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Thursday 29 November 2018

इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने ..



    हिप्पी कट बाल के कारण तब वह हैप्पी मिट्ठू कहलाता था, अब समय के दर्पण में स्वयं को भी न पहचान पाता है। पता नहीं इस नियति को और क्या मंजूर हो , कल इन्हीं में से एक चेहरा अपना भी न हो।
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ऐ 'आद' और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
 उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहा हमने
जुस्तजू जिसकी थी उस को तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने ..

      कुछ ऐसे ही गीत जिनमें मेरा अपना भी दर्द बोल रहा है , उसकी दुनिया से निकल जब भोर के अंधकार में ठंड भरे चौराहे पर सिकुड़ते वदन को थोड़ा झटकता हूँ, तो अतृप्त मन की गति पर जीवन का यह संघर्ष फिर से भारी पड़ने लगता है। साइकिल की रफ्तार से इस शरीर को गर्माहट मिलती है । अवसाद के बादल छटने लगते हैं कि अकेले मैं ही नहीं कोई तन्हा हूँ , हमारे जैसे कितने ही एकाकी लोग हैं इस धरती पर ..।  शारीर में सामर्थ्य है दो जून की रोटी बना ली , नहीं तो रात गुजारने को ठंडा पानी है ही ..। हम जैसों को बातों से फुसलाने वाले अनेक हैं , पर इस दिल का दर्द कौन बांट पाता है । माँ और पत्नी के अतिरिक्त ऐसा कौन तीसरा रिश्ता है , जिसे भोजन पर हम जैसे मर्दों की प्रतीक्षा हो ..?
     मार्ग में प्रातः भ्रमण पर निकले प्रौढ़ दम्पति एक दूसरे का हाथ थामे यदा कदा दिख जाते हैं। मानों हर पल उनके लिये नवीन हो,इस गीत की तरह-

रोज हमें मिलके भी, मिलने की आस रहें
रोज मिटे प्यास कोई और कोई प्यास रहें
 दिल दीवाना पुकारा..
प्यार का दर्द है, मीठा मीठा, प्यारा प्यारा
ये हसीं दर्द ही, दो दिलों का है सहारा ..
   
     परंतु नियति द्वारा रचित इस रंगमंच पर हमारे जैसे कठपुतली भी तो हैं न और वे भी हैं , कभी जिनका बड़ा रुतबा था , आज सड़कों पर भिक्षुक से पड़े हैं।  इनमें भी जो स्वाभिमानी है , उन्हें  हाथ पसारना तब तक स्वीकार नहीं है, जब तक कि खाट पर अपाहिजों सा न पड़े हो। ऐसी कोई उचित व्यवस्था और स्थान( वृद्धाश्रम) हमारे यहाँ नहींं है , जो शारिरिक रुप से असमर्थ ऐसे लोगों के जीवन में आनंद घोल सके। कहने को सभी अपने है,पर मिलता परायापन ही है। दोनों पांव से अपाहिज बाबा के आखिरी दिन कैसे और कहाँ गुजरे होंगे। उस स्थिति को याद कर मन बार - बार भर जाता है।
   मुसाफिरखाने की तन्हाई मुझे वह सबक सिखला रही है , जिससे मैं जिन्दगी को और करीब से समझ पा रहा हूँ।
      पिछले ही दिनों सुबह  की बात है,साइकिल से रोजाना की तरह  ही अखबार लिये नगर का परिक्रमा कर रहा था कि निगाहें एक वृद्ध रिक्शा चालक और उस पर सवार वृद्ध व्यक्ति पर चली गयी,जो अपने गुजरे हुये दिनों पर बोझिल मन से सम्वाद कर रहे थें।
    रिक्शेवाला कह रहा था कि  बाबू जी , अब नहीं चला सकता,  कोई और कम श्रम वाला काम धंधा हो तो बताएँ न..। सचमुच उसके पांव रिक्शे के पैंडल पर कांप रहे थें , फिर भी पेट की आग सब कराती है । उधर, रिक्शे पर सवार बाबू जी भी व्याकुल पथिक से ही दिखें। अतः वे उस रिक्शेवाले को अपने पुराने समृद्ध कारोबार की दास्तान सुना रहे थें ,यूँ भी कह लें कि अपनी स्मृतियों की दुनिया में जा गुजरे हुये दिनों की खुशबू का एहसास खुद भी कर रहे थें । मेरी भी अभिरुचि इन दोनों वृद्ध जनों की रोचक परंतु मार्मिक वार्ता पर थी,
  क्यों कि मैंने कोलकाता में  वैभवपूर्ण जीवन भी देखा है , तो वाराणसी और मीरजापुर में किसी दुकान की पटरी या फिर रेलवे स्टेशन पर भी रातें गुजारी हैं, हृदय पर पत्थर रख कर। आज भी एक मुसाफिरखाना में बिल्कुल तन्हा ही पड़ा हूँ । जीवन के इस पड़ाव पर आकर दुनियादारी का  सच क्या है यह मैं बखूबी पढ़ लिया है, वह यह है कि झूठे का बोलबाला और सच्चे का मुँह काला ।  मिलावट और बनावट करने वाले मालामाल है, यदि पकड़े भी गये कभी ,तो अपना  जुगाड़ है। वफाओं की सदाएँ कौन सुनता है, बेचारा यह दिल भी कितना नादान है।
     इस वृद्ध रिक्शेवाले को इस ठंड में चादर लपेटे सुबह रिक्शा खिंचते देख , समझ में नहीं आ रहा है मुझे कि उन ढेरों सरकारी कल्याणकारी योजनाओं को हम पत्रकार प्रतिदिन छापते हैं , अच्छे दिन आने वाले हैं का ढोल भी तो बीते लोकसभा चुनाव पूर्व से ही बज रहा है। वह कालाधन जिसे विदशों से वापस लाने की बात हो रही थी,वह फिर किस तिजोरी में जा फंसा। नियति ने जिन्हें इस राह पर ला खड़ा कर किया है कि हाथ पसारो या फिर भूखे मरो.. ।
     सोचे उस स्वाभिमानी इंसान पर क्या गुजरात होगा। छोटे शहरों में ऐसे लोगों के दर्द का एहसास बड़े लोगों को कहा होता है। अजीब सी हवा इंसानियत को लग गयी है। पहले लोग सराय,मंदिर, कुआँ, तालाब बनवाते थें और अब उनका वंशज कहलाने वाले भद्रजन अपने महान पूर्वजों के जन कल्याणकारी कार्यों से प्रेरित हो कुछ सेवा- सहयोग करना तो दूर स्वयं को ट्रस्टी बता उस दान की सम्पत्ति पर अधिकार जमाने के तिकड़म में लगे हैं। खैर, पिछले ही दोनों सलिल भैया ने तीन ऐसे ही पात्रों के संदर्भ में  मार्मिक शब्द चित्र प्रस्तुत किया था , जो पेशेवर भिक्षुक न होकर भी नियति के समक्ष घुटने टेक हाथ पसारने को विवश हैं।  विक्षिप्त से हो गये हैं , निष्ठुर दुनिया के रंग-रुप को देख कर । वक्त की मार का दर्द कितना भयावह होता है। इसका जीता-जागता उदाहरण नगर की सड़कों पर दिखाई पड़ता है ।
     नगर के मध्य त्रिमोहनी मुहल्ले में आनन्द यादव नामक 35 वर्ष का युवक समय के दुष्प्रभाव की चपेट में आ गया है । गऊघाट के अच्छे खासे परिवार के आनन्द के साथ क्या हुआ कि इन दिनों वह त्रिमोहनी पर दिन-रात दिखता है कुछ न कुछ बोलते हुए । लोग इसका जो भी अर्थ लगाते हों लेकिन आनन्द जो काम कर जा रहा है, वह अच्छे खासे पढ़े-लिखे और दिमागदार लोग नहीं कर पाते हैं ।  कुछ ही माह पहले त्रिमोहनी में गणेश-भैरो जी मन्दिर के पास बीचोबीच अंडग्राउंड पाइप लाइन फट गया । अंदर अंदर पानी बहने से बड़ा सा गड्ढा लो गया । लोग बाग एक दूसरे का मुंह ताकते रहे और आनन्द मिट्टी-गोबर से उसे पाट दिया । इसी के साथ त्रिमोहनी पर गाय के गोबर उठाने, हटाने, गन्दगी साफ करने का जैसे धुन ही सवार हो गया है उस पर । आनन्द को कभी किसी के आगे हाथ पसारे नहीं देखा जाता । अलबत्ता कुछ लोग जब खाद्य वस्तु अपनी गुणवत्ता खोने लगती हैं, उसमें बदबू आने लगती है, तब ऐसे लोगों को आनन्द के भूखे होने की याद आती है । इसी तरह से छेदी और मिट्ठू की भी दर्द भरी कहानी है।  लगभग 55-60 साल के पूर्णतया अशक्त छेदी पर अंतर्मन से सच्चे किसी समाजसेवी की नजर पड़ जाए तो उसका कुछ भला हो सकता है । देखने में लगता है कि छेदी पूर्णत: अनपढ़ हैं । लेकिन बात कुरेदने पर भाषा-बोली से ज्ञान का पुट झलकता है । छेदी से पूछा कि घर पर कौन है और किसने यह हालत बनाई तो रोने के बजाय छेदी मुस्कुराते हुए बोले-

पुरुष बली नहीं होत है,
     समय होत बलवान
भिल्लन लूटी गोपिका!
       वही अर्जुन वही बान..

इससे आगे छेदी को किसी से कोई शिकायत नहीं । छेदी का कहना है कि किसी ने जो दिया वह खा लिया । शरीर जवाब दे गया है । पक्काघाट पर लगभग 60 वर्ष के मिट्ठू भी कथरी-चटाई लेकर दाऊजीघाट के सामने एक मन्दिर के आगे खुले आसमान में जाड़ा-गर्मी-बरसात गुजारते हैं । अति शिक्षित- सभ्रांत परिवार का यह वही मिट्ठू है, जो युवा काल में अपने स्टाइलिश केश सज्जा के लिये मशहूर था। उसके प्रति भी दीवानगी तब कम न थी। हिप्पी कट बाल के कारण तब वह हैप्पी मिट्ठू कहलाता था, अब समय के दर्पण में स्वयं को भी न पहचान पाता है। पता नहीं इस नियति को और क्या मंजूर हो , कल इन्हीं में से एक चेहरा अपना भी न हो ।

इस भरी दुनिया में कोई भी हमारा न हुआ
ग़ैर तो ग़ैर हैं अपनों का सहारा न हुआ
लोग रो रो के भी इस दुनिया में जी लेते हैं
एक हम हैं कि हँसे भी तो गुज़ारा न हुआ ...

 इस दर्द से दुनियादारी सीख रहा हूँ , पर नहीं पता जीवन की बाजी जीत या हार रहा हूँ।



Sunday 25 November 2018

रूमानी महफ़िल में नफरतों के ये सौदागर !

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अपने दर्द के साथ ही उन पत्थरों की पीड़ा भी समझ सकता हूँ। जो  सुन्दर मूर्ति,  भवन और इबादतगाह बनने की जगह पत्थरदिल इंसानों के हाथ के खिलौने बन गये।  पत्थरबाजी से हुई हिंसा के कारक बन गये।
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रूमानी महफ़िल की क्या बात करूँ
नफरत के सौदागर संगीन लिये खड़े हैं
जो अपने घरों को देवालय बना न सकें
वे जुबां पर खुदा का पैगाम लिये खड़े हैं
 बोलों हम क्यों  राम-रहीम के इस वतन में
 फिर सियासत का यह जाम लिये खड़े हैं
 इस जग में पल भर तो मुस्कुरा लेने दो
 ये मरघट भी कफन तैयार लिये खड़े हैं ..
 
