व्याकुल पथिक 15/4/ 18
आत्मकथा
पत्रकारिता में चाटूकारिता नहीं होनी चाहिए , क्या ऐसे अब सम्भव है। कतिपय बड़े अखबार और मीडिया चैनल इस लिये ही कुख्यात है कि फलां राजनैतिक दल का वह समर्थक है। कुछ के तो मालिकान भी किसी न किसी दल से जुड़े है। वर्तमान दौर में पत्रकारिता में हम जितनी ही ऊंचाई पर बढ़ेंगे , यह पाएंगे कि हम तो आदर्श पत्रकारिता के लड़ रहे हैं और वहीं अनेक मीडिया समूह के स्वामी किसी आलीशान होटल या बंगले में किसी प्रमुख राजनेता संग डीनर कर रहे हैं। उनके बीच की डीलिंग पर हम पत्रकार नौकरों को बोलने का कोई अधिकार नहीं है। बस दिशा निर्देश आता है कि हमें किस तरह की खबरें लिखनी है । जिनता बड़ा अखबार रहेगा, दबाव भी उतना ही अधिक। हालांकि मैं एक मझोले समाचार पत्र से जुड़ा रहा हूं और हमारे सम्पादक जी का बेहद स्नेह मुझ पर रहा, इसी कारण समाचार लेखन की स्वतंत्रता थी। सिर्फ एक बार उन्होंने व्यक्तिगत रुप से मुझे टोका था। मामला नरायनपुर और पड़ोसी जनपद के मध्य जिला पंचायत परिषद के बैरियरों पर धन उगाही से जुड़ा रहा। उस खबर को मुझे जनहित में प्रकाशित करना पड़ा। ये बैरियर तब सत्ता पक्ष के एक धनाढ्य माननीय के लोगों द्वारा संचालित हो रहा था। जो माननीय थें, उन्होंने हमारे संस्थान से सम्बंध रखने वाले एक चिकित्सक का जनहित में काफी सहयोग किया था। सो, उस खबर पर मेरी शिकायत की गई थी।
जब युवा था, संघर्ष करने की भरपूर क्षमता थी और एक विश्वास था कि संकटकाल में संस्थान मेरा साथ देगा। उस समय हमारे प्रेस में जो पत्रकार थें, उनकी हनक चहुंओर थी। सबसे अधिक विश्वास मैं इस मामले में डा0 राधारमण चित्रांशी जी पर करता था। पुलिस महकमा हो या फिर प्रशासनिक उनकी तूती तब बोलती थी। सो, खबर लिखने से पीछे नहीं हटा, तब तक जब तक मुझे यह एहसास नहीं हुआ कि संकट काल में मैं बिल्कुल अकेला हूं। संस्थान जिस पर मुझे गर्व था कि वह मेरा सुरक्षा कचव है, यह भ्रम तब टूटा जब मुझपर यहां समाचार लेखन को लेकर मुकदमा दर्ज हुआ। इस संघर्ष में मैं बिल्कुल अकेला हूं। हां , हमारे साथी पत्रकारों और शुभचिंतकों ने मिल कर जमानत करवाया और मामला न्यायालय में चल रहा है। हां, संस्थान की इतनी कृपा रही कि उसने मुझे बाहर का रास्ता नहीं दिखलाया। परंतु आप यह नहीं समझ सकते कि जब कोई पत्रकार ईमान की राह पर हो और किसी अपने के ही साजिश का शिकार हो गया हो, तो उसपर क्या गुजराती है। तब किस तरह से ऐसे ही लोगों ने हमदर्द बन मेरा उपहास अपने महफिल में उड़ाया, उस अवसाद के दौर से भी मैं गुजरा हूं। जेब खाली था। ऐसे में जहां संस्थान से आर्थिक सहयोग की उम्मीद थी, वहां इस जरुरत को हमारे सहयोगी जनों ने कुछ तो पूरा किया ही। पुलिस और राजनेताओं की चाटूकारिता