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Monday 21 May 2018

काश! पुकारा होता मेरे लाल घर आ जा



         ब्लॉग लेखन करते हुये मन को बार बार कुरेदता हूं, अतीत को टटोलता हूं और स्वयं से भी प्रश्न करता हूं कि नियति ने मुझे जैसे भावुक इंसान को एक यतीम सा जीवन क्यों दिया। बचपन में मुझे आटा गूंथते , सब्जी काटते और कपड़ा प्रेस करते देख महिलायें खुश होकर कहा करती थीं  कि तुझसे जिसकी शादी होगी, वह बड़ी खुशनसीब होगी रे ! रोटी, पूड़ी -पराठे तीनों बनाने के लिया आटा कितना नरम अथवा कड़ा गूंथना है, कोलकाता में ही मां से सीखा था।  रोटी- पराठा, चाय-घुघरी सभी कुछ तो मैं बहुत बढ़िया बनाता था। पर इतना खुशकिस्मत नहीं था कि कोई हमसफर मिलता जो यह कहता..

  तुम ही मेरे मंदिर, तुम ही मेरी पूजा, तुम ही देवता हो
 कोई मेरी आंखों से देखे तो समझे कि तुम मेरे क्या हो...

        हां, ऐसी ख्वाहिशों ने मेरे दर्द को और बढ़ाया जरुर। जिस पीड़ा से बाहर निकलने में मुझे काफी वक्त लगा था कभी।  फिर भी चेहरे पर वहीं  मुस्कान बनी रही, जिसे हासिल करने के लिये मैं उस महान जोकर की फिल्म देखा करता हूं, अपनी भावुकता, संवेदना और प्रेम को उसी रंगमंच पर समाहित करने के लिये, जिसे मैं अपने शब्दों में कर्तव्य पथ कहता हूं। सोचता हूं कि एक सभ्य , संस्कार युक्त और अनुशासित परिवार में पल-बढ़ रहा था। फिर अचानक वह वज्रपात कैसे, क्यों और किसलिये हो गया। युवावस्था की ओर कदम बढ़ा रहा जो किशोर अपने सुनहरे भविष्य को लेकर उत्साह से लबरेज था। अपने कक्षा में अव्वल रहता था, कोई गलत राह पर भी नहीं था साथ ही सबसे बड़ी बात यह रही कि  मेरे अभिभावक भी हम तीनों ही भाई बहन को अच्छी शिक्षा दिलवाने की हर सम्भव कोशिश कर रहे थें। हम बच्चों को अच्छा भोजन व वस्त्र दिया गया। फिर भी संबंधों में यह कड़ुवाहट आखिर क्यों  !  मैं इसके लिये अपने माता - पिता को बिल्कुल भी कठघरे में खड़ा नहीं करना चाहता हूं। बस हमारे बीच की ट्यूनिंग इसलिये सम्भवतः गड़बड़ा गयी, क्यों कि पापा की हर इच्छा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की तरह होता था, जिसकी कोई अपील नहीं थी। जुबां खोलने का मतलब बगावत करना था। हालांकि वे हम सभी की खुशी के लिये कठिन परिश्रम करते थें। जो विद्यालय हमारे अभिभावक ने खोला, उसके लिये कितना श्रम किया था, कितनी ही महत्वाकांक्षा जुड़ी थी उनकी। यह जो महत्वाकांक्षा है न बंधुओं, बड़ा ही खतरनाक परिणाम देता है।