       कोई रचना नहीं, मेरे विकल हृदय का एक भाव है यह। जिस शख्स के जीवन की किताबों में रूमानी लम्हें एक ख्वाब बन कर रह गया है। परिस्थिति और पेशे ने जिस इंसान को तन्हाइयों भरी रात के अतिरिक्त कुछ न दिया। उसे जीवन जीने की कला सिखाने वाले तो अनेक मिले, परंतु साथ निभाने वाला कोई न मिला। खैर , ऐसे जख्मों ने मुझे कुछ सम्वेदनाएँ अवश्य तोहफे में दिये हैं। सो , अपने दर्द के साथ ही उन पत्थरों की पीड़ा भी समझ सकता हूँ। जो  सुन्दर मूर्ति,  भवन और इबादतगाह बनने की जगह पत्थरदिल इंसानों के हाथ के खिलौने बन गये।  पत्थरबाजी से हुई हिंसा के कारक बन गये।
    अपने शांतिप्रिय इस शहर में पिछले दिनों ऐसा कुछ घटित हो गया , जिसकी कल्पना किसी को नहीं थी। सहमे -सहमे से लोग, खाकी वालों की तिरछी निगाहें और अफवाहों का गर्म बाजार, बस  हर कोई यही पूछ रहा था कि माहौल ठीक है न ..?  अजीब सा जहर यहाँ के वातावरण में मामूली विवाद को लेकर घोल दिया गया।  हर शख्स यही कहते मिल रहा है कि ऐसा कैसे हो गया अपने शहर में..!
    इस उपद्रव को दंगा तो नहीं ही कहूँगा, लेकिन फिर भी चंद खुराफाती लोगों द्वारा नफरत की एक दीवार खड़ी कर ही दी गयी है। मन भारी मेरा भी रहा  ,यह सब देखकर और झुंझलाहट भी हो रही थी , सेलफोन की घंटी बार- बार जो बज रही थी। पढ़े लिखे लोग भी अनपढ़ों सा पूछ रहे थें कि शशि भैया  तीन लोग मारे गये क्या ? फलां जगह कर्फ्यू लग गया क्या आदि-- आदि ?
     जश्न भरे ईद-ए-मिलाद उन-नबी जुलूस के दौरान अपने शहर जिस तरह से उपद्रव हुआ , जगह - जगह पत्थरबाजी हुई। जिसमें इंसान से कहीं अधिक इंसानियत घायल हुयी है ।  अब हम कैसे यह कहेंगे कि हमारे मीरजापुर/ मिर्जापुर की पहचान यहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब से है। विंध्यवासिनी धाम और कंतित शरीफ मजार से है।
    इस उज्जवल चाँद पर एक कालिमा तो छा ही गयी है। सो,  हर उस सम्वेदनशील इंसान का हृदय आहत है, जो स्वयं को " मानव " कहलाने के लिये तप कर रहा है , अपने कर्मपथ पर..। जो बड़े  फ़क्र के साथ कहता रहा कि उसका शहर कौमी एकता का मिशाल रहा है।
    अब इस जख्म पर मरहम- पट्टी करने का प्रयास हो रहा है। सच फिर भी यही  है कि उपचार चाहे जो भी हो , यह काला दिवस इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो गया है। अब हम अपने बच्चों से यह कैसे कहेंगे की इस शहर के भाईचारे को हमने अपनी मोहब्बत से संजोया है, जिसे तुम गंवा न देना।

     वैसे तो पूर्व के वर्षों में भी दो पक्ष  आमने-सामने हुये हैं , लेकिन उसका प्रभाव एक छोटे से इलाके में रहा । किसी के पर्व - त्योहार को बदरंग आपसी विवाद में कभी नहीं होने दिया गया था। लेकिन, बारावफात के पूर्व संध्या पर नगर के सबसे सम्वेदनशील क्षेत्रों में से एक गुड़हट्टी में उत्साहपूर्ण वातावरण में निकले धर्म ध्वजा शोभायात्रा के दौरान ध्वज से बारावफात का सजावटी झालर क्या टूटा ,अपने शहर की यह पहचान भी क्षत-विक्षत आखिर हो ही गयी।
    ऐसे लोग जिन्होंने यहाँ के आपसी सौहार्द को बीते दशकों में जब प्रदेश साम्प्रदायिक दंगे से जल उठा था, तब भी सम्हाले रखा था , आज उनका हृदय आहत है। हालांकि यहाँ के वासिंदों की रगों में अभी वह नफरत का जहर नहीं घुला है। सो, स्थिति दो दिनों के बवाल के बावजूद तेजी से सामान्य हो गयी , फिर भी यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना सवाल छोड़ गयी..

कुदरत ने तो बनाई थी एक ही दुनिया
हमने उसे हिन्दू और मुसलमान बनाया
तू सबके लिये अमन का पैगाम बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा
तू हिन्दू बनेगा ना मुसलमान बनेगा ..

   बनते तो हम सभी हैं ईश्वर-अल्लाह के बंदे, फिर मानव बनने की यह चाहत हममें निरंतर कम क्यों होती जा रही है। हम क्यों बवाली , मवाली और खुदगर्ज होते जा रहे हैं। युवा वर्ग का एक बड़ा तबका हिंसक पशुओं सा बर्ताव क्यों करने लगा है, जबकि ये सब पढ़े लिखे लड़के हैं। इन्हें इंसानियत का पैगाम बांटना चाहिए , पर  ढाई आखर प्रेम की जगह  चार अक्षर का नफरत ये ना मालूम कहाँ -किस पाठशाला से सीख आते हैं। विज्ञान अंतरिक्ष को नाप रहा है और हम है कि दिलों के फासले बढ़ाये जा रहे हैं।
   ढाई दशक से मैं इस शहर में हूँ  और  पत्रकार हूँ , तो स्वाभाविक है कि समाज के हर वर्ग से अपना भी दुआ - सलाम होता ही रहता है। हाशिम चाचा, कामरेड सलीम भाई,  रजी भैया , छोटे खान, अब्दुल्ला भैया , फिरोज भाई , चुन्ना भाई जुबां पर मेरे अनेकों नाम हैं ।  मजहब की कोई दीवार नहीं है यहाँ मेरे लिय..। सलीम भाई और उनकी धर्मपत्नी आमना जी को मुझे भोजन करा कर खुशी मिलती है, तो छोटे खान मेरे दुख- दर्द के साथी हैं।
      मैं खुद को वैसे भी जाति व मजहब की सीमारेखा के बाहर ही रखता हूँ। खुले दिल से इस दुनिया को राम- राम कहता हूँ। बंधुओं मेरा जो यह राम है न वह कोई और नहीं मेरा अपना ही कर्म है। मैं मानता हूँ कि हम सभी नियति के हाथ के कठपुतली हैं, फिर भी प्रधानता कर्म की ही है। अपने शहर के अमन चैन में जो खलल पड़ी ,वह हमारे ही बुरेकर्म का प्रभाव है। गत मंगलवार और बुधवार की हिंसक घटनाओं के बाद  कोतवाली में शांतिदूत बनने की कवायद भी शुरु हुई, पर जो होना था, वह तो हो ही गया न !
    इन घटनाओं के बाद एक खौफ मेरे मन में भी अगले दिन सुबह साढ़े चार बजे होटल से निकलते वक्त था कि सम्वेदनशील क्षेत्रों में जाना कितना उचित रहेगा। परंतु मैं उस चौराहे पर खड़ा हूँ कि वापस मुसाफिरखाने पहुँचूं या फिर अनंत में समा जाऊँ ,क्या फर्क पड़ता है। सो , साइकिल की गति बढ़ा दी। ऐसा सियापा इस शहर में पहले कभी नहीं देखा था। बारावफात को हुई पत्थरबाजी के कारण अगले दिन सुबह सड़कों पर पसरे सन्नाटे को चीरती मेरी साइकिल हर उस क्षेत्र से गुजरी , जो अति सम्वेदनशील इलाके के दायरे में था। इन स्थानों पर पहली बार चाय-पान की दुकानों को बंद पाया। प्रातः भ्रमण करने वाले भी नहीं नजर आये और न ही विक्षिप्तों और कबाड़ बटोरने वालों की टोली ही। मुझे आश्चर्य तो तब हुआ , जब सड़कों पर आपस में झगड़ने वाले आवारा कुत्ते तक मौनव्रत किये नजर आये। हाँ , खाकी वालों के बूटों  की धमक जरुर सुनाई पड़ रही थी।  खैर, अपना दैनिक कार्य पूरा करने के दौरान इस व्याकुल मन को तनिक राहत तब मिली ,जब वैसी हिंसक उड़ती घूरती हुई सुर्ख आँखें कहीं नहीं दिखी इस शहर में , जैसा बचपन में दंगा फसाद के दौरान बनारस में देखा करता था। हमारा घर भी सम्वेदनशील क्षेत्र के करीब ही था। मोहर्रम जुलूस और दुर्गा प्रतिमा विसर्जन शोभायात्रा के दिन हम सभी के हृदय की धुकधुकी तेज हो जाया करती थी।   फूटहे हनुमान जी मंदिर के समीप रखा ताजिया जैसे ही धार्मिक नारों के साथ उठता था, दोनों उपासना स्थलों के मध्य यदि मोटे बांस- बल्लियों से घेराबन्दी न हो तो विवाद का बढ़ना तय था। बनारसीपन को लहूलुहान होते मैंने अनेकों बार देखा है। पूरी रात उत्तेजक धार्मिक नारों से घबड़ाया मेरा पूरा परिवार कभी छत पर भागता था, तो कभी नीचे दरवाजे की कुंडी टटोलने मम्मी जाया करती थीं। जबकि मेरा घर उस मानव निर्मित सीमारेखा से कुछ दूर था। आप समझ लें जो इस मजहबी बार्डर पर होंगे उनपर क्या गुजराती है। भले ही दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता, फिर भी उपद्रव के दौरान भीड़ दो भागों में बट जाती है। नाम पूछ-पूछ कर कत्ल होता है। हम इंसान नहीं हैवान हो जाते हैं। अबकि अपने मीरजापुर में भी उन्मादी युवकों ने नाम पूछ कर मारपीट की है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।
  अहिंसा के पुजारी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने साम्प्रदायिक हिंसा रोकने के लिये हर सम्भव प्रयत्न किया। वे स्वयं एक हिंसक पशु मानव की गोली के शिकार हो गये। उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर हमारे रहनुमा उनकी समाधि स्थल पर जाकर  पुष्प अर्पित करते हैं, परंतु उनकी  इस भावना -

अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम
 सबको सन्मति दे भगवान..

का कितना हम सम्मान करते है, क्या कहूँ और बस यही-

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारों..

शशि

Sunday 18 November 2018

ये ज़िद छोड़ो, यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है ..

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ये जीवन है इस जीवन का
यही है, यही है, यही है रंग रूप
थोड़े ग़म हैं, थोड़ी खुशियाँ
 यही है, यही है, यही है छाँव धूप
ये ना सोचो इसमें अपनी हार है कि जीत है
उसे अपना लो जो भी जीवन की रीत है
 ये ज़िद छोड़ो, यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है ..

