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Saturday 30 November 2019

बद्दुआ ( जीवन की पाठशाला )

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  बंद कमरे में उनकी सिसकियों को किसी ने नहीं सुनी ..अंततः उनके हृदय में सुलगती यह आग दावानल बन गयी.. जिसमें उनके अपने ही प्रियजन एक-एक भस्म होते गये..
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   अरे !  दादी ये क्या बुदबुदा रही हैं.. क्या वे सच में  बद्दुआ दे रही हैं..मम्मी तो यही कहती हैं कि यह बुढ़िया हमें शाप देती है..परंतु क्यों, वे ऐसी ही हैं..?
  नहीं - नहीं, गलत है यहसब, हमारी दादी तो हम तीनों भाई-बहनों को कितना दुलार करती हैं..हिमांशु कुछ भी नहीं समझ पाता था कि यह उनका शाप था अथवा विलाप..।
   जब भी सास-बहू में वाकयुद्ध प्रारम्भ होता, वह सहम कर  कमरे के किसी कोने में दुबक जाता था, क्योंकि उसे मालूम था कि अब जबतक स्थिति सामान्य नहीं होगी, दादी से मिलने नहीं दिया जाएगा.. फिर कौन सुनाएगा उसे बेलवा रानी की कहानी.. ।
  यह दादी ही थी जिनकी खटिया पर कथरी में घुस कर वह हर रात नयी कहानियाँ सुना करता था..दादी के घुटने और पांव के सहारे झूलता रहता था..लाड और दुलार की उन थपकियों को भला आज भी वह कहाँ भूल पाया है।
  आखिर अपने ही घर में दादी परायी क्यों हो गयी थी ..वे अपना भोजन स्वयं क्यों बनाती थीं.. ?
  और एक अकेला इंसान अपने लिए कोई विशेष व्यंजन बनाये भी तो क्या .. पेट भर जाए यह कम नहीं है ..।
  हिमांशु इससे भलीभांति परिचित है..वह स्वयं भी तो पिछले ढाई- तीन दशक से कुछ ऐसा ही जीवन व्यतीत कर रहा है..।
 अतः वह समझ सकता है कि अपना परिवार होकर भी भोजन की थाली परायी होने की पीड़ा कितनी होती है.. परंतु स्वाभिमान नाक उठाये जो खड़ा रहता है..।
  उसकी दादी भी ऐसी ही थी..तीज-त्यौहार पर घर में पकवान बनते देख दिल मसोस कर रह जाती थी.. पर जबतक पौरूख चला , लिया किसी से कुछ भी नहीं.. यहाँ तक की सरकारी वृद्धा पेंशन भी उनसभी पर लुटा दिया करती थी.. ।
     हिमांशु जब समझदार हुआ, तो उसे अपनी दादी के जीवन-संघर्ष यात्रा की खोजखबर लेनी शुरू की .. पता चला कि वे बड़े बाप की लाडली बेटी हैं.. विवाह भी संपन्न परिवार में हुआ था..परंतु मीनाबाजार में पति के पांव फिसल गये.. तीन पुत्रियों के साथ एक महिला फिर कैसे बिताती पहाड़ जैसा शेष जीवन ..वह भी बनारस में , जहाँ -”राड़, सांड, सीढ़ी, सन्यासी इनसे बचें तो सेवें काशी” जैसी उक्ति मर्दों की जुबां की शोभा थी..।
उस जमाने में पुनर्विवाह भी कहाँ आसान  था..ऐसे में एक परित्यक्ता , वह भी तीन लड़कियों की माँ को भला कौन गले लगाता..?
 उन्होंने इन पुत्रियों के साथ अपने जीवन में वह संघर्ष किया था, जिसे देख बड़े- बुजुर्ग दाँतों तले उँगली दबा लेते थें..।
  उन्हें इस वेदना से तब मुक्ति मिली, जब उनका पुनर्विवाह करवा दिया गया.. अल्पकाल में ही उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई..और फिर इस अनपढ़ दम्पति ने यह संकल्प लिया कि उनका पुत्र भविष्य में उनकी तरह अपनी छोटी-सी मिठाई की दुकान पर हलवाई बनकर न तो भट्टी में कोयला झोंकेगा और न ही कड़ाही माँजेगा..वह तो पढ़-लिख कर राजाबाबू बनेगा..।
  तीन पुत्रियों का विवाह , पुत्र को उच्चशिक्षा दिलवाने के साथ ही उसकी दादी ने शहरी इलाके में अपना घर भी खरीद लिया था..।
   पुत्र का विवाह कोलकाता के एक सभ्रांत और संस्कारित परिवार की बेटी के साथ संपन्न करवा इस दम्पति ने अपना नैतिक कर्तव्य पूरा किया..।
  पर बड़ा सवाल  यह था कि उनकी हलवाई की दुकान कौन देखेगा..हिमांशु के दादा का स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था..और  उधर आजीविका के साधन के अभाव में उसके पिता का अधिकांश समय ससुराल में कटता था..जहाँ का ठाठबाट देख वे हीनभावना से ग्रसित होते जा रहे थें.. ।     हिमांशु के दादा की अंतिम इच्छा थी कि वे अपने पौत्र को देख लें .. परंतु ऐसा संभव नहीं हो सका और वे भी उसकी दादी को जीवनपथ पर अकेला छोड़ चले गये..।
    उधर, उसके पिता की ससुराल में न बनी और यहाँ बनारस में भी वे एक कुशल अध्यापक बनने के लिये अभी संघर्ष ही कर रहे थें..। सो, घर की आर्थिक स्थिति डांवाडोल होती चली गयी, साथ ही उनका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता गया..। सास-बहू के मध्य इस तंगहाली में अहम के टकराव से जिस मधुर संबंध में संवेदना एवं स्पंदन होना चाहिए वह स्वार्थ के तराजू पर चढ़ गया.. और फिर ऐसा हालात उत्पन्न हुआ कि जो पुत्र मासूम बालक-सा  सदैव अपनी माँ के आँचल में दुबका रहता था..अब वह उनसे दूर हो चला..।
    उसकी दादी ने पुत्रवियोग की इस अप्रत्याशित वेदना को अपने सीने में दबा लिया.. जिस घर को पैसा जोड़-जोड़ कर खरीदा था, वह उसकी मालकिन भी न रही..न ही कोई आसपास रहा..
अब वे एक कमरे में अकेले रहने लगीं ..हाँ, जब मन उदास होता था तो अपना दर्द बांटने पुत्रियों के ससुराल चली जाया करती थीं..।
  और फिर घर वापसी पर जब कभी उन्हें अपने इकलौते पुत्र पर से अधिकार खोने का संताप होता था .. विकल हृदय का यह विस्फोट जुबां पर आ जाता था..ऐसा कर तब उनके उद्विग्न चित्त को तनिक विश्राम मिलता था..।
    अब इसे गाली समझे, बद्दुआ कहें अथवा उनका रुदन..उनकी मनोदशा को कोई नहीं समझ पाता था..जिसे अपने बहू-बेटे से सम्मान और दो वक्त की रोटी की उम्मीद थी..जिस लालसा में कठोर से कठोर दुःख सहन कर अशिक्षित होकर भी अपने पुत्र को उस जमाने में उच्चशिक्षा दिलवाई थी..  इस स्नेह- समर्पण का क्यों कोई मोल नहीं..? वह क्यों जीवनदायिनी गंगा माँ से बहता पानी बन गयी ..   बंद कमरे में उनकी सिसकियों को किसी ने नहीं सुनी ..।
  अंततः उनके हृदय में सुलगती यह आग दावानल बन गयी.. जिसमें उनके अपने ही प्रियजन एक-एक भस्म होते गये..।
  वह विद्यालय जो हिमांशु के माता- पिता के अथक परिश्रम की कमाई थी..जिसके निर्माण के लिये दादी ने अपना प्रिय बैठका ( किसी मकान के आगे का कमरा ) छोड़ दिया था, वे पीछे के कमरे में चली गयी थीं .. उन्हें इस त्याग के लिए घर की बनी दो वक्त की रोटी मिला करती थी..साथ ही चाय की वह प्याली , जिसके लिए  वे सुबह-शाम दरवाजे की ओर टकटकी  लगाये अपनी पौत्री का पदचाप सुनने का प्रयत्न करती थीं..।
दादी के निधन के पश्चात वह स्कूल भी नष्ट हो गया और सबकुछ बिखर गया..।
  हाँ, यह बद्दुआ ही थी कि जिस परिवार के बच्चे अपनी कक्षाओं में विशिष्ट पहचान रखते थें , उनकी शिक्षा अधूरी रह गयी। परिस्थितियों ने उन दोनों ही भाइयों को अपना घर त्यागने के लिये विवश कर दिया.. वह स्वप्न जिसे इनके अभिभावकों ने देखा था कि वे अपने शिक्षित पुत्रों और पुत्रवधुओं के साथ अपने विद्यामंदिर को विस्तार देंगे.. समाज में उनकी प्रतिष्ठा और ऊँची होगी, वह बिखर गया..उनकी इकलौती लाडली पुत्री  के लिये ससुराल पराया हो गया..वह अपने पुत्र के साथ बुझे मन से सदैव के लिये मायके आ गयी..जिसने अपने पिता के मृत्यु से दो दिन पहले अपनी माँ के आँखों के समक्ष ही दम तोड़ दिया..।
     और दादी का वह दुलारा पौत्र ,  जिसके आगमन की प्रतीक्षा उन्होंने मृत्युशैया पर अंतिम सांस तक की..उस तंग कमरे में जहाँ उनकी देखरेख करने कोई नहीं आता था.. वह भी उनकी सुधि लेने नहींं आया..।
    वह निष्ठुर हिमांशु तो वर्षभर पूर्व ही अपनी वृद्ध दादी को एकाकी छोड़ आजीविका की तलाश में बहुत दूर जा चुका था..उसे आज भी याद है कि उसकी प्यारी दादी ने किस तरह से डबडबाई आँखों से ट्रेन के डिब्बे में उसे चढ़ते देखा था.. सम्भवतः उन्हें आभास हो गया था कि यह आखिरी मुलाकात है..।
  वापस घर लौटने पर हिमांशु को उसके मित्र ने बताया था - "  दादी कितनी बेचैनी से तुम्हारे पत्र का इंतजार किया करती थी और फिर धीरे-धीरे वे खामोशी के चादर में लिपटते चली गयीं..  आखिरी बार तुम्हें देखने की लालसा लिये अनंत - यात्रा पर निकल गयीं ..। "
  नियति की यह कैसी क्रूरता थी कि जिस दादी ने अपने भोजन की थाली से सदैव उसका भूख मिटाया.. जो अपने आँचल में छुपा कर उसके लिये रोटी लाती थी..वह उनका अंतिम दर्शन करने न आ सका..।
  वापस लौटने पर दादी का सूना कमरा देख .. आत्मग्लानि से चीत्कार कर उठा था हिमांशु ..।
दादी की याद में उस बंद दरवाजे को देख तड़पता रहा वह पूरी रात..

   गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा
   तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
   निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी
   करोगे याद तो हर बात याद आएगी..

  किस तरह से वह रात उसने अकेले गुजारी होगी, जब उसे ऐसा लगता हो कि बगल वाले कमरे से दादी पुकार रही है.. वैसे तो ऊपरी मंजिल पर उसके सभी अपने ही बसे हुये थें.. हँसी-ठहाके की आवाज भी सुनाई पड़ रही थी..किन्तु उसे सांत्वना देने कोई नहीं आया..किसी ने जलपान को भी नहीं पूछा..उसने दो रात भूखे ही गुजार दी थी इसी कमरे में.. और एक दिन वह  सबकुछ छोड़कर पुनः भागा , कभी वापस नहीं आने के लिये..किन्तु यादों की जंजीरों ने उसे यूँ जकड़ा कि आज, दादी के नेत्रों से बही वही अश्रुधारा उसकी पहचान बन गयी है .. निश्चित ही उनकी वह बद्दुआ उसे भी लगी है..बीमार -लाचार यह व्यक्ति अपनों में बेगाना बना स्नेह के दो बूंद के लिए प्यासा भटक रहा है..
 जिसे भी उसने अपना समझा ,उनसभी ने निर्ममता से उसकी हर खुशियों को अपने पांव तले कुछ यूँ रौंदा है, ताकि वह पुनः संभल न पाए..वह धीरे-धीरे अपंगता की ओर बढ़ रहा है.. अपाहिज कहलाने के लिये .. ।

  ( तो यह है एक सभ्य एवं संस्कारी परिवार की  छोटी-सी दर्दभरी कहानी .. ऐसी परिस्थितियाँ न उत्पन्न हो..इस आप भी चिंतन करें , नमस्कार।)
         
              -व्याकुल पथिक

Wednesday 27 November 2019

सुर मेरे (जीवन की पाठशाला)

सुर मेरे ! उपहार बन जा

जिसे पा न सका जीवन में

सुन , मेरा वो प्यार बन जा

फिर न पुकारे हमें कोई

तू ही वह दुलार बन जा

खो गये हैं स्वप्न हमारे

दर्द की पहचान बन जा

न कर रूदन, मौन हो अब

सुर, मेरा वैराग्य बन जा

जीवन की तू धार बन जा

राधा का घनश्याम बन तू

प्रह्लाद का विश्वास बन ना

ध्रुव का हरिनाम बन कर

सुर, मेरा ब्रह्मज्ञान बन जा

अंतरात्मा की आवाज बन

निरंकार - ओंकार बन जा

गीता और क़ुरआन बन ना

झंकृत करे विकल हिय को

तू मीरा की वीणा बन जा

आँखें न रहे कभी मेरी तो

इस " सूर " का साज़ बनना

बनें हम भी बुद्ध- महावीर

तू ही अनहद नाद बन जा

करे उद्घोष सत्य का हम

पथिक का सतनाम बन जा


-व्याकुल पथिक

Monday 25 November 2019

ज़िदगी तूने क्या किया( जीवन की पाठशाला से )


जीने की बात न कर
लोग यहाँ दग़ा देते हैं।
जब सपने टूटते हैं
तब वो हँसा करते हैं।
कोई शिकवा नहीं,मालिक !
क्या दिया क्या नहीं तूने।
कली फूल बन के
अब यूँ ही झड़ने को है।
तेरी बगिया में हम
ऐसे क्यों तड़पा करते हैं ?
ऐ माली ! जरा देख
अब हम चलने को हैं ।
ज़िदगी तुझको तलाशा
हमने उन बाज़ारों में ।
जहाँ बनके फ़रिश्ते
वो क़त्ल किया करते हैं ।
इस दुनियाँ को नज़रों से
मेरी , हटा लो तुम भी।
नहीं जीने की तमन्ना
हाँ, अब हम चलते हैं।
जिन्हें अपना समझा
वे दर्द नया देते गये ।
ज़िंदगी तुझको संवारा
था, कभी अपने कर्मों से ।
पहचान अपनी भी थी
और लोग जला करते थें।
वह क़लम अपनी थी
वो ईमान अपना ही तो था ।
चंद बातों ने किये फिर
क्यों ये सितम हम पर ?
दाग दामन पर लगा
और धुल न सके उसको।
माँ, तेरे स्नेह में लुटा
क्या-क्या न गंवाया हमने ।
बना गुनाहों का देवता
ज़िन्दगी, तूने क्या किया ?
पर,ख़बरदार !सुन ले तू
यूँ मिट सकते नहीं हम भी।
जो तपा है कुंदन - सा
चमक जाती नहीं उसकी ।
व्याकुल पथिक

Tuesday 19 November 2019

कलुआ ( जीवन की पाठशाला )

 
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कलुआ होने का उसे कोई मलाल नहीं है..यह तो उसके श्रम की निशानी है..। हाँ, उसके निश्छल हृदय को कोई काला-कलूटा न कहे..इंसानों की इस बस्ती में फिर कोई शुभचिंतक उसे न छले..और कोई कामना नहीं है उसकी..।
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   अरी सुनती हो.. !
जरा देखो तो तुम्हारे भैया के हाथ की चमड़ी कैसी हो गयी है..कोई क्रीम रखी हो ?
 " छोड़े ,आप भी न ..अब बच्चा तो नहीं रह गया हूँ ..कुछ तो नहीं हुआ है..अवस्था के साथ ऐसे परिवर्तन होते ही रहेंगे ..।"
   मासी माँ को इस तरह से विचलित होते देख रजनीश ने बात बीच में ही काट, उन्हें तनिक तसल्ली दी थी..यह मासी माँ ही हैं ,जो उसपर अब भी अपनी ममता लुटाया करती हैं..उन्हें पता है कि रजनीश को कितने नाजो नेमत से पाला गया है..जब सबने उसे दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका हो, तो अपना कहने को इस संसार में उसका वही (मासी माँ) तो एक हैं..तभी तो इतनी दूर से उसे देखने चली आयी हैं।
    इतने में माँ की पुकार सुन सुकन्या भी आ गयी .. भाई के हाथों के पंजों और चेहर पर दृष्टि पड़ते ही वह चौंक उठती है .. सच में ऐसा सांवला त्वचा भैया का बचपन में कभी नहीं रहा..।
    माँ तो कहती थी कि सिलीगुड़ी के नर्सिंगहोम में जब उसका जन्म हुआ , तब इतना स्वस्थ्य और सुंदर था कि उस बालक को गोद में खिलाने के लिये सभी लालायित रहते थें..।
   फिर उसकी उजले त्वचा का रंग इस तरह श्यामवर्ण कैसे हो गया..!
  खैर, वह ब्यूटीशियन तो थी नहीं..हाँ, अतिरिक्त आय के लिये किसी नामी कम्पनी की सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के कारोबार से जुड़ गई है.. सो ,उसने एक बिल्कुल छोटी-सी डिबिया निकाल भाई को दिया और कहाँ कि इसे लगा लिया करें.. ।
   साढ़े छः सौ रुपये की क्रीम की डिब्बी देख रजनीश के अधरों पर तनिक मुस्कान आ गयी..
 उसे याद हो आया कि अतीत में चंद पैसों के लिये उसने कहाँ- कहाँ नहीं ठोकरें खायी थी ...यह पेट की आग ही थी कि जिसमें झुलस कर वह " कलुआ " हो गया है..।
 अतः सस्नेह डिब्बी वापस कर उसने कहा -
" बहन पचास का हो रहा हूँ, यह मेरे किस काम की, अब तो तेरे भाई को ढलती उम्र से जंग लड़नी है ..। "
    मरघट में रेशमी महल बनाने की अभिलाषा भला रजनीश में बची ही कहाँ है ..उसका पौरूख थकता जा रहा है.. अपनों के तिरस्कार का संताप उसे भीतर ही भीतर दीमक की तरह चाटते जा रहा है..।
    कलुआ होने का भी कोई मलाल नहीं है..यह तो उसके श्रम की निशानी है..।
   हाँ, उसके निश्छल हृदय को कोई काला-कलूटा न कहे..इंसानों की इस बस्ती में फिर कोई शुभचिंतक उसे न छले..और कोई कामना नहीं है उसकी..।
    बीते तीन दशक से जीवन के तिक्त दिनों को सहते-सहते रजनीश यह भूल चुका है कि कभी उसमें मधुर क्षण भी आये थें..।
  नानीमाँ की मृत्यु के बाद ननिहाल से जब वह वापस घर लौटा था ,तो उसके पुराने सहपाठी और मुहल्ले के लोग आँखें फाड़े उसके गोलमटोल मुखड़े को निहारा करते थें .. और धूप में जब वह निकलता , सिर पर छतरी हुआ करती थी..।
   लेकिन, परिस्थितिजन्य कारणों से घर छोड़ते ही उसे कहीं ऐसा ठिकाना  नहीं मिला, जहाँ राजाबाबू की तरह रहता ..।
    वो कहते हैं न कि वक्त की मार सबसे भयानक होती है..अतः पेट की आग से  विवश हो उसने कबाड़ के एक कारखाने में मैनेजरी कर ली थी।
  दिनभर तेज धूप  में खड़े हो कबाड़ तौलाता रहा रजनीश..। परिणाम सामने है उसके शरीर का जो हिस्सा धूप में झुलसता रहा, वह बदरंग हो गया है ।  परिस्थितियों ने उसके कोमल तन-मन पर कभी न छुटने वाला स्याह रंग चढ़ा दी है ।
 फिर कैसे चढ़ता उसपर प्रीत का रंग .. ? किसी का साथ होगा, इसी आस में पैसा- पैसा जोड़ कर गृहस्थी खड़ी की थी..परंतु जीवन की शून्यता और दर्द को उजला रंग कहाँ से देता वह ..।
   स्नेह की नगरी में रजनीश ने जब भी पांव  बढ़ाया  ,उसने महसूस किया कि स्वार्थ के तराजू पर वह स्वयं कबाड़ बना पड़ा है। किसी भी मित्र,संबंधी और शुभचिंतक को उसकी आवश्यकता नहीं है.. कलुआ जो ठहरा वो..उसे तो निष्ठुर नियति की धधकती भट्टी में तपना है..जिसमें एक दिन उसका अस्तित्व विलीन हो जाएगा..  तब वह जड़ पदार्थ बन कर पुनः बाहर आएगा..कोई उसका श्यामवर्ण हर कर श्वेत रंग दे..ऐसे ठठेरे की उसे फिर से प्रतीक्षा रहेगी  .. यही तो है जीवन का रहस्य.. !
   ऐसे ही चिंतन में खोया कलुआ स्वयं को एक दार्शनिक समझने लगा था.. तभी एक मधुर गीत ने उसे फिर से उसी भावनाओं के सागर में ला पटका ..।
  और कलुआ उसमें डूबते चला गया..

