूँ। अपनी खोई हुई वह मुस्कुराहट वापस चाहता हूँ,जिसे कोलकाता के हावड़ा ब्रिज अथवा कालिम्पोंग में छोड़ आया हूँ। बचपन में घोष दादू की उँगली थामे  हावड़ा बृज का भ्रमण किया करता था। वो मेरे जीवन की सबसे ख़ूबसूरत शाम थी और युवावस्था में  कालिम्पोंग की वादियों में सुबह का सैर भला कैसे भूल सकता हूँ। मार्ग में लकड़ी से निर्मित छोटी-छोटी दुकानों पर मोमोज़- ब्लैक टी(काली चाय) आदि लेकर बैठी सरल स्वभाव की नेपाली युवतियाँ मिलती थीं। मैं तो बस एक बड़ा सा सेब लेता था। वहाँ यही मेरा एकमात्र जेबख़र्च था। तब मेरे इस मुस्कान में दर्द नहीं होता था, किन्तु इसके पश्चात यहाँ मीरजापुर में जब भी मुस्कुराया हूँ, दर्द छिपा कर । इसमें आनंद नहीं है , फ़िर भी मैं इसे अनुचित नहीं मानता, क्योंकि वह कहते हैं न-

रहिमन निज मन की व्यथा, मन में राखो गोय।

सुनि इठलैहैं लोग सब, बाटि न लैहै कोय ।।

   हमारी व्यथा कथा सुनकर सहानुभूति के दो शब्द कहने वाले सच्चे हितैषी हो,यह आवश्यक नहीं है। ग़ैरों के तनिक से स्नेह रूपी आँच में हम  भावनाओं में बह कर मोम सा पिघल जाए और  अवसर पाकर वे हमारा तिरस्कार करें , फ़िर तो हमारी वेदना असीमित हो सकती है। ब्लॉग पर सक्रिय होने के पश्चात यह एक और सबक़ मुझे सीखने को मिला है। 

     मन की यह शिथिलता बाहरी कष्ट से कहीं अधिक प्रभाव दिखलाती है। ऐसे में मनुष्य को स्फूर्ति के लिए अपनी दिनचर्या में वह कार्य भी सम्मिलित करना चाहिए, जिससे उसे आनंद की अनुभूति हो। जब मैं बनारस में अपनों के स्नेह, शिक्षा और व्यवसाय से वंचित हो गया,तो उदासी भरे उन दिनों में  कंपनी गार्डेन से मित्रता कर ली थी। इस सुदंर वाटिका में प्रातः भ्रमण किया करता था। वहाँ बुजुर्ग आपस में जो ज्ञानवर्धक संवाद करते थे,वह मेरे अवसाद का शमन करता था। 
 और यहाँ अब मैं अपने विचारों को शब्द देने का प्रयास कर रहा हूँ। यही मेरी औषधि है। आज सन्त कवि कबीरदास की जयंती है। आत्मबोध के लिए इनके इस संदेश पर मनन आवश्यक है --

  " मोको कहाँ ढूंढें बन्दे,मैं तो तेरे पास में।"


   अर्थात  स्वयं के भीतर विद्यमान प्रकाश के स्त्रोत और शांति की अनुभूति से ही दुःख और अज्ञानता पर विजय संभव है ।

       और रही साइकिल संग मेरी मित्रता,तो जीवन के संध्याकाल में ही सहचरी की सर्वाधिक आवश्यकता होती है। इसने न सिर्फ़ मेरे पैरों को वरन् मस्तिष्क को भी क्रियाशील रखा है। जो ईमानदारी की झंकार मेरी वाणी में, वह भी इसी से है। यदि साइकिल का त्याग कर मैंने मोटरसाइकिल की सवारी की होती, तो आज़ पुनः भूख से संघर्ष कर रहा होता अथवा भ्रष्टतंत्र के हाथों की कठपुतली बना फिरता। अथक परिश्रम से अर्जित जो कुछ भी धन मैंने संचित कर रखा है, वह बाइक की उदरपूर्ति में ख़र्च हो गया होता।

          - व्याकुल पथिक

    

Monday 1 June 2020

मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -2]

     
मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -2]
(जीवन की पाठशाला से)