      तन्हाई भरी ये रातें कुछ ऐसे ही गीतों के सहारे यूँ ही कटती जा रही है मेरी ।  हाँ, सुबह जब करीब साढ़े चार बजे  होटल का मुख्य द्वार खोलता हूँ, तो फिर से दुनिया के तमाम रंग-ढंग, शोर-शराबा और निर्धन वर्ग का जीवन -संघर्ष  मुझे स्मृतियों के संसार से बाहर निकाल सच का आइना दिखलाता है।  यूँ कहूँ कि जो कालिमा रात्रि में मेरे मन - मस्तिष्क पर अवसाद सी छायी रहती है, उसको स्वच्छ करने के लिये ही  भोर के अधंकार में उजाले की तलाश किया करता हूँ प्रतिदिन। मित्र मंडली का कहना है कि इस ठंड में यह तुम्हें हो क्या गया है, क्यों अनावश्यक शरीर को कष्ट दे रहे हो। धन की जब तुम्हें आवश्यकता नहीं , कोई पारिवारिक जिम्मेदारी है नहीं , फिर फकीरी में मन लगाओं , छोड़ो यह अखबार और पत्रकारिता ..?
  पर वे मेरी मनोस्थिति नहीं समझते कि जब स्मृतियों के  साथ ही सहानुभूति और सम्मान की गठरी भारी होने लगे , तो   उस दर्द एवं अहंकार से मुक्ति का एक आसान मार्ग है , विपरीत परिस्थितियों में औरों को संघर्ष करते देखना । देखें न इन खुले आसमान के नीचे  रात गुजारने वालों को क्या ठंड नहीं लगती किस तरह से किसी दुकान के चौखट पर सोये पड़े हैं , एक पुराना कंबल या चादर लपेटे हुये । घुटने सीने से आ चिपके हैं, तनिक गर्माहट की आश में..। दुष्यन्त कुमार की कविता की ये पक्तियाँ भी क्या खूब है-

ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आप को धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती है कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ...

   कबाड़ बिनने वाले बच्चों ने भी स्वेटर नहीं पहन रखी है। हाँ , मॉर्निंग वॉक करने वाले सम्पन्न लोग जरूर ठंडे में भी गर्मी का एहसास करवाने वाले ट्रैक सूट व जर्सी में दिखने लगे हैं। ऐसे ही हमारे कुछ मित्रों को जो सरकारी सेवा में हैं या फिर बाप- दादा के खजाने के स्वामी हो राजनीति कर रहे हैं, उन्हें अभी गरीब कौन , यह समझ में नहीं आ रहा है। बंधु किसी दुकान पर काम करने वाले पढ़े लिखे उस व्यक्ति या फिर किसी निजी विद्यालय में कार्यरत उच्च शिक्षा प्राप्त उस अध्यापक के दिल को जरा टटोले तो सही आप , 5-6 हजार रुपये के पगार में वह कैसे अपना घर परिवार चला रहा है।         

      खैर  आज ब्लॉग का विषय मेरा यह है कि वे समाज सेवक जो अपने क्लबों में निर्धन -निर्बल वृद्ध स्त्री - पुरूषों को तमाशा बना कंबल वितरित करते हैं , वे यदि सचमुच समाजसेवी हैं , तो देर रात अपनी महंगी कार  में कुछ गर्म वस्त्र ले कर  अपने दरबे से बाहर निकलें और इस ठंड भरी रात में पात्र व्यक्ति की तलाश कर उसके वदन की कपकपी शांत करने का प्रयास करें, क्लबों में कंबल समारोह कब तक मनाते रहेंगे, कब बनेंगे हम इंसान..? हर धर्मशास्त्र चीख -चीख कर हमें सावधान करता है कि हम तो निमित्त मात्र हैं
, फिर क्यों दानदाता बन बैठते हैं, जबकि यही साश्वत सत्य है..

माटी चुन चुन महल बनाया
लोग कहे घर मेरा
ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन बसेरा
उड़ जा हंस अकेला..

   बात यदि सामाजिक कार्यों  और समाज की करूँ, तो मैं वर्ष 1994 में जब दो वक्त की रोटी की तलाश में वाराणसी से इस मीरजापुर जनपद में गांडीव समाचार पत्र लेकर आया था,  तो यहाँ के लोगों के लिये अपने समाज के लिये अजनबी ही था। वर्ष 1995 में जाह्नवी होटल में समाज का जो सामुहिक विवाह परिचय सम्मेलन था , उसमें तब कोई मुझे पहचान तक नहीं रहा था और इस वर्ष 2018 में गत शनिवार अक्षय नवमी के दिन मोदनसेन जयंती पर्व एवं सामुहिक विवाह कार्यक्रम पर इस वैश्य समाज के विशाल मंच पर मुझे स्थान मिला , सम्मान मिला और पहचान भी ।
  हजारों लोगों के मध्य केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल जी ने अपने सम्बोधन के दौरान जब समाज को सांसद निधि से 32 लाख रुपये की धनराशि से निर्मित होने वाले उत्सव भवन देने की बात कही ,तो उन्होंने मेरा नाम लेकर कहा कि शशि भाई कहाँ हैं,अब इसे पूर्ण करने का बाकी का कार्य देखें।
    मित्रों , समाज के सभी पदाधिकारी मुझसे स्नेह रखते हैं। परंतु मैंने स्वयं कभी भी मंच पर आगे आने का प्रयास नहीं किया। ऐसा बड़ा कोई कार्य जो अपने समाज के लिये मैंने नहीं किया है तन, मन और धन से , फिर भी आप सच्चे मन से यदि समाज के साथ हैं , उसके उत्थान के विषय में रुचि लेते हैं, तो याद रखें कि हजारों की भीड़ में छिपे होने के बावजूद भी आप चमकेंगे। फिर जुगाड़ तंत्र का मार्ग क्यों अपनाया जाए। वहाँ स्थायी पहचान नहीं है और यहाँ जब हम अपने दायित्व पर खरे उतरेंगे, तो समाज के हृदय में हमारे लिये सम्मान होता है। सो, अध्यक्ष विष्णुदास मोदनवाल , प्रांतीय उपाध्यक्ष मंगलदास मोदनवाल , उपाध्यक्ष एवं मीडिया प्रभारी घनश्यामदास मोदनवाल ,राष्ट्रीय मंत्री विंध्यवासिनी प्रसाद मोदनवाल, चौधरी कैलाश नाथ, राधेश्याम, ताड़केश्वर नाथ, त्रिजोगी प्रसाद, दिनेश कुमार एवं मनीष कुमार आदि पदाधिकारियों ने इस सफल कार्यक्रम का श्रेय मुझे देने का प्रयास किया, यह उनका बड़प्पन है। जो बात मुझे कहनी है फिर से वह यह है कि नियति चाहे कितना भी छल करे हमसे , परंतु हमारा कर्म हमें पहचान दिलाता है।
     आज दिन में जैसे ही घनश्याम भैया की दुकान पर चाय पीने के लिये खड़ा हुआ, ताड़केश्वर भाई जी सामने से देशी घी की कचौड़ी ले आये और अपना सेलफोन थमा कहा कि भाभी जी बात करना चाहती हैं, कल भी उनके अनुरोध पर मुझे एक कचौड़ी खानी ही पड़ी थी। यदि अन्नपूर्णा साक्षात सामने खड़ी हों, तो उनके दिये प्रसाद का यह कह तिरस्कार करना कि नहीं मैं तो रोटी ही खाता हूँ, मेरी अन्तरात्मा ने इसे स्वीकार नहीं किया। जिस माँ की मधुर स्मृति आज भी मुझे अपने बालपन की याद दिलाती रहती है, नारी जिसके स्नेह बिन मैं फकीरों सा ही हूँ एवं हर वैभव तुक्ष्य लगता है, उनके द्वारा जो भी खाद्य सामग्री मिले उसे अमृत तुल्य समझ कर ग्रहण करें हम , क्यों कि उसमें भी एक स्नेह छिपा होता है। जिसे मन की आँखों से ही देखा जा सकता है।
    मुझे स्मरण हो आया कि  सिद्धार्थ ने गौतम बुद्ध (ज्ञानप्राप्ति ) बनने से पूर्व अन्नपूर्णा  बन कर आयी एक स्त्री से खीर का पात्र स्वीकार किया था ।
    आज बस इतना ही , फिर मिलते हैं।

शशि/मो० नं०9415251928 , 7007144343, 9196140020
gandivmzp@ gmail.com


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (ये ज़िद छोड़ो,यूँ ना तोड़ो हर पल एक दर्पण है.. ) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Wednesday 14 November 2018

ठहर जाओ सुनो मेहमान हूँ मैं चंद रातों का ...


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    मेरे दिल से ना लो बदला ज़माने भर की बातों का

 ठहर जाओ सुनो मेहमान हूँ मैं चँद रातों का
चले जाना अभी से किस लिये मुह मोड़ जाते हो
खिलौना, जानकर तुम तो, मेरा दिल तोड़ जाते हो
मुझे इस, हाल में किसके सहारे छोड़ जाते हो खिलौना ...

    खिलौना फिल्म की यह गीत और यह मेहमान ( अतिथि ) शब्द मेरे जीवन की सबसे कड़वी अनुभूति  है, नियति भी है। अपने घर बनारस, मौसी के घर मुजफ्फरपुर, छोटे नाना के घर कलिम्पोंग और अब इस मीरजापुर में भी लम्बे समय तक चाहे-अनचाहे मेहमान जैसा ही तो रहा हूँ।
    यह दर्द तब और बढ़ जाता है, जब अपने ही घर में अनचाहे अतिथि की तरह व्यवहार होता है। मैंने अपनी दादी को उनके कमरे से ऊपर किचन की ओर जाने वाली सीढ़ी की तरफ नजर टिकाये देखा है , सुबह - शाम की चाय की चाह में , तुलापट्टी वाली दादी को उनके धनाढ्य भतीजे के कारखाने से सोनपापड़ी के चूरे बटोरने की चाहत लिये भी देखा है और मैं निठल्ला जब था, तो स्वयं भी उस भोजन की थाल को स्वीकार करने की मौन चाहत लिये रहता था घर पर , जिसकी सब्जी की कटोरी में सिर्फ आलू ही छोड़े जाते थें , तो पतली रोटियाँ गिनती के चार ही मिलती थीं । अब तो अनेक घरों में वृद्ध माँ - बाप भी अनचाहे अतिथि से हैं। कैसी विडंबना है यह हमारे समाज की कि पूर्वजों ने तो हमें अतिथि देवो भव  का पाठ पढ़ाया है। बिहार प्रान्त में जामाता को ससुराल में प्रेमपूर्वक मेहमान ,  कहा जाता है। लेकिन  अतिथि, मेहमान, पाहुना की परिभाषा बदल सी गयी है।