मोरा गोरा अंग लइ ले
मोहे श्याम रंग दइ दे
छुप जाऊँगी रात ही में
 मोहे पी का संग दइ दे..

काश ! कभी किसी ने उससे भी यह कह पुकारा होता .. !!
 - व्याकुल पथिक

    

Wednesday 13 November 2019

शब्दबाण ( जीवन की पाठशाला )



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     उसके वह कठोर शब्द - " कौन हूँ मैं ..प्रेमिका समझ रखा है.. ? व्हाट्सअप ब्लॉक कर दिया गया है..फिर कभी मैसेज या फोन नहीं करना.. शांति भंग कर रख दिया है ।" यह सुनकर स्तब्ध रह गया था मयंक..
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Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (शब्दबाण) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन
 अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सुबह का दृश्य कितना आनंदित करने वाला रहा..योग तो वैसे भी मयंक को बचपन से ही प्रिय है.. और आज भी वह अपनी मनोस्थिति पर नियंत्रण के लिये हठयोगी सा आचरण कर रहा है..।
        राग-रंग, प्रेम-विवाह और वासना- विलासिता से दूर हो चुके इस व्यक्ति के जीवन में पिछले कुछ महीनों में न जाने क्या परिवर्तन आया कि मन और मस्तिष्क दोनों पर से वह नियंत्रण खोता चला गया.. उसकी आँखोंं के नीर कहीं इस संवेदनहीन सभ्य समाज के समक्ष उसकी वेदना को उजागर न कर दें , इसलिये उसे एक हठयोग नित्य करना पड़ रहा है..वह है दूसरों के समक्ष सदैव मुस्कुराते रहना..उसने  "मेरा नाम जोकर" के किरदार राजू के दर्द को स्वयं में महसूस किया है। अतः माँ की मृत्यु का समाचार मिलने पर स्टेज पर जिस तरह से उस राजू ने अपने रुदन को अभिनय से दर्शकों के लिये मनोरंजन में बदल दिया.. ठीक उसी तरह वह भी जेंटलमैनों के मध्य ठहाका लगाने का प्रयास कर रहा है। वह कहा गया है न..

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।

सुनी इठलैहैं लोग सब , बांटी न लेंहैं कोय ।।

    लेकिन शाम ढलते जैसे ही एकांत मिलता है , यह हठयोगी उस मासूम बच्चे की तरह सुबकने लगता था ,मानों माँ के स्नेह भरे आँचल से किसी ने उसे निष्ठुरता से अलग कर दिया हो। उसे दण्डित करने से पहले उसके कथित अपराध पर सफाई देने का एक अवसर तक नहीं दिया गया.. इस नयी वेदना की सूली पर चढ़ते हुये भी न्याय की गुहार लगाते रहा वह..।

    ऐसी मनोस्थिति में उसे लगता है -
   " वह न मानव रहा , न दावन बन सका..न कोई उसका मित्र रहा , न वह पुनः किसी से मित्रता का अभिलाषी है..।"
     वेदना, तिरस्कार, उपहास एवं ग्लानि से न जाने क्यों उसका हृदय कुछ अधिक ही रुदन कर रहा है.. वह जिस मित्रता को अपने उदास जीवन का सबसे अनमोल उपहार समझा था..उसका वह विश्वास काँच की तरह चटक कर बिखर गया.. मानों यह "पवित्र मित्रता" कच्ची मिट्टी का खिलौना था..।
   मयंक ने ऐसा क्या कुकर्म किया ..?
वार्तालाप के दौरान सदैव संयमित रहता था, ताकि उस विदूषी मित्र को कभी यह न लगे कि उसका संवाद अमर्यादित है..इस लक्ष्मण रेखा का उलंघन उसने मित्रता टूटने तक नहीं किया..।
   किसी अपने द्वारा तोहफे में दिये गये " भूल, अपराध, पाप और गुनाह " जैसे कठोर शब्द जो उसके कोमल मन को छलनी कर देते थें , उसे भी सिर झुका सहन कर लेता था .. न जाने क्यों वह व्याकुल हो गया उस दिन कि अधिकार भरे शब्दों में तनिक उलाहना दे दिया .. परिणाम ,यह रहा कि इस तन्हाई में इन आँसुओं के सिवा और कोई दोस्त उसके साथ न रहा..।
   व्यथित हृदय के घाव को भरने का उसका " हठयोग " निर्रथक  प्रतीत होता रहा.. मन ऐसा डूबा जा रहा है कि मानों अवसाद उसके जीवन के अस्त होने का संदेश लेकर आया हो..ऐसे में वह अपने व्यर्थ जीवन का क्या मूल्यांकन करे.. ? उसकी निश्छलता का कोई मोल न रहा, सरल और निर्मल मन का होकर भी वह कभी भी स्त्री के हृदय को जीत न सका..उसके निर्मल आँसुओं का उपहास हुआ और वह अपना आत्म सम्मान खो बैठा है..जीवन भर स्नेह लुटा कर भी वह अपने हृदय को दुखाता रह गया..।
      उसने कभी कल्पना भी न की थी कि उसके जीवन में आया वह मधुर क्षण उसे उस अवसाद के दलदल में ले जाएगा..जहाँ न कोई " योग "और न यह " हटयोग " काम आएगा ..!
    जीवन की यह कैसी विडंबना है कि वह जिस विदूषी मित्र में अपनी माँ की छाया ढ़ूंढता रहा, उसी देवी को उसके उस पवित्र स्नेह पर एक दिन न जाने क्यों संदेह हो गया.. ?
     और उसके वह कठोर शब्द - " कौन हूँ मैं ..प्रेमिका समझ रखा है.. ?   व्हाट्सअप
ब्लॉक कर दिया गया है..फिर कभी मैसेज या फोन नहीं करना.. शांति भंग कर रख दिया है ।"
  यह सुनकर स्तब्ध रह गया था मयंक.. जिसे वह मृदुभाषिणी एवं स्नेहमयी देवी  समझता था.. जिसने स्वयं उसे अच्छा मित्र बनने का वचन दिया था.. जो माँ की भांति  महीनों उसकी खोज-खबर लेती रही.. जो स्वयं को उसका अभिभावक कहती थी.. जिसका तनिक भी नाराज होना मयंक के लिये असहनीय रहा..जिसे खुश करने के लिये वह एक मासूम बच्चे सा मनुहार करता था.. उसी विदूषी की वाणी में आज क्यों तनिक दया भाव भी न था.. ?
      शाब्दिक बाण के इस प्रहार ने उसके निश्छल हृदय को मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाई ..लज्जा से वज्राघात- सा हुआ मयंक पर.. उसने डबडबाई आँखों से उस भद्र महिला को अंतिम प्रणाम किया.. और फिर कभी इस आत्मग्लानि से बाहर नहीं निकल सका वह.. ।
  वो, कहते हैं न - "   देखन में छोटन लगे घाव करे गम्भीर । ". . शब्दबाण ऐसा ही होता है..।

    - व्याकुल पथिक

 जीवन की पाठशाला

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इंसान को अपने शब्द तोलकर बोलने चाहिए क्योंकि सामने वाला कोई भी हो आपके शब्दों के बाण उन्हें चुभ सकते हैं। यहां शशी गुप्ता जी ने शब्दबाण पर अच्छा लेख लिखा है और इसे 'आर्टिकल ऑफ द डे' के रूप में चयनित किया गया है। बधाई....😊🙏💐
https://shabd.in/post/110856/shabdban
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Monday 11 November 2019

देव दीपावली


    मैं साहित्य नहीं अध्यात्म की ओर बढ़ना चाहता हूँ। जहाँ " शाब्दिक बाण"  से मिली मर्मान्तक  पीड़ा का सहज उपचार सम्भव है।
  जानता हूँ यह पथ सहज नहीं है, परंतु वह लक्ष्य भी क्या जो आसानी से प्राप्त हो ?
   मैंने पहले भी कहा है कि हमारे धर्म और परम्पराओं में ज्ञान-विज्ञान - स्वास्थ्य संबंधित जगत एवं जीवन के समस्त रहस्य समाहित है।
  जहाँ मैंने निवास किया और जो मेरा कर्मक्षेत्र है,  उस शिव- शक्ति के  काशी एवं विंध्यक्षेत्र में आत्मोत्थान के लिये अनेक उपासना पर्व है।
    इन्हीं में से एक है देव दीपावली का प्रकाशपर्व। यह मन में दीप जलाने का पर्व है। विद्वानों के अनुसार देव का एक पर्यायवाची नेत्र भी है । इस दृष्टि से भी दीप प्रज्ज्वलन के पीछे नेत्र-ज्योति जागृत रखने का भी सन्देश मिलता है । नेत्र को यहाँ प्रतीक रूप में लिया जाए तो ज्ञान, सदाचार, सद्भाव, आदि भी व्यक्ति के जीवन में आत्मबल के दीपक बन के रोशनी करते हैं ।