      पिछले लेख की की प्रतिक्रिया में " ब्लॉग जगत की मीरा" की उपाधि से विभूषित कवयित्री मीना दीदी ने मुझे यह एक उपयोगी परामर्श दिया था-" प्रिय शशिभाई, आपकी साइकिल भी आपकी तरह स्वाभिमानी है,आपने स्वयं उसका दर्द समझ लिया तो ठीक वरना वह मौन रहकर सब सहती रहेगी। अब उसको ठीक कराइए। काम के लिए नहीं तो थोड़ा बहुत घूम फिर आने हेतु उसका प्रयोग कीजिए।" 
     उनकी प्रतिक्रिया निश्चित ही मुझे चौंकाने वाली रही।सो,अपने अतीत और वर्तमान को टटोलते हुये स्वयं से यही प्रश्न कर रहा हूँ-"  मैं और यह मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल क्या कभी सुख के साथी भी रहे हैं ?"
   मुझे आश्चर्य हो रहा है कि मैंने ऐसा पहले क्यों नहीं सोचा और सत्य तो यह भी है कि इसने सिर्फ़ मेरे दुःख ही बांटे हैं। मुजफ़्फ़रपुर में जब यह पहली बार मेरे पास आयी तब से लेकर अब तक साइकिल का उपयोग मैंने अपने मनोरंजन के लिए नहीं किया है। साइकिल लेकर कभी किसी धर्मस्थल अथवा पर्यटन स्थल नहीं गया। इसे लेकर स्कूल- कॉलेज जाने का तो प्रश्न ही नहीं था। उस समय साइकिल मेरे लिए एक स्वप्न थी। मैंने इसके पहियों को महज़ अपनी आजीविका के लिए घंटों इन कठोर सड़कों पर घसीटने के अतिरिक्त इसे कभी कोई सुख नहीं दिया है। अतः जो बोया सो काट रहा हूँ, मेरा जीवन भी नीरस और कष्टमय रहा। मेरे लिए यह एक सब़क है। एक अलग प्रकार की अनुभूति है।जैसी क्रिया वैसी ही प्रतिक्रिया यही प्रकृति का मूल सिद्धांत है। जीवन में उत्साह के लिए उत्सव आवश्यक है। सामाजिक एवं धार्मिक पर्वों का सृजन इसीलिए हुआ है। हमें अपने समस्त उत्तरदायित्व के बावजूद अपने मनोविनोद के लिए कुछ वक़्त निकालना ही चाहिए , अन्यथा कहने को फ़िर यही शेष रहेगा- मन पछितैहै अवसर बीते। मैंने ऐसा नहीं किया, इसलिए अपनों से दूर हो गया। 
       साइकिल के प्रति मेरी लालसा की भी एक रोचक कथा है। तब मैं लगभग दस वर्ष का था।  बनारस में मेरे पिता जी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। अतः जहाँ तक मुझे स्मरण है मेरा परिवार रिक्शे का प्रयोग वर्ष में दो बार ही करता था। श्रावण मास में दुर्गा जी-मानस मंदिर और 25 दिसंबर (बड़ा दिन) को सारनाथ जाने के लिए । माता-पिता के साथ हम तीनों भाई -बहन एक ही रिक्शे पर बैठते थे। जिससे रिक्शावाले को जहाँ चढ़ाई होती थी, अधिक श्रम करना पड़ता था और हम पाँचों को भी परेशानी होती थी। रिक्शा चालक के ललाट से टपकते पसीने की बूँदों को देख मेरा बालमन भावुक हो उठा था। जहाँ मेरे परिवार के अन्य सदस्य दर्शन-पूजन,मनोरंजन और वार्तालाप में व्यस्त थें, वहीं मैं गुमसुम इस चिंतन में डूबा हुआ था कि काश ! मेरे पास भी एक छोटी साइकिल होती तो हम दोनों भाई इस पर और वे तीनों रिक्शे पर होते। जिससे न रिक्शावाले को अत्यधिक श्रम करना पड़ता और न ही मेरे परिवार को यात्रा में कठिनाई होती। ऐसा सोच-सोच कर मैं इस "बड़े दिन" पर अपना दिल छोटा किये जा रहा था। मैंने आनंद के उस क्षण को व्यर्थ जाने दिया। परिणाम यह रहा कि बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष खड़ा होकर भी बोधिसत्व नहीं बन सका। अपने ही परिवार में मेरी इस करुणा, संवेदना और भावनाओं का कभी मोल नहीं रहा। सम्भवतः इसलिए कि मेरे अभिभावकों के लिए वह आर्थिक संघर्ष का दौर रहा। शिक्षण कार्य के प्रति समर्पित होकर भी पिता जी को श्रम का प्रतिदान नहीं मिल रहा था। यह पीड़ा उनकी झुँझलाहट में परिवर्तित हो गयी थी।  हम बच्चों के हृदय को पढ़ने की अपेक्षा हमारे लिए रोटी की व्यवस्था उनके लिए महत्वपूर्ण थी।
