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Sunday 25 November 2018

रूमानी महफ़िल में नफरतों के ये सौदागर !

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अपने दर्द के साथ ही उन पत्थरों की पीड़ा भी समझ सकता हूँ। जो  सुन्दर मूर्ति,  भवन और इबादतगाह बनने की जगह पत्थरदिल इंसानों के हाथ के खिलौने बन गये।  पत्थरबाजी से हुई हिंसा के कारक बन गये।
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रूमानी महफ़िल की क्या बात करूँ
नफरत के सौदागर संगीन लिये खड़े हैं
जो अपने घरों को देवालय बना न सकें
वे जुबां पर खुदा का पैगाम लिये खड़े हैं
 बोलों हम क्यों  राम-रहीम के इस वतन में
 फिर सियासत का यह जाम लिये खड़े हैं
 इस जग में पल भर तो मुस्कुरा लेने दो
 ये मरघट भी कफन तैयार लिये खड़े हैं ..
 
       कोई रचना नहीं, मेरे विकल हृदय का एक भाव है यह। जिस शख्स के जीवन की किताबों में रूमानी लम्हें एक ख्वाब बन कर रह गया है। परिस्थिति और पेशे ने जिस इंसान को तन्हाइयों भरी रात के अतिरिक्त कुछ न दिया। उसे जीवन जीने की कला सिखाने वाले तो अनेक मिले, परंतु साथ निभाने वाला कोई न मिला। खैर , ऐसे जख्मों ने मुझे कुछ सम्वेदनाएँ अवश्य तोहफे में दिये हैं। सो , अपने दर्द के साथ ही उन पत्थरों की पीड़ा भी समझ सकता हूँ। जो  सुन्दर मूर्ति,  भवन और इबादतगाह बनने की जगह पत्थरदिल इंसानों के हाथ के खिलौने बन गये।  पत्थरबाजी से हुई हिंसा के कारक बन गये।
    अपने शांतिप्रिय इस शहर में पिछले दिनों ऐसा कुछ घटित हो गया , जिसकी कल्पना किसी को नहीं थी। सहमे -सहमे से लोग, खाकी वालों की तिरछी निगाहें और अफवाहों का गर्म बाजार, बस  हर कोई यही पूछ रहा था कि माहौल ठीक है न ..?  अजीब सा जहर यहाँ के वातावरण में मामूली विवाद को लेकर घोल दिया गया।  हर शख्स यही कहते मिल रहा है कि ऐसा कैसे हो गया अपने शहर में..!
    इस उपद्रव को दंगा तो नहीं ही कहूँगा, लेकिन फिर भी चंद खुराफाती लोगों द्वारा नफरत की एक दीवार खड़ी कर ही दी गयी है। मन भारी मेरा भी रहा  ,यह सब देखकर और झुंझलाहट भी हो रही थी , सेलफोन की घंटी बार- बार जो बज रही थी। पढ़े लिखे लोग भी अनपढ़ों सा पूछ रहे थें कि शशि भैया  तीन लोग मारे गये क्या ? फलां जगह कर्फ्यू लग गया क्या आदि-- आदि ?
     जश्न भरे ईद-ए-मिलाद उन-नबी जुलूस के दौरान अपने शहर जिस तरह से उपद्रव हुआ , जगह - जगह पत्थरबाजी हुई। जिसमें इंसान से कहीं अधिक इंसानियत घायल हुयी है ।  अब हम कैसे यह कहेंगे कि हमारे मीरजापुर/ मिर्जापुर की पहचान यहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब से है। विंध्यवासिनी धाम और कंतित शरीफ मजार से है।
    इस उज्जवल चाँद पर एक कालिमा तो छा ही गयी है। सो,  हर उस सम्वेदनशील इंसान का हृदय आहत है, जो स्वयं को " मानव " कहलाने के लिये तप कर रहा है , अपने कर्मपथ पर..। जो बड़े  फ़क्र के साथ कहता रहा कि उसका शहर कौमी एकता का मिशाल रहा है।
    अब इस जख्म पर मरहम- पट्टी करने का प्रयास हो रहा है। सच फिर भी यही  है कि उपचार चाहे जो भी हो , यह काला दिवस इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो गया है। अब हम अपने बच्चों से यह कैसे कहेंगे की इस शहर के भाईचारे को हमने अपनी मोहब्बत से संजोया है, जिसे तुम गंवा न देना।

