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Friday 4 May 2018

कर्ता न बनेंं हम

व्याकुल पथिक

      कर्ता न बनें हम

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   एक कुशल मुखिया में भी यदि "कर्ता "होने का दर्प है , तो वह उसकी ही खुशियों को निर्ममतापूर्वक छीन लेता है। परिवार बिखर जाता है , समाज सहम उठता है और अंततः वह स्वयं ही टूट जाता है।
      " मैं ही हूं "  ऐसा अहंकार योग्य शासक को तानाशाह बना देता है। सिकंदर से लेकर नेपोलियन और हिटलर ने शासन सत्ता में उच्च स्थान तक पहुंचने के लिये , कितना कड़ा श्रम किया था,यह हम सभी जानते है। परंतु स्वयं को विश्वविजेता के रुप में देखने के दर्प का मूल्य इनके साथ समाज को भी चुकाना पड़ा।
         इसीलिये  तो जब एक दिन मेरे एक मित्र सार्वजनिक रुप से युवा अवस्था की ओर बढ़ रहे अपने आज्ञाकारी पुत्र को ऊंची स्वर में डांट रहे थें, तो मैंने उन्हें अपने अतीत का स्मरण करवा सावधान किया था कि पुत्र से एकांत में भी हम यही कह सकते हैं। ऐसा करने से आप पिता-पुत्र के सम्बंधों में कड़ुवाहट नहीं आएगी कभी। परंतु यदि आप यह समझ लें कि मैं तो मुखिया हूं। जिसे चाहे जहां, जो चाहे कह दूं,तो आप अपने परिवार की खुशी कम कर रहे हैं !

      वैसे भी यह मेरा नैतिक धर्म बनता है कि स्वयं जिस गड्ढे में  गिरा हूं, दूसरों को अपने समक्ष तो ऐसा ना ही करने दूं। भले ही मेरा परिवार ना हो, परंतु जब किसी महिला को सुबह दरवाजे पर आ कर अपने पति को प्रेम भरी आंखों से दफ्तर जाने के लिये बिदा करते देखता हूं, तो मैं इतना अनुभव कर ही सकता हूं कि दफ्तर के बोझिल वातावरण में पत्नी की वहीं खामोश मुस्कान पति का आत्मविश्वास बन जाता है या फिर पिता के देर शाम घर लौटने पर उसके मासूम बच्चे पापा आ गये , कहते  दौड़े -दौड़े दरवाजे पर आकर उसकी मोटर साइकिल को पीछे से सहारा देते हूं , घर के अंदर करने का असफल प्रयत्न करते हैं , तब इन बच्चों का यही भोलापन भरा कार्य निश्चित ही उस व्यक्ति की थकान हर लेता होगा । लेकिन, यदि मुखिया में कर्ता होने का अहम आ जाये, तो फिर क्या होगा। तब ये सभी उससे सहमे रहेंगे और समीप आने से बचेंगे।
       मेरे छोटे से खुशहाल परिवार पर इसी " मैं ही हूं " ने तो ग्रहण लगा दिया था। हम सभी बिखर और बिछुड़ गये इसी के कारण। जब पढ़ता था, तो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इस तरह से रात्रि  के 11 बजे तक एक बधुआ मजदूर की तरह अखबार बांटना होगा। अब तो धूल, मिट्टी और धुएं में गंगा पुल पर घंटे भर यूं खड़े रहने के कारण पांव की स्थिति कुछ ऐसी हो गई है कि जूता तक नहीं पहन पाता, जिस कारण चप्पल पहन ही काम करना पड़ रहा है। ऐसे मैं वहां खड़े खड़े जब कभी खुले आसमान को निहारते हुये अपनी भी मुक्ति का कामना करता हूं, जब कभी अतीत की याद आती है, तो काफी पीड़ा होती है ,अपने परिवार के बिखरने का। हम सभी की कठिन तपस्या जो कुछ और वर्षों यदि मिला होता, तो पूरा हो भी जाती । उसे इसी " मैं ही हूं " ने कुछ इस तरह से भंग कर दिया कि इसका पहला शिकार मुझे ही बनना पड़ा। फिर बारी आई उस विद्यालय की , जिसे मेरे माता-पिता बड़े ही परिश्रम से खड़ा किया था। मेर छोटी बहन के नाम पर जो ममता शिशु मंदिर गुलजार था , वह भी विरान हो गया। स्व० पिता जी का स्वपन था कि बगल वाला मकान भी खरीद कर विद्यालय का विस्तार करेंगे। हम दोनों भाइयों का विवाह होगा। जो शिक्षित पुत्रवधूएं आएंगी सभी मिल कर ,इस स्कूल को बड़ा पहचान देंगे। परंतु कर्म करने की जगह कर्ता होने का जाने अनजाने में आया "मैं ही हूं का " इस  अहंकार रुपी दानव ने सबकुछ निगल लिया...
    योगेश्वर कृष्ण ने इसीलिए महाभारत के युद्ध में अर्जुन से यह तो कहा कि वे ही कर्ता हैं , परंतु भूमिका उन्होंने सारथी की निभाई थी !

(शशि) 5/5/18