इस वीडियो पर भी चिंतन करें
***********************
कल्लू ने पूरा इलाका छान मारा था। बचा-खुचा भोजन भी किसी बंगले के बाहर नहीं मिला ।कूड़ेदानों में मुँह मारा, वह भी खाली। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इंसानों ने उन जैसे घुमंतू पशुओं के पेट को लॉक करने की यह कौन सी नयी तरक़ीब निकाली है। उसकी आँतें कुलबुला रही थींं। सप्ताह भर तो बिना भोजन के गुजर गये, अब क्या प्राण ले कर छोड़ेगा इक्कीस दिनों का यह लॉकडाउन।
कल्लू मुहल्ले का सबसे समझदार कुत्ता था। रात्रि में चौकीदार रामू ड्यूटी पर हो न हो, लेकिन उसकी वफ़ादारी में कभी कोई कमी नहीं रही। तनिक भी आहट हुई नहीं कि मैदान में आ डटता था।
अब इस संकटकाल में मनुष्यों ने अपने पेट पूजा की व्यवस्था तो कर ली है। समाजसेवियों के सहयोग से प्रशासन उनके लिए ख़ूब लंच पैकेट बाँट रहा है, किन्तु उन जैसे सड़कों पर विचरण करने वाले मूक प्राणियों की भला कौन सुधि लेता ? उनकी इस स्थिति पर किसी का दिल नहीं पसीजा , क्योंकि वे सभी तो इस सृष्टि के अभिशापित जीव हैं। इस पृथ्वी पर अपना साम्राज्य स्थापित करने वाले मनुष्य ने उनका हर प्रकार से शोषण किया है। परंतु विडंबना यह है कि प्रकृति संग जब भी मानव का संघर्ष हुआ है , उसके कर्मों का दण्ड उन निरीह प्राणियों को उनसे कहीं अधिक सहना पड़ता है ।
भूख से बेहाल कल्लू प्रश्न करता है - " हे ईश्वर ! यह कैसी निष्ठुरता है। हमने तो कभी भी तेरी रत्नगर्भा का दोहन नहीं किया। ठगी, चोरी और जमख़ोरी नहीं की। असत्य भी नहीं बोला । कर्म से पीछे नहीं हटा, फ़िर ऐसी सज़ा क्यों ? "
तभी उसकी दृष्टि ललकी पर पड़ती है। बेचारी चलने में भी असमर्थ दिख रही थी।
"अरी बहन ! तुझे क्या हो गया है ? कितनी दुर्बल हो गयी है तू ? "
ललकी पर तरस खाते हुये कल्लू अपना दर्द भूल गया ।
" मेरे भाई क्या बताऊँ ? मनुष्य का स्वभाव तो तुम जानते ही हो। जबतक उसका स्वार्थ था , मैं गौमाता थी। अब इस बूढ़ी गाय के थन में दूध कहाँ ? फ़िर वह क्यों देगा मुझे चारा-पानी ?"
- यह कहते हुये ललकी की आँखों से आँसू बह चले थे।
काश ! कोई कसाई ही उसे पकड़ ले जाए। पिछले सात दिनों से वह खाली पड़ी इस फल और सब्जी मंडी का चक्कर काट रही है ,फ़िर भी खाने को कुछ नहीं मिला है । कैसे इक्कीस दिनों तक वह भूख से संघर्ष करेगी ? ललकी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था।
वह पूछ रही थी - " वाह प्रभु ! कहने को मेरे में तैतीस करोड़ देवी-देवताओं का निवास है।
पवित्र कार्यों में मेरे दूध की ही नहीं, गोबर और मूत्र तक की उपयोगिता है। परंतु क्या यह न्यायसंगत है कि मंदिर का कपाट बंद होने पर भी मनुष्यों ने तुम्हारे लिये भोग-प्रसाद की व्यवस्था कर रखी है और हमें मुट्ठी भर भूसा भी नहीं । क्या मैंने भी तुम्हारी वसुंधरा को पीड़ा दी है ? "
दोनों का वार्तालाप सुन रही मुनमुन बंदरिया का दर्द भी छलक उठता है।
" अरी मुनमुन बहना ! तुझे क्या हुआ ? इस लॉकडाउन में तेरा तो रंग चोखा होगा। छलांग मारी नहीं की भोजन हाज़िर। तुम तो हम दोनों की तरह भोजन नहीं तलाशती होगी न ? "
- नटखट मुनमुन को गुमसुम देख आश्चर्यचकित हो ललकी और कल्लू एक साथ पूछ बैठते हैं।
" क्यों भाई ,इस विपत्ति में मैं ही मिली हूँ, उपहास के लिए ? "
बीच में ही उनकी बात काटते हुये मुनमुन सुबकने लगी ।
