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Wednesday 15 April 2020

लॉकडाउन का बोझ

लॉकडाउन का बोझ
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     जो मानवता मरूस्थल में परिवर्तित हो गयी थी, अब उसपर इन विपरीत परिस्थितियों में स्नेह रूपी बादल उमड़ने लगे हैं। हाँ, गरजने के साथ -साथ वे बरसते  कितने हैं,इसकी परख शेष है।
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       प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन को बढ़ा कर 3 मई तक कर दिया है। जिससे जो लोग अन्य प्रांतों में फँसे हुये हैं, इस संकटकाल में अपने घर-परिवार में पहुँचने की उनकी उम्मीद जाती रही। सुदूर  जनपद का एक शख़्स यहाँ के एक होटल में फँसा हुआ है। वहाँ उसकी माँ बीमार है, बच्चों का रो-रो कर बुरा हाल है, परंतु घर पर पत्नी के अतिरिक्त और कोई नहीं है । जरा विचार करें कि यदि वह ज़ेब से बिल्कुल खाली होता तो ग़ैर ज़िले में इन दिनों को कैसे गुजर पाता। उसे प्रतिदिन सिर्फ़ भोजन और जलपान पर ही ढ़ाई सौ रुपया  ख़र्च करना पड़ रहा है। प्रदेश के विभिन्न जनपदों में ऐसे अनेक लोग फँसे पड़े हैं। स्वास्थ्य संबंधित जाँच पूरी कर इन्हें घर भेजने की कोई तो व्यवस्था होनी चाहिए ? किन्तु कोरोना के विरुद्ध जंग में जहाँ हो,जैसे हो,बस वहीं पड़े रहो, इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प सरकार के पास नहीं है।
       40 दिनों के इस लॉकडाउन में निम्न-मध्यवर्गीय लोगोंं की आर्थिक स्थिति कितनी भयावह हो गयी है और उससे भी कहीं अधिक सड़कों पर विचरण करने वाले भूखे निराश्रित पशुओं की , इसपर भी तनिक चिंतन करें। इनकी सहायता किस प्रकार से की जाए? है क्या कोई ठोस योजना हमारी सरकार और दानदाताओं के पास अथवा हम सिर्फ़ वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर "भूख" पर काव्यपाठ करते रहेंगे ? 
         गत 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री के संबोधन के कुछ देर पश्चात मेरे मित्र नितिन अवस्थी के पास एक संदेश आया कि अमुक मोहल्ले में संतुलाल के घर का चूल्हा नहीं जला है। आधा दर्जन लोगों का परिवार है। संतु एक मिठाई की दुकान पर काम करता था। प्रतिदिन उसे दो सौ रुपया पारिश्रमिक मिलता था। बच्चे पढ़ते हैं। लॉकडाउन में मदद की गुहार लगाने पर प्रतिष्ठान के स्वामी ने मात्र सौ रुपये देकर उसे टरका दिया। आधा दर्जन लोग और एक सौ का नोट ,यह कोई दौपद्री का भोजन पात्र थोड़े ही है कि इससे 21 दिनों तक भोजन की व्यवस्था कर पाता। बाद में उसकी पत्नी राशनकार्ड लेकर सरकारी गल्ले की दुकान पर गयी। चार यूनिट का कार्ड  है। कोटेदार ने पर्ची बनायी, जिसके साथ नमक का एक पैकेट लेना अघोषित रूप से अनिवार्य था, किन्तु इस महिला के पास 50-60 रुपये भी नहीं थे कि राशन उठा सके। सो, पर्ची लेकर खाली हाथ वह वापस चली आयी। फ़िर कैसे जलता घर में चूल्हा ?
    ख़ैर, हमारे होटल मालिक चंद्रांशु गोयल तक जैसे ही यह जानकारी पहुँची , उन्होंने कोटेदार को फ़ोन कर अपने पास से पैसा दिया और इस परिवार के लिए अन्न की व्यवस्था हुई। साथ ही विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ नेता मनोज श्रीवास्तव जो असहाय वर्ग में निरंतर अनाज वितरित कर रहे हैं, उनके माध्यम से संतुलाल को आटा, चावल , दाल, आलू और तेल की बोतल भी दिलवा दिया गया। ऐसे कितने ही संतु हैं , जिनका स्वाभिमान उन्हें हाथ फैलाने से रोक रहा है, क्योंकि यही हाथ कभी उक्त प्रतिष्ठान पर प्रतिदिन सैकड़ों लोगों को जलपान कराया करता था, वही हाथ आज याचना कैसे करे ? इस विपत्ति में ऐसे लोगों की पहचान करना ही बड़ी चुनौती है। 