    अपनी यादों की पोटली को टटोलते हुये शुरुआत बचपन से ही करता हूँ, जब कोलकाता में अपनी माँ का लाडला मुनिया हुआ करता था और बाबा - मौसी जी का  प्यारे ..। मुझे शशि और पप्पी कह वहाँ कोई नहीं बुलाता था। वहीं , प्रथम बार मेरे बालमन को अतिथि होने का आभास हुआ था, जब मैं बड़े लोग ( बाबा के खास रिश्तेदार) के घर बालीगंज गया था और वहाँ से बिल्कुल उदास होकर  लौटा था, उनकी ही कार से वापस बड़ा बाजार अपने घर ।
     फिर तो मैं यह रट लगाये रहता था कि माँ , मुझे बालीगंज नहीं जाना है ।  मेहमानों ( अतिथि ) की तरह रहना मुझे वहाँ बिल्कुल पसंद नहीं है..। पिछली बार जब गया था, तो मौसी जी आँखों के इशारे से समझा रही थी कि डायनिंग टेबुल पर जब उन सबके साथ बैठ कर भोजन कर रहे हो तो याद रखों प्लेट पर चम्मच की आवाज बिल्कुल नहीं आनी चाहिए और न ही मुहँ से भोजन चबाने की , साथ ही यह भी हिदायत थी कि अधिक कुछ भी न मांगना और बोलना वहाँ जाकर..।
  वे लोग काफी धनी थें कोलकाता में कई प्रतिष्ठान तो थें ही, लंडन में भी उनका अपना कारोबार था तब।
    उधर,मौसी जी जितना ही अनुशासन प्रिय थीं, मैं बचपन से उतना ही नटखट था। माँ - बाबा का भय तो मुझे तब भी   नहीं था , जब दूसरी बार कोलकाता रहने गया , लेकिन मौसी जी की आँखों के एक इशारे से मेमना बन जाता था। मैं लिलुआ , ठाकुर- पुकुर , तुलापट्टी, रासबिहारी सभी जगह खुशी- खुशी जाने को तैयार रहता था। लेकिन, जब भी बालीगंज की बात उठती थी , वहाँ अतिथि बन चुपचाप टुकुर- टुकुर सब कुछ निहारते रहना, मेरे लिये किसी कैदखाने से कम नहीं था ।
   पर मुझे तब क्या पता था कि भविष्य में अतिथि सा बने रहना ही मेरी नियति है। माँ , की मौत के बाद जब मुझे कोलकाता(ननिहाल) से जबर्दस्ती वापस वाराणसी मम्मी- पापा के साथ भेजा जा रहा था और मैं इसके लिये तैयार नहीं था। तब मौसी जी ने यूँ कह ढांढस बंधाई थी कि तुम पढ़ने जा रहे हो वहाँ, फिर आ जाओगे न यहाँ, यह तो तुम्हारा घर है अपना..और यही बात पापा को बुरी लगी थी तब। लेकिन, उधर मैं इसी दिलासे से मन को तसल्ली देता रोते- रोते  बनारस लौट तो आया, जहाँ अपने  ही घर में सचमुच अतिथि सा बन कर ही रह गया। जब भी डांट पड़ती , तो यह सुनने को भी मिलता कि तुम्हारा घर तो कोलकाता है न..?  मेरे छोटे भाई को जो दुलार वहाँ मिलता था, जिस तरह से हर सामग्रियों पर उसका अधिकार था और उसकी इच्छाओं का ही सर्वप्रथम सम्मान था । वहीं ,  कोलकाता में मैं तो अपने माँ - बाबा की आँखों का तारा था , उन स्मृतियों को याद कर मैं एकांत में फूट-फूट कर रोता था । जिस  किशोरावस्था में  बच्चों के पांव फिसलने का खतरा सबसे अधिक होता है,उसी दौरान मेरा मन बार बार चित्कार कर उठता था ..

नादान ……नासमझ …….पागल  दीवाना
सबको  अपना  माना  तूने  मगर  ये  न  जाना …
मतलबी  हैं  लोग  यहाँ  पैर  मतलबी  ज़माना
सोचा  साया  साथ  देगा  निकला  वो  बेगाना
बेगाना …….बेगाना ….
अपनों  में  मैं  बेगाना  बेगाना

   अंततः अपने ही घर में अतिथि जैसा रहना , अपने मन से कुछ भी न कर पाने की इस असहनीय वेदना को मैं हाईस्कूल की परीक्षा देते ही और नहीं सह सका , तो अकेले ही कोलकाता बाबा के पास ट्रेन पकड़ निकल पड़ा यह सोच कर कि मैं अब अपने घर जा रहा हूँ, मौसी जी ने तो यही कहा था न..। पर अफसोस अकेलेपन का दर्द लिये बाबा भी राह भटक चुके थें । वहाँ भी मेरा वह घर नहीं रहा अब , सप्ताह भर मेहमान जैसा कोलकाता में रहा । जो बाबा मुझे कभी अकेले छोड़ते नहीं थें , उन्होंने मुजफ्फरपुर के लिये मुझे ट्रेन पकड़ा दी। मन मारे मैं मौसी जी के घर चला आया। वे मुझे अपना बेटा ही मानती थीं तब भी और अब भी..। लेकिन वहाँ मौसा जी चार भाई थें । उनके माता- पिता थें। सो, इतने बड़े परिवार में मैं था तो एक अतिथि ही न..?
  आखिर एक मेहमान को कोई कितने दिन अपने साथ रखता , अतः वर्ष भर बाद बड़े मौसा जी मुझे पुनः बनारस छोड़ आये। घर से भागे लड़के को फिर भला कौन अपनाता और कितना स्नेह देता है। किसी तरह से इंटरमीडिएट की परीक्षा दें , घर में अनचाहा मेहमान के दर्द से मुक्ति पाने की ललक में अपनी माँ के सबसे छोटे भाई यानी की छोटे नाना जी के घर कालिम्पोंग के लिये मैं अकेले ही रवाना हो लिया। याद है आज भी कि ट्रेन से मध्यरात्रि सिलीगुड़ी उतरा । यहीं गुप्ता नर्सिंग होम में मेरा जन्म हुआ था।  सो ,अपने जन्म स्थल को प्रथम बार नमन किया। रात प्रतिक्षालय में गुजारी और सुबह बस पकड़ आ पहुँचा सीधे कलिम्पोंग। छोटे नाना जी ने अपने बड़े से मिष्ठान दुकान में मेरा स्वागत किया और अपने पुराने घर में मेरे रहने का बंदोबस्त करवा दिया। मेरे भोजन के लिये दोनों वक्त टिफिन छोटी नानी जी दुकान पर भेज देती थीं। पर वहाँ भी था तो एक अतिथि ही न ..? मेरी पसंद - नापंसद को वहाँ कौन समझता। कुछ विशेष तरह के भोजन की जब इच्छा होती तो पड़ोस में एक कशमीरी पंडित परिवार था। पीछे बाथरुम के दरवाजे से मैं उनके फ्लैट  में दाखिल हो जाता था और आंटी जी मेरी इच्छा पूरी कर देती थीं, वे मुम्बई की थीं  और निश्छल स्वभाव की थीं। पूरा दिन तो मेरा नाना जी की दुकान में ही कट जाता था।
  हाँ, कलिम्पोंग में मैं अनचाहा मेहमान नहीं था मैं , मेरे आने से नाना जी की दुकान में चोरी बंद हो गयी थी, क्यों कि कैश काउंटर पर हम दोंनों में से एक जो बैठे रहते थें। शाम ढलते- ढलते जब मैं थक जाता था, हाथ में टिफिन लिये अकेले अपने सुनसान रुम पर जाता था , तो उस तन्हाई भरी रातों में  वस्त्र बदले बिना ही सो जाया करता था , आज भी मेरी यही पुरानी आदत है। पापा- मम्मी जब आये थें वहाँ, वे मेरे रुम पर भी गये और लाड- प्यार दिखला कर मुझे साथ ले गये। 
      कुछ दिनों तक तो मैं घर में राजाबाबू बना रहा , लेकिन फिर सिर्फ दो जून चार - चार रोटी पाने वाला अनचाहा अतिथि बन गया । दादी अपने हिस्से का भोजन देने लगी, तो दुखी मन से पापा के एक मित्र के विद्यालय में पढ़ाने लगा और वहीं बसेरा हो गया अपना , मेहमान की तरह । तभी विकल मन ने मुझे समीप के एक आश्रम में रहने को प्ररित किया। वहाँ भी अपना क्या था , सतनाम बाबा जो निर्देशित करते थें , उसका अनुसरण करना था। खड़ाऊ पहन लिया, पर श्वेत वस्त्र धारण  करने से अन्तरात्मा ने जब इंकार कर दिया। एक बार फिर मुजफ्फरपुर से कालिम्पोंग भटकता रहा आशियाने की तलाश में , और जब वापस  बनारस आया, तो मन की इस पुकार पर कि अब किसी रिश्तेदार के घर तुझे अतिथि सा नहीं रहना है, गांडीव अखबार अर्जुन के धनुष सा थामे इस अनजान से शहर मीरजापुर चला आया।  वर्ष भर तो मीरजापुर - वाराणसी प्रतिदिन आता- जाता रहा। लेकिन, एक दिन दूर के रिश्ते में एक परोपकारी दम्पति ने मुझे अपने घर में स्नेह पूर्वक अतिथि बना लिया। नियति को शायद यही मंजूर था, सो मैं फिर से मेहमान सा बन गया । कुछ वर्षों तक वहाँ रहा,  इसके पश्चात मेहमान से किरायेदार बन कर वर्षों विभिन्न स्थानों पर रहना पड़ा। लेकिन , पिछले दो वर्ष जहाँ पर था , वहाँ भी अतिथि की तरह ही तो रहा और अब जिस होटल में शरण ले रखा हूँ। जिसके स्वामी का स्नेह मुझ पर बना हुआ है , यह होटल भी तो अथिति देवो के लिये ही होता है न बंधु .. ?
    जीवन के इस कड़ुवे सच से रुबरु इस पथिक ने इस वर्ष के प्रथम माह अपने लिये एक अपना आशियाना हो , यह तलाश अब बंद कर दी है ।  वह समझ चुका है कि मुसाफिरखाना ही उसके जीवन का आखिरी पड़ाव है। यहाँ अपनों के बीच वह बेगाना (अतिथि) तो नहीं है न ।
   इस चाही -अनचाही मेहमानबाजी में अपनी यह ख्वाहिश तो कब की लुट चुकी है..

तुम अगर साथ देने का वादा करो
मैं यूँही मस्त नग़मे लुटाता रहूं
तुम मुझे देखकर मुस्कुराती रहो
मैन तुम्हें देखकर गीत गाता रहूँ..


शशि/मो० नं०9415251928 , 7007144343, 9196140020
gandivmzp@ gmail.com


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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Monday 12 November 2018

आदमी बुलबुला है पानी का..

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   मृतकों के परिजनों के करुण क्रंदन , भय और आक्रोश के मध्य अट्टहास करती कार्यपालिका की भ्रष्ट व्यवस्था के लिये जिम्मेदार कौन..
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 यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बस्ते हैं
ग़ज़ब ये है की अपनी मौत की आहट नहीं सुनते
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा...