" गलती हो गयी बहन ! अच्छा चल अब तू भी अपने दिल का दर्द हल्का कर ले । क्या इन मनुष्यों ने तुझे भी प्रताड़ित किया है। "
- कल्लू ने सहानुभूति प्रदर्शित करते हुये कहा ।
" तो सुनो भैया ! इस कंक्रीट के शहर में कितने वृक्ष तुम्हें दिख रहे हैं ? सच-सच बताना । हनुमान जी पर तो रावण ने अशोक वाटिका उजाड़ने का आरोप लगाया था और यहाँ इन मनुष्यों ने अनगिनत उपवन उजाड़ दिये । हमारा भोजन छीन लिया और अब इस लॉकडाउन में सज़ा हम निर्दोष जीव भुगतें ! यह अन्याय नहीं तो और क्या है ? "
इनकी वार्तालाप चल ही रही थी कि सामने से गुजर रहे भोंदू गदहे पर उनकी नज़र पड़ गयी। बेचारा भूख से बेहाल , ऊपर से पीठ पर दो नौजवान सवार । उसकी टाँगें लड़खड़ा रही थीं।बस अब गिरा की तब गिरा , भोंदू का तो कुछ ऐसा ही हाल था। इन युवकों ने लॉकडाउन का उलंघन किया , तो पुलिस ने उन्हें गदहे पर बैठा दिया था।
" लो देख लो कल्लू भाई ! इंसानों को मिला यह दण्ड भी अब हम जानवर भुगते , हमपर यह कैसा अत्याचार है ? "
ललकी और मुनमुन को सृष्टि का यह रहस्य बिल्कुल भी समझ नहीं आ रहा था कि तभी बुद्धिमान कल्लू जोर से ताली मारता है--
" ओह ! समझ गया - समझ गया ..बहन ! यह अन्याय नहीं, यही ईश्वरीय न्याय है। तभी तो महात्मा जी अपने भक्तों से कहा करते थे -
" समरथ को नहीं दोष गुसाईं। "
उनकी जिज्ञासा को विराम मिलता है और तीनों पुनः भोजन की तलाश में निकल पड़ते हैं।
--- व्याकुल पथिक
कल्लू,ललकी,मुनमुन् और भोंदू की व्यथा आप जैसे संवेदनशील लेखक ही समझ सकते हैं । इस भौतिकवादी संसार में मनुष्य अपने स्वार्थ सिद्ध करने के अलावा और किसी के बारे में कहाँ सोचता है । इस लॉकडाउन में सड़कों पर घूमने वाले पशुओं के बारे में भी सोचना है ये कईयों के लिये असंभव सा लगता है।
ReplyDeleteजी भैया , हम सभी कुछ तो ऐसा करें कि जीवन अपना भी निर्रथक नहीं हो, विशेषकर मैं अपने लिए ऐसा सोचता हूँ। 🙏
Deleteआपकी प्रतिक्रिया सदैव ब्लॉग की सार्थकता बढ़ाती है प्रवीण भैया
*घर गुलज़ार, सूने शहर,हो गए*
ReplyDelete*बस्ती बस्ती में कैद हर हस्ती हो गई,*
*आज फिर ज़िन्दगी महँगी*
*और दौलत सस्ती हो गई ।*
😷😷😷😷
आवारा पशु भी इंसानो के ऊपर ही निर्भय रहते है।और आज के माहौल ऐसा है इंसान खुद भी परेशान है।किंतु इंसान को इनके बारे में स्वम से पहले सोचना चाहिए।यही हमे पूर्वजो से शिक्षा मिली है।
ReplyDeleteश्री मनीष कुमार खत्री
बहुत सुंदर मर्म स्पर्श
ReplyDelete-श्री चंद्रांशु गोयल ,नगर विधायक प्रतिनिधि
किसी एक निर्णय का प्रभाव कितना व्यापक होता है, इस कहानी से पता चलता है। सभ्यता विकसित हुई, आधुनिकता आई, लेकिन हमने इस दौरान उन जीव-जंतुओं का योजनाबद्ध ख़्याल नहीं रखा, जो हमारे पर्यावरण के लिए उपयोगी रहे। सभी का अपना स्थान है। मनुष्य और पशु चाहे-अनचाहे साथ रहते-रहते कितने एक-दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं कि पता नहीं चलता। लॉकडाउन ने संबंधों पर प्रभाव डाला है। अचानक एक घटना से संबंधों का ताना-बाना बिगड़ गया है। कहानी के किरदारों के संवाद हृदय को छू जाते हैं। एक पाठक के रूप में अपराध का बोध होता है। शशि भाई, बहुत सुंदर लेखन।💖
ReplyDeleteविस्तार के साथ विषय पर केंद्रित समीक्षा के लिए आपका हृदय से आभार अनिल भैया।
