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Thursday 30 January 2020

झोंका हवा का..

    झोंका हवा का..

( जीवन की पाठशाला से )

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     तभी उसे अपने जीवन के एक और कठोर सत्य का सामना करना पड़ा, जिस स्नेह पुष्प को बसंत समीर ने महीनों में खिलाया था , उसे संदेह की लू का एक झोंका पलक झपकते ही जला कर राख कर देता है..
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        ठंडी हवा के झोंके ने फिर से उसके सिर को भयानक पीड़ा दे रखी थी । दोपहर होते-होते वह बिस्तर पर यूँ गिरा कि अगले दिन सुबह ही उठने की स्थिति में था। 
   वह अपनी इस हालत पर स्वयं को धिक्कारा है - 
      "आखिर क्यों नहीं कनटोप लगा कर निकला , जब पता है कि तनिक-सी सर्द हवा सहन नहीं हो पाती है। देख तो दाना-पानी की व्यवस्था भी नहीं कर सका है और अब कौन ख्याल रखेगा तेरा। मौसम कैसा भी हो, बयार कैसी भी चले , तेरे लिए बसंत, शरद और ग्रीष्म ऋतु में क्या फर्क, तू तो पतझड़ है..पतझड़..  ? "

    यह कटु उपदेश सुनकर राघव चौककर उठ  बैठता है। एक तो सिर फटा जा रहा है और उसकी यह अंतरात्मा भी कुछ ज्यादा ही जुबां चलाने लगी है। मेज पर रखे बाम को माथे पर रगड़ते हुये वह भुनभुनाता है। 

 काश ! कोई अपना होता,जिसके स्नेहिल स्पर्श की अनुभूति इस वेदना में उसे हो पाती, परंतु कौन ढ़ाढस देता उसे ?
   ऐसे कष्ट में प्रियजनों को याद कर उसी आँखें  डबडबा उठती हैं। मन को दिलासा देने केलिए एक गीत गुनगुनाने का प्रयत्न करता है -

कब छोड़ता है, ये रोग जी को

दिल भूल जाता है जब किसी को
वो भूलकर भी याद आता है
आदमी मुसाफिर है..
           अरे हाँ ! आज तो बसंत पंचमी है। छात्रजीवन में उसका सबसे प्रिय पर्व रहा। वह  अपने सुनहरे अतीत को याद करता है, जब दस वर्ष का रहा, एक वैवाहिक कार्यक्रम में दार्जिलिंग गया था। बासंती बयार चल रही थी,खिलखिलाते बड़े-बड़े पहाड़ी पुष्पों के मध्य खूबसूरत पंडालों में माँ सरस्वती की सम्मोहक प्रतिमाएँ विराजमान थीं। साँझ होने तक घर की महिलाओं संग वीणावादिनी का पूजन-वंदन करता रहा।  इसके पूर्व उसने एक और माँ शारदा की विशाल प्रतिमा देखी थी,तब वह कोलकाता के उस अंग्रेजी माध्यम विद्यालय के शिशु कक्षा का छात्र था और बाद में कोलकाता और बनारस में स्वयं पंडाल सजाया करता था। एक वर्ष तो मुजफ्फरपुर में भी बच्चों संग उसने पंडाल निर्माण में अपनी कारीगरी दिखाई थी। सभी ने उसे कोलकाता वाला कलाकार कह सम्मान दिया था। इसके पश्चात उसकी उदास जिंदगी में सरस्वती पूजन का अवसर कभी नहीं आया ..। 

      "बेवकूफ ! तेरी खुशियाँ कब की पीछे छूट चुकी हैं। अपने घाव पर खुद ही नश्तर क्यों रख रहा है ।" 

