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Tuesday 28 April 2020

नया सवेरा

 (जीवन के रंग)
  लॉकडाउन ने क्षितिज को गृहस्वामी होने के अहंकार भरे " मुखौटे" से मुक्त कर दिया था, तो शुभी भी इस घर की नौकरानी नहीं रही। प्रेमविहृल पति-पत्नी को आलिंगनबद्ध देख मिठ्ठू  पिंजरे में पँख फड़फड़ाते हुये..
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     क्षितिज कभी मोबाइल तो कभी टीवी स्क्रीन पर निगाहें गड़ाए ऊब चुका था। ड्राइंगरूम के ख़ूबसूरत फ़िश बॉक्स में मचलती रंगबिरंगी मछलियाँ और पिंजरे में उछलकूद करता यह मिठ्ठू भी आज उसका मनबहलाने में असमर्थ था । बड़ी बेचैनी से वह बारजे में चहलक़दमी कर रहा था,किन्तु उसकी मनोस्थिति को समझने वाला यहाँ कोई नहीं था। इस खालीपन से उसकी झुँझलाहट बढ़ती जा रही थी। न जाने क्यों उसे अपना ही आशियाना बंदीगृह सा दिखने लगा था, परंतु लॉकडाउन में जाए भी तो कहाँ ?

     अबतक वर्षों से क्षितिज अपने व्यवसाय में इसतरह से उलझा रहा कि देश-दुनिया की उसे कोई ख़बर ही न रहती।रात वापस जब घर लौटता तो पिता की प्रतीक्षा में उदास दोनों बच्चे  निद्रादेवी के आगोश में होते , किन्तु शुभी गैस चूल्हे पर तवा चढ़ाए अपने पति परमेश्वर का बाट जोहती,अर्धांगिनी जो थी। भले ही उसे इस पतिप्रेम का प्रतिदान न मिला हो। स्वयं को गृहस्वामी समझने का क्षितिज का दम्भ उसके दाम्पत्य जीवन के पवित्र रिश्ते पर भारी था । प्रतिष्ठित व्यवसायी होने के दर्प में मुहल्ले में किसी से दुआ- सलाम तक न था। यूँ कहें कि विवशता में कुछ संस्थाओं को चंदा देने के अतिरिक्त सामाजिक सरोकार से उसे मतलब नहीं था। व्यवसाय के लाभ-हानि को ध्यान में रखकर सगे- संबंधियों के यहाँ आना-जाना भी कम ही था।
      पिता की मृत्यु के पश्चात सारी चल-अचल सम्पत्ति का इकलौता वारिस क्या बना कि व्यापार के विस्तार की महत्वाकाँक्षा सिर चढ़ बोलने लगी और फ़िर सौ- निन्यानबे के चक्रव्यूह में ऐसा जा फँसा , मानो उसके लिए व्यवसाय के अतिरिक्त सारे संबंध गौण हो। न मनोरंजन , न पत्नी और बच्चों के संग कभी किसी रमणीय स्थल का सैर ।  यहाँ तक कि मोनू और गोलू के स्कूल में जब पैरेंट्स मीटिंग होती,तो शुभी ही जाया करती थी। शुभी से विद्यालय के प्रधानाचार्य और कक्षाध्यापक यह प्रश्न करते कि उसके पति के पास अपने ही बच्चों के लिए थोड़ा भी वक़्त नहीं है ,तो सिर नीचे किये बहाना बनाने के अतिरिक्त वह भला और क्या उत्तर देती ? अब तो बच्चे भी घर की परिस्थितियों को समझने लगे थे और अपनी माँ की यह विवशता उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। परिणाम स्वरूप पिता के प्रति उनका आदरभाव नहीं रहा, फ़िर भी क्षितिज को अपने व्यापार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिख रहा था।
    इस लॉकडाउन में जब उसके प्रतिष्ठान पर ताला लटका है, तो वह घर पर बैठकर क्या करे ? व्यवासायिक कामकाज ठप्प होने से उसका मोबाइल फोन भी साइलेंट है। किसी क़रीबी ने उसकी हाल ख़बर नहीं ली थी, क्योंकि ऐसे मधुर संबंधों को उसने अपनी व्यवसायिक व्यस्तता के कारण कब का लॉक कर रखा था। 
   घर में उसकी सर्वगुण संपन्न पत्नी शुभी और दो मासूम से बच्चे मोनू और गोलू थे। पैसे की कोई कमी नहीं थी। उसके पास यह एक सुनहरा अवसर था कि अपने बच्चों संग वक़्त गुजर सके, किन्तु यह क्या ? बच्चे थे कि उसके समीप तनिक देर ठहरते ही नहीं । वह आवाज़ देता रहता , किन्तु  आया पापा कह न जाने वे कहाँ चले जाते और उधर पाकशाला में शुभी सबकी फ़रमाइश पूरी करने में व्यस्त रहती। वर्षों से उसकी यही दिनचर्या है कि सबके लिए अलग-अलग पसंद का व्यंजन तैयार करना ,फ़िर टिफ़िन पैक करना ,बच्चों को स्कूल भेजना इत्यादि अनेक कार्य ।
    लॉकडाउन में गोलू और मोनू पहले से ही मीनू तय कर रखते थे कि नाश्ते और भोजन में कौन सा व्यंजन बनना है। चाइनीज फूड, केक और दक्षिण भारतीय व्यंजन की उनकी डिमांड पूरी करते -करते कब सुबह से रात हो जाती , शुभी को पता ही नहीं चलता। उसे अपने श्रीमान जी के पंसद का भी तो ध्यान रखना पड़ता था।  समय पर चाय-नाश्ता और लंच- डिनर की पूर्ति के लिए वह हाज़िर थी। फुर्सत में बच्चों को पढ़ाती भी थी। उसे इस लॉकडाउन में भी अपने श्रीमान के सामने पड़ी खाली कुर्सी पर बैठने का कहाँ वक़्त होता था।       
       अपने ही कारोबार में खोये रहने वाला क्षितिज इन दिनों अपने ही घर में इस सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस) को सहने में न जाने क्यों असमर्थ था।  वह चाहता था कि दोनों बच्चे तो कम से कम उसके साथ बैठा करें। शुभी ने एक -दो बार गोलू और मोनू को डाँट भी पिलाई कि जाओ पापा के पास रहो, लेकिन वे दोनों मासूम से बच्चे यह कह कर -- मम्मी ! आप भी न --हमें स्कूल का काम करने दो, जैसे सौ बहाने बनाते थे।
    यह देख क्षितिज से बिल्कुल रहा नहीं जा रहा था। उसके हृदय में कृत्रित एवं स्वाभाविक भाव में द्वंद तेज होता जा रहा था। जिसकी झलक उसके आँखों में भी दिखने लगी थी। उसे समझ में आने लगा था कि इस व्यवसायिक जीवन में उसने क्या खोया और क्यों उसके परिवार के हँसते-मुस्कुराते जीवन को उसकी महत्वाकाँक्षा निगल रही है। जिस कारण आज उसे अपना यह आशियाना बंदीगृह जैसा लग रहा है। वह सोच रहा था कि ऐसी दौलत किस काम की , जब वह अपनी ही संतानों की दृष्टि में सम्मान का पात्र न हो। उनमें उसके लिए अपनत्व भाव न हो। उसके समीप बैठना भी उन्हें पसंद न हो।
        यह संताप उसके अहम पर भारी पड़ने लगा था। हाँ ,वह स्वयं से प्रश्न कर रहा था कि इसमें इन मासूम बच्चों का क्या क़सूर ,इन्हें उसने कभी एक पिता का स्नेह दिया ही कहाँ है ? कभी इनके साथ बैठ कर लूडो , कैरमबोर्ड नहीं खेला। न कभी इनके संग स्कूल गया और न ही किसी टूर पर और शुभी के साथ उसने क्या किया है ? वह तो जब से ससुराल आयी है , उनसभी की सेवा में ही लगी है। मायके भी कभी किसी विशेष आयोजन में कुछ देर के लिए जाना हुआ,तो बच्चों संग स्वयं ही चली जाती थी। उसके संग वह(क्षितिज) नहीं , वरन् उसका ड्राइवर कार लेकर जाया करता था। फ़िर भी शुभी ने अपने घरवालों के समक्ष उसके सम्मान पर कभी न आँच आने दी। 
     आज क्षितिज की अंतरात्मा उससे प्रश्न कर रही थी कि एक पति और एक पिता के रूप में उसका कर्तव्य क्या था,मात्र इनसभी के लिए भौतिक संसाधनों की व्यवस्था ? उसकी यह हवेली इतने वर्षों से शुभी के लिए कारागार की तरह ही तो नहीं थी ? वह अपने व्यवसाय में इसतरह से क्यों रमा रह गया कि पत्नी और बच्चों की सारी आकाँक्षाओं की बलि चढ़ा दी ? 
 " यह कैसी महत्वाकाँक्षा थी तुम्हारी ,बोलो क्षितिज बोलो ! ", उसका अंतर्मन उसे बुरी तरह से झकझोर रहा था। शुभी के रूप में उसे कितनी सुंदर, सुशील और सुघड़ पत्नी मिली थी। हाँ,याद आया विवाह के पश्चात पिता जी ने एक दिन उससे कहा -" बेटे, दुर्भाग्य से अपनी माँ की ममता से तो तू बचपन में ही वंचित रह गया है ,किन्तु ये मेरी शुभी बिटिया है न, तेरी इस कमी भी पूरी कर देगी।"
 और उसने क्या किया इसके पश्चात ,यही न कि उसके मायके वालों की निर्धनता का सदैव उपहास उड़ाया। गृहस्वामिनी के स्थान पर वह एक नौकरानी की तरह दिन-रात उसकी सेवा को तत्पर रह कर भी डाँट-फटकार सहती रहती ।
  पति के द्वारा तिरस्कार की यह वेदना जब शुभी के लिए असहनीय होती तो उसके नेत्रों से बहने वाली अश्रुधारा का भी उसके लिए कोई मोल नहीं था। इसे त्रियाचरित्र से अधिक उसने कुछ न समझा।
     बारजे पर खड़ा क्षितिज  मन ही मन स्वयं को धिक्कारते हुये कह रहा था- " ओह ! शुभी मैंने तुम्हारे साथ कितना अन्याय किया। तुम्हारे व्यथित हृदय को दुत्कार के सिवा आज तक मैंने दिया ही क्या , फ़िर भी तुम विनम्रता की मूर्ति बनी प्रेम का गंगाजल छलकाती रही । बोलो कभी उफ़ ! तक क्यों नहीं किया?"  
    वर्षों बाद क्षितिज को अपनी भूल का आभास हुआ था। उसे शुभी में एक स्त्री के पत्नीत्व, मातृत्व और गृहिणीत्व  जैसे सभी रूपों की अनुभूति हो रही थी। मानो प्यासे को ठंडे पानी की झील मिल गयी हो।
   ढलती हुई आज की शाम क्षितिज के हृदय में प्रेम की ज्योति जला गयी थी। वह कमरे की ओर आता है। उसने देखा कि शुभी छत पर सूखे हुये  वस्त्र लेने गयी है। यह जानकर क्षितिज आहिस्ता-आहिस्ता किचन की ओर बढ़ता है,और फ़िर जैसे ही शुभी आती है। ट्रे में चाय की प्याली लिये वह नटखट बच्चे की तरह मुँह छिपाये उसके पीछे जा खड़ा होता है। 
 " सरप्राइज़ ..!" 
    यकायक क्षितिज की यह चौकने वाली आवाज़ सुन शुभी जैसे ही उसकी ओर मुख करती है , वह विस्मित नेत्रों से उसे देखते ही रह गई । 
    विवाह के इतने वर्षों पश्चात क्षितिज ने पहली बार चाय बनायी थी। सो, वह जैसी भी बनी हो, किन्तु  इसमें जो चाह भरी थी , उसे देख शुभी के  आँखें बरसने लगी थीं, किन्तु आज ये अश्रु मुस्कुरा रहे थे। उधर,क्षितिज रुँधे कंठ से सिर्फ़ इतना ही कह पायी थी - "शुभी! मुझे माफ़ कर दो..।"
 " बस-बस अब अधिक कुछ भी न कहो जी । "
- उसकी होंठों पर अपनी कोमल उँगली रख शुभी   क्षितिज से जा लिपटती है। उन दोनों के झिलमिलाते आँसुओं के पीछे प्रेम का इंद्रधनुष लहरा उठा था। 
      लॉकडाउन ने क्षितिज को गृहस्वामी होने के अहंकार भरे " मुखौटे" से मुक्त कर दिया था, तो शुभी भी इस घर की नौकरानी नहीं रही। प्रेमविहृल पति-पत्नी को आलिंगनबद्ध देख मिठ्ठू  पिंजरे में पँख फड़फड़ाते हुये गोलू-मोनू  का नाम ले जोर-जोर से आवाज़ लगता है।
     यह देख क्षितिज पिंजरे का द्वार खोलकर कहता है -" जा मिठ्ठू ! आज से तू भी आज़ाद पक्षी है।"
    वह क़ैदखाने का दर्द समझ चुका था। उसने यह निश्चय कर लिया था कि शुभी हो या मिठ्ठू , किसी को भी अब वह यह नहीं कहने देगा--पिंजरे के पक्षी रे, तेरा दर्द न जाने कोई। 

