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Wednesday 7 October 2020

जीवन के रंग

    'त्याग को मानव का श्रेष्ठ आभूषण बताया गया है। निर्माण के लिए त्याग आवश्यक है।यदि कुछ प्राप्त करना है,तो कुछ छोड़ना भी होगा,तभी हृदय को सच्चा धन हाथ लगेगा...।' चालीस की अवस्था में पत्नी-सुख से वंचित हो गये बाबू भगतदास के समक्ष जब भी पुनर्विवाह का प्रस्ताव आता,वे अपने दोनों बच्चों के 'भविष्य निर्माण' का विचार कर कुछ ऐसे ही पुस्तकीय ज्ञान के सहारे अपने मन के वेग को बलपूर्वक रोक लेते। इसप्रकार उन्होंने अपनी इच्छा,ज़रूरत और खुशियों को असमय ही इस त्याग रूपी हवनकुण्ड में भस्म कर दिया।

     ऊँचे खानदान के भगतदास के पास दौलत ही नहीं शोहरत भी थी। पत्नी गुणवंती जब तक साथ थी, कारोबार में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती रही।कच्ची गृहस्थी में जीवनसंगिनी से यूँ बिछड़ना उन्हें विचलित किये हुये था। माँ-बाबूजी को गुजरे साल भर नहीं हुआ कि यह बड़ा आघात उनके हृदय पर आ लगा। मानो दुर्भाग्य के ऐसे काले बादल उनके सिर पर मंडरा रहे हों, जिनमें स्नेह-वर्षा की एक बूँद भी न हो, जिससे पत्नी वियोग में तप्त हृदय को दो घड़ी शांति मिलती। ऐसा कोई सगा-संबंधी न था,जिससे वार्तालाप कर वे अपना ग़म हल्का कर लेते।सो,बड़े विवेक और धैर्य से उन्होंने स्वयं को बाँध रखा था।


    गुणवंती का साथ क्या छूटा कि सारी खुशियाँ भी जाती रहीं। न पर्व न उत्साह,घर में मरघट-सा सन्नाटा रहता। वो कहते हैं न-"बिन घरनी,घर भूत का डेरा।" कहाँ तो छह जनों का भरापूरा परिवार और कहाँ इतने बड़े बंगले में बाबू साहब अपनी चौदह साल की बेटी दीप्ति और बारह वर्ष के पुत्र चिराग़ संग शेष रह गये।पर बेचारे करते भी क्या? तड़प कर रह जाते थे। बच्चों के लिए सौतेली माँ लाने की गवाही उनका वात्सल्य भाव से भरा हृदय देता नहीं। विमाता की निष्ठुरता के संबंध में अनेक किस्से जो सुन रखे थे। ऊपर से उनके भोले बच्चों में चतुराई जैसा एक भी गुण न था। वे तो कोमल और सुकुमारता की मूर्ति थे।फिर अपने जिगर के टुकड़ों को  किसी अनजान के हाथों सौंपने का खतरा वे कैसे मोल ले सकते थे। सो,इसे विधाता का दण्ड समझ विधुर ही रहने का निश्चय कर लिया था।


    घर की वफ़ादार बूढ़ी आया जिसे उन्होंने कभी नौकरानी नहीं समझा था, के भरोसे दोनों बच्चों को छोड़ वे काम पर जाते भी तो उन्हें विद्यालय से छूटते ही स्वयं लिवा आते। ताकि घर पर माँ की कमी उनको महसूस नहीं हो। वे बच्चों को खुद से पल भर भी अलग नहीं देखना चाहते । जिसका विपरीत प्रभाव उनके व्यापार पर पड़ा। उनकी आय लाखों से हजारों में सिमट गयी, जबकि समय के साथ बच्चे बड़े हुये और उनकी शिक्षा पर ख़र्च बढ़ गया ।परिस्थिति विकट होती गयी,फिर भी बाप-दादा से प्राप्त करोड़ों की अचल सम्पत्ति को वे अपने पूर्वजों की धरोहर समझते, धन के लिए पुश्तैनी विशाल भूखंड के छोटे-से टुकड़े का त्याग भी उन्हें स्वीकार नहीं था । हाँ, इस आर्थिक चुनौती का सामना करने केलिए उन्होंने अपनी सुख-सुविधा की हर वस्तुओं का त्याग कर दिया। दिनोदिन उनके सादगी पसंद व्यक्तित्व की ख्याति भी बढ़ने लगी । मानो त्याग,तप और सत्य की सजीव मूर्ति हों। सुबह नित्य गंगा स्नान-पूजन और रात्रि शयन से पूर्व गीता-रामायण का पाठ, यह दो कार्य उनकी दिनचर्या के अंग बन गए । यह देख मुहल्ले-टोले के लोग आदर से उन्हें भगत जी कहा करते ।


