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Wednesday 9 September 2020

औक़ात

औक़ात
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  अरुण दा अब हमारे बीच नहीं रहें। कोरोना संक्रमण ने शोषित-उपेक्षित वर्ग के हक़-अधिकार के लिए ताउम्र संघर्ष करने वाले इस सादगी पसंद राजनेता को जिस दिन अपने गिरफ़्त में लिया,उसी दिन यह आशंका गहरा गयी थी कि  दादा का उसके खूनी पंजे से बचना संभव नहीं है। उनके शरीर में पहले से ही वे सारे रोग मौजूद थे,जिसके गृह में प्रवेश करते ही कोरोना की मारक क्षमता प्रबल हो जाती है, इसलिये उन्हें बचाया नहीं जा सका। तमाम छोटे-बड़े श्रमिक आंदोलनों में कभी मेघ-गर्जना करने वाले इस महान आत्मा के निधन पर मानो पूरा शहर शोकाकुल हो उठा था। एक सच्चे जनसेवक के लिए इससे बड़ी और क्या श्रद्धांजलि होगी ? मृत्यु तो जीवन का अंतिम सत्य है। प्राणी चाहे कितना भी सामर्थ्यवान हो, किन्तु मृत्युदेवी के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पण करना ही पड़ता है।

      वैसे, उम्र के इस पड़ाव पर उनकी राजनैतिक गतिविधि शिथिल पड़ गयी थी, किन्तु इस शहर में दबंग राजनेता के रूप में उनकी वही पुरानी पहचान कायम थी। वे किसी पद-प्रतिष्ठा के मोहताज नहीं थे। उन्होंने विलासिता के जाल में फँस कर अपने संस्कारों को कभी गिरने नहीं दिया। सफेद मोटा कुर्ता पहने कद-काठी से मज़बूत इस शख्स में न जाने कौन-सा ऐसा जादू था कि उसकी एक आवाज़ पर असंगठित मज़दूर  तबके के लोग अनुशासित सिपाहियों की तरह एक मंच पर आ जुटते थे। जो अरुण दा को देवता समझते , उनकी पूजा करते और उनके लिए प्रचंड शासन-शक्ति से भी टकरा जाते थे। 

     अरुण दा जब कालेज में पढ़ते थे, तो उन्होंने अपनी छात्र राजनीति को श्रमिक वर्ग के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था।  किसकी मजाल  कि किसी मज़दूर को मजबूर समझ वह उसका गला हलाल कर दे ? दादा की युवा फ़ौज उस पर हल्ला बोलने को तत्पर रहती थी। विधाता ने उन्हें अच्छी कद-काठी , अक्खड़पन के साथ कड़क आवाज़ भी दे रखी थी। वैसे भी जो व्यक्ति अपने ईमान पर डटा हो, उसे किसी प्रलोभन से डिगाना हँसी खेल नहीं होता है। मजदूरों के इस मसीहा पर आँखें तरेरने का मतलब था --'बर्रे के छत में हाथ डालना !' इसलिये धनबल और बाहुबल से यहाँ काम नहीं लिया जा सकता था। धनिकों का जुगाड़ तंत्र भी बेमानी था, कौन अफ़सर चाहेगा कि ऐसे आंदोलनकारी से बेज़ा उलझकर  नगर की शांति भंग होने दिया जाए।  और फिर तबादले से बचने के लिए वह 'कुर्सी पकड़' में अपनी ऊर्जा व्यर्थ करे। 

      उनकी राजनीति जब चटकी तो सोशलिस्ट संगठनों ने आगे बढ़ कर सलामी ठोकी थी। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं का सानिध्य प्राप्त हुआ और इसतरह से उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन इसी श्रमिक वर्ग को समर्पित कर दिया था। ऐसे तबके के प्रति उन्हें सच्चा प्रेम था और इनके साथ अन्याय होने पर उनका हृदय तिलमिला उठता था, क्योंकि अन्य राजनेताओं की तरह ये सब उनके लिए 'वोट बैंक' नहीं थे। जिसका परिणाम यह रहा कि ऐसे अभागों पर अत्याचार कर जो लोग हँसते और तालियाँ बजाते थे, वे सब सहम उठे थे। 
   
