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Tuesday 22 May 2018

वीणा के तार में समाया है हर रिश्ते का संतुलन !



          उस नादान उम्र में पिता के सामने समर्पण न करने का जो भयावह दंड मिल रहा है, ढलता यौवन यह मुझे महसूस कराने लगा है। वह एहसास करवा रहा है कि यदि थोड़ा सा धैर्य रखते तो शिक्षा पूरी कर किसी दफ्तर के साहब होते तुम भी जनाब ..
               देखें न जब से वाराणसी में फ्लाईओवर हादसा हुआ है और जिस कारण मार्ग बंद होने से देर शाम वहां से मीरजापुर के लिये कोई भी यात्री बस नहीं मिल रही है, तभी से सुबह साढ़े चार बजे पेपर (रात वाला) जीप से आ रहा है। सो,चार बजे ही उठ जाना पड़ता है। फिर साढ़े सात बजे तक लगातार  साइकिल चला कर पूरे नगर में पेपर वितरित करता हूं। थका हुआ शरीर जब विश्राम की चाहत रखता है, तो सामने सबसे बड़ी जिम्मेदारी अखबार के लिये समाचार भेजने की होती है। तमाम ताजी घटनाओं की जानकारी लेना, राजनैतिक विशलेषण, सामाजिक गतिविधियां सभी इन सभी समाचारों को मोबाइल पर टाइप करते करते दोपहर बीत जाता है। इन दिनों रात्रि 12 से सुबह 4 बजे  सिर्फ चार घंटे ही शयन को मिल रहा है। बदन पीड़ा से टूट है,आंखें भरी हुई हैं। ऊपर से ब्लॉग लेखन का नया रोग पाल लिया हूं। इतना अधिक श्रम कर पैसा कितना अर्जित कर रहा हूं, यह जान कर आप मुझे पूरा का पूरा विक्षिप्त समझ लेंगे, क्यों कि 5 रुपये का पेपर मैं  90 रुपये महीने में ही दे देता हूं, खरीद मूल्य पर। चार पन्ने का अखबार और पांच रुपया कीमत भला कौन ग्राहक देगा ! और जिन्हें मैं पेपर देता हूं न साहब वे कोई ग्राहक छोड़े ही हैं कि जिनकी जेब पर मैं डांका डालूं। ये सभी मेरे शुभचिंतक हैं, अग्रज हैं, मित्र बंधु हैं, अभिभावक हैंं और मेरे दर्द को अपना समझने वाले हैं। एक पत्रकार ,एक पत्र विक्रेता  से इतर उनके दिल में मेरे लिये एक कोना है। ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैं पेपर बंद नहीं कर पा रहा हूं। अन्यथा इस स्थिति में हूं कि बिना शारीरिक श्रम किये ही दो जून की रोटी मस्ती से खा सकता हूं !
             उम्र के इस पड़ाव पर ,जब मैं दुनिया की हर तस्वीर देख चुका हूं और एक जागरूक पत्रकार के रुप में समाज में पहचान भी रखता हूं। जो कुछ लिखता हूं, उसका प्रभाव समाज पर पड़ता है, यह जानता भी हूं । तो ब्लॉग लेखन के दौरान यह मेरी जिम्मेदारी है कि गुमराह होते किशोर और युवा वर्ग को भटकाव की स्थिति में ना ला खड़ा करुं.. उनका सही मार्ग दर्शन हम नहीं , तो फिर कौन करेगा ! बंधुओं मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि माता पिता पर कभी भी दोषारोपण न करें। आज मेरी जो पहचान है, वह पिता जी का अनुशासन ही तो है। उनका स्वाभिमान ही हमारे रगों में रचा बसा है। तभी  तो भटकाव भरी राह पर भी यह स्मरण सदैव रहा कि मैं मास्टर साहब का लड़का हूं। उस शख्स का जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में हम सभी को आलू के चोखे में पानी डाल सब्जी की तरह उसे खा लेने की शीक्षा दी थी, फिर भी हाथ किसी रिश्तेदार के सामने पापा को फैलाते कभी नहीं देखा। उस गरीबी में भी हमारे परिवार में सबकुछ ठीक ठाक रहा। हां, दादी अलग रहती थीं। लुक छिप कर हम भाई बहन उनके कमरे की ओर भाग आते थें। पता नहीं क्यों घर में निजी विद्यालय खुलने के बाद इधर हम सभी की आर्थिक स्थिति में सुधार आई और उधर परिवार में बिखराव भी शुरु हो गया। स्नातक की पढ़ाई छोड़ मेरा छोटा भाई घर से दूर दवा कारोबारी के यहां चला गया। छोटी बहन का विवाह मम्मी ने अपनी खास सखी के पुत्र से करवाया था। एक लड़का होने के बाद वह ससुराल से मायके आयी तो फिर कभी जबलपुर नहीं जा सकी। सो, एक नादान किशोर की तरह अपने अभिभावकों को कठघरे में खड़ा करने की जगह मैं नियति के खेल के समक्ष नतमस्तक हूं। जब कभी हृदय की वेदना बढ़ती है, तो बुद्ध से जुड़ी सबक याद आती है।

    "वीणा के तार को इतना मत कसो की सुर बेसुरा हो जाए और इतनी ढील भी मत दो की सुर ही न निकले "

    हर रिश्ते का संतुलन इसी में समाहित है।

(शशि)