 - दिवास्वप्न से बाहर निकल राघव स्वयं को संभालता है ।
  ओह ! तो यह बसंत पुनः सताने आ गया। अब क्या रखा है, एक मुरझाए पुष्प-सा हो चुका है वह। अन्यथा तो कभी राघव हवा के झोंके से झूमते- इठलाते उन सरसों के फूलों को अपलक देखा करता था।  इन पुष्पों को अपने जीवन की पाठशाला का एक हिस्सा समझ उसने स्वयं से कहा था-
       " देखो न ,एक स्निग्ध समीर का झोंका किस तरह से विश्वास फेंक जाता है। मनुष्य हो या फूल उन्हें नव स्फूर्ति की अनुभूति यह बसंत करा ही देता है, तभी तो इसे ऋतुराज कहते हैं।" 

      और अब तो यह पीला बिछावन उसे चुभन देता है।आखिर क्यों ?  वह तो सदैव प्रकृति के निकट रहा है । माँ गंगा का पावन तट और सुंदर उपवन दोनों ही उसके विश्वसनीय सखा रहे । अन्य मित्रों की तरह इन्होंने तो कभी उसकी निर्धनता का उपहास और उसकी निष्ठा पर संदेह नहीं किया । 

   ग्रीष्मकाल में यहीं किसी बेंच पर बैठा उमसभरी गर्मी से बेचैन हो जब वह नीले आसमान वाले देवता की ओर टकटकी लगाये देखा करता , तभी कहीं से हवा का एक झोंका आता और मौन खड़े वृक्षों की टहनियों में कम्पन होते ही उसके पत्तों से निकले शीतल पवन की अनुभूति ... हम वातानुकूलित बंगलों में बैठकर नहीं कर सकते हैं ।  
    स्नेह रखने वाले बुजुर्ग उसे पछुआ और पुरवा हवा का भेद समझाया करते थें।
  इन्हीं अनुभवी सज्जनों के मध्य वह हँसता- रोता , लड़खड़ाता- संभलता , अपने सपनों में जीता- सोता था। जीवन के तिक्त एवं मधुर क्षण तब उसे समान लगते थे।
    वे बुजुर्ग कहते  - 
  " जीवन एक अग्निकुंड है, यहाँ धूप से अधिक तपन है।"
 प्रेम- मोह , धर्म- मोक्ष की अनेक बातें यहाँ हुआ करती थीं। 
  और उस गंगा तट पर जहाँ उसने तैरने का अभ्यास किया था , नाविक उसे गंगा की लहरों के विपरीत दिशा में हाथ- पाँव मारते देख मुस्कुराते हुये यह पाठ पढ़ाते थे कि पवन की दिशा को देख इनके संग हो लो ,अन्यथा शीघ्र थक जाओगे और गणतव्य तक पहुँचना आसान नहीं होगा। 
   यद्यपि जिनके पास उत्साह है, वे विपरीत परिस्थितियों में भी लक्ष्य प्राप्त करके ही दम लेते हैं । अन्यथा इन्हीं तूफानों को अनेकों बार छोटी- छोटी नौकाओं ने परास्त नहीं किया होता। ऐसी कोई तूफानी बयार इस सृष्टि में नहीं है, जो मनुष्य की हिम्मत को हमेशा केलिए कुचलकर नष्ट कर दे।
    हममें से कुछ मिसाइल मैन ए पी जे अब्दुल कलाम की तरह भी होते हैं , जिनके दृढ़ संकल्प के समक्ष हवा को भी मार्ग बदलना पड़ता है । 
  इसलिए वे अपनी आत्मकथा 'अग्नि की खोज' में जार्ज बनार्ड शॉ का यह उदाहरण प्रस्तुत करते हैं- 
     " सभी बुद्धिमान मनुष्य अपने को दुनिया के अनुरूप ढाल लेते हैं, सिर्फ कुछ ही लोग ऐसे होते हैं, जो दुनिया को अपने अनुरूप बनाने में लगे रहते हैं और दुनिया में सारी तरक्की इन दूसरे तरह के लोगों पर ही निर्भर है। "

