गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि
आज गुरु पूर्णिमा है। महात्मा और संत को लेकर मेरा अपना चिंतन है। यदि गुरु से अपनी चाहत की बात कहूं तो, मुझे गुरु से ज्ञान नहीं चाहिए, विज्ञान नहीं चाहिए, दरबार नहीं चाहिए एवं भगवान भी नहीं चाहिए। मैं तो बस उनकी सरलता चाहता हूं। ज्ञानी-ध्यानी होने से कहीं अधिक श्रेष्ठ है सरल होना। स्मृतियां मुझे बहुत पीछे खींचे ले जा रही हैं। उन संस्मरणों को याद कर आज भी मेरा मन आनंदमग्न हो जा रहा है। तब मेरा यौवन उफान पर था। अवस्था 22-23 वर्ष ही होगी। जब वाराणसी में गुरु के आश्रम पर रहने लगा था। पांवों में खड़ाऊं पहनना कितना सुखद लगता था। नये लोग तो इसे पहन ठीक से चल भी नहीं पाते थें, पर मैं आश्रम के समानों को दूर बाजार से खरीद भी आता था, इसे पहने हुये । अब तो रबड़ के पट्टे वाला खड़ाऊं लोग पहनते दिख जाते हैं, पर इसका कोई लाभ नहीं है। घर से संबंध टूट गया था। दो जून की रोटी की व्यवस्था नहीं थी । फिर भी भूख, की पीड़ा मैंने कभी भी एवं कहीं भी जाहिर नहीं होने दी । एक संयोग ही था या प्रातः भ्रमण का लाभ कि कम्पनी गार्डेन में श्वेत वस्त्र धारी सतनाम का निरंतर जप करने वाले गुरुदेव से मुलाकात हुई थी। कुछ दिनों तक हम दोनों ही वहां साथ- साथ भ्रमण करते रहें। एक दिन उन्होंने स्वयं मुझसे आश्रम में रहने को कहा, कोई शर्त भी नहीं रखा था मेरे लिये। बस सतनाम मंत्र जाप करने को कहा। भोजन हम दोनों ही मिल कर एक समय बनाते थें । मेरे गुरु बहुत बहुत सरल स्वभाव के रहें। अब जब वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश कर रहा हूं, तो मैं गुरु जी के इसी सरल भाव को दर्पण की तरह अपने समक्ष रखने का पूरा प्रयत्न करना चाहता हूं। परंतु, वहां आश्रम में भी जब "सतनाम" और "राम" को लेकर द्वंद की स्थिति मैंने पाया। जो सरलता मुझे लुभा रही थी,वह जटिलता में बदलती जा रही थी। आश्रम का यही ज्ञान युद्ध मेरे मन की शांति को भंग करने लगा था। मेरा जो अपना यह चिन्तन है, वहीं मेरी सबसे बड़ी कमजोरी या ताकत मैं नहीं जानता। पर इसी कारण मैं आश्रम त्याग वहां जैसे आनंदमय जीवन से वंचित हो गया। फिर सामान्य मनुष्य की तरह मुजफ्फरपुर, कालिंपोंग, बनारस और पिछले ढ़ाई दशक से इस मीरजापुर में आजीविका की तलाश में भटकता ही रहा साथ ही तमाम विकारों से युक्त हो गया फिर से। वैसै, मैं उन सभी श्रेष्ठ जनों सें कुछ न कुछ सीखते रहना चाहता हूं, जो सरल हैं , सहज हैं और सादगी पसंद हैं । महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री जी की जीवनशैली में मुझे एक सच्चे महात्मा व संत का दर्शन होता है। महान और सामर्थ्यवान होकर भी उनका रहन-सहन एक आम आदमी जैसा ही रहा, वस्त्र और आहार भी। मैंने भी इस वर्ष से पकवान का त्याग इसीलिये किया हूं कि आम आदमी बन सकूं। विरक्त हो सकूं। एक वक्त दलिया और दूसरे समय सिर्फ सादी रोटी- सब्जी से बढ़ती शारीरिक दुर्बलता देख राष्ट्रीय सहारा समाचार पत्र के ब्यूरोचीफ बड़े भैया प्रभात मिश्र जी अपने घर से देशी गाय का शुद्ध दूध इन दिनों मेरे लिये लेते आते हैं,अपने दफ्तर में। आज ही राज्यसभा सदस्य रामसकल जी एक बार पुनः मुझे इलाज के लिये एम्स ( दिल्ली) चलने के लिये कह रहे थें। यह मेरा सौभाग्य है कि इतना स्नेह रखने वाले विशिष्ट लोग मुझे इस अनजान शहर में मिले हैं। लेकिन, सच कहूं तो मैं अपने जीवन को और उलझाना नहीं चाहता ,न ही अधिक लम्बा खींचने की इच्छा है। हो सकता है कि यह जो अनाशक्ति का भाव है, उसी ने मेरे जीवन में एक खालीपन सा ला दिया है ,जिसकी भरपाई मैं ब्लॉग लेखन से कर रहा हूं। जहां से कुछ सीखने को मिल रहा है, वही मेरा गुरु है।
शरीर की सूखी हड्डियों के घर्षण से उत्पन्न ज्ञान के प्रकाश से युक्त गुरु के लिये भी भक्त द्वारा की गई प्रशंसा मेघ बन उस ज्ञान रुपी दीपक को बुझा सकती है। विंध्याचल के काली खोह में प्रख्यात संत मौनी बाब सहित तीन लोगों की निर्मम हत्या के लिये जिम्मेदार मैं उन धनी भक्तों को ही मानता हूं , जिन्होंने एक विरक्त महात्मा के निवास स्थान को वैभव सम्पन्न बना दिया था। जबकि वे चबूतरे पर खुले में सोने वाले तपस्वी थें। नवरात्र में हिमाचल क्षेत्र से यहां विंध्य क्षेत्र में शक्ति अर्जित करने आते थें। हमारे धर्म शास्त्रों में यह कहां लिखा है कि गुरु भव्य सुविधा सम्पन्न आश्रम और मठ में रहते थें। वे तो एकांत में कुटिया बना कर रहते थें न। बुद्ध, महाबीर, साईंबाबा, कबीर, तुलसी, रैदास क्या आप बता सकते हैं कि इनमें से किसी के पास भी महलों जैसा मठ-आश्रम था। परंतु अब जब वे नहीं हैं , तो सब है उनके पास । गुरु दरबार का यह वैभव एक निर्धन शिष्य की कामनाओं का शमन किस प्रकार करेगा। मैंने इस जनपद में सिर्फ मौनी बाबा का ही मन से चरण स्पर्श किया है अब तक एवं उनके ठीक सामने उसी पत्थर के चबूतरे पर बैठ ज्ञानगंगा से सराबोर भी होता रहा। एक बात और अपनी कहना चाहता हूं कि साधक अपने पर मेनका के विजय से विचलित नहीं हो, फिर से वह प्रयत्न करे विश्वामित्र की तरह कभी तो वशिष्ठ उसे भी ब्रह्मर्षि कहेंगे ही।