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Monday 11 June 2018

एसपी सावत के स्नेह से पुलिस विभाग में बढ़ी मेरी पहचान


     एक काफी पुराने मामले में कोर्ट में आज फिर तारीख लेने गया था। हम पत्रकारों के लिये एक चुनौती यह भी रहती है कि पता नहीं कौन हमारी लेखनी से नाराज हो जाए। विंध्याचल धाम में कालीखोह मंदिर में चोरी होने की खबर हिंदुस्तान समाचार पत्र में छपी थी और अगले अंक में गांडीव ने भी "नकली गहने" चोरी का समाचार प्रकाशित किया था। सो, पुलिस प्रशासन के द्वारा दोनों समाचार पत्रों के सम्पादक और हम प्रतिनिधियों के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करवाया गया था। मामला न्यायालय में है।
         इस प्रकरण के बाद से न जाने मेरा मन क्यों भारी हो गया और तब से आज तक मैं वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से यदि प्रेस कांफ्रेंस न हो तो कम ही मुलाकात करता हूं। याद है आज भी मुझे कि इस जनपद में  वर्ष 1995 - 96 में एसपी एस एन सावत जैसे युवा अधिकारी भी रहें। वर्तमान में वे एडीजी इलाहाबाद हैं। चेहरे पर सदैव मुस्कान, वाणी में कनिष्ठ जनों के लिये भी सम्मान और सही- गलत की पहचान जितनी उनमें थी, फिर कोई ऐसा एसपी यहां मेरे सामने तो  नहीं आया। वैसे,  दो और युवा एसपी डा0 प्रीतिंदर सिंह और कलानिधि नैथानी की कार्यशैली मुझे काफी पसंद आई। दोनों ही ईमानदार आईपीएस हैं। फिर भी सावत साहब का कोई जोड़ नहीं है, मेरी निगाहों में। इंसाफ की गुहार लगाने वालों के प्रति उनकी जो न्याय करने की क्षमता रही और हम पत्रकारों ने यदि किसी घटना को पुलिस व्यवस्था के लिये चुनौती बताया, तो पेपर में वह कड़ुवी खबर पढ़ कर  वे तनिक भी बुरा नहीं मानते थें, वरन् हमसे ही समाधान पूछ बैठते थें। अपनी बात करुं, तो तब पत्रकारिता में एक- दो वर्ष ही तो हुये थे कदम रखे। इसी बीच मीरजापुर और भदोही जनपद की सीमा टेढ़वा पर हत्या कर महिलाओं का शव फेंकने की तीन घटनाएं हो गयीं, तो मैंने खबर लिख दी कि शव को ठिकाने लगाने का अपराधियों का पसंदीदा स्थल बना टेढ़वा। सावत साहब ने खबर पढ़ी और कहा तुम्हारा कहना भी सही है। जिस पर मैंने कहा कि पुलिस नहीं रहती वहां, जबकि चील्ह और औराई थाने की सीमा है। उन्होंने तत्काल टेढ़वा पर थाने से दो सिपाहियों की ड्यूटी लगा दी और लाशों का मिलना भी बंद हो गया। अब पुलिस चौकी है वहां। शास्त्रीपुल से एसपी बंगाल काफी दूर था, फिर भी मैं साइकिल से उनसे मिलने अथवा अखबार देने जाता था। यह देख उन्होंने कहा कि पेपर मैं मंगा लिया करुंगा, किसी थाने या चौकी पर रख दिया करें। यहीं से गांडीव पुलिस विभाग के लिये महत्वपूर्ण अखबार हो गया। कनिष्ठ अधिकारी समझ गये थें कि साहब उसे पढ़ते हैं। फिर क्या था मेरी पकड़ भी पुलिस विभाग में हो गयी। एएसपी, सीओ, थानाध्यक्ष सभी मेरा सम्मान करने लगें। जिसका श्रेय मैं तब अपने प्रेस में विशेष प्रतिनिधि रहें  चित्रांशी अंकल को देना चाहता हूं। सावत साहब अकसर ही यह पूछ लेते थें कि कैसे आये हो साइकिल न ? वह भी इतनी दूर मेरे बंगले ! एक क्षेत्राधिकारी ने बाद में बताया था कि साहब को बिल्कुल अच्छा नहीं लगाता कि अन्य पत्रकार स्कूटर और मोटर साइकिल से आते जाते हैं, लेकिन आप इतनी दूर साइकिल से। तो मैंने मजबूरी अपनी बता दी कि भाईसाहब ईमानदारी के पैसे से सवारी बदल नहीं सकता मैं, आप सभी ने मेरे लिये इतना सोचा यह क्या कम है। आज भी कुछ माननीय और बड़े व्यवसायी , जो मेरी ईमानदारी के कारण मुझसे स्नेह करते हैं, वे बराबर कहते रहते हैं कि बहुत हो गया शशि जी अब हमलोग आपको साइकिल से नहीं चलने देंगे। वैसे, भी तो आपका स्वास्थ्य  खराब रहता है। लेकिन, मैं हूं कि मुस्कुरा कर उनके आग्रह को टालता आ रहा हूं, इतने वर्षों से। क्या करूं मित्रों , अपनी तो साइकिल ही हवाई जहाज है।उस समय टेलीफोन ड्यूटी पर दो युवा आरक्षी प्रमोद कुमार सिंह और श्रवण कुमार सिंह थें , आज दोनों ही दरोगा हैं। प्रमोद सिंह की बड़ी बिटिया तो डाक्टर बन गयी है। साबत साहब के बाद शैलेन्द्र प्रताप सिंह, बद्री प्रताप सिंह सहित कुछ और पुलिस कप्तान भी मेरी ईमानदारी और मेरी लेखनी दोनों को पसंद करते थें। अपर पुलिस अधीक्षकों से पर्याप्त सहयोग और समाचार मिल जाता था।  लेकिन, वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार हमें कैसे ढलना है, इसका प्रथम उपदेश तब मुझे एक कोतवाल ने दिया था। जिन्होंने मुझे बताया था कि शशि जी आप युवा हैं अभी ,इसीलिये नहीं समझ रहे हैं  कि हम पुलिस वाले जनसेवा नहीं नौकरी करने यहां आये हैं। और सचमुच जमाने भर की ठोकर खाने के बाद अब मुझे उक्त पुलिस अधिकारी को धन्यवाद देने का मन करता है, क्यों कि लगातार  हेरोइन और जुएं पर खबर लिखने के कारण ही मेरी  इस तरह से घेराबंदी हुई थी। संकट में न संस्थान काम आया और न ही यह समाज जिसके लिये हम जमाने से भिड़ते हैं।

शशि