Followers

Tuesday 7 April 2020

हमें जला क्यों मुसकाते

 
 आटे की थैली ग़रीब के हाथों में देकर सेल्फियाँ बनाने वाले पहले इस वीडियो पर ग़ौर करें, फ़िर मैं अपनी अपनी बात शुरू करता हूँ ...





हमें जला क्यों मुसकाते 
    *******************
     स्वास्थ्य संबंधित कारणों से भोजन बनाने की इच्छा नहीं हुई। बत्ती बुझा मैं कमरे में लेटा हुआ था कि तभी नौ बजते ही घंटा-घड़ियाल, शंखनाद, थाली और पटाख़ों की आवाज़ आने लगी। जिसे सुन मैंने जैसे ही कमरे की खिड़की खोली तो देखा कि दीपावली की तरह ही आसपास के घरों के बारजे पर असंख्य दीपक झिलमिला रहे थे। ऐसे दृश्य सुखद तब लगते हैं, जब उत्सव का वातावरण हो। लेकिन जब एक बड़ा वर्ग भूख से संघर्ष कर रहा हो, तो तेल का यह अपव्यय देख मेरी आँखें नम हो गयीं, बचपन के उन दिनों को याद कर। जब चोखा में डालने के लिए भी घर में आधा चम्मच सरसो का तेल नहीं हुआ करता था। 
    ख़ैर यह विचित्र रंगमंच है। जिसका रचयिता ही क्षीरसागर में रहता हो उसे क्या पता कि उसकी अनेक संतानें क्षीर बिन छटपटा रही हैं। और उसका दुग्धाभिषेक हो रहा है।

कविवर हरिवंश राय बच्चन जी की कालजयी कविता है -
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है..|
--
परंतु इस रात मानों जल रहे दीपक यह शिकायत कर रहे हो...