    जब हम सभी दीपावली पर्व की चकाचौंध में खोये हुये थें, अपने नगर के ही एक इलाके में मौत दबे पांव दस्तक दे रही थी। दूषित पेयजल से दो बालक सहित चार लोगों की जान चली गयी। सौ के आसपास लोग डायरिया के शिकार हुये। मृतकों के परिजनों के करुण क्रंदन , भय और आक्रोश के मध्य अट्टहास करती कार्यपालिका की भ्रष्ट व्यवस्था देख मन खिन्न हो गया और जब चार जानें चली गयीं, तभी आला अधिकारियों की तंद्रा भी भंग हुई।  पर इस घटना के लिये जिम्मेदार कौन . ? यह अब भी यक्ष प्रश्न है।
     जानते हैं आप,  नगरपालिका का इंस्पेक्टर क्या कह रहा था, हम पत्रकारों से..। ये जनाब दलील दे रहे थें कि जेसीबी से पंच करवाने के दौरान पेयजल की पाइप लाइन क्षतिग्रस्त हो गया, तो वे क्या जाने, जब पता चला तो ठीक किया जा रहा है.. ।
    यदि जनता सचमुच व्यवस्था में परिवर्तन चाहती है, तो ऐसे मनबढ़ सरकारी नौकरों को उसे यह समझाना हो कि यदि कोई जर्जर भवन ढहाया जा रहा हो, उसके समीप के दूसरे मकान को क्षति न पहुँचे यह जिम्मेदारी भवन ढ़हाने वाले की होती है। फिर यहाँ  इतनी बड़ी लापरवाही एक तो की गयी और ऊपर से इंस्पेक्टर साहब सीना फुलाने लगे 56 इंच का।
   यही हमारे देश की व्यवस्था है कि जबरा मारे , रोने न दे..?
किसी आला अधिकारी ने ऐसे पालिका कर्मी / इंस्पेक्टर के विरुद्ध कार्रवाई की बात आखिर क्यों नहीं कही। किसी ने यह जानने का प्रयास नहीं किया कि यहाँ के लोग महीनों से जल जमाव के निराकरण के लिये जाली लगाने की बात उठा रहे थें, फिर भी किसी रहनुमा ने ध्यान नहीं दिया।  इस घटना से पखवारे भर पहले भूदेव वाली गली में भी डायरिया इसी दूषित पेयजल से  दर्जन भर से अधिक लोगों को हुआ था। एक वृद्धा तब भी मरी थी। तभ भी खामोश रहें ये पहरूए।
    छोटी दीपावली को ही इस मुहल्ले के वासिंदों ने रहनुमाओं को अगाह किया था कि भटवा की पोखरी वार्ड की मस्जिद वाली गली में सीवर का पानी जमा है। जिससे पाइप लाइनों से जो पेयजल आपूर्ति हो रही है, वह दूषित है। लेकिन हुआ क्या कि दो बाद जेसीबी ने नाले की सफाई के दौरान ऐसा पंच किया कि पेयजल पाइप लाइन क्षतिग्रस्त हो गयी। किसी जिम्मेदार अधिकारी ने इस पर ध्यान नहीं दिया। हुआ यह कि सीवर का दूषित जल और पेयजल में संगम हो गया । अगले दिन से लोग बीमार पड़ने लगें। जिनकी संख्या सौ के आसपास पहुँच गयी। इनमें से तीन की मौत भी हो गयी।  10 वर्ष का मासूम अरमान सबसे पहले काल के गाल में समा गया। उसके दो भाई- बहन भी डायरिया से पीड़ित थें। उसके सामने की गली में रहने वाली 11 वर्षीया कोमल भी मौत  का निवाला हो गयी। उधर, मंडलीय और निजी चिकित्सालयों में उल्टी- दस्त से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़ती ही गयी।
  हमारे देश, प्रदेश और जिले की यही निरंकुश व्यवस्था प्रणाली और उसके गैर जिम्मेदार पालनहार आम आदमी के लिये सबसे बड़े सिरदर्द बने हुये हैं।
      ऐसे हाकिम- हुजूर  न्यायोचित निर्णय नहीं लेते, वरन् स्वयं ही जुगाड़ तंत्र के बिकाऊ माल बन जाते हैं। फिर तो यही होगा ही कि चार - चार जानें चली गयीं  और इसका जिम्मेदार कौन ? इस पर से पर्दा नहीं उठा, तो फिर  किस बात के हाकिम हुजूर है आप ? न्याय की कुर्सी तो इन वरिष्ठ अधिकारियों के पास भी होती है न। फिर भी दोषी कठघरे के बाहर सीना ताने इन निर्दोषों की मौत का उपहास उड़ा रहा है। कुछ ऐसी ही व्यवस्था कमोवेश हर सरकारी विभागों की है, अस्पतालों की है, शिक्षा मंदिरों की है और प्रशासन-पुलिस की भी है ।
   सत्य- असत्य के इस युद्ध में हम सही मार्ग का चयन नहीं कर पा रहे हैं , इसीलिए मिथ्या भाषणकला से समाज को भ्रमित कर वे अपना इंद्रजाल फैलाये हुये हैं। सो, हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम समाज के लिये संघर्ष करे । मीडिया का यह दायित्व है कि वह सच का आइना जनता को दिखलाएं । नगरपालिका के इस इंस्पेक्टर का गैरजिम्मेदाराना  कितना उचित है, इस पर सवाल उठाएँ वह..?
    यदि अपनी पत्रकारिता की बात करूं, तो यह सच है कि कोई अब मुझसे यह नहीं पूछता की आप की डिग्री  क्या है। मेरी खबरों से उन्हें लगता है कि मैं बड़ा ज्ञानी ध्यानी हूँ।  फिर भी मित्रों शिक्षा का अपना महत्व है। पर यह डिग्री लेने वाली कदापि न हो ,ऐसे पुस्तकीय ज्ञान रखने वाले अनेक लोग तो मेरे इर्द गिर्द रोजाना ही गुमराह गलियों में भटकते मिलते हैं । जिन्हें समाज का तारणहार होना चाहिए, वे एक मतलबी घर - संसार के निर्माता बन गये हैं। जातीय- मजहबी द्वंद्व के प्रचारक बन गये हैं। राजनीति के शतरंज पर खिलाड़ी की जगह निर्जीव मोहरे से बने कठपुतली सी नाच रहे हैं। मित्रों, हम कठपुतली हैं जरुर लेकिन नियति के हाथों के , यह हर प्राणियों की विवशता है, फिर भी हम अपने कर्म से उसमें कुछ परिवर्तन निश्चित कर सकते हैं। लेकिन, किसी भ्रष्ट व्यवस्था, भ्रष्ट शासक, भ्रष्ट चिन्तक, धर्माचार्य एवं राजनेता के हाथों की कठपुतली बनना मुझे स्वीकार नहीं। इसके विरुद्ध हमें शंखनाद करना ही होगा , क्योंं कि हमारे हृदय में स्पंदन है, सम्वेदनाएँ हैं और एक सच्चा मानव कहलाने की ललक है। मानवीय भूल से जिनकी दुनिया लुट गयी। उनके लिये अपने मन में उस वेदना को जगह दें , न कि नेत्रों में घड़ियाली आंसू लायें...।
   दीपावली बीत गयी , अब थोड़ा चिन्तन करें कि औरों के घरों को रौशन करने के लिये हमने अपने तन-मन- धन से कुछ किया क्या..। अपने शहर के एक कोने में यह जो मातम है। भ्रष्ट व्यवस्था तंत्र रावण सा अट्टहास कर रहा है  कि
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई..।
  कहाँ हैं वे राम जो राज्यभिषेक से पूर्व तपस्वी राम हुये, अधर्म के विरुद्ध संघर्ष कर मर्यादापुरुषोत्तम राम हुये और तब ही मनी थी अयोध्या में दीपावली , वे बने थें राजा राम..।
  यहाँ तो पहले कुर्सी ( सिंहासन) पकड़ की  दौड़ है , जुगाड़ तंत्र का शोर है और फिर तरमाल काटने की होड़ है।
पर यह भी याद रखें ..

     आदमी बुलबुला है पानी का
      क्या भरोसा है ज़िंदगानी का..
   
  आज इस आभासी दुनिया में रेणु दी ने मुझे निश्छल भाव से भाई कह संबोधित किया है और इसी स्नेह ने मुझे यह आत्मबल दिया है कि मैं लेखन कार्य करने के लिये स्वयं को सहज कर पाता हूँ। अन्यथा रिश्तों का यह जो खोल है, उसमें तो बस पोल है।

-शशि


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Friday 9 November 2018

दुनिया सुने इन खामोश कराहों को..




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       असली तस्वीर तो अपने शहर के भद्रजनों की इस कालोनी का यह चौकीदार है और उसके सिर ढकने के लिये प्रवेश द्वार पर बना छोटा सा यह छाजन है, जहाँ एक कुर्सी है और शयन के लिये पत्थर का पटिया है।
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इस समूह में
इन अनगिनत अनचीन्ही आवाजों में
कैसा दर्द है
कोई नहीं सुनता!
पर इन आवाजों को
और इन कराहों को
दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा  - दुष्यंत कुमार