    - व्याकुल पथिक
    

Friday 24 April 2020

लॉकडाउन की बातें

लॉकडाउन की बातें
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  यहाँ मुझे एक ही प्रतिष्ठान के दो छोर पर एक ही वक़्त दो अलग- अलग दृश्य ही नहीं विचार भी दिखें । एक ओर सैकड़ों रुपये ख़र्च कर माला-फूल और अंगवस्त्र मंगाये गये और दूसरी ओर बोरा भर खीरा। एक तरफ़ तामझाम तो दूसरी तरफ़ निःस्वार्थ पशु सेवा ..
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   इस लॉकडाउन में इन दिनों शाम की चाय की तलब मुझे संदीप भैया के प्रतिष्ठान तक खींच ले जाती है। दरअसल चीनी, चायपत्ती और दूध  आदि की व्यवस्था कर पाना मेरे लिये भोजन पकाने से भी अधिक कठिन कार्य है। अतः घर जैसी चाह भरी चाय के लोभ में अक्सर ही सायं पाँच बजे से पूर्व वहाँ पहुँच जाता हूँ। साथ में विष्णुगुप्त चाणक्य और उपनिषद् ज्ञान से संबंधित दो टीवी धारावाहिक भी देख ले रहा हूँ। तबतक ऊपर घर से चाय भी आ जाती है। वो कहा गया है न कि एक पंथ दो काज।
     संदीप भैया व्यवसायी होकर भी जुगड़तन्त्र से दूर रहते हैं। वे सहृदयी और समाजसेवी हैं। सो, हम दोनों की विचारधारा एक जैसी है ,यदि कोई भेद है, तो वह राजा और रंक का है। विगत वृहस्पतिवार को भी मैं उनके प्रतिष्ठान पर गया। वहाँ देखा कि मुहल्ले के कुछ उत्साही युवक कोरोना वीरों के स्वागत की तैयारी में जुटे हैं। जब पूरे जिले में ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहर के भी वार्ड-मुहल्ले में पुलिस अधिकारियों का स्वागत हो रहा है। माल्यार्पण के साथ उनपर पुष्पवर्षा हो रही हो, तो वे क्यों पीछे रहतें। सो,यहाँ भी कुछ देर पश्चात पुलिस अधिकारियों के आते ही फ़ोटोग्राफ़ी के साथ ही तालियाँ बजनी शुरू हो गयी थीं।     
    तभी मैंने देखा कि श्री सत्य साईं सेवा संगठन का एक सदस्य बोरे में खीरा भरकर लाया ।जिसे दुकान के दूसरे छोर पर डालकर ,वह जैसे ही स्नेहपूर्वक 'आवो-आवो 'की आवाज़ लगाता है, देखते ही देखते क्षुधातुर गोवंश दौड़े चले आते हैं। वे खीरे पर टूट पड़ते हैं। जिसे देख वह गौसेवक आनंदविभोर हो उठा था। बिना किसी तरह की फ़ोटोग्राफ़ी किये, वह जैसे आया था, वैसे ही चुपचाप चला गया। उस युवक की निःस्वार्थ सेवा देख मुझसे रहा नहीं गया। मैंने जेब मोबाइल निकाल कर दूर से एक फ़ोटो ले ही लिया । ऐसे सच्चे समाजसेवियों की पहचान हम पत्रकार को भी रखनी चाहिए ।
   यहाँ मुझे एक ही प्रतिष्ठान के दो छोर पर एक ही वक़्त दो अलग- अलग दृश्य ही नहीं विचार भी दिखें । एक ओर सैकड़ों रुपये ख़र्च कर माला-फूल और अंगवस्त्र मंगाये गये और दूसरी ओर बोरा भर खीरा। एक तरफ़ तामझाम तो दूसरी तरफ़ निःस्वार्थ पशु सेवा। ज़ाहिर है कि ये माल-फूल कुछ देर पश्चात पाँवों तले कुचले जाएँगे और दूसरी ओर बोरे भर खीरे ने मूक जीवों की प्राणरक्षा की।आप बताएँ असली कर्मवीर इनमें से कौन हैं ? हम उन्हें न भी पहचाने  तो भी वे सूर्य बन प्रगट हो ही जाएँगे। 

 इन यूनिक इंडिया सोसाइटी के कार्यकर्ताओं के लिए भी ऐसे माला वीरों को ध्यान देना चाहिए जो अपने नगर के गंगातट के पास सोशल डिस्टेंस का पालन करते हुए बच्चों को दूध पिला रहे हैं। इस आपदा की घड़ी में बच्चों के साथ ही उनकी माताएँ भी इनके माध्यम से दूध प्राप्त कर रही हैं। सोसाइटी के कार्यकर्ता बड़े ही सेवा भाव से यह कार्य करते दिखें। 

     किन्तु यह क्या ?  मालार्पण और पुष्पवर्षा के लोभ में जिले के कछवां में आयोजकों के साथ पुलिस ने भी सोशल डिस्टेंस की धज्जियाँ उड़ा दीं। ऐसे माला वीरों को देख जनता ने कम चुटकी नहीं ली थी। ऐसे स्वागत कार्यक्रम लॉकडाउन के पश्चात भी किये जा सकते हैं। लेकिन, प्रशासन का सामीप्य और फ़ोकस में आने का अवसर हम कैसे छोड़ सकते हैं ।

     ख़ैर,जैसा की मैंने पिछले पोस्ट में लिखा था , जिन निम्न-मध्यवर्गीय स्वाभिमानी लोगों के पास राशनकार्ड नहीं है, वे क्या करें ? ऐसे में एक प्रश्न यह भी है कि सभासद क्या कर रहे थे ? सत्तापक्ष के बूथ अध्यक्षों से लेकर जनप्रतिनिधियों की भी तो कुछ ज़िम्मेदारी होती है , क्या वे सिर्फ़ वोटों के सौदागर हैं ? राशनकार्ड बनवाने का दायित्व इनमें से किसी का नहीं था ? 
     ऐसी ही एक और विधवा युवती बड़ी माता मुहल्ले से आती है।उसके पास राशन कार्ड नहीं था। इस लॉकडाउन में वह अपना और अपने बच्चे का पेट कैसे भरे।पहले माता-पिता तत्पश्चात पति की मृत्यु। मायके में उसे सिर छुपाने का स्थान मिल गया था ।अबतक नियति से संघर्ष कर रही यह युवती अपने स्वाभिमान की रक्षा कैसे करे ? यदि क्षेत्रीय सभासद को अपने वार्ड के ऐसे निर्धन लोगों की तनिक भी चिन्ता होती, तो आज उसके पास राशनकार्ड होता। उसके सहयोग के लिए मैंने उसी अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय के प्रबंधक के पास संदेश भेजा । सो, फ़िलहाल उसका काम चल गया है। उसके स्वाभाविक की रक्षा हो गयी , लेकिन कब तक ?
    बिना राशनकार्ड धारकों को निःशुल्क सरकारी गल्ला( चावल) के संदर्भ में मेरे पिछले पोस्ट को पढ़ कर गांव- गरीब नेटवर्क के संयोजक सलिल पांडेय ने जिला प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों से वार्ता की थी,तो जानकारी मिली कि मीरजापुर जिले 45 हजार लोगों के पास राशनकार्ड नहीं है, परंतु शासन की ओर से ऐसा कोई गाइडलाइन नहीं है कि सरकारी गल्ले की दुकानों से इन्हें भी कार्ड धारकों की तरह निःशुल्क चावल मिले। प्रशासन ऐसे लोग भूखे नहीं रहे ,इसके लिए जन सहयोग से इन्हें अनाज उपलब्ध करवा रहा है, परंतु कितना ? इनके नागरिक अधिकार और दया में अंतर है की नहीं ?
      इसके लिए सभासदों से लेकर ग्रामप्रधानों को स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या वे वास्तव में अपने क्षेत्र में जनता के प्रतिनिधि हैं ? इसीलिए स्वार्थ के तराजू पर तोले गये ऐसे रिश्ते स्थाई नहीं होते हैं।
      अंतर्राष्ट्रीय वैश्य सम्मेलन के प्रदेश पदाधिकारियों संग वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में वृहस्पतिवार की देर शाम संगठन के प्रदेश अध्यक्ष व लखनऊ के विधायक नीरज बोरा की उपस्थित में प्रदेश के आयुष मंत्री अतुल गर्ग को मीरजापुर के संदर्भ में संगठन की ओर से चंद्रांशु गोयल ने बताया कि निम्न - मध्यवर्ग के अनेक लोग हैं, जिनके पास राशनकार्ड नहीं है। इस समय उनकी स्थिति अत्यंत दयनीय है। फ़िर भी इस समस्या का निराकरण नहीं हुआ। 
  बहरहाल ,अपना काम तो जागते रहो की पुकार लगाना है, आगे राम जाने।  

              - व्याकुल पथिक


    

Tuesday 21 April 2020

मदद की गुहार

बिना राशनकार्ड कैसे भरेगा पेट 

    किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार..
इस वैश्विक महामारी में शासन-प्रशासन और 
 आमजन सभी की कुछ ऐसी ही मंशा है और होना भी चाहिए। वह मनुष्य ही क्या जिसके हृदय में ऐसी विपत्ति में भी संवेदना न जगे। वह मानव ही क्या जो भूख से संघर्ष कर रहे लोगों का किसी प्रकार से सहयोग नहीं कर सके। धन से न सही, तो वाणी अथवा लेखनी से भी हम ऐसे असहाय लोगों के लिए कुछ कर सकते हैं। इन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ किस प्रकार से मिले, यह मार्गदर्शन भी इनके लिए किसी संजीवनी से कम नही है ? लेकिन , इसके लिए सियासी व्यापार से ऊपर उठकर जनप्रतिनिधियों को पहल करनी होगी।
      विडंबना यह है कि अभी तक लंचपैकेट पैकेट बाँटने अथवा भोजन करवाने के अतिरिक्त अन्य कोई ठोस प्रयास किसी ने नहीं किया है। परंतु इससे न तो ऐसे वर्ग के स्वाभिमान की रक्षा होगी ,न ही उसकी क्षुधा तृप्त होगी। आप स्वयं विचार करें कि एक वक़्त के लंच पैकेट से क्या होगा ?
      अब चलते हैं सरकारी योजनाओं की ओर, क्यों कि लॉकडाउन के दौरान कोई भी भूखा न रहे, इसके लिए उत्तरप्रदेश सरकार ने मुफ़्त अनाज योजना शुरू की है। जिसके अन्तर्गत इसी महीने की 15 तारीख़ से राशनकार्ड पर प्रति यूनिट पाँच किलोग्राम चावल निःशुल्क दिया जा रहा है। मानों यह ग़रीबों के लिए किसी दुर्लभ निधि से कम नहीं है। 
    सरकार ने कहा है कि किसी को भूखे रहने नहीं दिया जाएगा,किन्तु जिनके पास राशनकार्ड नहीं है ,उनका क्या होगा ? यदि उसे इस मुफ़्त चावल योजना का लाभ तत्काल नहीं मिलेगा,तो क्या वह भूखे नहीं रहेगा ? भूख क्या राशनकार्ड वालों को पहचानता है ? ऐसे व्यक्तियों के मन को खंगालने की कोशिश यदि जनप्रतिनिधि करते, तो आज सरकारी अनाज के लिए वे यूँ न भटकते, किन्तु इन्हें ढांढ़स देने वाला कोई नहीं है।  
     शोर तो यह भी मचा है कि जिनके पास राशनकार्ड नहीं है, सरकार उन्हें भी निःशुल्क चावल देगी। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है। जिला प्रशासन की ओर से कोई आधिकारिक जानकारी इस संदर्भ में कोटेदारों को प्राप्त नहीं है। 
    अपने मीरजापुर जनपद में इन दिनों क्या हो रहा है।यही न कि जिन असहाय लोगों के पास राशनकार्ड नहीं है ,वे आधार कार्ड लेकर भटक रहे हैं। इस उम्मीद से कि शायद उन्हें भी मुफ़्त अनाज का लाभ मिल जाए अथवा वे इस ग़लतफ़हमी के शिकार हैं कि आधार कार्ड दिखला देने से उन्हें निःशुल्क चावल मिल जाएगा?
  ग़रीबी और बेकसी की ज़िंदा तस्वीर बने ऐसे मेहनतकश लोगों के समूह से कोटेदार परेशान हैं, ज़िम्मेदार अफ़सर पहली बुझा रहे हैं और जनप्रतिनिधि मौन हैं। किसी भी रहनुमा के पास इतनी भी फुर्सत नहीं है कि वे ऐसे ज़रूरतमंद लोगों के संदर्भ में शासन- प्रशासन से वार्ता करें। यदि राशनकार्ड नहीं है, तो क्या इन्हें भूखे छोड़ दिया जाए ? 

