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Saturday 26 May 2018

आनंद की खोज में मिला आश्रम का वह सुख !



  कम्पनी गार्डेन संग मित्रता से मुझे एक और सुख की जो प्राप्ति आगे चल कर हुई, वह रहा आश्रम जीवन का  अनुभव.. जहां आनंद ही आनंद रहा, क्लेश का कोई स्थान नहीं था वहां। चमकता हुआ मुखमण्डल, स्वस्थ शरीर, नियमित दिनचर्या, मन को एकाग्र करने के साधन और सादगी भरा भोजन सभी तो थें वहां। परंतु यह मेरा दुर्भाग्य था कि वर्ष भर ही रह पाया इस तपोस्थल पर ... धर्म हो या कर्म ,इन सभी को समझने का मेरा अपना दृष्टिकोण सदैव मेरी उलझनें बढ़ता रहा है। सो, इस आनंद से मैं वंचित हो, पुनः मुजफ्फरपुर मौसी जी के यहां चला गया, मन को शांति देने वाले उस आश्रम से , मेरी यूं बिदाई नहीं चाहते थें बाबा जी, पर इसे मन की माया बता मौन हो गयें..दादी और अपने बंधु कम्पनी गार्डन तक को छोड़ मैं चला गया... समझ में नहीं आता कि इतना निष्ठुर कैसे हो गया था ! दादी की आंखें किस तरह से भर आई थीं। फिर भी मैं यह न समझ सका कि यह हमारी आखिरी मुलाकात होगी। अच्छा ही है कि आज मैं यतीम हूं ..यह मेरा दंड भी है और प्रायश्चित भी, क्यों कि इन ढ़ाई दशकों से प्रतिदिन कम से कम रात्रि में तो निश्चित ही, इस पीड़ा की अनुभूति एक भावुक इंसान होने के कारण करता आ रहा हूं .. फिर भी यदि वैराग्य भाव की प्राप्ति ना हुई, तो सदैव ही करता रहूंगा... दुनिया से जाने वाले लौट कर तो आएंगे नहीं ना ! सोचता हूं कि आश्रम में रहता तो इस अपराध बोध से मुक्त तो रहता। जब आश्रम में गया था,  बिल्कुल कोरा कागज ही था, पर अब ऐसा नहीं है... कोई होता जिसको अपना कह लेने की चाहत ने वर्षों मुझे पीड़ा दी है। जब यह समझा की प्रेम की बगिया में फूल खिलने को है, वह कांटों भरा हार फंदा बन चुभने लगा... खैर बिगड़ते स्वास्थ और ढलते यौवन ने इस जख्म पर मरहम का काम किया !
    अभी तो चला अपने आश्रम की ओर , जिसे मैं कोई 27 वर्ष पीछे छोड़ आया हूं। मुझ बेरोजगार निठल्ले युवक को कम्पनी गार्डन में बड़ों के सानिध्य और सत्संग का जो लाभ मिला, उसका स्पष्ट प्रभाव मेरे विचारों पर पड़ा था। सम्भवतः इसी से साधू- संत, महात्मा, चिंतक, अध्यापक और भी विद्वतजन मुझमें रुचि लेते दिखें, वहां कम्पनी गार्डन में। पर मैं बिखरे हुये पारिवारिक सम्बंधों से व्याकुल था। आनंद की खोज में संतों का प्रवचन सुनने दूर दूर तक जाता था...
  एक बार  श्यामवर्ण के तेजयुक्त ब्राह्मण देवता मुझे इसी कम्पनी गार्डन से अपने साधना स्थल तक ले गये थें। जहां कई वेदपाठी दिखे थें। युवावस्था में पैसे के अभाव में मेरी थोड़ी बढ़ी हुई दाढ़ी देख उन्होंने कहा था कि वैराग्य भाव के लिये यह दाढ़ी कोई बुरी नहीं है। इसी के कुछ महीनों बाद मुझे याद है कि श्वेत वस्त्र धारण किये नाटे और गठीले शरीर वाले एक बाबा से प्रातः भ्रमण के दौरान मेरी यहीं कम्पनी गार्डन में मुलाकात हुई थी। उनका हर कोई सतनाम बाबा जी कह, अभिवादन किया करता था। उन भद्र जनों से तुलना करूं तो ऐसा कुछ भी तो नहीं था मेरे पास फिर भी सतनाम बाबा ने मुझे अपने साथ नंगे पाव बगीचे की हरी घास पर टहलने की मौन स्वीकृति दे दी थी। पास ही लोहटिया स्थिति अखाड़े पर बने अपने छोटे से अस्थायी आश्रम पर वे मुझे ले भी गयें। एक बेरोजगार युवक की पहली आवश्यकता तो क्षुधा की अग्नि की शांति ही थी न , सो मुझे वहां इसके लिये संघर्ष नहीं करना था।  शुद्ध देशी घी , दही और मलाई की व्यवस्था थी। सब्जियों में जो तीन मसालें पड़ते थें, धनिया, हल्दी और जीरा इनके साथ ही सेंधानमक को कुटने की जिम्मेदारी अब मेरी थी।  घर से सुबह पौने चार बजे ही आश्रम के लिये निकल पड़ता था। आश्रम और अखाड़े में  झाड़ू लगाने से पूर्व  कुछ कसरत भी पहलवानों की तरह करने लगा था। एक  कार्य और मुझे भोर होते ही करना पड़ता था, वह था.वहां अखाड़े के समीप बनी टंकी को कुएं पर रखे बड़े बाल्टे से लबालब भरना। तागतवर लोग ही उस बाल्टे से इतना अधिक पानी निकाल सकते थें और मैं आठ-दस बाल्टा पानी यूं ही निकला लिया करता था। कसरत करने से सीना इतना चौड़ा हो गया था कि मानों कमीज फाड़ कर बाहर आ जाये। परंतु आश्रम में मैं इसलीये तो नहीं आया था कि पहलवान या फिर भोजनभट्ट बन जाऊं...

क्रमशः (शशि)