      भैया, इस ठंड में पूरी रात ठिठुरते हुये चौकीदारी अब न होगी मुझसे,  ऐसा लगता है कि प्राण ही निकल जाएगा,  जब सर्द हवाएँ , सीधे हमला करती हैं आधी रात को..।
    उस दुर्बल काय बुजुर्ग चौकी की यह वेदना छोटी दीपावली  की भोर में मेरे हृदय को चुभन दे गयी थी। भद्रजनों की कालोनी थी यह, लेकिन इस पहरूए की यह पीड़ा, उसका यह मौन चीत्कार किसी को नहीं सुनाई पड़ रही थी।
    सुबह के पौने पाँच बजे थें। मुझे भी ठंड लग रही थी, जब अखबार लेकर निकला था। जैसे ही भद्रजनों के इस कालोनी के पास पहुँचा और बड़ा वाला लोहे का फाटक खोला, पुराने चादर में लिपटा यह चौकीदार उस दिन असहज लग रहा था। मैंने पूछ ही लिया कि ठंड लग रही है न भाई..?  मुझे कुछ बुखार सा था उस दिन और साढ़े चार बजे सुबह चौराहे पर जीप की प्रतीक्षा में खड़े रहना और फिर दो घंटे साइकिल चलाने की स्थिति में था नहींं। अतः मैं समझ सकता था इस चौकीदार का दर्द..।
   विडंबना यह है कि इसी कालोनी में बड़े डाक्टर और मनी पावर रखने वाले जेंटलमैन रहते हैं। अमीरों की कालोनी है मित्रोंं..। बड़ी- बड़ी अट्टालिकाएँ  देख लगता है कि सचमुच यह मीरजापुर  तो सच में अपने नाम के अनुरूप साक्षात लक्ष्मी की नगरी है।  पर कृत्रित प्रकाश से जगमगा रही इन निर्जीव बंगलों को देख इस मुगालते में न रहें आप कि यहाँ की बदहाली, बेरोजगारी और बेगारी दूर हो गयी है। असली तस्वीर तो अपने शहर की इसी कालोनी का यह चौकीदार है और उसके सिर ढकने के लिये प्रवेश द्वार पर बना छोटा सा यह छाजन है, जहाँ एक कुर्सी है और शयन के लिये पत्थर का पटिया ..। एक पर्दे तक की व्यवस्था नहीं है यहाँ कि वह इन सर्द हवाओं को अपने दुर्बल शरीर की सूखी हड्डियों में प्रवेश करने से रोक सके । इन भद्रजनों के पास तो अनेक गर्म वस्त्र होगें ही , रिजेक्ट माल ही दे दिये होते इस चौकीदार को , तो भी इस बेचारे (कर्मपथ पर चलने वालों के लिये इस अर्थयुग में प्रयुक्त सम्बोधन है यह शब्द ) का काम चल जाता। लेकिन, लगता है कि मेरी ही तरह इस चौकीदार को भी इन भद्रजनों को हाकिम- हुजूर और साहब कह हाथ पसारन नहीं आता है जो...। मुझे तो फिर भी पत्रकार होने के कारण कुछ सुविधा मिल जाती है, कुछ लेखनी के प्रभाव से और  कुछ स्नेहवश भी यह समाज मेरी आवश्यकताओं की पूर्ति समय- समय पर करता  ही रहता है। परंतु अन्य श्रमिक अपने कर्मपथ पर चल कर भी कर्मफल कभी नहीं प्राप्त कर पाते हैं। नियति उन्हें उजाले का दीदार करा पाने में असमर्थ है, बढ़ती अवस्था के साथ ही उनकी रातें और स्याह होती जाती हैं।
   दरअसल, इस चौकीदार से प्रतिदिन दुआ - सलाम होता है मेरा। मुझे देख वह स्वयं फाटक खोल देता है, जबकि उसे नहींं मालूम है कि मैं पत्रकार हूँ। मैं बताना भी नहीं चाहता,  इससे हम- दोनों के बीच खुलकर बातें न होतीं  फिर इस तरह से। तब वह मुझे इन भद्रजनों का हिमायती जो समझने लगता। इसी कालोनी में एक बड़ा सा बंगला है। अभी निर्माण कार्य चल ही रहा है। उसमें दो बड़े- बड़े कुत्ते भी हैं। जो कभी   इस कालोनी के गलियारे छुट्टा सांड़ की तरह धमाचौकड़ी मचाये रहते हैं। ऐसे में मैं इसी चौकीदार को ही अखबार थमा आता था । सोचता हूँ , इन भद्रजनों को क्या कहूँ , कुत्ते के लिये तो मांस, अंडा, दूध और हर सुख-सुविधा की व्यवस्था है। लेकिन जो शख्स पूरी रात आपके घर- प्रतिष्ठान की सुरक्षा कर रहा है, उसे ठंड में ठिठुरने के लिये विवश किया जा रहा है। अपना घर परिवार छोड़ पापी पेट के सवाल पर कहाँ- कहाँ से किस -किस प्रान्त से ये चौकीदार आते हैं। उनकी दीपावली कहाँ मन पाती है। इस दर्द का तनिक भी एहसास इस सभ्य समाज को क्यों  नहीं है। वह सरकार जो बड़ी-बड़ी बातें करती है, कम से कम ठंड में इन चौकीदारों को ऊनी वस्त्र ही दे देती। सरकारी कर्मचारियों का वेतन चाहे कितना भी हो जाए , फिर भी उनकी मांगें सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती जाती हैं ।वहीं,  वह आम आदमी जो इन रहनुमाओं का भाग्य विधाता है, उसे सत्तासीन लोग फिर से अंगूठा दिखला देते हैं। वायदा कर नाउम्मीद करना, यह सियासी मर्ज दिनोंं दिन बढ़ता  ही जा रहा है। अपने सलीम भाई इराक के एक बादशाह का किस्सा सुनाते हैं। बादशाह एक शाम महल में दाखिल हो रहा था , पहरेदार को ठंड से ठिठुरते देख उसने कहा कि अभी गर्म वस्त्र भेज रहा हूँ, पर बादशाह अपना वायदा भूल गया। अगले दिन सुबह पहरेदार मृत पड़ा था और जमीन पर उसने लिख छोड़ा था कि हुजूर पूरी जिंदगी इसी वर्दी में ठंड काट दी, पर कल शाम आपने आश दिलाई, आज सुबह होते-होते आपकी आश क्या टूटी , यह जिंदगी मुझसे रुठ गयी..।
 आश यानी की चुनावी वादाखिलाफी का एहसास कब होगा हमारे महान राजनेताओं को। पिछले लोकसभा चुनाव में कितनी उम्मीद थी आम जन को कि उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी, परंतु बेरोजगारी का दर्द और बढ़ गया है।

 वहीं , विपक्ष मुद्दों की राजनीति  करने की जगह रट्टू तोते की तरह काव्य पाठ कर रहा है..

हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज ये दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए ..

  अब तो इंकलाब जिंदाबाद कहने वालों को आइने में पहले खुद को निहार लेना चाहिए।

  .खैर , ऐसे पर्वों पर मेरा ऐसा कोई अपना करीब नहीं होता है, जिसने उस शाम मुझे भोजन के लिये पुकारा होता, न ही अब मेरा कोई सपना है। कुछ दिन पूर्व तक मैं वरिष्ठ लेखकों के ब्लॉग पर चला भी जाया करता था कि वहाँ से लेखन ज्ञान अर्जित कर लूं।  किन्हीं परिस्थितियों से फिलहाल ऐसा भी नहीं कर पा रहा हूँ। फिर भी रेणु दी , श्वेता जी सहित अन्य रचनाकारों और शब्द नगरी परिवार का आभारी हूँ, जिनकी प्रतिक्रिया,मार्गदर्शन, सहयोग और प्रोत्साहन मुझे प्राप्त होता रहता है। वैसे ,व्हाट्सएप पर भी कुछ शुभचिंतक हैं  न मेरे। हाँ, आज भैयादूज पर्व पर रेणु दी ने मेरे सेलफोन पर पहली बार कॉल कर मुझे सरप्राइज गिफ्ट दिया है। मुझे कल रात से ही बुखार है, फिर भी इस आभासी दुनिया का इस बहुमूल्य उपाहार पाकर मैं हर्षित हूँ। ब्लॉग पर मेरी जो भी थोड़ी बहुत पहचान है,वह सब दी के मार्गदर्शन में ही प्राप्त हुआ है।

शशि/मो० नं०9415251928 और 7007144343
gandivmzp@ gmail.com



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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Wednesday 7 November 2018

कितना मुश्किल है पर भूल जाना...

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(दीपावली और  माँ की स्मृति)

 हमें तो उस दीपक की तरह टिमटिमाते रहना है ,जो बुझने से पहले घंटों अंधकार से संघर्ष करता है, वह भी औरों के लिये, क्यों कि स्वयं उसके लिये तो नियति ने " अंधकार " तय कर रखा है..
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बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल का साथ
किसको फ़ुरसत है जो थामे दीवानों का हाथ
हमको अपना साया तक अक़सर बेज़ार मिला
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ माँगी काँटों का हार मिला....

  रोशनी के पर्व दीपावली की यह काली रात आज मुझे इस तन्हाई में और स्याह क्यों प्रतीत हो रही है... बाहर तो चहुँओर उजाला है,पटाखों की आवाज भी कम नहीं सुनाई पड़ रही है और सड़कों पर भी तो भारी चहलपहल है, फिर दिल में यह अंधकार क्यों.. ?
    ऐसे प्रमुख पर्व-त्योहार पर जब भी ऐसी मनोस्थिति होती है मेरी, तो अपने पसंदीदा अभिनेता गुरुदत्त की
 फिल्म " प्यासा" को और करीब से समझने की कोशिश करता हूँ । यूँ समझे कि मन को जरा तसल्ली देने का प्रयास करता हूँ कि

इसको ही जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे
उफ़ न करेंगे लब सी लेंगे आँसू पी लेंगे
ग़म से अब घबराना कैसा, ग़म सौ बार मिला
हमने तो जब ...

     वैसे दिन भर तो व्यस्त ही रहा। स्नेहीजनों के यहाँ गया भी और सदैव की तरह ही मिठाई आदि दीपावली के उपहार भी कम नहीं मिले मुझे , जिन्हें पता था कि मिठाई से मैं कुछ परहेज करने लगा हूँ, तो उन्होंने ड्राई फ्रूट भेज दिया। जिन्हें लगा मुझे लिफाफा पंसद नहीं ,उन्होंने कुछ दूसरा उपहार दिया । वहीं कुछ माननीय और स्नेही जन ऐसे भी थें, जिन्होंने साफ तौर पर कह दिया कि मुझे उनका लिफाफा स्वीकार करना ही होगा, क्यों कि यह कोई रिश्वत नहीं है। उनका कहना रहा कि आप समाज के लिये निःस्वार्थ भाव से लेखन करते हैं। अतः उनकी भी जिम्मेदारी है कि वे मेरी अर्थ व्यवस्था को बनाये रखें,ताकि मूलभूत आवश्यकताएँ मेरी पूरी  होती रहे।  इन लिफाफों में पाँच सौ से लेकर पाँच- पाँच हजार रुपये भी थें।
    उस इंसान के लिये जिसने पत्रकारिता जगत में आकर अपनी तमाम निजी खुशियाँ खो दी, उसके लिये यह मान-सम्मान और स्नेह कम नहीं है। इस जीवन रुपी सागर के मंथन से निकले  विष एवं अमृत दोनों को ही समभाव से हमें ग्रहण करना ही पड़ेगा ।
  मध्यरात्रि तक होटल के इर्द-गिर्द पटाखे बज रहे थें। परंतु पटाखों को हाथ लगाये मुझे तीन दशक से ऊपर हो गये हैं। अब सोचता हूँ कि चलो अच्छा ही है , मुझे पटाखा नहीं बनना है , जो भभक कर, विस्फोट कर अपना अस्तित्व पल भर में समाप्त कर दे, साथ ही वातावरण को प्रदूषित भी करे ..। हमें तो उस दीपक की तरह टिमटिमाते रहना है ,जो बुझने से पहले घंटों अंधकार से संघर्ष करता है, वह भी औरों के लिये, क्यों कि स्वयं उसके लिये तो नियति ने " अंधकार " तय कर रखा है..।
   आपने भी सुना होगा न यह मुहावरा कि चिराग तले अंधेरा..।
   सो, दीपावली की रात इसी चिंतन में गुजर गयी, यूँ ही मन को बार- बार बहलाते हुये।
  हाँ,  रैदानी भैया द्वारा भेजा गया कोलकाता के तिवारी ब्रदर्स की काजू की बर्फी के डिब्बे ने ननिहाल में गुजरे अपने बचपन की मधुर स्मृतियों को मानस पटल पर चलचित्र की तरह ही चलायमान कर दिया है। दरअसल, बड़ा बाजार स्थित छोटे नाना जी की मिठाई की दुकान गुप्ता ब्रदर्स का सोन पापड़ी ,तिवारी ब्रदर्स का समोसा( सिंघाड़ा) और देशबंधु की बंगाली मीठी दही संग में मैदे की लूची- चने की दाल प्रसिद्ध रही है ,जो मुझे प्रिय थी तब...। वैसे, काजू बर्फी , मलाई गिलौरी और रस माधुरी ये तीनों ही मेरे सबसे प्रिय मिष्ठान थें। माँ ,को यह पता था, सो उनके पिटारे में इनमें से दो प्रकार की मिठाइयाँ निश्चित ही रहती थीं। परंतु यह तभी मुझे मिलता था, जब हार्लिक्स डाला गया एक गिलास दूध पी लूँ । माँ का यह आदेश मुझे पूर करना ही होता था। इसमें मेरी कोई आनाकानी उन्होंने नामंजूर थी। खैर, माँ गयी, बचपन गया और उनका वह स्नेह भी अतीत की यादें बन दफन हो गया। वह आखिरी दीपावली जो माँ के साथ गुजारी थी। हम दोनों कितने खुश थें। तब क्या पता था मुझे कि चंद दिनों में ही मैं यतीम हो जाऊँगा, वह भी इस तरह की फिर कभी किसी के आंचल की छांव नसीब नहीं होगी और बंजारा कहलाऊँगा । वो है न एक गीत..
एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है...