  समय बीतते देर न लगी । बिटिया सयानी हो चली । वह रूप,रंग और गुण से बिल्कुल अपनी माँ गुणवंती पर गयी थी। धार्मिक संस्कार उसे पिता से मिले ही थे ,जिसे न अपनी विद्या का अहंकार था न रूप का दर्प ,ऐसी सर्वगुणी पुत्री के लिए योग्य वर की तलाश कर रहे भगतदास की मंशा शीघ्र पूर्ण हो गयी। मध्यवर्गीय परिवार का एक उद्यमशील युवक राजा जिसे आत्मनिर्भर बनाने में उन्होंने कभी तन-मन-धन से मदद की थी,अब उनका जामाता था। ससुराल में उनकी रानी बेटी राज करेगी, इसमें उन्हें संदेह नहीं था। लेकिन, भगतदास को क्या पता कि वे अपनी गऊ-सी पुत्री को कसाई के हाथ सौंप आये हैं।जमाई राजा को अपनी रानी से नहीं वरन् उनकी दौलत से प्रेम था।


      सच भी है कि बिना आलीशान बंगले और मोटरगाड़ी के काहे का राजा! ईमानदारी और परिश्रम के धन से यह संभव न था। उसने पत्नी से खुलकर अपनी अभिलाषा का ज़िक्र किया ,डराया-धमकाया,फिर भी वह पिता से यह कहने को तैयार नहीं हुई कि वे करोड़ों की अपनी अचल सम्पत्ति का एक हिस्सा उसके नाम कर दें।  बदले में वह यंत्रणा सहती रही। इससे क्रुद्ध हो कर राजा ने हर उस व्यसन को स्वीकार कर लिया, जिसके माध्यम से वो बंगला-गाड़ी , धन-दौलत, नौकर-चाकर सब-कुछ हासिल कर सकता है। वह जानता था कि जुगाड़-तंत्र की इस दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। यह सब बस दिमाग का खेल है,जो उसके पास था ही। फिर क्या था बड़े लोगों की महफ़िल में रात गुजारनें लगा।उनके लिए शराब,शबाब और कबाब की व्यवस्था करता, बदले में उनसे छोटी-मोटी ठेकेदारी झटक लेता।


   पति के कृत्य को देख दीप्ती के चेहर की चमक बुझने लगी। धर्मनिष्ठ पतिव्रता स्त्री हर कष्ट सहन कर सकती है किन्तु पति का ऐसा आचरण कदापि नहीं ,जो दूसरों के मनोरंजन के लिए स्त्री की आबरू का सौदा करे। सच तो यह था कि यदि बाबू भगत सिंह का भय न होता तो दामाद  जी अपनी सती सावित्री पत्नी को भी इन भद्रजनों के इंज्वॉय क्लब का हिस्सा बना चुके होते ।  सुरा-सुंदरी के खेल ने राजा के हर स्वप्न को साकार कर दिया । पत्नी का मतलब उसके लिए जीवन-साथी नहीं, चरणों की दासी था। दीप्ती की भावनाएँ उसकी धनलोलुपता की भेंट चढ़ गयीं । बेचारी ! एकांत में सिसकती और ससुराल वालों के समक्ष मुस्काती थी,पति के हाथों पिटाई का जो भय था।

 