     अपने काशी में पिछले ढाई दशक से भव्य देव दीपावली मनायी जाती है। वाराणसी के आठ किलोमीटर लंबे अर्द्धचंद्राकार गंगा तट के 84 घाटों पर जगमगाते असंख्‍य दीपों के बीच फूलों की विशेष सजावट से अलग छटा का एहसास होता है । काशी में देव दीपावली मनाने के पीछे एक पौराणिक कथा है। जिसके अनुसार, भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध करके देवताओं को स्वर्ग लोक वापस दिला दिया था। जिसके प्रतिशोध स्वरूप तारकासुर के तीनों पुत्रों ने ब्रह्मा की तपस्या करके वरदान स्वरूप तीन ऐसा नगर प्राप्त किया था कि जब अभिजीत नक्षत्र में ये तीनों एक साथ आ जाएँ तब असंभव रथ, असंभव बाण से बिना क्रोध किए हुए कोई व्यक्ति ही उनका वध कर पाए। इसे पाकर त्रिपुरासुर स्वयं को अमर समझने लगे और अत्याचारी हो गये। अतः देवताओं का कष्ट दूर करने के लिए भगवान शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का  कार्तिक शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन वध किया था। जिसपर हर्षित देवाताओं ने  शिव की नगरी काशी में दीप दान किया। कहते हैं तभी से काशी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव-दीवाली मनाने की परंपरा चली आ रही है।
    अध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो त्रिपुरासुर के वध से स्पष्ट है कि योग की उच्चतम स्थिति समाधि के देवता भगवान शंकर दैहिक, दैविक, भौतिक तापों, सत-रज-तम गुणों से ऊपर उठकर देवत्व तक पहुँचने का सन्देश दे रहे है ।
    आध्यात्मिक साहित्यकार श्री सलिल पांडेय ने कार्तिक पूर्णिमा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि   त्योहारों, उत्सवों के माह कार्तिक की अंतिम तिथि देव-दीपावली है । कार्तिक माह के प्रारम्भ से ही दीपदान एवं आकाशदीप प्रज्ज्वलित करने की व्यवस्था के पीछे गायत्रीमन्त्र में आवाहित प्रकाश से धरती को आलोकित करने का भाव रहा है क्योंकि शरद ऋतु से भगवान भाष्कर की गति में परिवर्तन होता है जिसके चलते दिन छोटा होने लगता है और रात बड़ी । यानि अंधेरे का प्रभाव बढ़ने लगता है । इसलिए इससे लड़ने का उद्यम भी है दीप जलाना ।

   देव-दीपावली की महिमा से अनेकानेक पुराण एवं अन्य ग्रन्थ भरे पड़े हैं । इन ग्रन्थों के अनुसार भगवान विष्णु का प्रथम अवतार मत्स्य के रूप में कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था । इसके अलावा तारकासुर को मारने के लिए अग्नि और वायुदेव के सहयोग से जन्में कार्तिकेय को देवसेना का अधिपति बनाया गया लेकिन भाई गणेश के विवाह कर दिए जाने कार्तिकेय रुष्ट होकर कार्तिक पूर्णिमा को ही क्रौंच पर्वत पर चले गए । यह पर्वत भी जम्बू द्वीप की तरह है । कार्तिकेय के स्नेह में माता पार्वती एवं पिता महादेव वहां ज्योति रूप में प्रकट हुए । 6 कृतिकाओं के गर्भ में पले षडानन के क्रौंच पर्वत पर जाना और ज्योति रूप में पार्वती-महादेव के प्रकट होने को योगशास्त्र की कसौटी पर यदि कसा जाए तो षट  चक्रों यथा मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा चक्र को जागृत कर सहस्रार में ज्योति रूप में शिवा-शिव का प्रकट होना परिलक्षित होता है । क्रौंच सारसपक्षी को कहते हैं । यह हंस की प्रजाति का पक्षी है । इसी जोड़े के बहेलिया द्वारा वध से वाल्मीकि के अंतर्मन में निश्चित रूप से श्वांसों का कुछ ऐसा अनुलोम विलोम हुआ कि षट्चक्र भेदन के जरिए उनकी कुंडलिनी शक्ति जागृत हो गई । लोग जिह्वा से 'राम' जपते रहे लेकिन 'उल्टा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना' चौपाई का ध्वन्यार्थ निकलता है कि 'राम' शब्द वे मूलाधार चक्र से जपने लगे ।
    नारदपुराण के उद्धरणों के गुरु शिष्य के कान में मन्त्र बोलता है । योगकाल होने के कारण कार्तिक पूर्णिमा को मन्त्र साधने में सफ़लता मिलती है । मॉर्कण्डे पुराण के अनुसार ब्रह्मा की मन्त्र साधना ही थी कि योगनिद्रा में सोए नारायण के कान से निकले मधु कैटभ के वध के लिए स्वयं नारायण को जागृत होना पड़ा । महाभारत ग्रन्थ के शांति पर्व एवं अनुशासन के अनुसार इस कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक शरशैया पर लेटे भीष्म ने योगेश्वर कृष्ण की उपस्थिति में पांडवों को राजधर्म, दानधर्म एवं मोक्षधर्म का उपदेश दिया ।
श्रीकृष्ण ने इस अवधि को भीष्म पंचक कहा ।स्कन्दपुराण के अनुसार ज्ञान का यह काल इतना शुभ कि इस अवधि में व्रत, उपवास, सदाचार, दान का विशेष महत्व है । पूरे महाभारत युद्ध में द्विविधाग्रस्त की स्थिति में रहने वाले भीष्म योगाधीश्वर श्रीकृष्ण का अवलम्बन लेकर मृत्यु को अपनी इच्छा के अनुसार वरण करने की शक्ति प्राप्त की । वे 58 दिनों तक घायल होकर भी उत्तरायण में स्वर्ग गए ।
    सिक्खों के गुरु नानकदेव की भी जयंती कार्तिक पूर्णिमा को आस्था एवं श्रद्धा के साथ मनाई जाती है । उन्होंने भी उसी ओंकार से शक्ति पाने का रास्ता बताया जिसे सृष्टि के प्रारम्भ में मनु से ब्रह्मा जी ने बताया था । आधुनिक विज्ञान के यांत्रिक उपकरणों की तरह 'ओम' एक ऐसा पासवर्ड है जिसके सहारे व्यक्ति स्वयं देवत्व अर्जित कर सकता है । लौकिक रूप से विभिन्न पुराणों में कार्तिक पूर्णिमा को देव मंदिरों, नदी के तटों पर दीप जलाने का प्राविधान है । निर्णय सिंधु के अनुसार इन जलते दीपकों को यदि कीट-पतंग, मछली या अन्य कोई जीवजन्तु देख लेते हैं तो स्वर्ग जाते हैं ।  कार्तिक माह में कीट-पतंग की बहुलता रहती है । इन दीपकों से ये खत्म होते हैं ।

     - व्याकुल पथिक


    

Friday 8 November 2019

आनंद तुम छुपे हो कहाँ ?

हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ ( भाग-7)
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   इस दीपावली पर्व पर भी स्नेहीजनों ने उपहार स्वरूप मेवा -मिष्ठान दिया है, परंतु वो एक रुपये का खिलौना , पचास पैसे का खाजा और नरसिंह मंदिर का प्रसाद कहाँ मिलेगा , वह आनंद कहाँ मिलेगा ?
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    पूज्य संत मुरारीबापू कहते हैं - " ज्ञान के लिये कथा मत सुनना, आनंद के लिये कथा सुना करो।"
     क्या है यह आनंद , कैसा है इसका रंग-रूप,कहाँ होती है इसकी प्राप्ति ? इस अर्थयुग में हम पैसे से इसे खरीदने का प्रयत्न कर रहे हैं, परंतु यह तो लुकाछिपी कर रहा है, अनेक वैभव और प्रयत्न के उपरांत भी पकड़ में नहीं आता है। इसकी खोज में अंततः सम्पूर्ण जीवन फिसल जाता है।
  अरे हाँ ! याद आया संत कबीर ने यही तो कहा था न कि -

   मोको कहाँ ढूंढें बन्दे,
     मैं तो तेरे पास में
  खोजी होए तुरत मिल जाऊं
 एक पल की ही तलाश में...