अब देखें न कोलकाता में मैं कक्षा 6 पास कर बनारस गया था और पापा ने सीधे कक्षा आठ की परीक्षा में ला बैठाया। कितना घबड़ा गया था, तब मैं। दिसंबर के आखिरी सप्ताह में मां की मौत  हुई थी और तीन माह बाद परीक्षा देनी थी, वह भी आठवीं की। खैर किसी तरह प्रथम श्रेणी से पास हो गया। मैं एक चित्रकार बनना चाहता था, गणित जैसा उबाऊ विषय बिल्कुल नहीं चाहता था। परंतु पापा ने नौ में विज्ञान ही दिलवा दिया। जो छात्र  कक्षा 7 और 8 की शीक्षा प्राप्त ही न की हो, उसका उपहास नयी कक्षा में सहपाठी निश्चित ही उड़ाएंगे। यह मेरे जैसे स्वाभिमानी किशोर को कतई बर्दाश्त नहीं था। सो, दिन रात मैं पढ़ाई में जुट गया। मेरा परिश्रम देख मेरे कोचिंग टीचर सहपाठियों से अकसर कहा करते थें कि यह लड़का भले ही जीनियस नहीं है, परंतु उसने अपने श्रम और संकल्प से तुम सबको पीछे छोड़ दिया है। मैंने शशिकांत सर को निराश नहीं किया। जब 10 वीं की परीक्षा में मुझे गणित में सौ में 98 नंबर मिला,तो उन्होंने सीना चौड़ा कर कहा था कि यह मेरा नामराशि है। इसके वर्षों बाद जब नीचीबाग, वाराणसी में सड़क पर राह चलते मेरी उनसे मुलाकात हुई , मैंने पांव पूछ कर पूछा था कि सर पहचाना मैं शशि हूं ! जिस पर मुस्कुराते हुये उन्होंने कहा था कि तुम्हें कैसे भूल सकता हूं। तुम्हारी मेहनत नजीर रही । मेरी पढ़ाई इस तरह से अधूरी रह जाने की खबर पर वे बिल्कुल उदास हो गये थें। बस इतना कहा था कि तुम बहुत आगे जाते ! मैंने उन्हें बताया था कि गांडीव समाचार पत्र के लिये मैं मीरजापुर से रिपोर्टिंग करता हूं। परंतु यह नहीं बताया था कि सर मैं प्रतिदिन शाम को पेपर का बंडल लेकर वाराणसी से बस पकड़ ढ़ाई तीन घंटे सफर के बाद मीरजापुर जाता हूं। जहां अनजाने शहर की अनदेखी गलियों में रात्रि साढ़े नौ बजे तक पैदल ही अखबार बांटते हुये भटकता हूं। फिर वहां से स्टेशन रोड बस अड्डे पर जा वापसी के लिये बस का इंतजार करता हूं। और यदि बस ना मिली तो सामने रेलवे स्टेशन का प्लेटफार्म है, रात गुजार लेता हूं। मैं उन्हें यह सब बता और दुखी नहीं करना चाहता था !
      पर सवाल जो मैं सदैव ही स्वयं से पूछता आ रहा हूं कि इसका जवाब क्या हो सकता है। पहला बचपन में कोलकाता में मेरे टिफिन बाक्स में महंगा फल और मिठाइयां साथ ही नन्हें राजकुमार जैसी सुख सुविधा देख पापा की नाराजगी कि     उनके एक लड़के की इतनी सेवा ! दूसरा, जब पुनः कोलकाता से किशोरावस्था में कदम रखने और मां की मौत के बाद  बनारस गया, तो अति अनुशासन में रहने की बाध्यता और तीसरा पिता-पुत्र का स्वाभिमान आपस में टकरा जाना। मुझे आज भी याद है कि एक बार पापा मेरी तब तक पिटाई करते रहें, जब तक छड़ी टूट नहीं गयी, मैं झुकने को तैयार नहीं हुआ। बाद में पिता जी के हाथ में दर्द होने लगा था। हां, परिस्थितियां बदल गयी होतीं, यदि हम बाप बेटे में से एक झुक गये होतें।
    काश ! किसी ने यह पुकारा होता..
 ओ मेरे लाल आ जा, तुझ को गले लगा लूं।

बस चाहता यही हूं कि आपका लाल जब किशोरावस्था की दहलीज पर हो, तो उसके साथी बनें, शासक नहीं !
(शशि)