    मैं जिस होटल में रहता हूँ , वहाँ काम करने वाले युवक मुकेश अपने मुहल्ले की एक विधवा स्त्री और एक पुरूष को साथ ले गत मंगलवार को मेरे पास आया। महिला के चार बच्चे हैं।इनमें से एक दिव्यांग है। जीविकोपार्जन के लिए वह कुछ घरों में मज़दूरी करती है। किराये के मकान में रह कर पाँच लोगों का पेट पालना आसान तो नहीं होता न ? उसके पास जो राशनकार्ड से संबंधित कागज़ात  हैं ,वह किसी कारण मान्य नहीं है। अब क्या करे यह लाचार महिला ? वार्ड के सभासद से लेकर उन तथाकथित समाजसेवियों और राजनेताओं ने इतना भी पहल इस महिला के लिए नहीं किया कि उसके राशनकार्ड की वैधता में जो भी औपचारिकता शेष है, उसको पूर्ण कराने लिए जिलापूर्ति विभाग से वार्ता करतें । वे फ़िर क्या ख़ाक समाजसेवा कर रहे हैं ? कब होगा इन्हें अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान ? 
      वहीं, दूसरे निर्धन व्यक्ति के पास राशनकार्ड नहीं था,वह आधार कार्ड लेकर भटक रहा है। लेकिन,कोटेदार क्या करें ? बिना किसी सरकारी आदेश के वह चावल कैसे दे सकता है ?
  तो फ़िर क्या ऐसे व्यक्तियों को सरकार के विशाल अन्नभंडार से कोई लाभ नहीं मिलेगा ? क्या ऐसी विपत्ति में देश के एक नागरिक के रूप में सरकारी गल्ले पर इन दोनों का अधिकार नहीं ? यह  कैसी विडंबना है। ऐसे ही राशनकार्ड विहीन कुछ लोग आपूर्ति विभाग गये ,तो वहाँ यह कह उन्हें वापस कर दिया गया कि यह आपदा विभाग का मामला है। होटल स्वामी चंद्रांशु गोयल जो नगर विधायक के प्रतिनिधि भी हैं, ने इस संदर्भ में नगर मजिस्ट्रेट से वार्ता की' जिसपर उन्होंने बताया कि इनके लिए आपदा विभाग से ऐसे कोई सुविधा नहीं है। हाँ, ऐसे निर्धन वर्ग के लोग शहरी क्षेत्र में नगरपालिका के अधिशासी अधिकारी कार्यालय और ग्रामीण क्षेत्रों में उप जिलाधिकारी के दफ़्तर पर जाकर फ़ार्म भर दें। उन्हें एक हजार रुपये मिलेगा। इस जानकारी पर श्री गोयल ने नगरपालिका अध्यक्ष मनोज जायसवाल से वार्ता की , तो उन्होंने बताया कि 16 अप्रैल तक सभी 34 सौ ऐसे फ़ार्म भरे जा चुके हैं।  अब क्या करे ये दोनों ? क्या भूखे रहे या दूसरों की दया पर निर्भर रहे ? 
   है कोई ऐसी सरकारी मदद जिससे इन्हें तत्काल ससम्मान अन्न मिले ?  इस यक्ष प्रश्न पर आप सभी विचार करें। हर जनप्रतिनिधि इस पर चिंतन करे कि यदि राशनकार्ड नहीं है, तो कोई ज़रूरतमंद क्या करें ?  क्या प्रशासन, पुलिस और समाजसेवियों के द्वारा कभी-कभार प्राप्त एक लंचपैकेट से इनका काम चलेगा ? क्या वे लोग जो अकर्मण्य और कायर नहीं हैं, इस लॉकडाउन में भिक्षुकों सा व्यवहार करें ? क्या इनकी इस समस्या का कोई समाधान नहीं ?
कुछ तो बोलें ज़नाब ! आप भी ?

      इन दिनों ऐसी कोई व्यवस्था होनी चाहिए कि जो भी व्यक्ति अपना आधार कार्ड लेकर जाए, उसे उसी वार्ड के कोटेदार से तत्काल पाँच किलोग्राम चावल निःशुल्क मिल जाए। कोरोना के साथ भूख से भी तो जंग इन्हें लड़ना है। 

       फ़िलहाल, मैं इन दोनों के लिए इतना ही कर सका कि एक समाजसेवी को इनकी समस्या से अवगत करवा दिया। उन्होंने चावल, दाल और नमक का पैकेट लेकर स्वयं मेरे पास आए। वे नगर के एक प्रमुख अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय के स्वामी हैं। और अपने सेवाकार्य के प्रचार- प्रसार से दूर रह कर ऐसे संकट के समय में अनेकों निराश्रित लोगों की सहायता कर रहे हैं। ऐसे सच्चे जनसेवकों को मेरा नमन । अन्यथा मेरे जैसे एक साधारण पत्रकार में इससे अधिक क्या सामर्थ्य, किन्तु हृदय व्यथित है कि हजारों लोग जिनके पास राशनकार्ड नहीं है, उनपर और उनके मासूम बच्चों पर इन दिनों क्या गुजर रहा होगा ? निस्सहाय हो ग़ैरों के समक्ष वे हाथ क्यों फैला रहे हैं? जिससे उनका स्वाभिमान आहत हो। इस तरह दूसरों पर आश्रित होना भौतिक ही नहीं मानसिक पराधीनता भी है।
  तो क्या जीना इसी का नाम है कि वे यह कह ईश्वर को पुकारे -
   जाएँ तो जाएँ कहाँ 
 समझेगा, कौन यहाँ, दर्द भरे दिल की ज़ुबाँ..। 
    
  है कोई ऐसा सच्चा कर्मयोगी ,जो इनकी इस समस्या का निराकरण करे ? लॉकडाउन में इनके जीवन पर छाए कष्टों का अनुभव करे।

            -व्याकुल पथिक
    

Saturday 18 April 2020

सोशल डिस्टेंस में मजबूरियाँ


              
           
   लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर पसरे सन्नाटे के मध्य सफ़ेद चाक से बने सुरक्षा घेरे में दूर तक केवल पादुकाएँ ही दिख रही थीं। पेट की आग,तपती सड़क और बिलबिलाते ग़रीब लोगों के लिए उनकी पादुकाओं ने जहाँ एक तरफ़ सोशल डिस्टेंस की ज़िम्मेदारी बख़ूबी संभाल रखी थीं ,तो दूसरी तरफ़ वह-- "हुजूर ! मैं हाज़िर हूँ की पुकार लगा कर अपने स्वामी की उपस्थिति भी बैंक में दर्ज करवा रही थीं।"
     कोरोना संकट के कारण तालाबंदी को देखते हुये श्रमिक वर्ग के आर्थिक सहयोग के लिए  सरकार ने उनके जनधन खाते में जो छोटी सी रक़म भेजी है , उस धन की निकासी के लिए पिछले कई दिनों से पुरुष विशेषकर महिलाओं की लंबी कतारें बैकों के बाहर लगी हुई हैं। ये महिलाएँ सोशल डिस्टेंस के लिए चाक से बने सफ़ेद घेरे में खड़ी-खड़ी इस चिलचिलाती धूप को जब सहन नहीं कर पातीं ,तो वे वहाँ अपनी चप्पल अथवा ईंट रख , स्वयं तनिक छाँव में हो लेती थीं। उनका नंबर आने में घंटों लग रहा था। ऐसे में बैंक के इर्द-गिर्द जहाँ भी धूप से बचाव दिखता वे जा बैठती थीं। 

    भगवान भास्कर के ताप से स्वयं की रक्षा के इस कशमकश में वे स्वयं सोशल डिस्टेंस का पालन करने में असमर्थ थीं। छाँव युक्त थोड़े से स्थान पर दर्जनों लोग बैठे अथवा खड़े थे। ऐसा नहीं है कि इन अनपढ़ महिलाओं को कोरोना का भय नहीं था, किन्तु इसके अतिरिक्त इनके समक्ष और कोई विकल्प नहीं था।वहाँ ड्यूटी पर तैनात पुलिसकर्मियों की माने तो इन महिलाओं से सामाजिक दूरी की बात मनवाना अत्यंत कठिन कार्य हो गया है । पुलिस इन लोगों में कई बार दूरी स्थापित करती , समझाती और डराती-धमकाती भी थी, किन्तु कुछ देर पश्चात जब सूर्य की तीक्ष्ण किरणें इन्हें पीड़ा देने लगतीं , तो वे पुनः एकत्र होकर उसी छायादार स्थल पर पहुँच जातीं । इतनी संख्या में आगन्तुक खाताधारकों को संभालना बैंक कर्मियों के लिए भी अत्यंत कठिन कार्य था। 
   इस अव्यवस्था को देख उधर से गुजर रहे सुदर्शन के पाँव ठिठक जाते हैं। वैश्विक महामारी में नगर की सड़कों पर नारीशक्ति का यह विचित्र संघर्ष देख कर उसका मन तड़प उठा और मस्तिष्क सवाल करता है-- काश !  ऐसी कोई टोकन व्यवस्था ही इन ग़रीबों के लिए यहाँ होती कि जिसका भी नम्बर आता लाउडस्पीकर के माध्यम से उसे सूचित कर दिया जाता। ऐसे में  छायेदार स्थान पर दूर-दूर खड़े भी रहते और सोशल डिस्टेंस की सरकार की हर मंशा भी पूरी हो जाती। वैसे तो मोबाइल कैश वैन से घरों तक पैसा पहुँचाया जा सकता था। तब समझ में आता कि सोशल डिस्टेंस के प्रति हमारे रहनुमा संवेदनशील हैं।
    नेता, अफ़सर और बुद्धिजीवी सभी लॉकडाउन को लेकर ज्ञान बाँट रहे हैं। जो महाकवि डॉ. हरिवंशराय बच्चन की यह कविता वाच रहे हैं -
शत्रु ये अदृश्य है
विनाश इसका लक्ष्य है
कर न भूल, तू जरा भी ना फिसल
मत निकल, मत निकल, मत निकल..।

  वे बैंकों की इस व्यवस्था पर मौन क्यों हैं? इन हजारों खाताधारकों द्वारा किये जा रहे सोशल डिस्टेंस के उल्लंघन का दोषी कौन है ?
    सुदर्शन इसी चिंतन में डूबा हुआ था कि तभी हल्के के दरोगा जी की आवाज़ इसे सुनाई पड़ती है--  "  अरे पत्रकार जी ! कहाँ खोये हुये हैं। देखें तो धूप कितनी चटख़ है और आपने टोपी तक नहीं लगा रखी है। "
      दरोगा जी पहचान वाले थे, सो आगे बढ़ कर बड़े आत्मीयता से हाथ मिलाते हुये कहते हैं कि देखें स्वास्थ्य तो वैसे भी आपका ठीक नहीं रहता, दुपहरिया में जरा सावधानी से निकलें तो अच्छा है।  बात काटते हुये सुदर्शन उनसे भी यही प्रश्न करता है कि इन दुर्बल काया वाली महिलाओं को देख रहे हैं न आप,किस तरह चंद रुपयों के लिए वे अपनी जान दाँव पर लगाए हुये हैं। क्या धूप और कोरोना का भय इन्हें नहीं है ? अभी  घोंटूराम के सरकारी गल्ले की दुकान से होकर लौट रहा हूँ। वहाँ भी कोलाहल मचा हुआ था।पाँच किलो मुफ़्त चावल जो मिल रहा था। सो, राशनकार्ड धारकों की भीड़ गली के दूसरे छोर तक जा पहुँची थी। इस लॉकडाउन में आमदनी का ज़रिया बंद होने गृहस्थी का ख़र्च तो नहीं रुकता न ? अतः मुफ़्त सरकारी चावल भला कौन नहीं लेना चाहेगा ? किन्तु यह क्या अँगूठा लगाने के बाद ई- पॉस मशीन के स्क्रीन पर एरर बताने लगा। यह देख कोटेदार झुँझला कर कह रहा था--"बाबा ! सर्वर फ़ेल हो गया,मैं क्या करूँ ?" इसे लेकर वहाँ कोटेदार और कार्डधारकों में ख़ूब नोंकझोंक हो रही थी। वहाँ भी सोशल डिस्टेंस के लिए जो सफ़ेद सुरक्षा घेरा बना था,जो इस अव्यस्था के पाँव तले कुचला गया। एक बात और यह कि इस समय राशनकार्ड अथवा बायोमेट्रिक पहचान की अनिवार्यता यदि मेहनतकश पूरा न कर सके अथवा उनके अँगूठे का मिलान नहीं हो पाया तो क्या उन्हें मुफ़्त राशन से वंचित कर दिया जाय ?