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया ने इस सृजन के उद्देश्य को और भी विस्तार दे दिया है।
बिल्कुल उचित कहा आपने कि किसी एक निर्णय का कितना व्यापक प्रभाव पड़ता है।🌹🙏
गली के कुत्ते गाय बन्दर और भी सभी जीव मनुष्यों पर ही निर्भर हैं जब मनुष्य ही इस स्थिति से गुजर है तो बाकी सभी जीवजन्तुओं
ReplyDeleteकी दुर्दशा भी नीहित ही है...बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी सृजन।
जी सुधा दी ,सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से आभार।
Deleteबहुत मार्मिक कथा है शशि भाई | मूक प्राणियों की वेदना एक संवेदनशील व्यक्ति ही समझ सकता है | आपने कथा के माध्यम से इस बात को सिद्ध कर दिया है | इन बेजुबानों का तो कहीं जिक्र ही नहीं हुआ |
ReplyDeleteजी दी
Deleteलॉकडाउन में सबसे बुरी स्थिति इन्हीं तीन प्राणियों की है।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 02 अप्रैल 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
Bhai sb, sach me jaanwaron ki sthiti peeda-dayak hai. Mann dukhi ho jata hai.🙏🏻
ReplyDeleteआदरणीय तिवारी जी की प्रतिक्रिया
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआप की भी अजीब लेखनी रहती है भाई साहब आप को बहुत बहुत धन्यवाद साधुवाद आप धन्य है
ReplyDelete- हमारे मित्र एवं वरिष्ठ पत्रकार सिद्धनाथ दूबे
कोरोना के खौफ़ से ज्यादा
ReplyDeleteउन्हें भूख से डरते देखा है
रोते बिलखते मजदूरों को
रोटी के टुक पे मरते देखा है
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteइन पालतू जानवर जिनके संरक्षण में थे,इन्ही पर ग्रहण लगा है,किन्तु इन बेजुबान जानवर की सुधि लेने वाला कोई नही।मनुष्य का ही कर्तव्य बनता है,इस सृष्टि में समस्त जीवों के भोजन पानी का प्रबंध करे।
ReplyDeleteकिन्तु वाह रे समय का खेल,इंसान ही जब न रहेगा तो अन्य जीव जन्तु का क्या हाल होगा,ईश्वर ही मालिक है।
धन्यवाद , उचित कहा आपने।
Deleteपरंतु मेरे ही नामराशि आप कौन.है ?
मेरी ही गलती से आपके नाम से ही बन गया।
Deleteमैंने अपना नया बना लिया है ।मधुरं के नाम से।वैसे मैं मनीष कुमार खत्री।आपका छोटा भाई।
यही सत्य है।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (03-04-2020) को "नेह का आह्वान फिर-फिर!"
(चर्चा अंक 3660) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
आपका अत्यंत आभार मीना दी।
Deleteबेजुबानों को आपने अपनी भावमयी लेखनी से जुबान दें दी। अत्यंत प्रेरक लेख है। ज्योत्सना मिश्रा
ReplyDeleteशशि भाई, बेजुबानों के भी अपने दर्द और समस्याएं होती हैं। लेकिन ये दर्द और समस्याएं सिर्फ एक संवेदनशील हृदय ही समझ पाता हैं। बहुत ही सुंदर तरीके से बेजुबानों का दर्द व्यक्त किया हैं आपने।
ReplyDeleteजी ज्योति दी, आभार ।
ReplyDeleteकुछ लोगों को मेरा यह सृजन पसंद आया और वे इन निरीह पशुओं के लिए कुछ करने को सोच भी रहे हैं।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteश्री राम नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत- बहुत आभार गुरुजी।
Deleteआपको भी पर्व की शुभकामनाएँँ।
व्याकुल पथिक स्तंम्भ अक्सर मन को व्यथित कर सच्चाई से रूबरू कराता है,आप और आपकी लेखनी को प्रणाम-रमेश मालवीय,अध्यक्ष भा.वि.प."भागीरथी"
ReplyDelete