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Monday 30 April 2018

व्याकुल पथिक

ये कहांँ आ गये हम...

व्याकुल पथिक
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ये कहाँँ आ गये हम...

  यह कैसी पत्रकारिता होती जा रही है, न कोई मिशन ना ही कोई सम्मान ही अब शेष बचा है। जिले की पत्रकारिता में स्वयं को तोप समझने वाले ऐसे उन कुछ मित्रों पर मुझे खासा तरस आ रहा है, जिनके सामने ही अफसरों की जूठी तश्तरी पड़ी हुई थी और हममें से अनेक उनका दिया दोना चाटते रहें ! कहीं आप को यह तो नहीं लग रहा है न कि मैं अपनी पत्रकार बिरादरी का उपहास कर रहा हूँँ। हम पत्रकार तो बड़े ही ज्ञानी, ध्यानी और स्वाभिमानी होते हैं ! फिर ऐसी अपमानजनक स्थिति कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं।
    परंतु भाई साहब , क्या करूंँ यह कलम है कि मानती ही नहीं। अपनों पर भी चल ही जाती है। हाँँ , फिर कोई डंक न मार बैठै,  इसलिये अखबार की जगह अपने ब्लॉग पर लिख रहा हूँँ। स्वयं को वरिष्ठ कह 56 इंच का सीना दिखलाने वाले  पत्रकारों को उनका ही दिया आईना दिखलाने की धृष्टता कर रहा हूँँ। आगे -आगे जब लपक के कुर्सी ताने बैठे थें, तो अपनी बिरादरी की नाक का तनिक ख्याल कर लिया होता भैया जी...।
  या तो अफसरों की उन जूठी थालियों को हटवा दिया होता अपने सामने से या फिर उनका दिया दोना न चाटा होता।   बात यहाँ सूबे के एक बड़े नौकरशाह की पत्रकारवार्ता की कर रहा हूँँ। जहाँ मातहत अफसरों संग मीटिंग के तत्काल बाद पत्रकार वार्ता शुरू हो गयी थी ।
   पर इस दौरान हर पत्रकार की कुर्सी के सामने मेज पर एक जूठा प्लेट रखा पड़ा था  साथ ही छाछ और पानी के डिब्बे- बोतल भी, तरह-तरह के तरमाल को समीक्षा बैठक के दौरान अफसरों की जमात ने गटका था । उन्हीं की जूठन पत्रकारों के सामने मेज पर पड़ी थी। कुछ देर बाद पत्रकारों के लिये भी सिल्वर कलर के बंद छोटे से दोने में कुछ जलपान सामग्री आ गई। लेकिन, जूठा प्लेट किसी ने नहीं हटाया। मैंने ढ़ाई दशक की अपनी पत्रकारिता में किसी भी ऐसे महत्वपूर्ण प्रेसवार्ता के दौरान इसतरह का उपहास मीडियाकर्मियों संग होते पहले कभी नहीं देखा था।  खैर , शुक्र है कि पत्रकारों की इस भीड़ से मैं अलग हूँँ। मेरा मानना है कि भोजन हो या जलपान किसी ऐसे स्थान पर नहीं ग्रहण करना चाहिए, जहाँँ दोयम दर्जे का व्यवहार हो। स्व० रामचंद्र तिवारी जी , जिनसे पत्रकारिता का नैतिक ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ है, वे इसीलिये अफसरों के कार्यक्रम में जलपान से परहेज करते थें। अच्छा हुआ कि देर से ही सही मुझे भी यह सबक अब भलीभांति याद है। सो, हम पत्रकारों का यह हाल-खबर आपको बतला रहा हूँँ।
  मैं पत्रकारिता में आया भले ही रोटी की तलाश में था। परंतु प्रयास मेरा यही था कि बड़ों ने जो राह दिखलाई है। उसी कर्मपथ पर बढ़ता रहूँँ। अब अपने कर्मक्षेत्र की स्थिति जो हैं, वह हमारे जैसे पत्रकारों को इस अखबारी दुनिया से अलविदा कहने को कह रहा है।
   मित्रों, मैं स्वयं भी इस घुटन से मुक्त होना चाहता हूँँ। सोशल मीडिया हमें पुकार रहा है। आजाद पँछी की तरह उसके विशाल नेटवर्क रुपी खूले आसमान में मैं विचरण करना चाहता हूँँ।जहांँ न उम्र की सीमा है , न काम का कोई बंधन है।

शशि 30/4/ 18
क्रमशः