   उधर ,मायके में उसके भाई चिराग़ का हाल कम बुरा न था। करोड़ों की सम्पत्ति का वारिस फिर भी ज़ेब खाली ,न मोटरगाड़ी और न ही साथी रईसजादों की तरह मौजमस्ती के साधन। बहनोई की चकाचौंध भरी दुनिया के समक्ष अपने पिता का ईमानदारी भरा व्यवसाय, उसे तुच्छ लगता। इसी भटकाव में वह बहता चला गया और बढ़ती गयी पिता-पुत्र की दूरी। युवा पुत्र संग वैचारिक मतभेद का टकराव रोकने के लिए भगतदास ने उसके कार्यों में हस्तक्षेप बंद कर दिया। बहन ने समझाने का प्रयत्न किया। समाज में पिता के सम्मान का हवाला दिया, परंतु भाई ने परिहास में ही उसपर तंज़ किया- " दीदी,यह ज्ञान जीजा जी को क्यों नहीं देती ? देखों उन्हीं की कमाई की इस महँगी गाड़ी से जब तुम मायके से आती हो,तो पड़ोस की स्त्रियाँ किस प्रकार ईर्ष्या भाव से तुम्हें देखती हैं।"


    चिराग़ ऐसा कुतर्क रचता कि दीप्ती निरुत्तर हो जाती। वैसे भी मायके से विदा होने के बाद बेटी के लिए यह घर अपना कहाँ होता है? भाई संग विवाद के भय से उसने भी पिता-गृह आना कम कर दिया। अब चिराग़ पर नज़र रखने वाला कोई नहीं रहा। परिस्थितियों का लाभ उठा बहनोई यह कह उसे भड़काता - "अरे साले साहब! मैं हूँ न ,चिन्ता किस बात की, हमारे संग रहो और दुनिया का मजा लूटो।" जीजा के चंद सिक्कों की झंकार के समक्ष उसे पिता का आदर्श खोखला लगा। वह फिसलता चला गया। उस नादान को कपटी मित्र और संबधियों की पहचान  जो न थी। जबकि उसकी अचल सम्पत्ति जीजा के धन से कई गुनी थी।


     परिस्थितियों का लाभ उठा राजा ने चिराग़ का विवाह इसी इंज्वॉय क्लब की एक सुंदर युवती माया से करवा दिया। भगत जी जमाता  के षड़यंत्र से अंजान घर में पुत्रवधू के आने की खुशियाँ मना रहे थे।उन्हें नहीं पता कि गृहलक्ष्मी की जगह  विषकन्या ने उनके गृह में प्रवेश किया है। शादी को साल भर भी नहीं हुआ था कि माया की नारी लीला शुरू हो गयी।ससुराल में उसके पाँव टिकते ही नहीं थे । अपने खानदानी उसूलों का जनाज़ा निकलते देख भगतदास ने दो-चार बार बहू को टोका क्या, वह घायल नागिन-सी पलटवार के लिए तड़़प उठी । पति पहले से ही उसके इशारे का गुलाम था। बस बुड्ढे को ठिकाने लगाने के लिए रास्ता ढूंढ रही थी।उसका यह काम जीजा ने आसान कर दिया। उसे तो बस अपने अमोघ अस्त्र 'आँसू' की ओट में शब्दबाण का प्रयोग भर करना था।


     उस रात भोजन कर भगतदास जैसे ही रामायण हाथ में लेकर पाठ पर बैठे थे कि बाज़ू वाले कमरे से बहू के रोने-सिसकने की आवाज़  सुनाई पड़ी,जो पति से कह रही थी-"अजी ! यह कहते लज्जा आती है कि आपके चरित्रवान पिताजी ,जो हम सभी पर अकारण शक करते हैं, उनकी.. मुझ पर नियत ठीक नहीं है। मारे भय के दिन में अकेली घर पर नहीं रह पाती,जिसपर मुझे कुलटा कहा जाता है। सुन लो आपभी,अब और नहीं रहना इस ढोंगी भगत के संग। " उनका पुत्र भी त्रियाचरित्र के प्रभाव में था। बेटे-बहू के मध्य ऐसे संवाद वे अधिक देर तक नहीं सहन कर सकें। इस आकस्मिक वज्रपात से उनका हृदय विदीर्ण हो चुका था। वह रह-रह कर हाहाकार कर रहा था। ऐसी आत्म वेदना उन्हें पत्नी की मृत्यु पर भी नहीं हुई थी।मन की पीड़ा आँखों में नहीं समा रही थी। उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी घर की मर्यादा बनाये रखने में बर्बाद कर दी थी। उनके इसी त्याग को शर्म-हया विहीन यह स्त्री निगलने को आतुर है। बेटी समान बहू के लांछन ने उनके शांत चित्त को विचलित कर दिया था।किन्तु जब अपना ही सिक्का खोटा हो,तो सफाई किसे देते ?