      वस्तुतः हमारी छोटी-छोटी खुशियों में आंनद का निवास है , परंतु हमारी अभिलाषा इतनी प्रबल एवं तीक्ष्ण है कि इन खुशियों का आनंद हम नहीं उठा पाते हैं।
   पिछले दिनों मैं अपने  एक शुभचिंतक गुप्ता जी के फर्नीचर की दुकान पर बैठा हुआ था। तभी दो महिलाएँ वहाँ आयीं। वे एक छोटे से फोल्डिंग पलंग का मूल्य पूछती हैंं। भाई साहब ने साढ़े पाँच सौ रुपया बता दिया। यह सुनकर श्रमिक वर्ग की ये महिलाएँ जो वार्तालाप से आपस में सास- बहू लग रही थीं ,वे अपनी-अपनी साड़ी के एक छोर में बंधे रुपये को टटोलने लगीं । कुल पौने पाँच सौ रुपया ही उनके पास था। इस दुकान पर मोलभाव होता नहीं ,  यह जानकारी ऐसे ग्राहकों को पहले ही दे दी जाती है। वैसे तो , गुप्ता जी हैं बड़े ही समाजसेवी और उतना ही मुनाफा लेते हैं, जितना उचित हो।
     पलंग का मूल्य सुनकर इन दोनों महिलाओं के माथे पर चिन्ता की लकीरें बढ़ने लगीं, चेहरे का रंग उतर गया। हमदोनों ही बड़े ही गौर से उन्हें देख रहे थें। उन्होंने आपस में कुछ कानाफूसी की और फिर वे थके पांव वापस घर की ओर मुड़ने को हुई ही थीं कि दुकान वाले भैया ने उनसे पूछा- आखिर बात क्या है , कुछ तो बताओ ?
  भाईसाहब के अपनत्व भरे स्वर पर वे दोनों पिघल उठीं । उन्होंने बताया कि वे समीप के गांव से आयी हैं। मेहनत-मजदूरी करती हैं।  ठंड का मौसम आ गया है। चिन्ता बस इतनी है कि उनका लल्ला भी उनके साथ जमीन पर सोया करता है। उन्होंने किसी तरह ये कुछ पैसे एकत्र किये हैं। यह सोचकर वे कई कोस पैदल चलकर  शहर आयी हैं कि आज अपने लाडले के लिये यह रंगबिरंगा फोल्डिंग पलंग लेकर जाएँगी, तो उसे कितनी खुशी होगी, किन्तु विधाता को यह मंजूर नहीं है। अच्छा, फिर कभी आऊँगी बाबूजी, यह कह वे आगे बढ़ने को हुई ।
   भाई साहब ने कहा कि बात क्या है, यह तो बताओ न तुम दोनों। वे स्वाभिमानी महिलाएँ थीं। अतः मूल्य कम कराने के लिये अपनी गरीबी का हवाला देना नहींं चाहती थीं। लेकिन , पूछने पर उन्होंने बता दिया कि उनके पास कुल पौने पाँच सौ रुपये ही हैं। यहाँ तक कि गांव जाने का किराया-भाड़ा भी नहीं है। हाँ, यदि पलंग मिल जाता, तो वापस पैदल घर जाना अखरता नहीं ।
   दुकानवाले भैया ने उनकी परिस्थितियों को देखा और कहा कि अच्छा दे जितना पैसा है और ले जा ,यह पलंग तेरा हुआ।  उनके इतना कहते ही पूछे नहीं मित्रों कि इन दोनों महिलाओं का चेहरा प्रसन्नता से किस तरह से खिल उठा। फिर क्या था बहू ने  फोल्डिंग पलंग अपने सिर पर उठाया और सास आगे- आगे चलने लगी। मानो पलंग नहीं उन्हें कुबेर का खजाना मिल गया हो। उन्हें खुशी इस बात की थी कि उनका बालक ठंड में आज से भूमि पर शयन नहीं करेगा। उधर , मैं और दुकानवाले भैया भी यह दृश्य देख कर प्रफुल्लित हो रहे थें। उन्होंने मुझसे कहा कि उनके लिये यह घाटे का सौदा नहीं रहा, क्योंकि ये सास-बहू उन्हें भी यह पाठ पढ़ा गयी हैं कि असली खुशी कहाँ छिपी है । खुशी हमारे वातानुकूलित शयनकक्ष में नहीं है, वरन् यह तो उनके पुत्र के लिये खरीदे गये इस मामूली से फोल्डिंग पलंग में है। इनकी मनोस्थिति को देख हम दोनों ही हर्षित हो रहे थें। बंधुओं, यही तो है आनंद ,उनके लिये भी और हमारे लिये भी, आपस में बांट लो ,चाहे जितना ..।
     धन के अभाव में भी हम खुशियों को समेट सकते हैं। मैंने इसी दुकान पर हृदय को आनंदित करने वाला एक और दृश्य देखा । उसदिन एक युवा दम्पति साइकिल से आया था। पति- पत्नी दोनों पास के गांव के थें। जिन्होंने लकड़ी का एक दरवाजा खरीदा। इनके पास इतने पैसे नहीं थें कि ठेले से उसे घर ले जा सके। अतः उसे साइकिल पर रखा,पति ने हैंडिल संभाला और पत्नी पीछे से दरवाजे को भरपूर सहारा दिये जा रही थी । वे दोनों पैदल ही हँसते- मुस्कुराते वार्तालाप करते हुये गाँव की ओर बढ़ चले। मैंने देखा इस दरवाजे का बोझ उन्हें भारी नहीं लग रहा था। वे अत्यधिक प्रसन्न इसलिए दिख रहे थें , क्योंकि अब दरवाजा लगने से उनका घर सुरक्षित हो जाएगा।
              अपने बचपन की बात कहूँ ,तो वाराणसी में उनदिनों हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। दीपावली के दिन बाजार में मैंने अनेक खिलौने देखे थें। उनमें से मिट्टी का दो बैलों के साथ हल जोतने वाला किसान मुझे बहुत पसंद आया । जिसकी कीमत एक रुपया थी।
वैसे ,तो कोलकाता में बाबा टोकरी भर खिलौने दिलाया करते थें, किन्तु यहाँ घर पर एक रुपया किसी खजाने से कम नहीं था, हम भाई-बहनों के लिये। खैर ,घर से जैसे ही पैसा मिला , मैं दौड़ पड़ा विशेश्वरगंज बाजार की ओर ,उस खिलौने को पाकर मुझे कितनी खुशी मिली, उसे आज भी कहाँ भुला पाया हूँ। दीपावली की उस शाम मैं दौड़ते हुये घर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा , ताकि माताजी को अपना वह प्रिय खिलौना दिखलाने के बाद उसे पूजाघर में बने रंगोली के समक्ष रख सकूँ। इसी हड़बड़ी में मैं सीढ़ियों पर से फिसल गया और मेरे अँगूठे का नाखून टूट गया। जिससे रक्तस्राव होने लगा। मैं दर्द से तड़प रहा था, फिर भी उस मिट्टी के खिलौने को दोनों हाथों से हृदय से लगाये रखा,ताकि उसे किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुँचे । चोट लगने की मेरी पीड़ा पर  पसंदीदा खिलौना लाने की खुशी भारी थी , तो क्या यह आनंद नहीं है, जिसका स्मरण कर आज भी मैं स्वयं को बुद्धू कहीं का ,कह मुस्कुरा उठता हूँ। टोकरी भर खिलौने पर भारी था, यह मिट्टी का मामूली- सा हल जोतता किसान ।
  माताजी प्रतिदिन देर शाम रामचरितमानस का पाठ करती थीं। राम जन्म, सीता संग विवाह , लंकाविजय आदि प्रसंग आने पर वे पचास पैसे दे मुझसे खोवे की दो बर्फी लाने को कहती थीं। जिसे मैं विश्वनाथ साव की मिठाई की दुकान से लेकर आता था। पिताजी को आधी बर्फी छोड़ शेष डेढ़ बर्फी में चार भाग होता था, उस प्रसाद को ग्रहण करने का आनंद ही कुछ और था। मम्मी के समक्ष बैठ मैं रामायण सुना करता था ,साथ ही  प्रतीक्षा करता था ऐसे विशेष प्रसंग का, बरफी लाने के लिये।
    चलें एक और मिसाल देता हूँ , जब घरपर मेरा दाना-पानी बंद हो गया था। मैं निठल्ला और बेरोजगार , दो दिनों से भूखा अपने दोस्त कम्पनी गार्डन की कुर्सी पर एकांत में बैठा , कभी अपनी माँ को उस नीलगगन में ढ़ूँढ़ता , तो कभी नल का ठंडा जल पी अपनी भूख पर नियंत्रण पाने का प्रयत्न करता । वैसे, पैसेवाले तो मेरे कई रिश्तेदार वहाँ वाराणसी में थें, किन्तु भोजन के लिये किसी के समक्ष हाथ फैलाना मुझे स्वीकार नहीं था। मेरा स्वाभिमान इससे आहत होता,तभी देखा कि एक वृद्ध बाबा मेरे समीप आये। वार्तालाप के दौरान उन्होंने कहा कि एक कार्य मेरा करोगे ? मैंने कहा कि जी चाचा बताएँ , आपके लिये क्या कर सकता हूँ। उन्होंने कहा कि फलां दरगाह पर उर्स है, क्या तुम वहाँ खाजा चढ़ा सकते हो ? इसके लिये उन्होंने पचास पैसा मुझे दिया था और कहा कि चढ़ाने के बाद प्रसाद ग्रहण कर लेना, बाबा तेरा भला करेंगे ।
    उस दिन मैं भूखे ही लगभग पाँच-छह किलोमीटर चल कर उस मजार पर गया था। पांव भर गये थें , लेकिन  पचास पैसे के खाजा ने जो मैंने वृद्ध बाबा के नाम पर चढ़ाया था, उसने मेरी क्षुधा को इस तरह से तृप्त किया कि उस आनंद को आज तक मैं नहीं भुला हूँ। यह मेरी उन छोटो-छोटी खुशियों में से एक है।
   दादी जब मुझे कम्पनी गार्डन के एक साहब के बाग से मूली तोड़ कर नमक- रोटी के साथ देती थी, तो उसके समक्ष कोलकाता की काजू बर्फी का स्वाद भी फीका था।
    नरसिंह भगवान मंदिर में जहाँ बैठकर मैं पढ़ा करता था, जब पंडित जी फल के कुछ टुकड़े और खोवा की बर्फी तोड़ कर दिया करते थें और दादी अपना प्रसाद भी मुझे दे देती थी, ऐसा प्रतीत होता था कि मानों वे मेरे लिये छप्पनभोग हो ।
   इस दीपावली पर्व पर भी कुछ स्नेहीजनों ने उपहार स्वरूप मेवा -मिष्ठान दिया है , परंतु वो एक रुपये का खिलौना , पचास पैसे का खाजा और नरसिंह मंदिर का स्वादिष्ट प्रसाद कहाँ मिलेगा , वह आनंद कहाँ मिलेगा ? हाँ ,मान-सम्मान अवश्य मुझे इस पत्रकारिता से मिला है।
   जब बेरोजगार था, तब आनंदित होने का एक और अवसर मुझे काशी में मिला , वह था सत्संग। मैं संतों का प्रवचन सुनने दूर-दूर तक पैदल ही जाया करता था। संत मुरारी बापू की संगीतमय रामकथा ने मुझे  कुछ इस तरह से आनंदविभोर किया था कि धार्मिक प्रवचनों के श्रवण की क्षुधा मेरी बढ़ती चली गयी और फिर गुरुदेव के साधारण से टीनशेड वाले आश्रम में आनंद ही आनंद था।
     हाँ, यह सत्य है कि अभी मेरा हृदय उस आनंद को ग्रहण में असमर्थ-सा है। यूँ समझे कि चिंतनशक्ति के माध्यम से मैं लौहरूपी अपने मन पर आनंदरूपी स्वर्ण का मुलम्मा चढ़ा रहा हूँ, परंतु मुझे विश्वास है कि उस पारसमणि (गुरुकृपा) का स्पर्श अवश्य प्राप्त होगा, जब मैं खरा सोना कहा जाऊँगा।
   सच तो यह है कि आनंद परिस्थितियों के अधीन नहीं है। स्वयं में ही आनंदस्वरूप ज्योति को हमें खोजना है।
     क्रमशः
  व्याकुल पथिक
(जीवन की पाठशाला)

    

Monday 4 November 2019

अंधकार से प्रकाश की ओर ..

हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ ( भाग-6)
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जिन्होंने मुझे खुशियाँ दी , उनसे कहीं अधिक मैं उनका आभारी हूँ , जिनसे मिली वेदना ने मेरा पथप्रदर्शन किया और जब मैं  पुनः ब्लॉग पर सक्रिय हुआ , तो "जीवन की पाठशाला" में मिली " छोटी- छोटी खुशियों " को लेखनी के माध्यम से शब्द देने का प्रयत्न कर रहा हूँ। अवसाद से मुक्त आनंद की खोज में मेरे ये कदम बढ़ चले हैं..
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    पवित्र कार्तिक पूर्णिमा एवं गुरुपर्व सन्निकट है। मन की ज्योति जलाने का पर्व,  देव दीपावली का पर्व, यह सम्पूर्ण माह ही उत्सव एवं ज्ञानपर्व है।  गुरुदेव की कृपा है कि मैं सांसारिक संबंधों के मोह से मुक्त होने के लिये पुनः प्रयत्नशील हूँ। गुरु ने सदैव नाम जपते रहने को कहा था-

नानक दुखिया सब संसार, सो सुखीया जिन्ह नाम आधार ...

   पिछले कुछ महीने मैं अपने ब्लॉग से दूर और भावुक हृदय की दुर्बलताओं से अत्यधिक व्याकुल रहा, एकाकी जीवन में जब कभी ऐसी स्थिति बनती है कि हम जिसे अपना सच्चा हितैषी समझते हैं, हमारा वह अपनत्व भाव अकारण ही उसके कठोर आचरण/वाणी से आहत होता हैं ,तब पीड़ित व्यक्ति का तन-मन-धन तीनों ही  क्षीण होता है। अतः इस भावनात्मक क्षति का प्रभाव मेरे बायें नेत्र पर पड़ा , जिस कारण मुझे  हर वस्तु समुद्र की लहरों के सदृश्य कंपन करती दिखने लगी। दायीं आँख की रोशनी पहले से ही अत्यधिक मंद थी और अब मेरी बायीं आखँ भी गयी ? यह कल्पना करके मैं सिहर उठा। एक तो स्वास्थ्य की बूरी स्थिति है और यदि नेत्रों ने साथ छोड़ दिया तो फिर मुझे आश्रय कौन देगा।
     यहाँ के प्रमुख नेत्र चिकित्सक ने बताया कि उच्चरक्तचाप के कारण ऐसा हुआ है। उन्होंने दवा दी ।  इस घटना से मैं यह समझ सका कि मानव शरीर हो अथवा इस जग के लौकिक संबंध,  एकबार क्षय होने के पश्चात उनमें पूर्वतः सुधार नहीं होता। मेरी बायीं आँख की स्थिति आज भी यही है कि  सीधी रेखाएँ भी मुझे उफनते समुद्र की शांत होती लहरों के समान दिखती हैं। सम्भवतः ये मेरे विचलित हृदय के ज्वार- भाटे को स्थिर होने का संकेत दे रही हैं।
     ऐसी विषम परिस्थितियों में उन दिनों मेरा हृदय अत्यधिक विकल हो उठा, तभी ऐसी अनुभूति हुई कि मेरी ज्ञानचक्षु जागृत हो रही है। ज्ञान का प्रकाश जो मुझे लगभग तीन दशक पूर्व आश्रम जीवन से प्राप्त हुआ था , वह दीपक बन पुनः टिमटिमाने को है। वह मोह के तम से मुझे बाहर निकाल उजाले की ओर ले जाने के लिये प्रयत्नशील है ।  मुझे अपने गुरुदेव का स्मरण हो आया।  मैंने गुरु चरणों की वंदना कुछ इस प्रकार से की -
" गुरु कृपा से उपजे ज्योति
गुरू ज्ञान बिन पाये न मुक्ति

माया का जग और ये घरौंदा
फिर-फिर वापस न आना रे वंदे

पत्थर-सा मन जल नहीं उपजे
हिय की प्यास बुझे फिर कैसे..।"

  गुरुज्ञान के आलोक में मैंने पाया कि इस जगत के लौकिक संबंधों के प्रति विशेष अनुरक्ति ही भावुक मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है ।  वह अपने प्रति किसी के द्वारा दो शब्द सहानुभूति के क्या सुन लेता है , बिना परीक्षण किये ही उसे अपना सच्चा हितैषी समझ लेता है। वह यह नहीं समझ पाता कि जिस अनजाने व्यक्ति से वह अचानक यूँ स्नेह करने लगा है ,वह उसके प्रति कितना संवेदनशील है। अक्सर ऐसा होता है कि लोकव्यवहार के कारण भी तनिक प्रीति का प्रदर्शन लोग कर दिया करते हैं , परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उनके लिये वह महत्वपूर्ण है। समय , परिस्थिति और मनोभाव के अनुरूप उनकी सहानुभूति में जब परिवर्तन आता है , तब ऐसे भावुक मनुष्य को उनके बदले हुये व्यवहार से वेदना होती है । जब कभी यह उपेक्षा तिरस्कार में बदल जाती है , तब हृदय को जो आघात पहुँचता है , उसकी भरपाई शीघ्र संभव नहीं है। अतः ऐसे इंसान जो भावनाओं में गोता लगाते रहते हैं , उन्हें किसी अपरिचित व्यक्ति से मित्रता करते समय सजग रहना चाहिए...।
     इस जगत के लौकिक संबंधों के रहस्य एक-एक कर  खुलते चले गये ,जब बीते गुरुपर्व पर विकल हृदय से पथिक काशी स्थित अपने उस पावन शरणस्थली का स्मरण कर रहा था। उसे ऐसी अनुभूति हुई कि मानों साक्षात गुरुदेव प्रगट हो गये हो। वैसा ही श्वेत वस्त्र , केश रहित विशाल ललाट, मुखमंडल पर अद्भुत तेज और मंद-मंद मुस्कान ,
यद्यपि गुरु - शिष्य में कोई प्रत्यक्ष संवाद नहीं हुआ, तथापि उनका मौन उससे अनेक प्रश्न कर रहा था ।
     गुरु अपने शिष्य से यह जानना चाहते थें कि लगभग तीन दशक पूर्व आश्रम छोड़ने के पश्चात जिस अपनत्व की प्राप्ति के लिये वह दर- दर भटका , क्या उसे प्राप्त करने में सफल रहा ?रोगग्रस्त उसकी दुर्बल काया , मुखमंडल पर छायी कालिमा एवं मंद पड़ गयी नेत्रों की ज्योति को देख द्रवित हो गये गुरुदेव ,परंतु उनकी मौनवाणी में कठोरता थी। जिस गुरु ने उसे आश्रम जीवन में कभी फटकार तक नहींं लगायी थी। सदैव जिसे अपने सानिध्य में बैठा " सतनाम " जाप को कहा था ।
   उनका प्रश्न स्पष्ट था -- " जिस अपनत्व की प्राप्ति के लिये तू  दर-दर भटका  , ठोकरें खाई और अब क्यों बिना मुक्तिपथ को प्राप्त किये ही रामनाम सत्य का उद्बोधन कर रहा है ? सामने पड़े 'अमृत कलश ' का परित्याग कर जिस ' मदिरापान ' के लिये निकला था , देख उसने तेरी क्या स्थिति कर रखी है। आश्रम में मिले खड़ाऊँ एवं साधारण वस्त्रों को त्यागने के पश्चात तूने जो भी मूल्यवान वस्त्र-आभूषण धारण किये थे , वे क्या तुझे वहीं दिव्य तेज प्रदान कर सके ? "
      गुरु महाराज प्रश्न पर प्रश्न ही किये जा रहे थें - " तनिक लौकिक स्नेह की चाह में भूल, अपराध, पाप, उपहास , तिरस्कार एवं ग्लानि जैसे अलंकार युक्त किन-किन आभूषणों को तू धारण किये है कि जिनका वजन तेरा यह विकल हृदय संभाल नहीं पा रहा है ? "
     वे शिष्य के मुख से उसकी उस लम्बी जीवनयात्रा का वृत्तांत सुनना चाहते थें कि लौकिक स्नेह रुपी उस मृगतृष्णा जिसे वे उसके साधनाकाल में निरंतर ' मायाजाल ' बताते रहे , उसने उसकी पवित्रता को कहाँ- कहाँ कलंकित एवं लांछित किया , यद्यपि शिष्य अपने गुरु से दृष्टि नहीं मिला सका और न ही उनके चरणों पर वह अपना मलिन मस्तक रख पाया , तथापि उसके नेत्रों से निकले नीर को गुरु के पदकमल का पावन स्पर्श प्राप्त हुआ और तब रुंधे कंठ से उसने अपने सद्गुरु को वचन दिया-

अब लौं नसानी, अब न नसैहों।
रामकृपा भव-निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं॥

   अदृश्य होने से पूर्व गुरु यह कह उसे पुनः आगाह करते गये है - " देखो , अब तुम वचनबद्ध हो। संकल्प भंग मत करना। यही मेरी गुरुदक्षिणा है । इसी में तुम्हारी खुशियाँ समाहित है। जिसे दिये बिना ही तब तुमने आश्रम त्यागा था । "
          मित्रों , याद रखें कि जो मधुर बोलते हैं, वे तीक्ष्ण विषवमन करने में भी समर्थ हैं । हमें इनसे भी सजग रहना होगा । समभाव ही जीवनदर्शन है। ब्लॉग पर आकर मैंने जीवन का यह एक और महत्वपूर्ण अध्याय पढ़ा है।
      इस जीवनपथ पर ऐसे शुभचिंतक हमें मिलेंगे कि जब हम संकट में होंगे , जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रहे होंगे , तब वे अपना "राजदरबार"  सजाए काव्यपाठ करते दिखेंगे ।  वे भूल जाएँगे कि कभी उन्होंने स्वतः ही मित्रता का हाथ आगे बढ़ाया था। याद दिलवाने पर वे इसे गुनाह कह मुकर जाएँगे ।
    फिर भी हमें अपना मन मलिन नहीं करना चाहिए, यह मनुष्य की प्रवृति है, तभी तो गीतकार श्रीकृष्ण तिवारी ने ऐसे गीत की रचना की है-

एक आँख हँसते हैं लोग,
एक आँख रोते हैं लोग,
जाने कैसी ये आबोहवा,
जाने ये कैसे हैं लोग!