     उधर, जिस अवस्था में बच्चे मनोरंजन के लिए साइकिल की माँग अपने अभिभावकों से करते हैं, इसकी उपयोगिता के प्रति मेरा यह दृष्टिकोण बिल्कुल अलग ही था।  मैंने अन्य मित्रों की तरह कभी अपने अभिभावकों से यह नहीं कहा कि मुझे साइकिल चाहिए। इसके पश्चात कोलकाता ननिहाल चला गया तो वहाँ मोटर कार  देखने को मिला। ऐसे में साइकिल की क्यों आवश्यकता पड़ती,परंतु मेरे नन्हे से हृदय में यह आकाँक्षा कभी नहीं हुई कि मेरे पास भी कार हो।
     वापस बनारस आने के पश्चात जब कक्षा दस का छात्र था, अभिभावकों को बिना बताए कॉलेज परिसर में एक सहपाठी की पहल पर पहली बार साइकिल की सवारी की थी। लेकिन तब तक बचपन पीछे छूट चुका था, फ़िर साइकिल सीखने में वह आनंद कहाँ ? 
   और हाँ मेरे पास स्वयं की अपनी साइकिल तब आयी ,जब मैं दूसरी बार मज़फ़्फ़रपुर गया। यहाँ एक थ्रेसर निर्मित करने वाली फ़ैक्ट्री में पहली बार मुझे स्टोरकीपर की नौकरी करनी पड़ी। यह पुरानी साइकिल मेरे लिए स्व० मौसा जी ने साढ़े तीन सौ रुपये में खरीदा थी, क्योंकि फ़ैक्ट्री काफ़ी दूर थी। बारह घंटे की ड्यूटी थी। मैं सुबह एक घंटे साइकिल चला कर जाता और रात जब लौटता, तो मेरी यह संघर्ष सहचरी और मैं दोनों ही बूरी तरह से थक चुके होते थे। प्रतिदिन सुबह आंगन में खड़ी साइकिल मुझे फ़ैक्ट्री की याद दिलाती थी। मौसा जी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।सो, आत्मनिर्भरता के लिए मुझे भी कुछ तो करना ही था। परंतु हम दोनों खुश थे, क्योंकि सुबह उठ कर मौसी जी मेरे लिए उबली सब्जी और रोटी बना दिया करती थीं,जो मुझे पकवान से भी अधिक प्रिय थी, जबकि मेरी साइकिल इसलिए प्रसन्न थी, क्यों कि प्रत्येक रविवार मौसा जी उसका ख़ूब सेवा-सत्कार किया करते थे। 
  यह फ़ैक्ट्री शहर से बाहर थी। रात्रि में सुनसान मार्ग से घर वापस लौटते हुये जब मैं भयभीत होता, तो मुझे स्मरण हो आया था कि सारनाथ जाते समय साइकिल की चाह मुझमें स्वयं के मनोरंजन  के लिए नहीं, वरन् अपनों के हित में जगी थी। सो, जैसी कल्पना की थी, वह साकार हो रही है, फ़िर इसप्रकार विचलित और उदास क्यों होऊँ ? हाँ, यह भी सत्य है कि मैं उस साइकिल का आनंद कभी नहीं उठा सका था। वह मेरी संघर्ष सहचरी बन कर रह गयी थी। मेरे सारे स्वप्न बिखर गये थे। हाईस्कूल में गणित में 98 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाला छात्र उस फ़ैक्ट्री के स्टोर में बैठकर नटबोल्ट गिना करता था।
   यदि मैंने भावनाओं पर नियंत्रण रखा होता , अपनों के तिरस्कार को गले लगा कर अपनी शिक्षा पूर्ण कर ली होती और घर का त्याग नहीं किया होता ,तो आज़ मेरे पास अपना मकान और   परिवार दोनों होता।
     यही भावुकता ही मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है।घर,परिवार और समाज के मध्य हमें रहना है, तो अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना होगा। लोकाचार हमें आना चाहिए, क्योंकि भावना जल है, जिसमें तैरा जा सकता है, किन्तु घर बनाने की आवश्यकता जब भी पड़ेगी, हम विवेकरूपी चट्टान की खोज करेंगे। जिस घर में रहकर हम अधिक सुरक्षित एवं व्यवस्थित होने का अनुभव करते हैं। मैंने अपनी भावनाओं को बुद्धि की कसौटी पर नहीं कसा, विवेकरूपी अंकुश का प्रयोग नहीं किया, इसीलिए सिलिगुड़ी में जन्म लेने के पश्चात बनारस से लेकर कोलकाता, मुजफ़्फ़रपुर, कलिम्पोंग अब इस मीरजापुर में यूँ भटकता रह गया। न अपना आशियाना बना सका न ही घर बसा सका।
      किन्तु ऐसा भी नहीं है कि जीवन में मुझे कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ है। जहाँ विष है,वहाँ अमृत भी होता है। मैं अतीत में की गयी अपनी गलतियों को समझ रहा हूँ और विचारों के धरातल को छोड़ कर भावना के आकाश में उड़ने जैसी दुर्बलता से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हूँ। सच तो यह है कि यह पीड़ा सुकृतियों की पाठशाला है और आत्मपीड़न से आत्मदर्शन प्राप्त होता है।  
 ( क्रमशः)
          - व्याकुल पथिक