        तभी एक और सूचना आती है कि अमुक मोहल्ले में ट्यूबवेल खराब होने से पेयजल की आपूर्ति ठप्प है। जैसे ही वहाँ जलकल विभाग से टैंकर पहुँची, महिलाएँ खाली बाल्टी लिये दौड़ पड़ीं। कहाँ गया सोशल डिस्टेंस ? 

      सीमावर्ती क्षेत्र से ख़बर मिली है कि तिरपाल से ढके एक डीसीएम ट्रक से लगभग 50 सवारियों को जगह- जगह उतारा गया है। लॉकडाउन में फँसे लोगों ने ट्रक वालों के इस जुगाड़तंत्र का सहारा गंतव्य तक पहुँचने के लिया है, क्योंकि लॉकडाउन के प्रथम चरण में जब उन्हें घर भेजने की कोई व्यवस्था नहीं हुई तो वे अत्यधिक किराया देकर ,यह जोख़िम भरा सफ़र तय कर रहे हैं। सोशल डिस्टेंस और लॉकडाउन का उल्लंघन वे किस विवशता में रहे हैं ?  

      किन्तु सुदर्शन की ये साधारण सी बातें वहीं समीप खड़े उक्त बैंक के एक बड़े खाताधारक सेठ तोंदूमल को बिल्कुल समझ में नहीं आ रही थीं। वह बैंक के इर्दगिर्द जुटी महिलाओं की भीड़ देख भुनभुनाते हुये कहे जा रहा था-- " छी-छी ! कैसे गँवार लोग हैं ?  सरकार ने कितना समझाया है। लेकिन ये हैं कि सोशल डिस्टेंस में पलीता लगाने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। इन ससुरों को तो लॉकअप में डाल देना चाहिए। " 

     और तभी सामने स्थित तोंदूमल के आलीशान बंगले से आधा दर्जन महिला-पुरुष एक छोटे बालक को कंधे पर डाले बदहवास सड़क के उस ओर भागे जा रहे थे, जिधर अस्थिरोग विशेषज्ञ का नर्सिंगहोम है। 
  अरे! क्या हुआ मेरे गोलू को ? ऐसा चीत्कार करते हुये तोंदूमल भी उनके साथ हो लेता है।लॉकडाउन में इन लोगों को एकजुट देख ड्यूटी पर मौजूद पुलिस कर्मी टोकता है - "क्यों भीड़ लगाए हो, दूर- दूर हो जाओ ? "

   इतना सुनते ही तोंदूमल आगबबूला हो उठता है। वह चींख कर कहता है -- " दीवान जी, कैसे नासमझ हो, मेरा इकलौता पौत्र सीढ़ी से गिर पड़ा है। उसके सिर से रक्तस्राव हो रहा है और तुम्हें सोशल डिस्टेंस की पड़ी है ? "

    सुदर्शन , सोशल डिस्टेंस के प्रति सेठ के विचार में आये इस परिवर्तन पर मन ही मन मुस्कुराते हुये कहता है, ‘जाके पाँव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’ । 
           
              - व्याकुल पथिक

    

Wednesday 15 April 2020

लॉकडाउन का बोझ

लॉकडाउन का बोझ
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     जो मानवता मरूस्थल में परिवर्तित हो गयी थी, अब उसपर इन विपरीत परिस्थितियों में स्नेह रूपी बादल उमड़ने लगे हैं। हाँ, गरजने के साथ -साथ वे बरसते  कितने हैं,इसकी परख शेष है।
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       प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन को बढ़ा कर 3 मई तक कर दिया है। जिससे जो लोग अन्य प्रांतों में फँसे हुये हैं, इस संकटकाल में अपने घर-परिवार में पहुँचने की उनकी उम्मीद जाती रही। सुदूर  जनपद का एक शख़्स यहाँ के एक होटल में फँसा हुआ है। वहाँ उसकी माँ बीमार है, बच्चों का रो-रो कर बुरा हाल है, परंतु घर पर पत्नी के अतिरिक्त और कोई नहीं है । जरा विचार करें कि यदि वह ज़ेब से बिल्कुल खाली होता तो ग़ैर ज़िले में इन दिनों को कैसे गुजर पाता। उसे प्रतिदिन सिर्फ़ भोजन और जलपान पर ही ढ़ाई सौ रुपया  ख़र्च करना पड़ रहा है। प्रदेश के विभिन्न जनपदों में ऐसे अनेक लोग फँसे पड़े हैं। स्वास्थ्य संबंधित जाँच पूरी कर इन्हें घर भेजने की कोई तो व्यवस्था होनी चाहिए ? किन्तु कोरोना के विरुद्ध जंग में जहाँ हो,जैसे हो,बस वहीं पड़े रहो, इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प सरकार के पास नहीं है।
       40 दिनों के इस लॉकडाउन में निम्न-मध्यवर्गीय लोगोंं की आर्थिक स्थिति कितनी भयावह हो गयी है और उससे भी कहीं अधिक सड़कों पर विचरण करने वाले भूखे निराश्रित पशुओं की , इसपर भी तनिक चिंतन करें। इनकी सहायता किस प्रकार से की जाए? है क्या कोई ठोस योजना हमारी सरकार और दानदाताओं के पास अथवा हम सिर्फ़ वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर "भूख" पर काव्यपाठ करते रहेंगे ? 
         गत 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री के संबोधन के कुछ देर पश्चात मेरे मित्र नितिन अवस्थी के पास एक संदेश आया कि अमुक मोहल्ले में संतुलाल के घर का चूल्हा नहीं जला है। आधा दर्जन लोगों का परिवार है। संतु एक मिठाई की दुकान पर काम करता था। प्रतिदिन उसे दो सौ रुपया पारिश्रमिक मिलता था। बच्चे पढ़ते हैं। लॉकडाउन में मदद की गुहार लगाने पर प्रतिष्ठान के स्वामी ने मात्र सौ रुपये देकर उसे टरका दिया। आधा दर्जन लोग और एक सौ का नोट ,यह कोई दौपद्री का भोजन पात्र थोड़े ही है कि इससे 21 दिनों तक भोजन की व्यवस्था कर पाता। बाद में उसकी पत्नी राशनकार्ड लेकर सरकारी गल्ले की दुकान पर गयी। चार यूनिट का कार्ड  है। कोटेदार ने पर्ची बनायी, जिसके साथ नमक का एक पैकेट लेना अघोषित रूप से अनिवार्य था, किन्तु इस महिला के पास 50-60 रुपये भी नहीं थे कि राशन उठा सके। सो, पर्ची लेकर खाली हाथ वह वापस चली आयी। फ़िर कैसे जलता घर में चूल्हा ?
    ख़ैर, हमारे होटल मालिक चंद्रांशु गोयल तक जैसे ही यह जानकारी पहुँची , उन्होंने कोटेदार को फ़ोन कर अपने पास से पैसा दिया और इस परिवार के लिए अन्न की व्यवस्था हुई। साथ ही विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ नेता मनोज श्रीवास्तव जो असहाय वर्ग में निरंतर अनाज वितरित कर रहे हैं, उनके माध्यम से संतुलाल को आटा, चावल , दाल, आलू और तेल की बोतल भी दिलवा दिया गया। ऐसे कितने ही संतु हैं , जिनका स्वाभिमान उन्हें हाथ फैलाने से रोक रहा है, क्योंकि यही हाथ कभी उक्त प्रतिष्ठान पर प्रतिदिन सैकड़ों लोगों को जलपान कराया करता था, वही हाथ आज याचना कैसे करे ? इस विपत्ति में ऐसे लोगों की पहचान करना ही बड़ी चुनौती है। 
      वैसे, इसमें संदेह नहीं है कि कोई भी व्यक्ति भूखा नहीं रहे, इसके लिए हमारी सरकार निरंतर   प्रयत्न कर रही है। यहाँ के जिलाधिकारी ने भी फूड बैंक का मोबाइल नंबर जारी कर रखा है। पुलिस-पब्लिक अन्नपूर्णा बैंक भी अपना फ़र्ज़ निभा रहा है।  15 अप्रैल से  किसी भी तरह के राशन कार्ड पर प्रति यूनिट पाँच किलोग्राम चावल मुफ़्त मिलने लगा है। परंतु इसपर नज़र रखने की ज़रूरत है, क्यों कि ऐसी भी शिकायतें मिलने लगी हैं कि कम चावल देकर ही टरकाने का प्रयास हो रहा है। सरकार ने कह रखा है कि
 प्रशासन की निगरानी में यह मुफ़्त राशन वितरित हो। परंतु यदि भाजपा चाहती तो अपने वार्ड अध्यक्षों को इस पर निगरानी रखने का दायित्व सौंप सकती थी। भाकपा माले के वरिष्ठ नेता मो0 सलीम की शिकायत रही कि समीप का ही एक कोटेदार ऐसा है कि कमजोर वर्ग के राशनकार्ड धारकों संग मनमानी कर रहा है। 
    अनेक प्राइवेट स्कूल के अध्यापकों को दो- तीन  माह से वेतन नहीं मिला है। नौकरी जाने के भय से वे शिकायत भी नहीं करते हैं और फ़िर करे भी तो किससे ?नगरपालिका क्षेत्र में श्रमिक वर्ग के साथ ही ठेला, रिक्शा और आटो आदि चलाने वालों को सरकार की तरफ़ से एक-एक हजार रुपया दिया जाना है। पात्र व्यक्ति के चयन के लिए नगरपालिका के कर्मियों को लगाया गया है, क्योंकि कतिपय सभासदों ने मनमानी तरीक़े से अपात्रों का नाम भी इसी सूची में डाल दिया है। यह कैसी विडंबना है कि यहाँ भी वे वोटबैंक की राजनीति कर रहे हैं। अब भला एक कर्मचारी किसी अनजान वार्ड में पात्र -अपात्र में अंतर कितना कर पाएगा, जब उसे देखते ही दर्जनों लोग घेर लेते हो। दबाव भी बनाया जा रहा हो। 
     और उस निम्न-मध्यवर्ग की पहचान के लिए अब तक सरकार ने क्या किया ? जिन्हें दो माह से वेतन नहीं मिला हो। उन छोटे दुकानदारों के लिए क्या किया, जिनके प्रतिष्ठान के शटर चालीस दिनों तक नहीं उठेंगे। 
  और कोई सरकार इनके लिए कुछ करे भी कैसे ? जब उसने आज़ादी के बाद इतने वर्षों में भी इनकी पहचान नहीं करवाई है, क्यों कि यह वर्ग किसी भी राजनैतिक दल का ठोस वोटबैंक नहीं है। इस वर्ग को पाँच किलोग्राम मुफ़्त चावल के अतिरिक्त और क्या सरकारी सुविधाएँ मिलेंगी , हमारी सरकार कुछ तो बोले। ऐसे परिवार को इस संकटकाल में प्रतिमाह कम से कम पाँच हजार रुपये देना सरकार का नैतिक कर्तव्य बनता है, क्यों कि लॉकडाउन का फ़रमान उसका है। उसे प्राइवेट सेक्टर में काम कर रहे असंगठित लोगों की पीड़ा
को समझना होगा। ऐसे लोगों के लिए आगामी कुछ महीने आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक चुनौती भरे होंगे।   
      सरकारी रहनुमा बताए कि क्या ये स्वाभिमानी लोग प्रशासन और समाजसेवियों द्वारा वितरित किया जा रहा लंच पैकेट लेने घर से बाहर निकलेंगे ? 
     अभी पिछले ही दिनों समाजसेवा में स्वयं को समर्पित कर रखे  एक संगठन प्रचारक का मार्मिक संदेश मनोज श्रीवास्तव के पास आया था कि लॉकडाउन में उसके परिवार की छोटी सी दुकान बंद होने के बाद उसके वृद्ध माता-पिता के समक्ष भोजन का संकट है।  प्रचारक के स्वाभिमानी अभिभावक भोजन के लिए प्रशासन और समाजसेवियों के समक्ष कैसे हाथ पसारते । ख़ैर विहिप नेता मनोज श्रीवास्तव ने इस परिवार के लिए प्रयाप्त खाद्यान्न की व्यवस्था करवा दी। लेकिन, हरकोई इतना सौभाग्यशाली नहीं है। 

