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Wednesday 16 May 2018

और भूत भाग गया


               और भूत भाग गया
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           कोलकाता के बाद जिस शहर की ओर भाग चलने के लिये आज भी मेरा मन मचल उठता है, वह पश्चिम बंगाल राज्य के दार्जिलिंग जिले का खूबसूरत पहाड़ी इलाका कालिंपोंग है। दो बार मुझे यहां रहने का अवसर मिला था।  न शोर , न प्रदूषण, न ही दार्जिलिंग की तरह बहुत अधिक ठंड ...मित्रमंडली की भी कोई कमी नहीं। वहां शहर के नेपाली लड़के लड़कियां भले ही पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित तब दिखें। अलग प्रान्त की मांग गोरखालैंड आंदोलन का उन पर प्रभाव था। लेकिन,पहाड़ी  क्षेत्र के वासिंदों का भोलापन मुझे खूब लुभाता था। शाम होते निश्चित ही घंटे भर के लिये घुमने निकल जाया करता था। वहीं सुबह जब एक बड़ा सा ऐपल चबाते हुये दुकान पर पहुंचता था, तो पड़ोसी सैलून और पान की दुकान पर खड़े लोग मेरे स्वास्थ्य में परिवर्तन हुआ देख मुस्कुरा भी पड़ते थें।  जैसा कि बता ही चुका हूं कि इंटर की परीक्षा देने से पूर्व ही घर में सबके होते हुये भी एक दादी को छोड़ दें, तो मैं यतीम ही था ! समय कट नहीं रहा था  ऐसी मनोदशा में मेरा एक अनजान पहाड़ी इलाके में बिल्कुल  अकेले जाने का संयोग बन गया। एक छोटी सी अटैची में कुछ कपड़े साथ ले, ट्रेन पर बैठा और देर रात सिलिगुड़ी रेलवे स्टेशन पर जा उतरा। वहीं रेलवे के विश्रामगृह में गैंगटोक जा रहे एक हमउम्र लड़के से मुलाकात हो गयी।  वह मेरी घबड़ाहट समझ गया। सो, बोला भाई मत परेशान हो, सुबह बता दूंगा कि बस कहां से पकड़नी है। दरअसल , उसी स्थान से दार्जिलिंग, गैंगटोक और कलिंपोंग तीनों ही जगह के लिये बस मिलती थी । जब बस तिस्ता नदी पर बने पुल पर पहुंचा, तो नेपाली चालक ने हम यात्रियों से अपनी भाषा में कुछ कहा था। खैर , मैं कालिंपोंग जा पहुंचा  और छोटे नाना जी की मिठाई की दुकान का नाम पूछता वहां भी आ गया। नाना जी काउंटर पर बैठें हुये थें, मुझे देख कर बड़े प्रसन्न हुये। उन्होंने अपने छोटे वाले पुत्र जो अवस्था में मुझसे छोटे थें, के साथ काफी दूर पहाड़ की चढ़ाई पर स्थित अपने घर पर भेज दिया। जहां नानी जी ने भी मेरा स्वागत उसी अपनत्व के साथ किया। परन्तु मेरे जीवन की जो सबसे बड़ी परीक्षा थी, वह तो रात में शुरू हुई, क्यों कि मुझे सोने के लिये बीच वाली मंजिल पर भेज दिया गया। वहां ऐसा नहीं था कि आप सीढ़ी से झट ऊपर नीचे कर लें। बाहरी पहाड़ी रास्ते से ही दूसरी मंजिल तक पहुंचना था। उतने बड़े फ्लैट में भला अकेले मुझे नींद आती भी तो कैसे! ऊपर से तेज हवा के कारण पहाड़ी वृक्षों की आपस में रगड़ से विचित्र तरह की आवाज भी आ रही थी। पहली बार ऐसे क्षेत्र में मुझे अकेले छोड़ दिया गया था और मैं जानता था कि यदि जोर से भी पुकार लगाऊंगा, तो भी सुनने वाला कोई नहीं है। बचपन में भूतप्रेत, चुड़ैल की बातें दादी और मम्मी करती ही थीं  साथ ही ड्रैकुला वाला कामिक्स भी मैंने खूब पढ़ रखा था। सो, बंद खिड़की के उस पार से आ रही आवाज सुन मन बेहद घबड़ा उठा था। उसी मनोस्थिति में कब अटैची से राम चरित मानस की पुस्तक निकाल कर हाथ में ले ली, पता नहीं। हां, हनुमान चालीसा तो वैसे भी मुझे तब याद था ही। सो , पूरी रात पाठ करते ही गुजर गयी। सुबह जब वहां काम करने वाली नेपाली युवती ने दरवाजे पर दस्तक दी, तो जान में जान आयी थी। लेकिन , मेरे लिये अच्छी बात यह रही कि मेरे मन का भूत उसी रात ही भाग गया। फिर तो वहां  जहां भी रहा , अकेले ही बड़े हालनुमा कमरे में रहा। क्योंकि बाद में बस स्टैंड के पास ही नाना जी के पुराने खाली आवास पर आ गया था। बगल में एक पड़ोसी अंकल से मेरी खूब बनती थी। उसी समय जबर्दस्त भूकंप पहाड़ी क्षेत्रों में आया था। भय से अड़ोस पड़ोस के लोग घर छोड़ बाहर मैदान में आ जुटे थें, एक मैं ही अपने कमरे में खर्राटे भरता पड़ा था। मानों हर भय से मुक्त हो चुका था !
     मैं कोलकाता को खोने के बाद कलिंपोंग बिल्कुल नहीं छोड़ना चाहता था। इसीलिये कुछ वर्षों बाद फिर गया वहां, परन्तु एक बंजारे का भला कहां कोई एक ठिकाना  है !

       यह जान कर भी कि एक एक कर सभी अपनों से दूर होता रहा हूं , फिर भी जिस गाने की बोल दूर से ही सुनकर मैं अब भी चहक उठता हूं, वह है-

चलते चलते मेरे गीत याद रखना, कभी अलविदा ना कहना..

शशि 17/5/18