न करने की यह बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़ रही है। हम लम्बे समय से एक ही जिले में रहकर यदि ईमान पर रह कर पत्रकारिता करेंगे, तो विरोधियों से घिरते चले जाएंगे। हां, यदि चाटूकारिता को पत्रकारिता का अंग बना लेंगे, तो सम्पन्न और खुशहाल जीवन व्यतित कर सकते हैं। प्रशंसा कौन नहीं सुनना चाहता। शास्त्रों में भी तो कहा गया है कि अप्रिय सत्य मत बोलों । सो, मैं अब समझता हूं कि पत्रकारिता ही नहीं चाटूकारिता का हर क्षेत्र में विशेष स्थान है। हां मेरे तरह घर फूंक कर तमाशा देखना हो, तो फिर आये इस राह पर... सब कुछ बर्बाद हो सकता है। फिर भी इसका अपना आनंद है। आज भी जब मैं सड़कों पर निकलता हूं, तो मुझे पत्रकारिता के क्षेत्र में एक संघर्ष के प्रतीक के रुप में मुझसे स्नेह रखने वाले लोग देखते हैं। अनजाने शहर में यह पहचान मेरी बड़ी उपलब्धि है। पर आपको लिखने की उतनी स्वतंत्रता भी दे, आपका सम्पादक तब न ! इस जनपद में भी क्षेत्र में कितने ही अच्छे पत्रकार हैं, परंतु उनकी खबरें ब्यूरोचीफ के डेक्स पर पहुंच बेदम हो जाती हैं। क्यों वहां जो शख्स बैठा है, जिसे संस्थान से कुछ अच्छा वेतन मिलता है। खबर लिखने की कला तो उसकों भी आती है। परंतु उसकों यह जिम्मेदारी भी सौंपी जाती है कि प्रेस के व्यवसाय को बढ़ाया जाय। बिना चाटूकारिता के क्या यह सम्भव है ...। (शशि)
क्रमशः
आत्मकथा
पत्रकारिता में चाटूकारिता नहीं होनी चाहिए , क्या ऐसे अब सम्भव है। कतिपय बड़े अखबार और मीडिया चैनल इस लिये ही कुख्यात है कि फलां राजनैतिक दल का वह समर्थक है। कुछ के तो मालिकान भी किसी न किसी दल से जुड़े है। वर्तमान दौर में पत्रकारिता में हम जितनी ही ऊंचाई पर बढ़ेंगे , यह पाएंगे कि हम तो आदर्श पत्रकारिता के लड़ रहे हैं और वहीं अनेक मीडिया समूह के स्वामी किसी आलीशान होटल या बंगले में किसी प्रमुख राजनेता संग डीनर कर रहे हैं। उनके बीच की डीलिंग पर हम पत्रकार नौकरों को बोलने का कोई अधिकार नहीं है। बस दिशा निर्देश आता है कि हमें किस तरह की खबरें लिखनी है । जिनता बड़ा अखबार रहेगा, दबाव भी उतना ही अधिक। हालांकि मैं एक मझोले समाचार पत्र से जुड़ा रहा हूं और हमारे सम्पादक जी का बेहद स्नेह मुझ पर रहा, इसी कारण समाचार लेखन की स्वतंत्रता थी। सिर्फ एक बार उन्होंने व्यक्तिगत रुप से मुझे टोका था। मामला नरायनपुर और पड़ोसी जनपद के मध्य जिला पंचायत परिषद के बैरियरों पर धन उगाही से जुड़ा रहा। उस खबर को मुझे जनहित में प्रकाशित करना पड़ा। ये बैरियर तब सत्ता पक्ष के एक धनाढ्य माननीय के लोगों द्वारा संचालित हो रहा था। जो माननीय थें, उन्होंने हमारे संस्थान से सम्बंध रखने वाले एक चिकित्सक का जनहित में काफी सहयोग किया था। सो, उस खबर पर मेरी शिकायत की गई थी।