     यह चालीस दिनों का लॉकडाउन अपनों को तौल रहा है,जो मानवता मरूस्थल में परिवर्तित हो गयी थी, अब उसपर इन विपरीत परिस्थितियों में स्नेह रूपी बादल उमड़ने लगे हैं। हाँ, गरजने के साथ -साथ वे बरसते कितना हैं,इसकी परख  शेष है।आम चुनावों में पाँच-दस करोड़ रुपये यूँ ही उड़ाने वाले राजनेता ,माननीय यदि मेघदूत बन जाए, तो यह बंजर मरूभूमि अवश्य तृप्त हो जाएगी, किन्तु अभी तक इन्होंने सिर्फ़ विधायक और सांसद निधि का ही ढोल बजा रखा है।

          - व्याकुल पथ

Sunday 12 April 2020

सच्चे समाज सेवक

                          
             
   
 शहर के एक कोतवाली में लॉकडाउन से जुड़ी प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर अधिकारी आपस में मंत्रणा कर रहे थे कि तभी दस वर्षीया एक बच्ची अपना गुल्लक लेकर वहाँ आती है। लड़की कहती है --

   " अंकल ! यह लें मेरा गुल्लक और इसमें जो भी रूपये हैं, उसे प्रधानमंत्री मोदी को कोरोना से जंग के लिए दे दें।"
 बालिका के इतना कहते ही ये अफ़सर अचम्भित से रह गये थे ; क्योंकि उसने यह भी बताया था कि पूरे एक वर्ष से वह इस गुल्लक में साइकिल खरीदने के लिए पैसा एकत्र कर रही थी। अधिकारियों ने गिनती की तो गुल्लक में चार हजार तीस रूपये मिले ।
  मैं भी इस बच्ची की मनोस्थिति को समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ। मुझे मुंशी प्रेमचंद्र जी की कहानी " ईदगाह " का पात्र हामिद और उसका चिमटे याद आ रहा है। हामिद ने अपने अन्य मित्रों की तरह खिलौने अथवा मिठाइयाँ कुछ भी नहीं खरीदी थीं , किन्तु रोटी बनाते समय दादी की उँगलियाँ न जले , इसके लिए ईदगाह मेले से चिमटा खरीद लाया था। जिसे देख सजल नेत्रों से उसकी दादी ने जो दुआएँ की , उसका सौवाँ अंश भी बड़े से बड़े धर्मस्थल पर जाकर नहीं प्राप्त होगा। मेरा मानना है कि माँ भारती ने भी इस बच्ची को कुछ इसी प्रकार का आशीर्वाद दिया होगा।
      सुहानी चाहती तो इससे साइकिल खरीद सकती थी। जिसके लिए उसने एक वर्ष से अपने जेबखर्च का एक-एक रुपया उसी गुल्लक में डाल रखा था। लेकिन,उसने ऐसा नहीं किया ; क्योंकि उसे लगा कि इस लॉकडाउन में साइकिल खरीदने से कहीं अधिक इन पैसों की आवश्यकता उसके देश और असहाय लोगों को है। गुल्लक सौंपते समय  इस बच्ची ने अपने मन को किस तरह से बाँधा होगा। इस पर विचार कर कोतवाली में हरकोई इस परोपकारी बच्ची को सैल्यूट कर रहा था। नगर मजिस्ट्रेट ने कहा कि प्रधानमंत्री राहत कोष में रुपया जमा कर उसका रसीद उसके घर पहुँचा दिया जाएगा। 
   सरैया (घंटाघर) निवासी मध्यवर्गीय परिवार के 
सचिननाथ गुप्ता की कक्षा पाँच में पढ़ने वाली पुत्री सुहानी ने कोई मीडिया मैनेज़ नहीं किया था। जिससे ऐसा लगे कि वह फ़ोकस में आना चाहती है। फ़िर भी इस छोटी सी अवस्था में ज़रूरतमंदों के प्रति उसकी यह संवेदना सुर्ख़ियों में रही। उसने स्कूल जाने के लिए साइकिल खरीदने की अपनी अभिलाषा का त्याग मानवता की रक्षा के लिए जो किया था। 
   उसका यह कर्तव्य भाव देख मुझे एक बोधकथा का स्मरण हो आया है । राम- रावण युद्ध के पूर्व समुद्र पर सेतु निर्माण के समय भी कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित हुआ होगा ,जब एक नन्ही गिलहरी बार-बार जल और रेत की ओर दौड़ लगाती थी और पुनः निर्मित हो रहे सेतु पर आ अपने गीले शरीर पर लगे उस रेत को वहाँ डाल देती थी, ताकि भगवान के कोमल चरणों को कठोर शिलाखण्ड से कष्ट नहीं पहुँचे। 
      जब भगवान राम के करकमलों का स्नेहिल स्पर्श उसे प्राप्त हुआ, तो जिन बलशाली वानरों को अपने कर्म पर दर्प था, वह जाता रहा। 
 इस लॉकडाउन के दौरान भी एक तरफ़ वह सुहानी जैसी नन्ही गिलहरी है और दूसरी तरफ़ वानरों की तरह ही समाजसेवियों की विशाल टोली। इनमें से किसी के भी महत्व को नकारा नहीं जा सकता , किन्तु तुलनात्मक रूप से पलड़ा    सुहानी जैसे निष्काम भाव वाले जनसेवकों का ही भारी रहेगा। इस पर भी तनिक विचार करें।

      शहर के चौबेघाट निवासी रोहित यादव को ही लें। स्नातक का छात्र रोहित भी मध्यवर्गीय परिवार से है। लॉकडाउन में वह अपनी मित्रमंडली के साथ जनसेवा में लगा हुआ है। ये सभी लड़के पहले राशन एकत्र करते हैं, फ़िर उससे भोजन तैयार कर ग़रीब लोगों की बस्तियों में उसका वितरण भी स्वयं करते हैं। इन्हें अपने सेवाकार्य का ढ़िंढ़ोरा पीटना पसंद नहीं है। अतः इन्होंने फ़ोटोग्राफ़ी पर पाबंदी लगा रखी है। पिछले दिनों मेरे एक मित्र सच्चिदानंद सिंह को किसी ने असहायजनों में वितरित करने के लिए खाद्यान्न सामग्री दी थी। तभी उन्हें रोहित का स्मरण हो आया । सूचना मिलते ही वह साइकिल से दौड़ा आया। हमारे मित्र के पुत्र संस्कार सिंह ने सारा सामान बोरे में भर कर उसकी साइकिल के कैरियर से बाँधा और उसे लेकर वह सेवास्थल की ओर रवाना हो गया। उसके पास अन्य समाजसेवियों की तरह इस लॉकडाउन में कोई प्रशासनिक परिचय पत्र (पास) नहीं है, इसलिए मार्ग में पुलिस से भी मोर्चा लेना पड़ सकता है। लेकिन ,समाजसेवा का इनका जुनून  पुलिसिया भय पर भारी है। यह देख मैंने जेब से मोबाइल फोन निकाला और दूर से ही उसका एक फ़ोटो ले लिया। 

   जनसेवा की ललक की एक और मिसाल देखें।   मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर तैनात आरपीएफ जवान विभूति नारायण सिंह दोहरा कर्तव्य निभा रहे हैं। वे स्टेशन पर अपनी ड्यूटी करने के बाद घर आते ही मास्क बनाने में जुट जाते हैं। वे कपड़ों की कटिंग करते हैं तो उनकी धर्मपत्नी मीरादेवी सिलाई करती हैं। घर में वस्त्रों को सिलने के लिए लायी गयी मशीन अब ग़रीब और ज़रूरतमंदों की आवश्यकता बन गयी है। यह दम्पति सैकड़ों मास्क तैयार कर निःशुल्क ग़रीबों में बांट चुका है। पति के साथ जनसेवा में लगी मीरा बिना थके गृहस्थी का काम करने के साथ ही मास्क निर्माण करके प्रसन्नता का अनुभव कर रही हैं।
   मन के सच्चे, कर्म के पक्के ऐसे व्यक्तियों जिसमें बच्चे भी हैं,का उत्साहवर्धन हम पत्रकारों का धर्म है । और कुछ नहीं तो अपनी लेखनी का ही सदुपयोग किया जाए ।     
    अन्यथा बड़े आश्चर्य की बात है कि इस लॉकडाउन में सबसे अधिक फ़ोन अथवा मैसेज यदि किसी का आ रहा है ,तो वह कथित समाजसेवियों का है। इनमें से हर कोई अपने सेवा का मेवा चाहता है। जिसके लिए प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग हो रहा है। कोई लंच पैकेट बांटते हुए तो कोई राहत कोष में चेक भेजते हुए अपना फ़ोटो चाहता है। यूँ भी कह ले कि स्वार्थ की प्रचुरता के कारण मूल्याकंन की दृष्टि भी बदली है। मीडिया भी इससे अछूता नहीं है।  व्यापार और सेवा में क्या अंतर है,हम भी यह भूल बैठें हैं। अतः इस भीड़ में ऐसे ज़रूरतमंदों की आवाज़ दब जा रही है, जिसे याचक के रूप में फ़ोटोग्राफ़ी से परहेज़ है। फ़िर भी ऐसे दानदाता हैं जिन्हें ऐसे स्वाभिमानी निम्न मध्यवर्गीय लोगों की चिन्ता है। सच कहूँ तो यदि मेरे पास जब भी कोई संदेश आता है कि अमुक व्यक्ति को अनाज की आवश्यकता है,तो मैं भी ऐसे ही सच्चे समाजसेवियों को ही याद करता हूँ, ताकि यह फ़ोटोग्राफ़ी वाला झमेला न रहे।  ख़ैर, इस लॉकडाउन में किसी भी तरह असहाय लोगों तक मदद पहुँचे प्राथमिकता यही होनी चाहिए ।  फ़िर भी ऐसे सच्चे समाज सेवकों की ख़बर भी हमें होनी चाहिए जो प्रचारतंत्र से दूर है। 
   और हाँ, सुहानी जैसे बच्चों का मनोबल बढ़ाने के लिए किसी विशेष अवसर पर उनका अभिनंदन भी होना चाहिए। 

         - व्याकुल पथिक



  