      वैसे, इसमें संदेह नहीं है कि कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं रहे, इसके लिए हमारी सरकार निरंतर   प्रयत्न कर रही है। यहाँ के जिलाधिकारी ने भी फूड बैंक का मोबाइल नंबर जारी कर रखा है। पुलिस-पब्लिक अन्नपूर्णा बैंक भी अपना फ़र्ज़ निभा रहा है।  15 अप्रैल से  किसी भी तरह के राशन कार्ड पर प्रति यूनिट पाँच किलोग्राम चावल मुफ़्त मिलने लगा है। परंतु इसपर नज़र रखने की ज़रूरत है, क्यों कि ऐसी भी शिकायतें मिलने लगी हैं कि कम चावल देकर ही टरकाने का प्रयास हो रहा है। सरकार ने कह रखा है कि
 प्रशासन की निगरानी में यह मुफ़्त राशन वितरित हो। परंतु यदि भाजपा चाहती तो अपने वार्ड अध्यक्षों को इस पर निगरानी रखने का दायित्व सौंप सकती थी। भाकपा माले के वरिष्ठ नेता मो0 सलीम की शिकायत रही कि समीप का ही एक कोटेदार ऐसा है कि कमजोर वर्ग के राशनकार्ड धारकों संग मनमानी कर रहा है। 
    अनेक प्राइवेट स्कूल के अध्यापकों को दो- तीन  माह से वेतन नहीं मिला है। नौकरी जाने के भय से वे शिकायत भी नहीं करते हैं और फ़िर करे भी तो किससे ?नगरपालिका क्षेत्र में श्रमिक वर्ग के साथ ही ठेला, रिक्शा और आटो आदि चलाने वालों को सरकार की तरफ़ से एक-एक हजार रुपया दिया जाना है। पात्र व्यक्ति के चयन के लिए नगरपालिका के कर्मियों को लगाया गया है, क्योंकि कतिपय सभासदों ने मनमानी तरीक़े से अपात्रों का नाम भी इसी सूची में डाल दिया है। यह कैसी विडंबना है कि यहाँ भी वे वोटबैंक की राजनीति कर रहे हैं। अब भला एक कर्मचारी किसी अनजान वार्ड में पात्र -अपात्र में अंतर कितना कर पाएगा, जब उसे देखते ही दर्जनों लोग घेर लेते हो। दबाव भी बनाया जा रहा हो। 
     और उस निम्न-मध्यवर्ग की पहचान के लिए अब तक सरकार ने क्या किया ? जिन्हें दो माह से वेतन नहीं मिला हो। उन छोटे दुकानदारों के लिए क्या किया, जिनके प्रतिष्ठान के शटर चालीस दिनों तक नहीं उठेंगे। 
  और कोई सरकार इनके लिए कुछ करे भी कैसे ? जब उसने आज़ादी के बाद इतने वर्षों में भी इनकी पहचान नहीं करवाई है, क्यों कि यह वर्ग किसी भी राजनैतिक दल का ठोस वोटबैंक नहीं है। इस वर्ग को पाँच किलोग्राम मुफ़्त चावल के अतिरिक्त और क्या सरकारी सुविधाएँ मिलेंगी , हमारी सरकार कुछ तो बोले। ऐसे परिवार को इस संकटकाल में प्रतिमाह कम से कम पाँच हजार रुपये देना सरकार का नैतिक कर्तव्य बनता है, क्यों कि लॉकडाउन का फ़रमान उसका है। उसे प्राइवेट सेक्टर में काम कर रहे असंगठित लोगों की पीड़ा
को समझना होगा। ऐसे लोगों के लिए आगामी कुछ महीने आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक चुनौती भरे होंगे।   
      सरकारी रहनुमा बताए कि क्या ये स्वाभिमानी लोग प्रशासन और समाजसेवियों द्वारा वितरित किया जा रहा लंच पैकेट लेने घर से बाहर निकलेंगे ? 
     अभी पिछले ही दिनों समाजसेवा में स्वयं को समर्पित कर रखे  एक संगठन प्रचारक का मार्मिक संदेश मनोज श्रीवास्तव के पास आया था कि लॉकडाउन में उसके परिवार की छोटी सी दुकान बंद होने के बाद उसके वृद्ध माता-पिता के समक्ष भोजन का संकट है।  प्रचारक के स्वाभिमानी अभिभावक भोजन के लिए प्रशासन और समाजसेवियों के समक्ष कैसे हाथ पसारते । ख़ैर विहिप नेता मनोज श्रीवास्तव ने इस परिवार के लिए प्रयाप्त खाद्यान्न की व्यवस्था करवा दी। लेकिन, हरकोई इतना सौभाग्यशाली नहीं है। 

     यह चालीस दिनों का लॉकडाउन अपनों को तौल रहा है,जो मानवता मरूस्थल में परिवर्तित हो गयी थी, अब उसपर इन विपरीत परिस्थितियों में स्नेह रूपी बादल उमड़ने लगे हैं। हाँ, गरजने के साथ -साथ वे बरसते कितना हैं,इसकी परख  शेष है।आम चुनावों में पाँच-दस करोड़ रुपये यूँ ही उड़ाने वाले राजनेता ,माननीय यदि मेघदूत बन जाए, तो यह बंजर मरूभूमि अवश्य तृप्त हो जाएगी, किन्तु अभी तक इन्होंने सिर्फ़ विधायक और सांसद निधि का ही ढोल बजा रखा है।

          - व्याकुल पथ