जब युवा था, संघर्ष करने की भरपूर क्षमता थी और एक विश्वास था कि संकटकाल में संस्थान मेरा साथ देगा। उस समय हमारे प्रेस में जो पत्रकार थें, उनकी हनक चहुंओर थी। सबसे अधिक विश्वास मैं इस मामले में डा0 राधारमण चित्रांशी जी पर करता था। पुलिस महकमा हो या फिर प्रशासनिक उनकी तूती तब बोलती थी। सो, खबर लिखने से पीछे नहीं हटा, तब तक जब तक मुझे यह एहसास नहीं हुआ कि संकट काल में मैं बिल्कुल अकेला हूं। संस्थान जिस पर मुझे गर्व था कि वह मेरा सुरक्षा कचव है, यह भ्रम तब टूटा जब मुझपर यहां समाचार लेखन को लेकर मुकदमा दर्ज हुआ। इस संघर्ष में मैं बिल्कुल अकेला हूं। हां , हमारे साथी पत्रकारों और शुभचिंतकों ने मिल कर जमानत करवाया और मामला न्यायालय में चल रहा है। हां, संस्थान की इतनी कृपा रही कि उसने मुझे बाहर का रास्ता नहीं दिखलाया। परंतु आप यह नहीं समझ सकते कि जब कोई पत्रकार ईमान की राह पर हो और किसी अपने के ही साजिश का शिकार हो गया हो, तो उसपर क्या गुजराती है। तब किस तरह से ऐसे ही लोगों ने हमदर्द बन मेरा उपहास अपने महफिल में उड़ाया, उस अवसाद के दौर से भी मैं गुजरा हूं। जेब खाली था। ऐसे में जहां संस्थान से आर्थिक सहयोग की उम्मीद थी, वहां इस जरुरत को हमारे सहयोगी जनों ने कुछ तो पूरा किया ही। पुलिस और राजनेताओं की चाटूकारिता न करने की यह बड़ी कीमत मुझे चुकानी पड़ रही है। हम लम्बे समय से एक ही जिले में रहकर यदि ईमान पर रह कर पत्रकारिता करेंगे, तो विरोधियों से घिरते चले जाएंगे। हां, यदि चाटूकारिता को पत्रकारिता का अंग बना लेंगे, तो सम्पन्न और खुशहाल जीवन व्यतित कर सकते हैं। प्रशंसा कौन नहीं सुनना चाहता। शास्त्रों में भी तो कहा गया है कि अप्रिय सत्य मत बोलों । सो, मैं अब समझता हूं कि पत्रकारिता ही नहीं चाटूकारिता का हर क्षेत्र में विशेष स्थान है। हां मेरे तरह घर फूंक कर तमाशा देखना हो, तो फिर आये इस राह पर... सब कुछ बर्बाद हो सकता है। फिर भी इसका अपना आनंद है। आज भी जब मैं सड़कों पर निकलता हूं, तो मुझे पत्रकारिता के क्षेत्र में एक संघर्ष के प्रतीक के रुप में मुझसे स्नेह रखने वाले लोग देखते हैं। अनजाने शहर में यह पहचान मेरी बड़ी उपलब्धि है। पर आपको लिखने की उतनी स्वतंत्रता भी दे, आपका सम्पादक तब न ! इस जनपद में भी क्षेत्र में कितने ही अच्छे पत्रकार हैं, परंतु उनकी खबरें ब्यूरोचीफ के डेक्स पर पहुंच बेदम हो जाती हैं। क्यों वहां जो शख्स बैठा है, जिसे संस्थान से कुछ अच्छा वेतन मिलता है। खबर लिखने की कला तो उसकों भी आती है। परंतु उसकों यह जिम्मेदारी भी सौंपी जाती है कि प्रेस के व्यवसाय को बढ़ाया जाय। बिना चाटूकारिता के क्या यह सम्भव है ...। (शशि)
क्रमशः