प्रकाश नहीं , निज स्वार्थ कहो
मनुज! हमें जला क्यों मुसकाते ? 
दे दो यह तेल किसी ग़रीब को
यूँ बलिदान हमारा व्यर्थ न हो।
--
   हो सकता है, मेरे इस विचार से अनेक लोग असहमत हो, किंतु इस संकटकाल में मुझ जैसे निम्न-मध्यवर्गीय लोग, इस समाज में जिनका एक बड़ा वर्ग है ,जो मज़दूर की श्रेणी से तनिक ऊपर हैं, किन्तु उनसे कहीं अधिक मज़बूर हैं, उनकी आँखों में अनेक प्रश्न टंगे दिखे। ऐसे कितनों के घर में सरसो तेल की बोतल खाली हो चुकी होगी, जिस तरह से उनका जेब खाली हो गया है और सड़कों पर निराश्रित विचरण करने वाले पशुओं की स्थिति भूख से अत्यंत चिंताजनक है। बिल्कुल अधमरे से हैं। कुछ देर  पूर्व मैंने इसी शाम इमरती रोड पर बूढ़े सांड़ को एक घर के चबूतरे पर पड़ी उस सूखी रोटी की ओर लपकते देखा था, जब ऐसा करने के प्रयास में उसकी टाँगें लड़खड़ा गयीं और वह गिर पड़ा था। फ़िर यह कैसा उत्सव है ? हम इतने ढेर सारे दीपक जला और पटाख़े फोड़ क्या जताना चाहते हैं।  
   वैसे, संक्रमण काल में दीप जलाने से हानि-कारक विषाणु जलकर भस्म होते हैं । जैसा कि हमसभी जानते हैं कि दीवाली और होली का अवसर ऋतु परिवर्तन का होता है । इसमें विषाणु सक्रिय होते हैं । इसलिए दीवाली पर दीपक तथा होली पर होलिका जलाने का विधान है। दीपक ऊर्जा का प्रतीक है। सूर्य का प्रतिनिधि है।  फ़िर भी यह संदेश स्पष्ट होता कि एक से अधिक दीपक न जलाना,नहीं तो इस विपत्ति में सरसो तेल का अपव्यय होगा। तब सही मायने में यह उत्सव पर्व पर जलने वाले दीप न होकर हम भारतवासियों की आपसी एकता और आत्मबल को प्रतिबिंबित करता। 
     परंतु अपनी ढपली, अपना राग। यह भी कैसा दौर है कि हर कोई समाजसेवी बना खड़ा है। जिसका फ़ोटो छपा वह खुश , जिसका न छपा वह नाखुश । अख़बारों की अपनी सीमा है, पर यहाँ दानवीर कर्ण एक नहीं अनेक हैं। जो असली हैं, वे पर्दे के पीछे हैं , जिन्हें दिखावा पसंद है। वे सोशल मीडिया के खिलाड़ी हैं। परंतु निम्न मध्य वर्ग के तमाम ऐसे ज़रूरतमंद लोग हैं। जिन तक किसी दानदाता की नज़र नहीं पहुँच रही है। अप्रैल की पहली तारीख़ जिनके लिए  अप्रैल फूल सा ही रहा । जेब खाली पर मीडिया में समाजसेवियों का फ़ोटो छपा जो मिला। अब ऐसे स्वाभिमानी लोग भी जब याचक बन उनके सामने आये , उनका दान ग्रहण करते हुये फ़ोटो खिंचवाने के लिए घरों से बाहर सड़कों पर हाथ फैलाएँ खड़ा हो , तभी उनकी कोई सुधि लेगा। अब तो बस ऐसा ही लग रहा। अरे ! समाजसेवियों अपने पड़ोस में देखों , तुम भी कइयों को जानते होगे , इनमें से कोई किसी प्राइवेट स्कूल में अध्यापक होगा।  पाँच हजार रुपया ही उसका वेतन होगा और कोई किसी किराना दुकान का नौकर होगा , वह भी इतना ही पाता होगा। कुछ गल्ला और सब्जी वहाँ भी दे दो मित्र , पर जानता हूँ यह भी कि तुम ऐसा नहीं करोगे , क्यों कि वहाँ तुम्हारे दानवीरता का प्रदर्शन नहीं होगा। तुम्हारे सोशल मीडिया का व्यापार नहीं होगा। 
 क्यों न दो किलो आटा और आधा- आधा किलो चावल - दाल साथ में आलू और जिस घर में ईंधन की व्यवस्था नहीं हो , वहाँ कुछ लकड़ी पहुँचा दी जाए ? यह सहायता पैकेट किसी निम्न -मध्यवर्गीय परिवार के लिए प्यासे को जल पिलाने जैसा पुण्यदायी होगा। परंतु ऐसा करने की कितनों ने सोचा है। कुछ कर भी रहे हैं, परंतु वे उसका प्रदर्शन नहीं करते हैं।मीडिया में दिखावा उन्हें पसंद नहीं हैं। यह तो मीडिया का काम है कि सच्चे दानवीरों को वह स्वयं ढ़ूंढे। भोजन का पैकेट तो उन लोगों के लिए है , जिनके पास कोई साधन नहीं है। मसलन, रेलवे स्टेशन , मंदिरों पर भीख मांगने वालों के लिए, मजदूरों के लिए, उन राहगीरों के लिए जो लॉकडाउन में फंसे हैं। परंतु जिनका अपना घर है। उन्हें यह लंच पैकेट नहीं , अनाज की थैली मिलनी चाहिए। प्रशासन-पुलिस जो भी सहायता कार्य कर रहा है, वह सराहनीय है, परंतु जो समर्थ हैं, उन्हें अपने अड़ोस- पड़ोस दृष्टि डालनी चाहिए। एक -दो निम्न मध्यवर्गीय लोगों के घर भी वे अन्नदान कर आते हैं, तो यह गुप्त दान उनके लिए सौ लंच पैकेट बांटने से अधिक पुण्यदायी होगा। वैसे भी कहा गया है कि दान इस प्रकार देना चाहिए कि दाहिना हाथ दे तो बायें हाथ को पता भी न चले। इसे ही गुप्तदान कहा गया है। हम सें बढ़कर कौन है, जनता तुम हमें पहचान लो, गर विश्वास ना हो तो फ़ोटो देख कर जान लो। जिस भय से निम्न- मध्य वर्ग के लोग हाथ नहीं फैला रहे हैं कि कहीं कोई उनका भी वीडियो नहीं बना ले। उनका जो स्वाभिमान पर्दे के पीछे सुरक्षित है, ये उसका तमाशा न बना ले। 
    सरकार कहती है कि मुफ़्त राशन देगी। पर कितना, एक यूनिट पर पाँच किलोग्राम चावल मात्र। इससे अधिक मुफ़्त गल्ला लेने के लिए निम्न- मध्यवर्गीय लोग शासन द्वारा तय शर्त पूरा नहीं कर सकते हैं और न ही श्रमिक वर्ग की तरह उन्हें सरकारी एक हजार रूपये का  लाभ मिलेगा।
     मित्रों ! सरकार को ऐसी कोई व्यवस्था देनी चाहिए ,जिससे सभी राशन कार्डधारकों के लिए प्रति यूनिट के हिसाब से गल्ले का ऐसा एक मुफ़्त पैकेट हो। जिसमें गेहूँ/ आटा , चावल और दाल के साथ ही सरसो तेल की एक छोटी बोतल भी हो।  
   अब जबकि इनके परिवार की आर्थिक स्थिति इस लॉकडाउन में पूरी तरह से डाँवाडोल है। यदि आप और हम इस वर्ग के दर्द को पहचान नहीं रहे है, तो ऐसी समाजसेवा और ऐसे उत्सव मनाने का अधिकार हमें किसने दिया है ?

   फ़ना निज़ामी कानपुर के शब्दों में मैं तो इतना कहना चाहता हूँ-

अंधेरों को निकाला जा रहा है
मगर घर से उजाला जा रहा है।

          - व्याकुल पथिक