       नियति की यह कैसी विडंबना रही कि सदैव अस्वस्थ रहने वाली माँ ने दीपावली की उस शाम स्टूल के सहारे बारजे पर बैठ मुझे पटाखे फोड़ते न सिर्फ खूब देखा था, वरन् स्वयं भी उन्हों रोशनी एवं फूलझड़ी जलाई थी। उसी दीपावली छोटे नाना जी ने उपहार में मुझे मंहगी एचएमटी की कलाई घड़ी दी थी। मैंने उनकी दुकान से मिठाई के डिब्बों में भरकर बिक्री रुपये उनके दफ्तर तक पहुँचाने की जिम्मेदारी बखूबी जो निभाई थी। और भी बहुत कुछ यादें हैं, मसलन मिट्टी के टोकरी भर खिलौने बाबा ने दिलवाया था। सामने राजाकटरा में ही तो गणेश- लक्ष्मी और खिलौनों की दुकानें थीं । बाबा कहाँ मानने वाले थें, प्यारे ये देखों, यह लोगें.. सिर हिलाते हुये दादा- दादी , पुतना का स्तन पान करते कृष्ण , रुप परी और भी तरह- तरह के खिलौने लेकर आते थें हम दोनों..। उस दीपावली बाबा ने बारजे को जगमगाने के लिये लिंची और अंगूर नुमा झालर मुझे खुश करने के लिये खरीदा था, उस समय बाजार म़े नया- नया आया इलेक्ट्रिक दीपक भी..।   मेरे पांव एक स्थान पर टिक ही नहीं रहे थें, उस दीपावली को ..घर, कारखाना और दुकान का दिन भर चक्कर लगाता रहा। बम की आवाज तो माँ को पिछले वर्ष तनिक भी पसंद नहीं था, वे हृदयरोग से पीड़ित जो थीं। लेकिन, उस आखिरी दीवाली पर वे मुझे ऐसा करने से मुझे बिल्कुल नहींं रोक रही थीं। इसी के अगले माह मेरी परीक्षा थी। कक्षा 6 में मैं अव्वल रहा। माँ के स्वपनों को पूरा किया , लेकिन तब वे मृत्यु शैय्या पर थीं। ठीक से याद नहीं है , सम्भवतः 26 दिसंबर ही था, क्यों कि 25 को तो बड़ा दिन का जश्न था, उस मनहूस सुबह ब्रह्ममुहूर्त में माँ मुझे अनाथ कर गयी। फिर बनारस, मुजफ्फरपुर, कलिम्पोंग, मीरजापुर में कितनी ही दीवाली आई और गई, तन्हाई और दर्द के सिवाय कुछ न मिला..।
  इस दीपावली को भी क्या नहीं था मेरे पास ,तरह तरह के मिष्ठान, उपहार , पैसों भरे लिफाफे भी , पर एक वो न था पास में , जो इस मासूम दिल को एहसास करवा सके , इन तीज- त्योहारों को..।
    अतः कल रात भोजन तक न मिला , यूँ समझे की मन नहीं था । माँ भी तो मुझसे किये अनेक वायदे तोड़ चली गयी , मानों उपहास कर रही हैं वो भी कि ढ़ूंढ़ते रहो ,इन सितारों में..
 वह एक गीत है न ...

कितना आसान है वादे तोड़ देना, कितना मुश्किल है वादा निभाना
कितना आसान है कहना भूल जाओ, कितना मुश्किल है पर भूल जाना..

शशि/ 8 नवंबर2018


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (कितना मुश्किल है पर भूल जाना...) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Tuesday 6 November 2018

कच्ची मिट्टी के ये पक्के दिए , भूल न जाना लेना तुम...


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दीपोत्सव पर्व को लेकर बजारों में रौनक है। कल धनतेरस पर करोड़ों का व्यापार हुआ है। बड़े प्रतिष्ठान चाहे जो भी हो,धन सम्पन्न ग्राहकों का प्रथम आकर्षण वहीं केंद्रित रहता है। छोटे -छोटे दुकानदार फिर भी कुछ उदास से ही दिख रहे हैं , इस चकाचौंध भरे त्योहार में। सो, हमारा प्रयास होना चाहिए कि ऐसे खुशी के अवसर पर  उस वृद्ध महिला को ,जो दीपक और अन्य मिट्टी के खिलौने लिये सड़क पर बैठी हुई है और उस मासूम बालक को, जो अपने नाजुक गर्दन में टोकरी लटकाये रुई ले लो की पुकार लगा रहा है , कुछ लड़कियाँ सिर पर टोकरी में कमल के फूल रखें मिलीं, एक प्रयास होना चाहिए हमारा कि इन सभी को निराश न किया जाए। इन्हें खाली हाथ वापस न घर लौटना पड़े, वे भी खुशी खुशी अपना पर्व मनाएँँ., तभी हम भी ऐसे त्योहार मनाने के हकदार हैं..

निकले जो तुम आज घर से
फ़रमाइशों की फ़ेहरिस्त लिये
बटुए में बंद कर के वो नोट हजार
 तुम निकले भरी दुपहरी खरीदने बाज़ार
इस चकाचौंध इस धक्का-मुक्की में
 शायद तुम लेना भूल गए
 ये कच्ची मिट्टी के पक्के दिए
 तुम साथ ले जाना भूल गए...

  बंधुओं, ऐसा न करें। हम सभी क्यों न आपस में मिलजुल त्योहार मनाएँँ। अपने घर के साथ-साथ औरों के घरों को भी रौशन करने के लिये एक कोशिश तो हो न..।
 अन्यथा , कभी फिर आप ही कहेंगे कि दीपावली पर्व दिनोंं दिन उदास क्यों होती जा रही है। अमावस की यह रात और स्याह क्यों होती जा रही है..? बड़ी -बड़ी अट्टालिकाओं को जगमगाते ये कृत्रित प्रकाश इंसान के मन को रौशन क्यों नहींं कर रहा है..?
 बाजार में सब कुछ तो है, फिर भी इंसानियत क्यों नहीं है। हमें अपनी खुशियों का ध्यान तो ऐसे प्रमुख पर्वों पर खूब होता है, परंतु हमारे जैसे और भी इंसान हैं, जिनके पास पर्व मनाने के लिये बहुत सीमित सन-साधन है, हम कुछ खुशियाँ उन्हें तो दे ही  सकते हैं। मसलन, पर्वों पर अपनी मौजमस्ती और अपनी फिजूलखर्ची  में कुछ कटौती कर के, कम से कम एक डिब्बा मिठाई ही सही अपने बच्चे के हाथों दीपावली के उपहार के तौर पर किसी ऐसे निर्धन परिवार को दिया जा सकता है, जो उचित पात्र है। आप अपने लाडले को इंसानियत का यह पाठ भी पढ़ा सकते हैं कि देखों पटाखे में  सारे पैसे बर्बाद करने से बेहतर रहा न कि तुमने अपने एक भाई या बहन की मदद कर दी। पटाखे क्या है, दस मिनट में फूट कर ठंडे पड़  जाएंगे, यदि हम और आप " वसुधैव कुटुंबकम " पर बल देते हैं , तो याद रखें कि ऐसे छोटे- छोटे परोपकार से हमारे-आपके बच्चे नैतिक रुप से इतने जिम्मेदार हो जाएँँगे कि वृद्धावस्था आपकी इन्हें आशीर्वाद देने में ही गुजर जाएगी। पर्व त्योहार पर यदि किस असमर्थ पड़ोसी के घर हम एक भी दीपक जलाने का सामर्थ्य रखते हैं, तो वह हमारे भवन पर जगमगा रहे सैकड़ों बल्ब से लाख गुना बेहतर है, फिर भी विडंबना देखेंं न कि पर्व पर जहाँ पहले बच्चे पड़ोसियों के यहाँ आते -जाते थें। सभी मिल कर पटाखे फोड़ते थें और अब के जेंटलमैन अपने कानवेंट में पढ़ने वाले बच्चों को उनका स्टेटस बता या तो घर के अंदर रखते हैं अथवा समकक्ष लोगों तक ही इनका आना जाना होता है। जिसका सीधा प्रभाव युवा पीढ़ी पर पड़ रहा, जिसके हृदय में वह करुणा एवं संवेदना नहीं है, जो उसे मानव बना सके।
  अब देखें न कि इस भीड़ भरी सड़क पर बुलेट दौड़ा रहे एक युवक ने एक वृद्ध को धक्का मार दिया और कह क्या रहा है , जानते हैं..? वह कह रहा था कि ये बुड्ढे ठीक से चल नहीं सकते तो बीच सड़क पर क्यों आ जाते हो, मरने की क्यों इतनी जल्दी पड़ी है तुझे ?
आप समझ लें युवा वर्ग का यह मिजाज , उक्ति है न कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे..।  ऐसा इसलिए हो रहा है कि हम दिखावटी धार्मिक कार्य तो खूब कर रहे हैं , धर्म स्थलों पर  उमड़ती भीड़ गवाह है। परंतु जो मानवीय कर्म है, उससे हम स्वयं को और अपने संतानों को दूर किये जा रहे हैं।
  राजनीतिज्ञों और समाजसेवीजनों की बात करूँँ, तो जनता को शुभकामनाएँँ देने के लिये  उनके बड़े- बड़े  होर्डिंग -बैनर सड़कों पर लगे दिख रहे हैं। क्या यही होर्डिंग उनके सेवाकार्यों  की पहचान है ?  इन पर जो इनका हाथ जोड़ा हुआ जो फोटो चस्पा है, इसे देख जनता इन्हें महान समझने लगेगी ? ऐसा नहीं है मित्रों यहाँ मेरी इन्हीं आँखों के सामने कितने ही पावरफुल माननीय जब आम चुनाव में बोल्ड हुये, तो वापसी फिर कभी नहीं हुई उनकी, गुमनाम हो गये वो। हाँ , यह सबक वर्तमान में जो जनप्रतिनिधि हैं, उन्हें याद न रहे, तो यह इस अर्थयुग का प्रभाव है। अन्यथा , ये रहनुमा गुपचुप तरीके से ऐसे पर्वों पर  कुछ घरों को रौशन जरुर करते , लेकिन आलम यह है कि छोटा-सा भी सेवाकार्य यदि वे करते हैं, तो मीडिया कर्मियों की भीड़ पहले से जुटा ली जाती है। अखबारों में इनके सेवाकार्य का मूल्य फिक्स होता है। प्रत्यक्ष न सही, अप्रत्यक्ष तो निश्चित होता है।  फिर कैसे मने इस दबे कुचले निर्धन वर्ग की दीपावली ..?
    फिर तो ऐसे बदनसीब को जिन्होंने जीवनभर संघर्ष किया, फिर भी अपनी हैसियत इतनी भी न बना सके कि वे पर्व- त्योहारों पर उत्सव मना सकें, उन्हें तो अपनी टूटी हुई उम्मीदों को संग लिये  इन टूटे दीपकों से ही काम चलाना होगा...

इसी खंडहर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए

इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात...

   अच्छे दिन आएँँगे की उम्मीदों में वर्षों गुजर गये हैंं अब तो , फिर से कोई नया जुमला लेकर इन रहनुमाओं को आना होगा। तलाशिये अभी से इसे की अब कि आम चुनाव में आप क्या मलहरा गाएँँगे। महंगाई , बेरोजगारी , बेगारी और बदहाली से सिसक रही जनता को क्या क्या नया सियासी सब्जबाग फिर से आप दिखलाएँँगे। पुलतीघर की बुझी चिमनी में धुआँँ करने का वादा तो कर गये,पर जनाब!  इस वादाखिलाफ़ी पर आप जनता की आँँखों की पुतली फिर से कैसे बन पाएँँगे। बेचारे आम आदमी की जेब खाली है। यही कोई पांच हजार पगार है उसका , इसी में उसकी होली और दीपावली है। न कहीं से बोनस मिलना है, न ही सत्ताधारियों की कृपा प्रसादी है , फिर क्या कहूं मित्रों, बस यही न कि

खंडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही
अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही
हमको पता नहीं था हमें अब पता चला
इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही...