     किन्तु सियासत में साफ़गोई भला कहाँ चलती है। यहाँ तो बगुला भक्त बन उन्हीं मछलियों को गटकना होता है, जो उसपर विश्वास करती हों। सो,इन ग़रीबों संग दग़ाबाज़ी वे कैसे कर सकते थे, इसीलिये सिद्धांत विहीन राजनीति करने वाली पार्टियों संग उनकी विधि न बैठ पायी। वे फिर से एकला चलो रे.. की डाक लगाने लगें। अब तरुणाई ढलने लगी थी। यहाँ तक की अपना घर भी नहीं बसाया ,क्योंकि उनका मानना था कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा यह वर्ग ही उनकी संतान है। जिनके लिए उन्हें कुछ करना है।

       अपने देश की सियासत का हाल यह है कि पूरे पाँच वर्षों तक बड़े राजनैतिक दलों के जनप्रतिनिधियों को कोसने वाली जनता को जब भी अपना प्रतिनिधि बदलने का अवसर मिलता है, तो वह फिर से दल, जाति और मजहब के मकड़जाल में उलझ जाती है। उसकी मति मारी जाती है, क्योंकि अगले पाँच वर्षों तक उसे पुनः हाय-हाय करने की आदत-सी पड़ चुकी है। अपनी जनसेवा के बल पर किसी निहंग द्वारा आम चुनाव जीतना इस अर्थयुग में चमत्कार से कम नहीं है। जनता की इसी कमजोरी का लाभ उठा कर धनबल, बाहुबल और जातिबल से संपन्न लोगों ने लोकतंत्र को जुगाड़तंत्र में बदल रखा है। जिस कारण सफ़ेदपोश जनता के लिए काम करने वाले सच्चे राजनेताओं को उनकी औक़ात जनता की अदालत में ही बता देते हैं, ताकि उसका मनोबल इसप्रकार से टूट जाए कि या तो वह राजनीति से सन्यास ले ले अथवा उन जैसे गिरगिट लोगों की टोली का हिस्सा हो ले। 

   किन्तु उस वर्ष म्युनिसिपैलिटी के इलेक्शन ने इतिहास बदल दिया था । बात सन् 1995 की है। निहंगों की फ़ौज को न जाने क्या सूझी कि उसने अपने प्रिय नेता का राजतिलक करने की ठान ली । चेयरमैन के उम्मीदवार के रुप दादा के नाम की घोषणा होते ही शहरी राजनीति में वर्चस्व रखने वाले एक दल के नेताओं ने उपहास किया था-"अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। इस चुनाव में उसे अपनी औक़ात समझ में आ जाएगी ।"

       उनका कहना अनुचित न था। एक और विशाल संगठन और उसके पारम्परिक समर्थक और दूसरी ओर मुट्ठी भर लोग। न कोई संगठन- न पार्टी। सबसे कठिन कार्य तो यह था कि घर-घर जाकर अपरिचित चुनाव चिन्ह की पहचान करवाना। और तभी श्रमिक वर्ग का सिंहनाद सुनाई पड़ा था- "अरुण नहीं,यह आँधी है, मीरजापुर का गाँधी है ।" इक्के, ठेले, रिक्शे और खोमचे वालों से लेकर हर मजदूर की जुबां पर सिर्फ़ यही जुमला था। देखते ही देखते ये मज़दूर मजबूर नहीं मज़बूत दिखने लगें ।  वज्रपात-सा हुआ था प्रतिद्वंद्वियों पर। चुनाव परिणाम जब आया तो औक़ात बताने वालों को खुद अपनी औक़ात समझ में आ गयी थी।

     यह चेयरमैन पद उनके जीवनभर की कमाई रही। जनता ने इस विश्वास के साथ उन्हें मीरजापुर का प्रथम नागरिक बनाया था कि जो व्यक्ति पूर्णतया निःस्वार्थ है,जिसे धन और कीर्ति की लालसा नहीं है,वही अन्य की अपेक्षा उत्तम कार्य कर सकता है।

    ख़ैर, इस  चुनाव के बाद दुबारा कोई इलेक्शन अरुण दा भी नहीं जीत सकें,क्योंकि जीवन में सुनहरा अवसर सदैव नहीं आता है। फिर भी उन्होंने अपने कार्यकाल में जनहित में जो कार्य किये,उसका गुणगान आज भी होता है।  किसी भी इंसान को उसका यही व्यक्तित्व और कृतित्व  अमरत्व प्रदान करता है।

---व्याकुल पथिक