     वैसे तो पूर्व के वर्षों में भी दो पक्ष  आमने-सामने हुये हैं , लेकिन उसका प्रभाव एक छोटे से इलाके में रहा । किसी के पर्व - त्योहार को बदरंग आपसी विवाद में कभी नहीं होने दिया गया था। लेकिन, बारावफात के पूर्व संध्या पर नगर के सबसे सम्वेदनशील क्षेत्रों में से एक गुड़हट्टी में उत्साहपूर्ण वातावरण में निकले धर्म ध्वजा शोभायात्रा के दौरान ध्वज से बारावफात का सजावटी झालर क्या टूटा ,अपने शहर की यह पहचान भी क्षत-विक्षत आखिर हो ही गयी।
    ऐसे लोग जिन्होंने यहाँ के आपसी सौहार्द को बीते दशकों में जब प्रदेश साम्प्रदायिक दंगे से जल उठा था, तब भी सम्हाले रखा था , आज उनका हृदय आहत है। हालांकि यहाँ के वासिंदों की रगों में अभी वह नफरत का जहर नहीं घुला है। सो, स्थिति दो दिनों के बवाल के बावजूद तेजी से सामान्य हो गयी , फिर भी यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना सवाल छोड़ गयी..

कुदरत ने तो बनाई थी एक ही दुनिया
हमने उसे हिन्दू और मुसलमान बनाया
तू सबके लिये अमन का पैगाम बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा
तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा ..