   राघव भी धनी और निर्धन दोनों ही घरानों के मध्य सामंजस्य बैठा कर एक मेधावी छात्र के रूप में लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था, तभी न जाने उसके किस अपराध पर यह कहा गया था -

     " बड़े लोगों के साथ कुछ दिन रह क्या लिया कि तू हवा में उड़ने लगा । "  
     अपनों की उपेक्षा का दंश राघव नहीं सहन कर सका। वह अपना आशियाना छोड़ अनजान डगर पर निकल पड़ा । संग यदि कोई था ,तो यही गीत -

क्या साथ लाये, क्या तोड़ आये

रस्ते में हम क्या-क्या छोड़ आये
मंजिल पे जा के याद आता है
आदमी मुसाफिर है...

    मेहनत के चंद पैसों केलिए हर शाम दरवाजे -दरवाजे पुकार लगाते उसका कंठ जबकभी ग्लानि से रुँध जाता था, वह स्वयं से प्रश्न किया करता था कि क्या बचपन में उसका पालन-पोषण किसी बड़े घराने में हुआ था।

 हाँ, इस आस में वह टूटा नहीं कि कोई तो  अपना होगा.. ।
    और एक दिन जब उसका हृदय प्रसून प्रस्फुटित हो उठा था, तभी उसे अपने जीवन के एक और कठोर सत्य का सामना करना पड़ा। जिस स्नेह पुष्प को बसंत समीर महीनों में खिलाया था , संदेह की लू का एक झोंका पलक झपकते ही उसे जला कर राख कर देता है। जीवन के उसी खालीपन को समेटे राघव फिर से वहीं गीत गाता है-

झोंका हवा का, पानी का रेला

मेले में रह जाये जो अकेला
फिर वो अकेला ही रह जाता है
आदमी मुसाफिर है...

      गैरों को अपना समझने के मोह से वह कबतक जुझता रहेगा। यही तो उसके भावुक हृदय का सबसे बड़ा अपराध है। जो उसके हँसते-मुस्कुराते जीवन को चाट गया। हर मोड़ पर वह संदेह का शिकार हुआ । भलेमानुस से न जाने कब- कैसे उसे अमानुष होने का यह खिताब मिल जाता है ।

   " जैसे दिखते हो , लिखते हो, वैसे हो नहीं। " 

- कानों में पिघले शीशे की तरह ये कठोर शब्द उसे बेचैन किये हुये है। उसका अंतर्मन चीत्कार कर उठा है। 

    आदर्श और यथार्थ में आत्मा एवं शरीर जैसे संबंध का हिमायती रहा वह, भला या बुरा जैसा भी , उसे छिपाना नहीं चाहता था । उसने निश्चय किया था कि अपने हृदय के घाव को झूठे मुस्कान से नहीं ढकेगा।
गुरूजनों का यह सबक उसे याद रहा-
       " मनुष्य चाहे जितना प्रयत्न कर ले, हवा का झोंका आते ही बनावटी आवरण खिसक जाता है और तब तुम्हारा वास्तविक रूप समाज के समक्ष होगा।"
     फिर किसने उसे विदूषक बना दिया ?
क्या अपराध है उसका ? नहीं चाहता है वह ऐसा जीवन , जिसका इस संसार में अपना कहने को कोई न हो। 
   लम्बी साँसें भर राघव अपनापन चित्रपट के उसी गीत की आखिरी बोल को पूरा करता है-

जब डोलती है, जीवन की नैय्या

कोई तो बन जाता है खिवैय्या
कोई किनारे पे ही डूब जाता है
आदमी मुसाफिर है...

     उफ !  कैसे छुड़ाए इन स्मृतियों से पीछा ? 

 नहीं बनाना उसे ताश के पत्तों से भावनाओं का और कोई नया महल जो संदेह के हवा के तनिक झोंके से ढह जाता हो। 
    वह निस्सहाय-सा पुनः बिस्तर में जा धंसता है।

    - व्याकुल पथिक