Friday 10 April 2020

सैनिकों जैसा अनुशासन

          सैनिकों जैसा अनुशासन
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     तीन सप्ताह के लॉकडाउन के दौरान अपने शहर मीरजापुर में यह देखने को मिल रहा है कि एक बड़ा वर्ग संवेदनशील विषय पर भी गंभीर नहीं है। वह अकारण अनुशासन भंग कर अपने परिवार एवं समाज के लिए संकट का कारण बना हुआ है। सड़कों एवं गलियों में चहलक़दमी कर रहा है। पुलिसकर्मियों को डंडा ले बार-बार बिना मास्क लगा रखे ऐसे युवाओं को दौड़ाना पड़ रहा है। यहाँ भी आधा दर्ज़न जमती छिपे हुये थे। जिनमें से दो कोरोना पॉजिटिव पाये गये। फ़िर हवाबाज़ी शुरू हो गयी और एक वृद्धा की कोरोना से मृत्यु की झूठी ख़बर भी ट्वीट कर दी गई।
    यह सब देख मेरे मन में एक सवाल उठता है -- काश ! सैनिकों-सा अनुशासन ऐसे लोगोंं में भी होता ? यदि किसी व्यक्ति के पास अनुशासन नहीं है, तो वह अपने परिवार, समाज और देश की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी नहीं ले सकता है।
      वैसे, छात्र जीवन में राष्ट्रीय पर्वों पर रगों में जोश भरने वाले गीत -ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का.. के अतिरिक्त सैनिकों के संदर्भ में मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं थी। हाँ, इतना जानता था कि हम सुरक्षित हैं, क्योंकि देश की सीमा पर तैनात हमारे जवान शत्रुओं से हमारी रक्षा करते हैं। वे हमारे लिए अपने प्राणों की आहुति दिया करते हैं, किन्तु हम वर्ष में दो बार भी अपने राष्ट्रनायकों और बलिदानी शहीदों को ठीक से याद नहीं करते हैं। बालमन में ऐसी जिज्ञासा थी कि कहीं ऐसे राष्ट्रीय पर्व , शहीद दिवस इत्यादि औपचारिक मात्र तो नहीं है।
   हाँ, नानी माँ अकसर 1971 के भारत- पाक युद्ध के संदर्भ में चर्चा करती थीं। तब वे सभी सिलीगुड़ी( पश्चिम बंगाल) में रहती थीं, मेरा भी जन्म हो चुका था और युद्ध की दृष्टि से यह एक संवेदनशील क्षेत्र था, तो ब्लैक-आउट के दौरान उन्हें किस तरह की सावधानी बरतनी पड़ती थी, संबंधित में अनेक रोचक बातें बताया करती थीं। 
   वैसे मैं उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और बिहार के कई जनपदों में रहा, हर वर्ग के लोगों से मेरी जान पहचान रही, किन्तु दुर्भाग्य से सेना के किसी भी ज़वान से मेरी मैत्री कभी नहीं रही , न ही कभी किसी सैन्य शिविर में जाने का अवसर ही मिला है।
          इंटरमीडिएट की परीक्षा देने के पश्चात जब कालिम्पोंग गया था , तो छोटे नाना जी के मिष्ठान भंडार पर सेना के अधिकारी अपने विशेष कार्यक्रमों में मिठाई का ऑर्डर बुक कराने आया करते थे। हजार -डेढ़ हजार की संख्या में वे छेने की मिठाइयाँ ले जाते थे, किन्तु कभी कमीशन की मांग नहीं की। हाँ, स्वच्छता,अनुशासन अतिथि सत्कार के वे अभिलाषी थे। प्रतिष्ठान पर कैप्टन , मेजर आदि आते थे। सो,उनके साथ किस तरह का व्यवहार करना है। वह छोटे नाना जी ने मुझे बता दिया था। नाना जी स्वयं भी अपने समय के जानेमाने बॉक्सर थे , अतः वे यूपी और बिहार प्रांत के इन सैनिकों को देख हर्षित हुआ करते थे। इन सैनिकों की मुझे जो बात पसंद थी, वह इनकी पारदर्शिता ही थी। वहीं पहाड़ पर एक लैफ्टिनेंट कर्नल के बंगले को देखने का अवसर मिला। धनाढ़य जनों से कहीं अधिक वह बंगला सुसज्जित दिखा।यह देख मैं आश्चर्यचकित रह गया। उन्होंने कहा था- " सेना का अधिकारी हो या जवान सभी दिल खोल के ख़र्च किया करते हैं। अगला जन्म किसने देखा है। "
   और यहाँ मीरजापुर में जब आया तो एक वृद्ध अवकाश प्राप्त सैनिक को गांडीव अख़बार दिया करता था। उन्होंने अपने घर का नाम सैनिक- कुटीर रखा था। यह निःसंतान दम्पति मुझे पुत्रवत  स्नेह देता था। देर शाम जब मैं समाचर पत्र लेकर  पहुँचता तो चाय लिये वे दोनों मेरी प्रतीक्षा करते मिलते । बूढ़े बाबा कई दशक पहले रिटायर हो गये थे। पेंशन भी मामूली मिलती थी। लेकिन, सेना वाला ही अनुशासन घर पर था। प्रातः समय से उठना , साफ़-सफ़ाई से लेकर , तुलसी के बड़े-बड़े पौधों में पानी डालना, बाज़ार से सामान लाना और पत्नी के अस्वस्थ होने पर वे स्वयं भोजन भी पकाने का कार्य वे किया करते थे।वर्ष में एक बार रामायण पाठ करवाते और उसके समापन पर प्रसाद-भोज भी। उसी पेंशन से अपने सारे सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों का निर्वहन करते थे। जब मैं उनके निवास पर जाता तो मुझे देख वे अपना चिलम किनारे रख ,मुस्कुराते हुये कहा करते -" बेटा, यही एक अवगुण है, अन्यथा सेना में रह कर भी मैंने कभी शराब तक को हाथ नहीं लगाया था ।" 
              वे सफ़ाई कर्मियों के मुहल्ले में रहते थे, जो शाम ढलते ही मदिरापान कर झगड़ते रहते थे। यह देख मैं अक़्सर उनसे कहता कि इन्हें भी अपनी तरह अनुशासित जीवन जीने की कला सीखा दें , तब समझूँ आप एक फ़ौजी हैं। यह सुनकर पलटकर वे कहते कि बिल्कुल सुधर जाएँगे, बस इज़राइल की तरह  यहाँ भी सभी नागरिकों को सेना में जाना अनिवार्य कर दिया जाए। वहाँ लड़कों को तीन वर्ष और लड़कियों को दो वर्ष का सैन्य प्रशिक्षण दिया जाता है। सम्भवतः इसीकारण दुनिया के एकमात्र छोटे से यहूदी राष्ट्र इज़राइल की सैन्य-शक्ति का लोहा पूरी दुनिया मानती है। 
           मेरा भी यही मानना है कि हम जिस भी क्षेत्र में हो, किन्तु सैनिकों के कुछ गुण जैसे अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी, अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और राष्ट्रभक्ति हममें होना ही चाहिए। यदि हम सभी सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किये होते, तो सम्भव है कि  ये जमाती अपने वतन के प्रति वफ़ादार होते और कथित धर्मगुरु इन्हें मज़हब के नाम पर ग़ुमराह नहीं कर पाते। धर्म और राजनीति के ठेकेदारों का बाज़ार यूँ न चटकता। ज़िम्मेदार पदों पर होकर भी लोग इसतरह भष्टाचार में आकंठ न डूबे होते। 
            मैंने कई बार अवकाश पर घर आये सैनिक को सरकारी विभागों में व्याप्त भष्टाचार से संघर्ष करते देखा है। उसे सफलता न भी मिली हो, फ़िर भी अन्याय के विरुद्ध एक आवाज़ तो उठी ?
      अरे हाँ ! कलम का सिपाही तो हम पत्रकारों को भी कहा जाता है। परंतु एक सैनिक की तरह ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा अब हममें भी नहीं रही। हम जुगाड़तंत्र के हाथों की कठपुतली हैं। इसीकारण देश की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था का सही दृश्य जनता के समक्ष नहीं रख पाते हैं।  इसीलिए यदि सुव्यवस्था चाहिए तो सर्वप्रथम हमें सैनिक बनना ही होगा। ऐसा सैनिक जो अनुशासित ,निर्भीक, स्पष्टवादी, नैतिक मूल्यों से ओतप्रोत हो, कठिन चुनौतियों में भी जिसके चेहरे की मुस्कान कम न हो, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा से ऊपर उठ कर वह राष्ट्र के प्रति समर्पित हो। 
   देश के प्रति हमसभी का कुछ कर्तव्य होता है।  हम भष्टाचार, भाई-भतीजावाद,धार्मिक पाखंड जैसा कि इन दिनों जमाती कर रहे हैं और  रूढ़ीवाद अथवा  कथित प्रगतिशीलवाद से ऊपर उठकर सर्वप्रथम राष्ट्रवाद को महत्व देते ,उसके प्रति अपने नागरिक दायित्व को समझते, बातें बनाना छोड़ , सैनिकों की तरह ही माँ भारती के लिए अपना शीश देने को तत्पर रहे।और एक सच्चा सैनिक देश में कितनी ही समस्यायें क्यों न हो, लेकिन अपने राष्ट्र की बुराई कभी भी नहीं करता।...जयहिंद ।

                              -व्याकुल पथिक
👇👇👇 https://youtu.be/J_94ROL
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Tuesday 7 April 2020

हमें जला क्यों मुसकाते

 
 आटे की थैली ग़रीब के हाथों में देकर सेल्फियाँ बनाने वाले पहले इस वीडियो पर ग़ौर करें, फ़िर मैं अपनी अपनी बात शुरू करता हूँ ...





हमें जला क्यों मुसकाते 
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     स्वास्थ्य संबंधित कारणों से भोजन बनाने की इच्छा नहीं हुई। बत्ती बुझा मैं कमरे में लेटा हुआ था कि तभी नौ बजते ही घंटा-घड़ियाल, शंखनाद, थाली और पटाख़ों की आवाज़ आने लगी। जिसे सुन मैंने जैसे ही कमरे की खिड़की खोली तो देखा कि दीपावली की तरह ही आसपास के घरों के बारजे पर असंख्य दीपक झिलमिला रहे थे। ऐसे दृश्य सुखद तब लगते हैं, जब उत्सव का वातावरण हो। लेकिन जब एक बड़ा वर्ग भूख से संघर्ष कर रहा हो, तो तेल का यह अपव्यय देख मेरी आँखें नम हो गयीं, बचपन के उन दिनों को याद कर। जब चोखा में डालने के लिए भी घर में आधा चम्मच सरसो का तेल नहीं हुआ करता था। 
    ख़ैर यह विचित्र रंगमंच है। जिसका रचयिता ही क्षीरसागर में रहता हो उसे क्या पता कि उसकी अनेक संतानें क्षीर बिन छटपटा रही हैं। और उसका दुग्धाभिषेक हो रहा है।

कविवर हरिवंश राय बच्चन जी की कालजयी कविता है -
मैं दीपक हूँ, मेरा जलना ही तो मेरा मुस्काना है..|
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परंतु इस रात मानों जल रहे दीपक यह शिकायत कर रहे हो...

प्रकाश नहीं , निज स्वार्थ कहो
मनुज! हमें जला क्यों मुसकाते ? 
दे दो यह तेल किसी ग़रीब को
यूँ बलिदान हमारा व्यर्थ न हो।
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   हो सकता है, मेरे इस विचार से अनेक लोग असहमत हो, किंतु इस संकटकाल में मुझ जैसे निम्न-मध्यवर्गीय लोग, इस समाज में जिनका एक बड़ा वर्ग है ,जो मज़दूर की श्रेणी से तनिक ऊपर हैं, किन्तु उनसे कहीं अधिक मज़बूर हैं, उनकी आँखों में अनेक प्रश्न टंगे दिखे। ऐसे कितनों के घर में सरसो तेल की बोतल खाली हो चुकी होगी, जिस तरह से उनका जेब खाली हो गया है और सड़कों पर निराश्रित विचरण करने वाले पशुओं की स्थिति भूख से अत्यंत चिंताजनक है। बिल्कुल अधमरे से हैं। कुछ देर  पूर्व मैंने इसी शाम इमरती रोड पर बूढ़े सांड़ को एक घर के चबूतरे पर पड़ी उस सूखी रोटी की ओर लपकते देखा था, जब ऐसा करने के प्रयास में उसकी टाँगें लड़खड़ा गयीं और वह गिर पड़ा था। फ़िर यह कैसा उत्सव है ? हम इतने ढेर सारे दीपक जला और पटाख़े फोड़ क्या जताना चाहते हैं।  
   वैसे, संक्रमण काल में दीप जलाने से हानि-कारक विषाणु जलकर भस्म होते हैं । जैसा कि हमसभी जानते हैं कि दीवाली और होली का अवसर ऋतु परिवर्तन का होता है । इसमें विषाणु सक्रिय होते हैं । इसलिए दीवाली पर दीपक तथा होली पर होलिका जलाने का विधान है। दीपक ऊर्जा का प्रतीक है। सूर्य का प्रतिनिधि है।  फ़िर भी यह संदेश स्पष्ट होता कि एक से अधिक दीपक न जलाना,नहीं तो इस विपत्ति में सरसो तेल का अपव्यय होगा। तब सही मायने में यह उत्सव पर्व पर जलने वाले दीप न होकर हम भारतवासियों की आपसी एकता और आत्मबल को प्रतिबिंबित करता। 
     परंतु अपनी ढपली, अपना राग। यह भी कैसा दौर है कि हर कोई समाजसेवी बना खड़ा है। जिसका फ़ोटो छपा वह खुश , जिसका न छपा वह नाखुश । अख़बारों की अपनी सीमा है, पर यहाँ दानवीर कर्ण एक नहीं अनेक हैं। जो असली हैं, वे पर्दे के पीछे हैं , जिन्हें दिखावा पसंद है। वे सोशल मीडिया के खिलाड़ी हैं। परंतु निम्न मध्य वर्ग के तमाम ऐसे ज़रूरतमंद लोग हैं। जिन तक किसी दानदाता की नज़र नहीं पहुँच रही है। अप्रैल की पहली तारीख़ जिनके लिए  अप्रैल फूल सा ही रहा । जेब खाली पर मीडिया में समाजसेवियों का फ़ोटो छपा जो मिला। अब ऐसे स्वाभिमानी लोग भी जब याचक बन उनके सामने आये , उनका दान ग्रहण करते हुये फ़ोटो खिंचवाने के लिए घरों से बाहर सड़कों पर हाथ फैलाएँ खड़ा हो , तभी उनकी कोई सुधि लेगा। अब तो बस ऐसा ही लग रहा। अरे ! समाजसेवियों अपने पड़ोस में देखों , तुम भी कइयों को जानते होगे , इनमें से कोई किसी प्राइवेट स्कूल में अध्यापक होगा।  पाँच हजार रुपया ही उसका वेतन होगा और कोई किसी किराना दुकान का नौकर होगा , वह भी इतना ही पाता होगा। कुछ गल्ला और सब्जी वहाँ भी दे दो मित्र , पर जानता हूँ यह भी कि तुम ऐसा नहीं करोगे , क्यों कि वहाँ तुम्हारे दानवीरता का प्रदर्शन नहीं होगा। तुम्हारे सोशल मीडिया का व्यापार नहीं होगा। 
 क्यों न दो किलो आटा और आधा- आधा किलो चावल - दाल साथ में आलू और जिस घर में ईंधन की व्यवस्था नहीं हो , वहाँ कुछ लकड़ी पहुँचा दी जाए ? यह सहायता पैकेट किसी निम्न -मध्यवर्गीय परिवार के लिए प्यासे को जल पिलाने जैसा पुण्यदायी होगा। परंतु ऐसा करने की कितनों ने सोचा है। कुछ कर भी रहे हैं, परंतु वे उसका प्रदर्शन नहीं करते हैं।मीडिया में दिखावा उन्हें पसंद नहीं हैं। यह तो मीडिया का काम है कि सच्चे दानवीरों को वह स्वयं ढ़ूंढे। भोजन का पैकेट तो उन लोगों के लिए है , जिनके पास कोई साधन नहीं है। मसलन, रेलवे स्टेशन , मंदिरों पर भीख मांगने वालों के लिए, मजदूरों के लिए, उन राहगीरों के लिए जो लॉकडाउन में फंसे हैं। परंतु जिनका अपना घर है। उन्हें यह लंच पैकेट नहीं , अनाज की थैली मिलनी चाहिए। प्रशासन-पुलिस जो भी सहायता कार्य कर रहा है, वह सराहनीय है, परंतु जो समर्थ हैं, उन्हें अपने अड़ोस- पड़ोस दृष्टि डालनी चाहिए। एक -दो निम्न मध्यवर्गीय लोगों के घर भी वे अन्नदान कर आते हैं, तो यह गुप्त दान उनके लिए सौ लंच पैकेट बांटने से अधिक पुण्यदायी होगा। वैसे भी कहा गया है कि दान इस प्रकार देना चाहिए कि दाहिना हाथ दे तो बायें हाथ को पता भी न चले। इसे ही गुप्तदान कहा गया है। हम सें बढ़कर कौन है, जनता तुम हमें पहचान लो, गर विश्वास ना हो तो फ़ोटो देख कर जान लो। जिस भय से निम्न- मध्य वर्ग के लोग हाथ नहीं फैला रहे हैं कि कहीं कोई उनका भी वीडियो नहीं बना ले। उनका जो स्वाभिमान पर्दे के पीछे सुरक्षित है, ये उसका तमाशा न बना ले। 
    सरकार कहती है कि मुफ़्त राशन देगी। पर कितना, एक यूनिट पर पाँच किलोग्राम चावल मात्र। इससे अधिक मुफ़्त गल्ला लेने के लिए निम्न- मध्यवर्गीय लोग शासन द्वारा तय शर्त पूरा नहीं कर सकते हैं और न ही श्रमिक वर्ग की तरह उन्हें सरकारी एक हजार रूपये का  लाभ मिलेगा।
     मित्रों ! सरकार को ऐसी कोई व्यवस्था देनी चाहिए ,जिससे सभी राशन कार्डधारकों के लिए प्रति यूनिट के हिसाब से गल्ले का ऐसा एक मुफ़्त पैकेट हो। जिसमें गेहूँ/ आटा , चावल और दाल के साथ ही सरसो तेल की एक छोटी बोतल भी हो।  
   अब जबकि इनके परिवार की आर्थिक स्थिति इस लॉकडाउन में पूरी तरह से डाँवाडोल है। यदि आप और हम इस वर्ग के दर्द को पहचान नहीं रहे है, तो ऐसी समाजसेवा और ऐसे उत्सव मनाने का अधिकार हमें किसने दिया है ?