   बनते तो हम सभी हैं ईश्वर-अल्लाह के बंदे, फिर मानव बनने की यह चाहत हममें निरंतर कम क्यों होती जा रही है। हम क्यों बवाली , मवाली और खुदगर्ज होते जा रहे हैं। युवा वर्ग का एक बड़ा तबका हिंसक पशुओं सा बर्ताव क्यों करने लगा है, जबकि ये सब पढ़े लिखे लड़के हैं। इन्हें इंसानियत का पैगाम बांटना चाहिए , पर  ढाई आखर प्रेम की जगह  चार अक्षर का नफरत ये ना मालूम कहाँ -किस पाठशाला से सीख आते हैं। विज्ञान अंतरिक्ष को नाप रहा है और हम है कि दिलों के फासले बढ़ाये जा रहे हैं।
   ढाई दशक से मैं इस शहर में हूँ  और  पत्रकार हूँ , तो स्वाभाविक है कि समाज के हर वर्ग से अपना भी दुआ - सलाम होता ही रहता है। हाशिम चाचा, कामरेड सलीम भाई,  रजी भैया , छोटे खान, अब्दुल्ला भैया , फिरोज भाई , चुन्ना भाई जुबां पर मेरे अनेकों नाम हैं ।  मजहब की कोई दीवार नहीं है यहाँ मेरे लिय..। सलीम भाई और उनकी धर्मपत्नी आमना जी को मुझे भोजन करा कर खुशी मिलती है, तो छोटे खान मेरे दुख- दर्द के साथी हैं।
      मैं खुद को वैसे भी जाति व मजहब की सीमारेखा के बाहर ही रखता हूँ। खुले दिल से इस दुनिया को राम- राम कहता हूँ। बंधुओं मेरा जो यह राम है न वह कोई और नहीं मेरा अपना ही कर्म है। मैं मानता हूँ कि हम सभी नियति के हाथ के कठपुतली हैं, फिर भी प्रधानता कर्म की ही है। अपने शहर के अमन चैन में जो खलल पड़ी ,वह हमारे ही बुरेकर्म का प्रभाव है। गत मंगलवार और बुधवार की हिंसक घटनाओं के बाद  कोतवाली में शांतिदूत बनने की कवायद भी शुरु हुई, पर जो होना था, वह तो हो ही गया न !
    इन घटनाओं के बाद एक खौफ मेरे मन में भी अगले दिन सुबह साढ़े चार बजे होटल से निकलते वक्त था कि सम्वेदनशील क्षेत्रों में जाना कितना उचित रहेगा। परंतु मैं उस चौराहे पर खड़ा हूँ कि वापस मुसाफिरखाने पहुँचूं या फिर अनंत में समा जाऊँ ,क्या फर्क पड़ता है। सो , साइकिल की गति बढ़ा दी। ऐसा सियापा इस शहर में पहले कभी नहीं देखा था। बारावफात को हुई पत्थरबाजी के कारण अगले दिन सुबह सड़कों पर पसरे सन्नाटे को चीरती मेरी साइकिल हर उस क्षेत्र से गुजरी , जो अति सम्वेदनशील इलाके के दायरे में था। इन स्थानों पर पहली बार चाय-पान की दुकानों को बंद पाया। प्रातः भ्रमण करने वाले भी नहीं नजर आये और न ही विक्षिप्तों और कबाड़ बटोरने वालों की टोली ही। मुझे आश्चर्य तो तब हुआ , जब सड़कों पर आपस में झगड़ने वाले आवारा कुत्ते तक मौनव्रत किये नजर आये। हाँ , खाकी वालों के बूटों  की धमक जरुर सुनाई पड़ रही थी।  खैर, अपना दैनिक कार्य पूरा करने के दौरान इस व्याकुल मन को तनिक राहत तब मिली ,जब वैसी हिंसक उड़ती घूरती हुई सुर्ख आँखें कहीं नहीं दिखी इस शहर में , जैसा बचपन में दंगा फसाद के दौरान बनारस में देखा करता था। हमारा घर भी सम्वेदनशील क्षेत्र के करीब ही था। मोहर्रम जुलूस और दुर्गा प्रतिमा विसर्जन शोभायात्रा के दिन हम सभी के हृदय की धुकधुकी तेज हो जाया करती थी।   फूटहे हनुमान जी मंदिर के समीप रखा ताजिया जैसे ही धार्मिक नारों के साथ उठता था, दोनों उपासना स्थलों के मध्य यदि मोटे बांस- बल्लियों से घेराबन्दी न हो तो विवाद का बढ़ना तय था। बनारसीपन को लहूलुहान होते मैंने अनेकों बार देखा है। पूरी रात उत्तेजक धार्मिक नारों से घबड़ाया मेरा पूरा परिवार कभी छत पर भागता था, तो कभी नीचे दरवाजे की कुंडी टटोलने मम्मी जाया करती थीं। जबकि मेरा घर उस मानव निर्मित सीमारेखा से कुछ दूर था। आप समझ लें जो इस मजहबी बार्डर पर होंगे उनपर क्या गुजराती है। भले ही दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता, फिर भी उपद्रव के दौरान भीड़ दो भागों में बट जाती है। नाम पूछ-पूछ कर कत्ल होता है। हम इंसान नहीं हैवान हो जाते हैं। अबकि अपने मीरजापुर में भी उन्मादी युवकों ने नाम पूछ कर मारपीट की है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।
  अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने साम्प्रदायिक हिंसा रोकने के लिये हर सम्भव प्रयत्न किया। वे स्वयं एक हिंसक पशु मानव की गोली के शिकार हो गये। उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर हमारे रहनुमा उनकी समाधि स्थल पर जाकर  पुष्प अर्पित करते हैं, परंतु उनकी  इस भावना -

अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम
 सबको सन्मति दे भगवान..

का कितना हम सम्मान करते है, क्या कहूँ और बस यही-

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारों..

शशि