   सुबह साढ़े चार बजे अखबार के बंडल की प्रतीक्षा में चौराहे पर खड़े- खड़े कुछ ऐसे ही विचार मंथन में डूबा था कि यौवन की दहलीज़ पर पहुँच चुकी, तीन सांवले रंग की तीन किशोरियों की खिलखिलाहट से मेरी तंद्रा भंग हुई। देखा कि प्लास्टिक की बड़ी - बड़ी बोरी लिये कबाड़ बीनने वाली
ये लड़कियाँ बेझिझक यह गीत गुनगुना रही थीं..

गोरे रंग पे ना इतना गुमान कर
गोरा रंग दो दिन में ढल जायेगा
मैं शमा हूँ तू है परवाना
मुझसे पहले तू जल जायेगा..

   बड़ी बात कह गयीं ये बच्चियाँ, पर वीणा की तार की आवाज सुन हर कोई बुद्ध तो नहीं बन जाता है..?
   वैसे, उनकी बोरियों का वजन कुछ भारी था, इसलिये वे खुश थीं। मैं समझ गया कि लोगों ने अपने घर और प्रतिष्ठान की सफाई की है, इसलिये इन कबाड़ बटोरने वालों की दीवाली ठीक ही गुजरेगी।
शशि/मो० नं०9415251928 और 7007144343
gandivmzp@ gmail.com


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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Sunday 4 November 2018

आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ..

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 यहाँ मंदिर पर बड़े लोग सैकड़ों डिब्बे  मिठाई दनादन बंधवा रहे हैं। ये बेचारे मजदूर तो ऊपरवाले का नाम ले, अपने मन की इच्छाओं का दमन कर लेते हैं , परंतु इन गरीबों के बच्चों को कभी आप ने दूर से टुकुर- टुकुर ताकते इन मिष्ठान्नों की ओर देखा है..? 
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हर मज़हब का एक ही कहना जैसा मालिक रक्खे रहना
जब तक साँसों का बंधन है जीते जाओ सोचो मत
कठ-पुतली है या जीवन है जीते जाओ सोचो मत
सोच से ही सारी उलझन है जीते जाओ सोचो मत ...

     जैसा मालिक रखे ..?  धर्मग्रंथों तक में बयां कुछ ऐसी ही बातें आज भी पहेली है मेरे लिए। अरे जनाब !  कठपुतली और इंसान में फ़र्क होता है । हमारे पास मस्तिष्क है, हृदय है, भावनाएँ हैं, सम्वेदनाएँ हैं, अपना ईमान और कर्म भी है, फिर हम क्यों यह आकांक्षा न करें कि हमें भी हमारा उचित कर्मफल मिले..? यदि एक विद्यार्थी जो अपने जीवन में किये कठिन अध्ययन का कर्म फल अथार्त जीवकोपार्जन के लिये उचित आजीविका की व्यवस्था, जहाँ यदि निष्ठापूर्वक वहाँ अपनी सेवा दे रहा है तो उचित पगार , एक पत्नी  अपना सर्वस्व समर्पित करने के पश्चात पति के प्रेम,  एक पिता जिसने अपने पुत्र को अपने तप से स्वालम्बी बनाया , वह वृद्धावस्था में उससे थोड़ा सा स्नेह, सम्मान एवं दो वक्त की रोटी ,समाज जिसने हमे पहचान दी , वह हमसे उचित कर्म एवं राष्ट्र जिसकी माटी में हम पले-बढ़े वह संकट काल में अपने वीर सपूतों से रक्त (बलिदान) की आकांक्षा नहीं रखे, तो फिर इस सामाजिक ताने-बाने की क्या आवश्यकता है ..?  तृष्णा से ही हर भले बुरे कार्य सम्पन्न होते है । प्रणय, वैराग्य और सन्यास भी तो इसी तृष्णा की ही उपज है न..।  मैं तो इसी लौकिक जगत के में विश्वास रखता हूँ। मेरे लिये अलौकिक शब्द  सिर्फ काल्पनिकता है। जैसा कि मेरा बाल मन चाँद- सितारों में अपनी माँ को ढ़ूंढा फिरता है।
 अतः  उपदेशकों की जलेबी की तरह गोल- गोल बातें मुझे बिल्कुल समझ में नहीं आती है ..।
    और न ही यह कि जैसा कर्म करेगा, वैस फल देंगे भगवान , यह है गीता का ज्ञान...
    मैं तो  इंसान को नियति का खिलौना मानता हूँ। धर्म- कर्म से इस निष्ठुर नियति को क्या मतलब।
     आज अपने शहर के कसरहट्टी इलाके से गुजर रहा था। देखा  पीतल के बर्तन बनाने वाले तमाम श्रमिक हाथ और पैर की एड़ी से भी बर्तन बनाने वाले पीतल के चादर को रगड़- रगड़ कर चमका रहे थें। इन्हीं में कुछ वृद्ध श्रमिक भी थें।  जिन्होंने होश सम्हालते ही इस क्षेत्र में आकर पापी पेट के लिये काम करना शुरू कर दिया था और अब उनके जीवन की चिमनी बुझने को है, सो भभक रही है। तन-मन- धन तीनों ही खो चुके हैं ऐसे बर्तन निर्माण करने वाले मजदूर , फिर भी बिल्कुल यंत्र मानव की तरह कार्य करते ही जा रहे थें , ये सभी। मेरा भावुक मन कांप उठता है , दुर्गा देवी मंदिर वाले इस मुहल्ले से होकर गुजरने से । जब साइकिल के पहिये ही आगे को बढ़ना नहीं चाहते हैं, यह सब देख कर ,तो बाइक और कार से चलने की अभिलाषा भला कहाँ से जगेगी..?
 सोच रहा हूँ कि इस बर्तन मंडी जैसे ही श्रमिकों एवं दीन हीन लोगों के अनेक ठिकाने हैं , इस दुनिया के मेले में , जहाँ के शोरगुल में इंसानियत का जनाजा यूँ ही खामोशी से निकलता रहता है..
    मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन
     आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ..

     कल धनतेरस है, सो इस दुर्गा मंदिर के बाहर बड़े से स्टाल पर देशी घी की तमाम तरह की मिठाइयाँ, काजू नमकीन सहित अन्य सामग्रियाँ सजी हुई हैं। बड़े लोगों की खरीदारी जारी है। यहाँ अपने शहर में दुर्गा पूजा और रामलीला कमेटियों से जुड़े आयोजक भी पांच दिवसीय दीपामाला पर्व पर मिष्ठान तैयार करवा प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों से अपेक्षाकृत कुछ कम मूल्य पर ब्रिकी किया करते हैं। फिर भी दुर्गा मंदिर के सामने ही बर्तन बना रहे तमाम श्रमिकों में से किसी को भी मैंने मंदिर के बाहर सजे इन महंगी मिठाइयों को खरीदते -खाते नहीं देखा। इन श्रमिकों की छोड़े मेरे जेब में स्वयं कभी इतना पैसा नहीं था कि मैं मंदिर पर जाता तो मुझे मिठाई मिल जाती , आधे मूल्य पर..। तब न समझ में आता कि  गरीबों के लिये भी मंदिर और रामटेक पर बिक रहीं मिठाइयों को खरीदने का विकल्प है। खैर, अब पहचान वाला पत्रकार हूँ, तो महंगी से महंगी मिठाइयों के अनेकों डिब्बे मेरे पास भी आते रहते हैं, परंतु मैंने स्वयं इनका त्याग कर दिया है, तो जो मिला उसमें से अधिकांश बांट देता हूँ।
     दूसरी और यहाँ मंदिर पर बड़े लोग सैकड़ों डिब्बे मिठाई दनादन बंधवा रहे हैं। बेचारे मजदूर तो ऊपरवाले का नाम ले, अपने मन की इच्छाओं का दमन कर लेते हैं , परंतु इन गरीबों के बच्चों को कभी आप ने दूर से टुकुर- टुकुर ताकते इन मिष्ठानों की ओर देखा है..? यही कहेंगे न कि कहाँ फुर्सत है भाई , यह सब देखने और सोचने की। अपने बीवी-बच्चे की डिमांड पहले पूरी करूँ कि  बेफिजूल की बातों में उलझा रहूँ। ठीक हो तो सोचते हैं सभी, अब " अपना परिवार " का मतलब यही तो है न कि मियां- बीवी और उनके बच्चे.. ?  जब अपना परिवार का दायरा ही इतना संकुचित हो गया है, तो फिर बाहरी दुनिया में कौन-कैसे जीवन व्यतीत कर रहा है , उसमें झांक ताक से क्या मतलब।जब भी मैं इस मंदिर के बगल वाली गली से गुजरात हूँ, तो एक ही प्रश्न मेर मन में हर बार उठता है कि कहाँ हैं, इनके भगवान..? दिन भर ये श्रमिक परिश्रम करते हैं , अपने कर्म पथ पर डटे हैं और इनमें से अनेक बुरी आदत से ग्रसित भी नहीं हैं। फिर क्यों इनके पास इतना धन नहीं हो पाता कि मंदिर के बाहर सजी देशी घी की ढ़ेरों मिठाइयों में से एक- दो किलो अपने परिवार के लिये भी खरीद लें। न कर्म में इनके कोई अवगुण है, न ही धर्म में। ये सभी इन भद्रजनों से कहीं अधिक निष्ठा एवं विश्वास से मंदिर के चौखट पर शीश नवाते हैं।
      जब हम  नियति का तमाशा हैं, कोई पैमाना नहीं है ,कुछ भी कर्मफल तय नहींं है,  तो फिर क्यों दैव- दैव पुकार नेत्रों से नीर बहाऊँ ,  इन उपासना स्थलों  पर ..??

     बचपन में यह सब बहुत किया, निष्काम भाव से किया, युवावस्था की और बढ़ा तो काशी में रह कर ब्रह्ममुहूर्त में नियमित  गंगा स्नान किया ,शिव मंदिरों में  अपने आराध्य देव को कमंडल से गंगा जल भी चढ़ाया और संतों के प्रवचनों पर भी कान दिया। फिर भी नियति के समय चक्र ने मुझे यतीमों से भी बदतर जीवन दे रखा है।
   जब सभी को तीज- त्योहार मनाते देखता हूँ, तो मेरे इस विकल मन की वेदना भी अनंत हो जाती है..

  पतझड़ सा जीवन है, प्यार की बहार दो
 प्यासी है ज़िंदगी और मुझे प्यार दो
 प्यार का अकाल पड़ा सारे ही जग में
 धोखे हुए हर दिल में, नफ़रत है रगरग में
 सब ने डुबोया है मुझे, पार तुम उतार दो
 मेरी तमन्नाओं की तकदीर तुम सँवार
 दो प्यासी है ज़िन्दगी तुम मुझे प्यार दो ...
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   यह नियति कितना निष्ठुर है, ऊपर पोस्ट मेरा यह समाचार फुर्सत से आप भी पढ़े , फिर विचार करें...!!


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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