   फ़ना निज़ामी कानपुर के शब्दों में मैं तो इतना कहना चाहता हूँ-

अंधेरों को निकाला जा रहा है
मगर घर से उजाला जा रहा है।

          - व्याकुल पथिक

 







Saturday 4 April 2020

बुधुआ की हिमाक़त

   बुधुआ की हिमाक़त
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  सोशल डिस्टेंस.. सोशल डिस्टेंस..! भीड़ मत लगाओ ..कोई खाली हाथ नहीं लौटेगा..धैर्य रखो..!!
       नगर सेठ घोंटूमल के आते ही उसके सिपहसालारों ने राहत सामग्रियों से भरी गाड़ी के इर्द-गिर्द कोलाहल मचा रहे ग़रीब - ज़रूरतमंद लोगों को घुड़कते हुये क़तारों में व्यवस्थित करना शुरू कर दिया था। वहाँ पहले से ही खड़े फ़ोटोग्राफ़रों के कैमरे क्लिक -क्लिक की आवाज़ के साथ हरक़त में आ जाते हैं। वीडियोग्राफ़ी भी शुरू हो गयी थी।
   कोरोना के भय से लॉकडाउन के इस साँसत में भोजन के ये पैकेट इन दीनदुखियों के लिए किसी खजाने से कम नहीं थे । अतः बच्चे- बूढ़े सभी लंच पैकेट थामे घोंटूमल का जयगान करते हुये अपने ठिकाने की ओर बढ़ते जा रहे थे। सेठ की दानवीरता और इन ग़रीबों की दीनता के सजीव चित्रण के लिए छायाकारों ने अपनी ओर से कोई क़सर नहीं छोड़ रखी थी । उन्हें पक्का विश्वास था कि ऐसे चित्रों को देख कंजूस सेठ इस बार उनके तय पारिश्रमिक में किसी प्रकार की कटौती नहीं करेगा, क्योंकि सोशल मीडिया पर इनके माध्यम से उसके कार्यों की सराहना तो होगी ही, अख़बारों में भी सेठ की मानवीयता का गुणगान होना तय है । ऐसे संकटकाल में शहर में प्रतिदिन एक हजार लंच पैकेट वितरित  करवाने की ज़िम्मेदारी घोंटूमल ने आलाअफ़सरों संग हुए वार्तालाप में स्वयं पर ले ली थी। 
   कहा तो यह भी जा रहा है कि देश पर आये संकट में सेठ की इस राष्ट्रभक्ति को देख कलेक्टर साहब बहुत प्रभावित हैं। सो, लॉकडाउन समाप्त होने के पश्चात सेठ के नागरिक अभिनंदन में उनकी भी उपस्थिति रहेगी । 
     उधर, भीड़ से कुछ दूर खड़े बुधुआ की चौकन्नी आँखें सेठ की हर गतिविधियों पर टिकी हुई थीं। वह देख रहा था कि रंग बदलने की कला में पीएचडी कर रखा घोंटूमल किस तरह से इंसानियत का हवाला देकर जनसेवक बना हुआ था। वह परोपकार की बातें तो ऐसी कर रहा था कि मानों उससे बड़ा धर्मात्मा इस धरती पर दूसरा कोई नहीं हो । उसके प्रशस्तिगान करने वालों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी। 
    यह सब नौटंकी देख बुधुआ का श्वास घुट रहा था। और अधिक देर तक यहाँ खड़ा होना उसके लिए असहनीय था। इस समाजसेवा के पीछे घोंटूमल की क्या मंशा है , भला उससे छिपी भी कैसे रह सकती थी। कभी वह भी उसका वफ़ादार कारिंदा जो था । ऐसे परोपकारी सेठ की सेवा में होने का उसे बड़ा गुमान था। 
    लेकिन उस दिन अख़बारों में अपने सेठ के छपे फ़ोटो को देख उसपर ऐसा वज्रपात हुआ कि उसने दुबारा कभी उसके बंगले की ओर रुख़ नहीं किया। घटना नोटबंदी के बाद की रही। जब दिल्ली के एक आलीशान होटल से घोंटूमल अपने अन्य सात साथियों के साथ पकड़ा गया था। साथ ही कई बक्सों में भरे पाँच सौ के वे नोट मिले थे, जो प्रतिबंधित थे। पकड़ा गया यह रैकेट इन्हीं नोटों को पड़ोसी देश नेपाल में भेज इनके आधे मूल्य पर अदला -बदली करता था। नोटों के ढेर के मध्य घुटनों के बल बैठे मुँह छुपाते अपने सेठ को देख लज्जा से उसका सिर झुक गया था। भारतीय मुद्रा के साथ हेराफेरी यह राष्ट्रद्रोह का मामला था। घोंटूमल और उसके साथियों को महीनों बाद जमानत मिली थी। तभी से वह अपने कालिख पुते चेहरे को पुनः चमकाने का अवसर ढ़ूंढ रहा था। 
   लेकिन ,आज वहीं देशद्रोही सेठ घोंटूमल हर किसी की दृष्टि में शहर का सबसे बड़ा समाजसेवी बना हुआ है। कोरोना जैसे वैश्विक महामारी में शासन-प्रशासन का सहयोग करने के लिए उसकी राष्ट्रभक्ति की सराहना चहुँओर हो रही है। उसे इस संकटकाल में इस शहर का भामाशाह बताया जा रहा है। जबकि उसने कई बैंकों का करोड़ों रूपया दबा रखा है। उसकी योजना सफल हो रही थी । आगामी इलेक्शन में उसे किसी प्रमुख राजनैतिक दल से टिकट मिलना तय है। यह कोरोना और लॉकडाउन उसके लिए वरदान से कम नहीं है। 
  हाँ, अब वह राष्ट्रद्रोही नहीं राष्ट्रभक्त कहा जाएगा। इस शहर का माननीय कहलाएगा । यहसब देख बुधुआ को लगता है कि उसके कलेजे में किसी ने भाला भोंक दिया हो। कैसे करे वह इस तथाकथित राष्ट्रभक्त को बेनक़ाब। बिल्कुल निस्सहाय सा वह अब भी वहाँ बेबस खड़ा था। 
  कैसे समझाए इस भीड़ को कि वह तो सिर्फ़ नाम से बुद्धु है , परंतु उनसब की बुद्धि क्यों मारी गयी है कि देशद्रोही और देशभक्त में फ़र्क तक नहीं समझ पा रहे हैंं।
    तभी सेठ की निगाहें उससे टकराती हैं। घोंटूमल वहीं से आवाज़ लगाता है- " अरे ! बुधुआ दूर क्यों खड़ा है। तू भी लेते जा दो पैकेट। "
  उसने देखा कि पीछे से भी कोई कह रहा था "-- बड़े भाग्यवान हो भाई , इस भीड़ में भी यह धर्मात्मा सेठ तुम्हें नाम लेकर पुकार रहा है। "
   यह देख बुधुआ उसका पोल खोलने की चाह में अपना होश खो बैठता है। परिणाम उसकी आँखों में भय की परछाई डोल रही थी । वह बेतहाशा भागे जा रहा था और भीड़ मारो-मारो इस झुठ्ठे को, कह पीछा किये हुये थी। 
  एक राष्ट्रभक्त को देशद्रोही कहने की हिमाक़त जो उसने की थी। 

     -व्याकुल पथिक
   

Thursday 2 April 2020

नौकरानी

                   नौकरानी
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    समीप के देवी मंदिर में कोलाहल मचा हुआ था। मुहल्ले की सुहागिन महिलाएँ पौ फटते ही पूजा का थाल सजाये  घरों से निकल पड़ी थीं। उनके पीछे- पीछे बच्चे भी दौड़ पड़े थे।


     उधर,आकाँक्षा इन सबसे से अंजान सिर झुकाए नित्य की तरह घर के बाहर गली में मार्निंग वॉक कर रही थी । वह भूल चुकी थी कि तीज-त्योहार भी कुछ होता है। फ़िर ऐसे पर्व पर स्त्रीयोचित श्रृँगार कर दर्शन-पूजन उसके लिए बेमानी है । कौन-सी खुशी मिली है उसे ,  अपने इस निर्रथक जीवन से। स्त्री होकर भी वह पत्नीत्व, मातृत्व एवं गृहिणीत्व से वंचित है। सो, जीवन की शून्यता और दर्द को समेटे मन को बाँधने केलिए कुछ बुदबुदाती रहती है। मानों ईश्वर से मोक्ष की प्रार्थना करती हो। तभी सज-धज कर मंदिर को निकली माधुरी से उसकी नज़र टकराती है।

   " अरे आकाँक्षा !  तू दिनोदिन इतनी दुर्बल क्यों होती जा रही है। बीमार थी क्या रे ! और मंदिर नहीं जाना है तुझे ? पता है न आज शीतलाष्टमी है। "
   - एकसाथ इतने सारे सवाल कर माधुरी ने  अंजाने में ही सही , उसके कभी न भरने वाले ज़ख्म पर नश्तर रख दिया था ।