            हमारे जैसे मनुष्यों की खुशी तो आदि शंकराचार्य द्वारा रचित निर्वाण षट्कम में  निहित है। यह हमें राग व रंगों से दूर ले जाता है।सारे लौकिक संबंधों से परे कुछ इस तरह का वैराग्य  भाव , जिसकी ध्‍वनि हमारे अंतरतम की गहराइयों में हलचल पैदा कर देती है-

नमे मृत्युशंका नमे जातिभेद: पिता नैव मे नैव माता न जन्म न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम।

  आवश्यक यह भी है कि विरक्त होने के लिये हमें  द्वेषभाव से बचना होगा । मौन का आश्रय हमारे चिंतन और ज्ञान को गति देता है -

न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदों नैव मे नैव मात्सर्यभावः |
न धर्मो नचार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूप: शिवोहम शिवोहम |

    अतः जिन्होंने मुझे खुशियाँ दी , उनसे कहीं अधिक मैं उनका आभारी हूँ , जिनसे मिली वेदना ने मेरा पथप्रदर्शन किया और जब  मैं पुनः ब्लॉग पर सक्रिय हुआ , तो "जीवन की पाठशाला" में मिली " छोटी- छोटी खुशियों " को लेखनी के माध्यम से शब्द देने में जुट गया। अवसाद से मुक्त आनंद की खोज में मेरे ये कदम बढ़ चले हैं।
       यही मेरा कर्मपथ है, मेरा धर्मपथ है और  मेरा मुक्तिपथ भी है । मिसाइल मैन डा० एपीजे अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि जीवन की सफलता के चार सूत्र हैं- लक्ष्य निर्धारण, सकारात्मक सोच,मन में स्पष्ट कल्पना और उस पर विश्वास।
   लेविस कैरोल की कविता की इन पँक्तियों को जरा देखें -
   कौशल, महत्वाकांक्षा
        सपने अपने
     कसौटी पर कसो।
           जब तक
      कि दुर्बलता बने शक्ति ,
   कि अँधियारा उठे जगमग,
     कि अन्याय हरे नीति।


- व्याकुल पथिक
( जीवन की पाठशाला)

Friday 1 November 2019

जेकर जाग जाला फगिया उहे छठी घाट आये..


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आठ दशक पूर्व खत्री परिवार ने मीरजापुर में शुरू की थी छठपूजा
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काँच ही बांस के बहंगिया बहँगी लचकत जाये
पहनी ना पवन जी पियरिया गउरा घाटे पहुँचाय
गउरा में सजल बाटे हर फर फलहरिया
पियरे पियरे रंग शोभेला डगरिया
जेकर जाग जाला फगिया उहे छठी घाट आये..

    छठपर्व पर ऐसे लोकगीत सुनकर मन में एक उमंग-सी छा गयी थी और भावनाओं पर नियंत्रण रखना तनिक कठिन प्रतीत होने लगा ।
    उफ !यह मन भी न.. मुझे बरबस मुजफ्फरपुर की ओर खींच ले गया । जहाँ मौसी जी के घर छठपूजा पर मैं दो बार मौजूद था। प्रथम बार हाईस्कूल की परीक्षा दे , घर छोड़ कर गया था और दूसरी बार अपने आश्रम का परित्याग कर, जिसे लेकर आज भी मुझे पश्चाताप है।
   परंतु छठपर्व पर जो खुशियाँ वहाँ मिली हैं , उन्हें मैं कैसे भुला पाऊँ ? घर और आश्रम से इतर यहाँ वह दृश्य देखने को मिला, जो मेरे लिये एक स्वप्न था, क्योंकि कोलकाता में जहाँ माँ-बाबा और मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं था, तो वाराणसी में मेरे माता-पिता और हम तीन भाई- बहन ही थें । यहाँतक कि मेरी दादी भी हमारे  परिवार की सदस्य नहीं थी।  लेकिन , मुजफ्फरपुर में मौसी जी के विशाल परिवार के पूरे सदस्य एकसाथ गंगाघाट अथवा किसी पोखरे पर एकत्र होते थें। पर्व का सृजन इसी लिये तो किया गया है कि बिखरे हुये परिवार के सदस्य और शुभचिंतक एक साथ एक स्थान पर एकत्र हों ।  यहाँ पहली बार मुझे  शुद्ध देशी घी से निर्मित छठ का स्वादिष्ट  ठेकुआ खाने को मिला। मैंने अनुभव किया कि बड़े अथवा संयुक्त परिवार में कितनी भी वैमनस्यता रही हो, फिर भी ऐसे पर्वों पर उनमें संवादहीनता नहीं रहती, हँसते-खिलखिलाते हुये सभी एक हो जाते हैं। यही हमारी संस्कृति , संस्कार और  पहचान है।  छठपर्व जैसे पर्व के अतिरिक्त किसी मांगलिक कार्यक्रम में ही ऐसा अब संभव है ? परिवार की  परिभाषा - " हम पति-पत्नी और हमारे बच्चे " में बदलती जा रही है।
    इस बार छठपूजा के पश्चात मौसी जी सपरिवार पाँच दिनों के लिये मीरजापुर आ रही हैं। मेरे स्वास्थ्य की उन्हें चिन्ता रहती है।  छठ के प्रसाद (ठेकुआ) ही नहीं सिंघाड़े के छिलके का आचार भी वे लेकर आ रही हैं।  मुजफ्फरपुर था तो वहाँ बड़े-छोटे एक दर्जन बच्चे थें। मौसा जी सहित चार भाइयों का परिवार था। बाद में इनमें से जो दो भाई संपन्न थें, उन्होंने अपना नया आशियाना बना लिया , फिर भी छठपूजा पर सब साथ होते थें। बड़ी मौसी जी व्रत करती थी और सभी उनके सहयोगी होते थें। गंगाघाट पर हम बच्चों की खुशी तो पूछिये ही मत। वहाँ बच्चे दीपावली के पटाखों को छठपर्व के लिये भी बचाकर रख लेते थें। मुझे तो मौसी जी की सभी जेठानियों का स्नेह मिलता था, परंतु था तो बेगाना ही न, सो थोड़ा शर्मीला और सहमा रहता था। अपना घर कोलकाता या फिर बनारस था, जहाँ भी अपना कोई नहीं था । वो गीत है न-

सबको अपना माना तूने मगर ये न जाना
मतलबी हैं लोग यहाँ पर मतलबी ज़माना
सोचा साया साथ देगा निकला वो बेगाना
बेगाना बेगाना..


       खत्री परिवार एवं सहयोगी

    इन्हीं स्मृतियों में मैं खोया हुआ था, तभी मेरे मित्र नितिन अवस्थी ने कहा कि श्री लक्ष्मीनारायण महायज्ञ आयोजन समिति  के पत्रकारवार्ता में हो लिया जाए और वहाँ से अपने नगर के धुंधीकटरा मुहल्ले में चलना है। यहाँ एक खत्री परिवार है,जिसने बिहार के लोक आस्था का महापर्व छठपूजा को लगभग आठ-नौ दशक पूर्व सर्वप्रथम मीरजापुर में स्थापित किया और आज स्थिति यह है कि यहाँ के दाऊजी गंगाघाट से प्रारंभ छठी मैया का यह पूर्व विस्तार ले चुका है। यहाँ के प्रमुख गंगाघाटों पर श्रद्धालुओं की भीड़ कुछ इस तरह से उमड़ेगी है कि जिसे देख कर भ्रम-सा होने लगेगा है कि कहीं हम बिहार  के किसी शहर में तो नहीं चले आये हैं ।
  नगर में इस पर्व के प्रारम्भ से संबंधित विशेष समाचार संकलन के लिये हमदोनों केदारनाथ खत्री के घर जा  पहुँचे। लगभग अस्सी वर्षीय बुजुर्ग खत्री जी ने हमारा स्वागत-सत्कार किया।  छठपूजा करने वाली अन्य महिलाएँ भी वहाँ आ गयी थीं। वे सभी हम पत्रकारों को देखकर हर्षित हुई । इनमें से किसी का मायका मुजफ्फरपुर, तो किसी का पटना अथवा समस्तीपुर था। सभी बिहार प्रांत की थीं । इन्होंने हमें छठ पर्व के कुछ गीत भी सुनाएँ। छठ के लोकगीतों में इस पौराणिक परंपरा को जीवित रखा है-

काहे लागी पूजेलू तूहू देवलघरवा हे
अन-धन सोनवा लागी पूजी देवलघरवा (सूर्य) हे पुत्र लागी करी हम छठी के बरतिया हे..

          इसमें व्रती कह रही हैं कि वे अन्‍न-धन, संपत्ति‍ आदि के लिए सूर्यदेवता की पूजा और संतान के लिए ममतामयी छठी माता या षष्‍ठी पूजन कर रही हैं।इस तरह सूर्य और षष्‍ठी देवी की साथ-साथ पूजा किए जाने की परंपरा है।


       अब हम अपने काम में जुट गये । हमने इन सभी का फोटोग्राफ लिया , उनके द्वारा गाये लोकगीतों का वीडियो बनाया और फिर केदारनाथ  जी की धर्मपत्नी श्रीमती चाँदनी खत्री से रूबरू हुये।
  इस बुजुर्ग दम्पति को इसबात का गर्व है कि उनके परिवार ने इस शहर में छठपूजा का प्रारम्भ किया है। केदारनाथ बतलाते हैं कि उनकी अवस्था अस्सी वर्ष है और उनके जन्म के पहले से ही उनके परिवार में यहाँ छठपूजा होती थी। उनकी बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि उत्साह से भरी चाँदनी खत्री ने उनके परिवार के माध्यम से छठपूजा का प्रारम्भ किस तरह से मीरजापुर में हुआ , यह बताना शुरू कर दिया। उन्होंने हमें बताया कि उनकी बुआ सास लालदेवी और चाची सास सुमित्रा खत्री इस पर्व को करती थीं । तब कुछ अन्य लोग भी गंगाघाट जुटने लगे थें।
  उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये बताया कि तीन पुत्रियों की प्राप्ति के बाद भी पुत्र की लालसा उनके मन में बनी रही। उनका मायका पूसा , मुजफ्फरपुर (बिहार ) था, जहाँ उनकी माँ छठपूजा किया करती थी।  तब उनकी माँ ने ही उनकी गोद भरी और वर्ष भर में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उनको यह खुशी छठी मैया के आशीर्वाद से मिली थी। अतः अपनी मां की आज्ञा से उन्होंने पुत्र जन्म के पाँच वर्ष बाद यह व्रत आरंभ किया । उन्होंने बताया कि यहाँ व्रत के पहले वर्ष उन्होंने पाँच गोद भरी थीं और छठी मैया की कृपा से सभी को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई , तब से छठपूजा करते हुये चाँदनी देवी को अठ्ठाइस वर्ष हो गये हैं। वे छठी मैया का व्रत पूजन-अर्चन निरंतर करती आ रही हैं । उनके साथ अनेक भक्त जुड़ते गये । छठी मैया की कृपा पाने के लिए करुणा मैनी,  प्रियंका अग्रहरी, पूनम बरनवाल, क्षमा खत्री, बबीता खत्री, रेनू खत्री, राधा खत्री, सुनीता सेठी, सुषमा सेठ, पूजा खन्ना एवं मीरा सोनी आदि भक्त व्रत और पूजन की तैयारी में लगी दिखीं ।
  जिसपर मैंने भी उन्हें बताया कि मुजफ्फरपुर में तो मेरी मौसी रहती हैं। यह जान उन्हें भी प्रसन्नता  हुई। उन्होंने कहाँ की छठ के दिन आप दोनों को आना है।