    पूरी रात करवटें बदलते रहे भगतदास। उनके उज्ज्वल चरित्र पर जो कलंक अपनों ने लगाया था,उस ग्लानि से उनके मन को तनिक भी विश्राम नहीं मिल रहा था। वे स्वयं से प्रश्न करते कि क्या ऐसे ही कुपुत्र के लिए उन्होंने पुनर्विवाह नहीं किया ? क्या ऐसे ही स्वजनों के भरण-पोषण के लिए वे उद्यम कर रहे हैं ? उन्होंने तो पढ़ा था - "त्याग में हृदय को खींचने की शक्ति होती है। व्यक्ति के दोष भी इसके प्रभाव में आकर अलंकार बन चमक उठते हैं।" फिर यह कलंक उनके किस कर्म का दण्ड है। वे समझ गये कि यदि यहाँ कुछ दिनों और ठहरे तो यह पापिन उन्हें किसी को मुँह दिखलाने लायक नहीं छोड़ेगी। उन्हें अपने जमाता की कुटिलता का ज्ञान होता है, परंतु निःसहाय थे। उन्होंने अत्यंत दीनभाव से अपने ईष्ट को पुकारा था-"हे प्रभु! मेरा त्याग अभिशाप क्यों बन गया ? अब आप ही मेरी रक्षा करें।"


   तभी उनकी ज्ञानेंद्रिय जागृत होती है। उन्हें बोध होता है कि इस लौकिक जगत के सारे संबंध अनिश्चित है, परिवर्तित है। मोह का पर्दा हटता है। उनके शून्य नेत्रों में अपनों के प्रति पहचान के एक भी चिन्ह शेष नहीं रहे ।वे धन ,परिवार और घर सभी त्याग देते हैं। विकल हृदय को वैराग्य का मार्ग मिल गया था।

 

     भगतदास को गये वर्षों बीत गए हैं।किसी सगे-सम्बंधी ने उन्हें फिर कहीं नहीं देखा। यह  अवश्य सुनने को मिला कि अमुक मठ में कभी कोई भगत जी रहते थे।बड़े सच्चे संत थे । मुखमंडल पर अद्भुत तेज था, किन्तु अनुयायियों की संख्या बढ़ने पर ख्याति के भय से अज्ञात स्थान को चले गये। इधर,जीजा ने साले को विभिन्न व्यसनों में उलझा उसकी पैतृक सम्पत्ति की कुछ इस तरह से बोली लगवाई कि सिर छिपाने के लिए सिर्फ़ पिता द्वारा बनवाया गया मकान ही शेष रहा। इंज्वॉय क्लब में ऐसे दरिद्रजनों का प्रवेश वर्जित था। वैभव के नष्ट होते ही दुर्दिन ने भगतदास के पुत्र की आँखें खोल दी, किन्तु परिश्रम उसने कभी किया नहीं था। वह व्याकुल हृदय से बार -बार अपने पिता का स्मरण करता । करोड़ों की अचल सम्पत्ति हाथ से निकल जाने पर अपनी छाती पीटता। पछाड़ खा कर भूमि पर जा गिरता, तो कभी अपनी इस स्थिति के लिए पत्नी को उलाहना देता। पिता के अनुशासन में मिले स्वर्गीय सुख का स्मरण करता।पति की यह दशा देख पितातुल्य ससुर पर आक्षेप लगाने वाली माया पश्चाताप की अग्नि में जली जा रही थी। वह कहती-"काश ! ससुर जी कहीं मिल जाते तो हाथ-पाँव जोड़ मना लाती ।" घर का चिराग़ बुझने को था। संभवतः भगतदास के त्याग का इनके लिए यही दण्ड था।

  और हाँ, राजा साहब का भाग्य चक्र भी परिवर्तित हो गया था। इंज्वॉय क्लब के यौन व्यापार ने उन्हें जेल का रास्ता जो दिखा दिया था।


    ---व्याकुल पथिक