     वह फ़िर से अपने सुनहरे अतीत और उपेक्षित वर्तमान में डूब जाती है। हाँ,वह माँ-बाप की  'आकाँक्षा' ही तो थी । वे उसे ऐसा गुणी और संस्कारवान लड़की बनाना चाहते थे ,जो मायके और ससुराल दोनों का मान बढ़ाए, इसीलिए  भाइयों की लाडली चीनी गुड़िया से ऊपर उठकर उसने स्वयं को सर्वगुणसंपन्न  युवती बना लिया था। किंतु नियति का तमाशा भी विचित्र होता है। अतः उसके  हाथ पीला करने का स्वप्न संजोए पहले पिता और फ़िर उनके ग़म में माँ भी साथ छोड़ गयी। भाइयों ने अपना घर बसा लिया ,पर वह कुँवारी ही रह गयी।


      रिश्ते तो कई आए थे, लेकिन भाभी दाँव खेल गयी। वही तो एक थी घर में जो झाड़ू-पोंछा से लेकर उनके बच्चों को स्कूल पहुँचाने तक का सारा काम करती थी। चीनी गुड़िया से रोबोट बन गयी थी आकाँक्षा, तब रिश्तों के पीछे छिपे स्वार्थ को वह कहाँ पढ़ पायी थी। दो जून की रोटी और दो जोड़े कपड़े में उसने स्वयं को सीमित कर लिया था। विवाह-भोज आदि विशेष अवसरों पर जब परिवार के सभी सदस्य घर के बाहर होते , तो वह अकेले ही बंगले की रखवाली किया करती। एक अकेली स्त्री  इतने बड़े मकान में किस तरह से रहेगी , इसकी तनिक भी चिंता उसके भाई- भाभियों को नहीं थी। यह  जानकर भी अंजान बनी आकाँक्षा  ,   बच्चों ने बुआ जी कहा नहीं कि अपनी सारी ममता उनपर लुटा दिया करती थी । ये तीनों बच्चे ही उसकी अपनी दुनिया थी।

        आज वे ही बच्चे बड़े हो गये हैं तो उने उनके  व्यवहार में यकायक कितना परिवर्तन आ गया है ! किसी कार्य केलिए वे उससे अनुरोध नहीं वरन् आदेश दिया करते हैं। कल ही सोनू ने उसकी भावनाओं की अनदेखी कर कितने रूखे अंदाज़ में मटन बनाने को कहा था , जबकि उसने मांसाहार त्याग दिया है। वह अपनी माँ से भी कह सकता था। बुआ क्या उसकी नौकरानी है ?

   यह सोचते हुये नम हो चुकी आँखों को एक बार पुनः अपने दुपट्टे से साफ़ करती है वह..।


     इस परिवार की खुशी केलिए उसने क्या नहीं किया। आँखें खुलते ही पहले बच्चों केलिए फ़िर भाइयों केलिए ब्रेकफॉस्ट और टिफिन की व्यवस्था की जिम्मेदारी उसी की थी और दिन चढ़ते ही भाभियों के इशारे पर किचन में नाचती रहती।

         आकाँक्षा को आज भी याद है कि तृप्त उसे कितना पसंद करता था, किंतु घर की इज्ज़त केलिए भाग कर उसने अंतर्जातीय विवाह नहीं किया। वह भाभियों की चालबाज़ी को सहती रही। अपने मन को उनके बच्चों के साथ बाँध लिया था। जीवन के तिक्त और मधुर क्षणों को एक समान कर लिया था।

       जब भी उसकी सहेलियाँ मायके आती । वे उसे अपने सुखमय वैवाहिक जीवन के वर्णन के साथ ही उसके भाई-भाभियों की चतुराई से सावधान करना नहीं भूलती थीं, किंतु आकाँक्षा उनके समक्ष कभी दार्शनिकों -सा बात करने लगती, तो कभी विदूषकों-सा रंग बदल अपने ग़म को छिपा लेती थी।


           लेकिन, आज सखी मालती का इस उम्र में भी निखरा हुआ रूप और कल सोनू का कठोर व्यवहार देख वह टूट चुकी थी। उसकी आँखें छलछला उठीं । हर दुःख को अपने भीतर समेट लेने वाली आकाँक्षा अब अपने मन को बिल्कुल नहीं बांध पा रही थी। उसका विकल हृदय सवाल कर रहा  था - "  बताओ आकाँक्षा , इस परिवार में बहन, ननद अथवा बुआ जैसा सम्मान क्या सचमुच तुम्हें मिल रहा है ?  यहाँ तुम्हारी अपनी भी कोई खुशी है? तुम्हारे श्रम बिंदु क्या कभी इस घर में मुसकाये हैं ? बोलो आकाँक्षा बोलो इस मरघट में क्या कहीं तुम्हारा भी ख़ुद का कोई रेशमी महल है ? क्या तुम्हारी कोई आकाँक्षा नहीं है  ? क्या तुम अपने ही घर में एक नौकरानी नहीं हो ? "

   " बस- बस , अब कुछ न बोलो निर्दयी ! "   -चींख उठी थी आकाँक्षा।

     जिस घर में उसने जीवन के पचास वर्ष गुजारे, वह अपना नहीं है । यहाँ खून के रिश्ते में कितना स्वार्थ छिपा है, इस सत्य को वह और नहीं नकार सकती थी । उसे यह बोध हो गया था कि उसके दुर्बल शरीर पर जिस दिन बुढ़ापे का जंग चढ़ जाएगा , दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकी जाएगी। यहाँ निखालिस ख़ालिस  कुछ भी नहीं है। अपनो का यह रिश्ता भी नहीं। वह तो स़िर्फ एक सेविका है सेविका !!


       " काश !  मैं तुम्हारी बात मान लेती तृप्त , तो आज मैं गृहस्वामी होती, अर्धांगिनी होती और जननी भी होती..।"

  - जीवन रस से अतृप्त रह गयी आकाँक्षा फूट-फूट कर रो पड़ी थी ।

              - व्याकुल पथिक

Wednesday 1 April 2020

भूख

                   

                      भूख

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      इस वीडियो पर भी चिंतन करें
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    कल्लू ने पूरा इलाका छान मारा था। बचा-खुचा  भोजन भी किसी बंगले के बाहर नहीं मिला ।कूड़ेदानों में मुँह मारा, वह भी खाली। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इंसानों ने उन जैसे घुमंतू पशुओं के पेट को लॉक करने की यह कौन सी नयी तरक़ीब निकाली है। उसकी आँतें कुलबुला रही थींं। सप्ताह भर तो बिना भोजन के गुजर गये, अब क्या प्राण ले कर छोड़ेगा इक्कीस दिनों का यह लॉकडाउन। 
     
  कल्लू मुहल्ले का सबसे समझदार कुत्ता था। रात्रि में चौकीदार रामू ड्यूटी पर हो न हो, लेकिन उसकी वफ़ादारी में कभी कोई कमी नहीं रही। तनिक भी आहट हुई नहीं कि मैदान में आ डटता था। 
   अब इस संकटकाल में मनुष्यों ने अपने पेट पूजा की व्यवस्था तो कर ली है। समाजसेवियों के सहयोग से प्रशासन उनके लिए ख़ूब लंच पैकेट बाँट रहा है, किन्तु उन जैसे सड़कों पर विचरण करने वाले मूक प्राणियों की भला कौन सुधि लेता ? उनकी इस स्थिति पर किसी का दिल नहीं पसीजा , क्योंकि वे सभी तो इस सृष्टि के अभिशापित जीव हैं।  इस पृथ्वी पर अपना साम्राज्य स्थापित करने वाले मनुष्य ने उनका हर प्रकार से शोषण किया है। परंतु  विडंबना यह है कि प्रकृति संग जब भी मानव का संघर्ष हुआ है , उसके कर्मों का दण्ड उन निरीह प्राणियों को उनसे कहीं अधिक सहना पड़ता है । 
    भूख से बेहाल कल्लू प्रश्न करता है -  " हे ईश्वर ! यह कैसी निष्ठुरता है। हमने तो कभी भी तेरी रत्नगर्भा का दोहन नहीं किया। ठगी, चोरी और जमख़ोरी नहीं की। असत्य भी नहीं बोला । कर्म से पीछे नहीं हटा, फ़िर ऐसी सज़ा क्यों ? "

    तभी उसकी दृष्टि ललकी पर पड़ती है। बेचारी चलने में भी असमर्थ दिख रही थी। 
  "अरी बहन ! तुझे क्या हो गया है ? कितनी दुर्बल हो गयी है तू ? " 
   ललकी पर तरस खाते हुये कल्लू  अपना दर्द भूल गया ।
    " मेरे भाई क्या बताऊँ ? मनुष्य का स्वभाव तो तुम जानते ही हो। जबतक उसका स्वार्थ था , मैं  गौमाता थी। अब इस बूढ़ी गाय के थन में दूध कहाँ ?  फ़िर वह क्यों देगा मुझे चारा-पानी ?"

   - यह कहते हुये ललकी की आँखों से आँसू बह चले थे।

     काश ! कोई कसाई ही उसे पकड़ ले जाए। पिछले सात दिनों से वह खाली पड़ी इस फल और सब्जी मंडी का चक्कर काट रही है ,फ़िर भी खाने को कुछ नहीं मिला है । कैसे इक्कीस दिनों तक वह भूख से संघर्ष करेगी ? ललकी को कुछ भी नहीं सूझ रहा था।

   वह पूछ रही थी -  "  वाह प्रभु ! कहने को मेरे में तैतीस करोड़ देवी-देवताओं का निवास है। 
 पवित्र कार्यों में मेरे दूध की ही नहीं, गोबर और मूत्र तक की उपयोगिता है। परंतु क्या यह न्यायसंगत  है कि मंदिर का कपाट बंद होने पर भी मनुष्यों ने तुम्हारे लिये भोग-प्रसाद की व्यवस्था कर रखी है और हमें मुट्ठी भर भूसा भी नहीं । क्या मैंने भी  तुम्हारी वसुंधरा को पीड़ा दी है ? "
     
   दोनों का वार्तालाप सुन रही मुनमुन बंदरिया का दर्द भी छलक उठता है।  

  " अरी मुनमुन बहना !  तुझे क्या हुआ  ? इस लॉकडाउन में तेरा तो रंग चोखा होगा। छलांग मारी नहीं की भोजन हाज़िर। तुम तो हम दोनों की तरह भोजन नहीं तलाशती होगी न ? "

   - नटखट मुनमुन को गुमसुम देख आश्चर्यचकित हो ललकी और कल्लू एक साथ  पूछ बैठते हैं।

  " क्यों भाई ,इस विपत्ति में मैं ही मिली हूँ, उपहास के लिए ? "
     बीच में ही उनकी बात काटते हुये मुनमुन सुबकने लगी । 

    "  गलती हो गयी बहन ! अच्छा चल अब तू भी अपने दिल का दर्द हल्का कर ले । क्या इन मनुष्यों ने तुझे भी प्रताड़ित किया है। " 

   - कल्लू ने सहानुभूति प्रदर्शित करते हुये कहा । 

 " तो सुनो भैया !  इस कंक्रीट के शहर में कितने वृक्ष तुम्हें दिख रहे हैं ?  सच-सच बताना । हनुमान जी पर तो रावण ने अशोक वाटिका उजाड़ने का आरोप लगाया था और यहाँ इन  मनुष्यों ने अनगिनत उपवन उजाड़ दिये । हमारा भोजन छीन लिया और अब  इस लॉकडाउन में सज़ा हम निर्दोष जीव भुगतें ! यह अन्याय नहीं तो और क्या है ?  "

   इनकी वार्तालाप चल ही रही थी कि सामने से गुजर रहे भोंदू गदहे पर उनकी नज़र पड़ गयी। बेचारा भूख से बेहाल , ऊपर से पीठ पर दो नौजवान सवार । उसकी टाँगें लड़खड़ा रही थीं।बस अब गिरा की तब गिरा , भोंदू का तो कुछ ऐसा ही हाल था।  इन युवकों ने लॉकडाउन का उलंघन किया , तो पुलिस ने उन्हें गदहे पर  बैठा दिया था। 

 " लो देख लो कल्लू भाई ! इंसानों को मिला यह दण्ड भी अब हम जानवर भुगते , हमपर यह कैसा अत्याचार है ? "

   ललकी और मुनमुन को सृष्टि का यह रहस्य बिल्कुल भी  समझ नहीं आ रहा था कि तभी बुद्धिमान कल्लू जोर से ताली मारता है--

     " ओह ! समझ गया - समझ गया ..बहन ! यह अन्याय नहीं, यही ईश्वरीय न्याय है। तभी तो महात्मा जी अपने भक्तों से कहा करते थे -

   " समरथ को नहीं दोष गुसाईं। "

     उनकी जिज्ञासा को विराम मिलता है और तीनों पुनः भोजन की तलाश में निकल पड़ते हैं। 
      
              ---  व्याकुल पथिक