  सूर्य की बहन हैं षष्ठी माता
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   इसके पश्चात सूर्यदेव और छठी मैया के संदर्भ में मुझे पौराणिक कथा जानने की जिज्ञासा हुई।
  पढने को मिला कि षष्‍ठी माता के संदर्भ में
श्‍वेताश्‍वतरोपनिषद् में बताया गया है कि परमात्‍मा ने सृष्‍ट‍ि रचने के लिए स्‍वयं को दो भागों में बांटा. दाहिने भाग से पुरुष, बाएँ भाग से प्रकृतिका रूप सामने आया। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में बताया गया है कि सृष्‍ट‍ि की अधिष्‍ठात्री प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को देवसेना कहा गया है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक प्रचलित नाम षष्‍ठी है। पुराण के अनुसार, ये देवी सभी बालकों की रक्षा करती हैं और उन्‍हें लंबी आयु देती हैं।

''षष्‍ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्‍ठी प्रकीर्तिता |
बालकाधिष्‍ठातृदेवी विष्‍णुमाया च बालदा ||
आयु:प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी |
सततं शिशुपार्श्‍वस्‍था योगेन सिद्ध‍ियोगिनी'' ||
(ब्रह्मवैवर्तपुराण/प्रकृतिखंड)

   इन्हीं षष्‍ठी देवी को ही स्‍थानीय बोली में छठ मैया कहा गया है। षष्‍ठी देवी को ब्रह्मा की मानसपुत्री भी कहा गया है। जो नि:संतानों को पुत्र प्रदान करती हैं और सभी बालकों की रक्षा करती हैं। पौराणिक वर्णन के अनुसार भगवान राम और माता सीता ने ही पहली बार 'छठी माई' की पूजा की थी। इसी के बाद से छठ पर्व मनाया जाने लगा। कहा जाता है कि लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद जब राम और सीता वापस अयोध्या लौट रहे थें , तब उन्होंने कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को छठी माता और सूर्य देव की  भी पूजा की थी। तब से ही यह व्रत लोगों के बीच इतना प्रचलित है।

छठपर्व का वैज्ञानिक  विश्लेषण
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 आध्यात्मिक को विज्ञान से जोड़कर परिभाषित करने वाले बड़े भैया आदरणीय सलिल पाण्डेय  ने छठ पूजा पर अपना दृष्टिकोण कुछ इस तरह से रखा है। उनका  कहना है कि  धर्म और विज्ञान दोनों मानता है कि सूर्य की सुबह और शाम की किरणों में जीवनदायिनी शक्तियाँ हैं । आता और जाता सूर्य उस सुसम्पन्न मेहमान की तरह है जो आता है ढेरों उपहार लेकर और जाता है तो घर के सभी सदस्यों को दान-दक्षिणा दे कर जाता है ।
   .उत्तम स्वास्थ्य के लिए 1-मस्तिष्क, 2- हार्ट, 3- लीवर, 4-किडनी, 5- आंतें, 6-रक्त-प्रवाह सही होना चाहिए । इन छः प्रणाली को शत्रुओं के विरुद्ध युद्ध करने वाले देवताओं की सेना के अधिपति शिवजी के पुत्र कार्तिकेय की पत्नी षष्ठी माता है जिनकी पूजा होती है और यह  सूर्य की बहन है । यानि भाई-बहन शरीर में प्रवेश कर जाने वाले रोग, इंफेक्शन रूपी शत्रु से मुकाबला करने की ऊर्जा देते है ताकि देव-अंश से मिला तन-मन स्वस्थ रहे । सूर्यषष्ठी का पर्व त्याग का भी संदेश देता है । राजा उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव को जब सौतेली माता सुरुचि ने अपमानित किया तब उनकी मां सुनीति ने नीतिगत जीवन जीने के लिए तपस्या की सलाह दी । जंगल में आकर बालक ध्रुव ने पहले अन्न त्यागा, फिर पत्ते, फिर जल, फिर वायु त्याग दिया । इस त्याग के दौरान शरीर में जो तरंगीय ऊर्जा समाहित हुई, वहीं भगवान विष्णु की ताकत कहलायी । डाला छट पर व्रती महिलाएं सबसे पहले  नहाय-खाय के दिन लौकी और भात (चावल), दूसरे दिन खरना में  एक वक्त गुड़-चावल (बखीर) एवं घी लगी रोटी खाती हैं । लौकी पाचक, बलवर्धक एवं पित्त नियंत्रक है जबकि गुड़ पाचक, रक्तशुद्धता, धातुवर्धक, पुष्टिकारक, आयरनयुक्त होता है । तीसरे दिन छठ पूजा को निर्जला व्रत रहने के पीछे शरीर को उन परिस्थितियों के लिए तैयार करने का भी है कि किन्हीं कारणों से यदि किसी वक्त अन्न-जल न मिले तब उस हालात को झेलने के लिए शरीर तैयार रहे । यानि किसी भावी विषम परिस्थिति से जूझने का पूर्वाभ्यास का अंग यह कठिन व्रत । इसके अलावा जब शरीर के रसायन को अन्न-जल के पाचन से मुक्ति मिलती है तब वह तरंगीय शक्ति पूरी दक्षता से संग्रहित करता है । ढलते सूर्य को पानी में  खड़े होकर अर्घ्य के लाभ होते हैं । बहते पानी में नाभि तक खड़े होकर स्नान करने से नाभि के जरिए शरीर के आंतरिक हिस्से को लाभ मिलता है, यह जल-चिकित्सा का भी तरीका है । पूजा के सूप में फल, नारियल, गन्ना, ठोकवा (गुड़-आटे) सभी चिकित्सकीय लाभ की दृष्टि से रखे जाते हैं । अंतिम दिन सुबह स्नान कर नाक के ऊपर से बीच की मांग तक सिंदूर के लाभ से आयुर्वेदशास्त्र भरा-पड़ा है । सिर के बीचोबीच सहस्रार चक्र के पास स्थित पिट्यूटरी ग्लैंड एवं उसके बगल में पीनियल ग्लैंड की जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है । खासकर महिलाओं के लिए जब वे इस ग्लैंड के ऊपर से सिंदूर लगाती हैं तब वह एनिमिक (रक्ताल्पता) नहीं होती । खासकर गर्भ धारण के कारण महिलाओं के प्रायः एनिमिक होने का अंदेशा रहता हैं । इस प्रकार डाला छठ का पर्व आंतरिक शुद्धीकरण का पर्व है । सामाजिक  दृष्टि से यह पर्व परिवार को एकसूत्र में बांधता भी है । डाला छठ का पर्व याद दिलाता है कि सिर्फ एक बार नहीं बल्कि जीवन-पर्यन्त सूर्य-किरणों का लाभ लिया जाए तो उसके अनगिनत लाभ हैं । दुर्गा सप्तशती के कवच स्त्रोत में 1-"रक्त, 2-मज्जा, 3-वसा, 4-मांस-5-अस्थि, 6-मेदांसि पार्वती" श्लोक में जिन 6 प्रमुख अवयवों की रक्षा की प्रार्थना की गई है, वह सूर्यकिरणों से पूर्ण की जा सकती है । तन के अलावा मन के स्तर पर भी सूर्य से तेजस्विता मिलती है ।


कसरहट्टी के पीतल के सूप से है बिहार का नाता
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  अरे हाँ, यह तो बताना अभी शेष ही है कि अपने कसरहट्टी मुहल्ले से बिहार का पुराना नाता  है।  भगवान भाष्कर को अर्पित किए जाने वाले प्रसाद को छठ घाटों तक ले जाने के लिए बांस के सूप/ दउरा की आवश्यकता होती है।  अनेक श्रद्धालु पीतल से बने सूप/दउरा का प्रयोग भी करते हैं। मीरजापुर  शहर के कसरहट्टी सहित कुछ अन्य मोहल्लों में जहाँ अलौह धातुओं के बर्तन बनते हैं और कभी यहाँ के पीतल के बर्तनों की भारी मांग उत्तर प्रदेश के अन्य जनपदों के अतिरिक्त आसपास के प्रांतों में थी। यहाँ निर्मित पीतल के सूप छठ पर्व पर बिक्री के लिये  बिहार जाता था। पीतल के बर्तन के लिए ख्यातिप्राप्त मीरजापुर में छठ पूजा में प्रयोग किए जाने वाले पीतल के सूप बनाने का काफी पुराना व्यापार रहा है । पहले जहां साधारण सूप बनाये जाते थें,  वहीं अब नक्काशीदार भगवान सूर्य की आकृति के साथ ही छठी मैया के जयकारे  लिखा हुआ सूप बाजार में उपलब्ध है ।  जिसे बनाने के लिए पर्व के आने से चार माह पूर्व ही तैयारी शुरू कर दी जाती है ।
    तो चले , गंगाघाटों की ओर जहाँ मेले जैसा दृश्य है, परंतु हम जिस प्रकृति की देवी का पूजन करते हैं,  आशीर्वाद स्वरूप उनसे संतान चाहते हैं,  उसी प्रकृति को किस तरह से बदरंग कर रहे हैं, यह हमारा कैसा धर्म-कर्म है,  छठ पूजा के बाद घाटों की स्थिति यह बताने के लिए पर्याप्त है।  पूजा के पश्चात भी हमें उसी तरह से घाटों को स्वच्छ कर के जाना चाहिए , जिस तरह से छठपूजा के पूर्व हम किया करते हैं।

 -व्याकुल पथिक
 जीवन की पाठशाला