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Wednesday 9 May 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
 आत्मकथा
            मेरी दुनिया थी मां तेरे आंचल में
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    मुनिया कहां है...बिल्कुल सुनता नहीं ना...चौधरी देखों इसका...ठीक है जब नहीं रहूंगी तब तकलीफ पाएगा ...
            मां चाहे कितनी भी नाराज हो जाती थी, लेकिन मैं जानता था कि उन्हें कैसे मनाना है। सो, मुझे याद नहीं कि मां की डांट पर कभी मैंने मुंह बनाया हो। उसी तरह से उछलता कूदता रहता था कभी बरामदे में तो कभी सीढ़ियों पर , तो कभी नीचे दूसरी मंजिल पर भाग जाता था । मां को कबूतरों के लिये मेरा घर बनाना पंसद नहीं था । सबसे अधिक डांट उसे लेकर ही पड़ती थी। परंतु इन कबूतरों में रुचि मेरी मां के कारण ही तो जगी थी। जब तक उनमें सामर्थ था, रात्रि में जो भी परेठा बच जाता था या कुछ अधिक ही वे बनाती थीं , उसे छोटे टुकड़ों में तोड़ कर वे बारजे पर जैसे ही डालती थीं, तमाम कबूतर पंख फैलाये चले आते थें। गौरया के लिये भी पानी की व्यवस्था मां नहीं भूलती थी। परंतु मैं पढ़ाई से ज्यादा समय इन कबूतरों के आशियाने पर देने लगा था। मां चाहती थी कि मेरी पढ़ाई कहीं से कमजोर नहीं रहे, ताकि मेरे शिक्षक पिता जी ताना न मारे... बड़ी मुश्किल से दूसरी बार करीब 11- 12 वर्ष की अवस्था में मुझे अपने ननिहाल कोलकाता में रहने देने के लिये वे सहमत हुये थें। दार्जिलिंग में मां के छोटे भाई की पुत्री( रिश्ते में मेरी मौसी) के विवाह में मां और मम्मी के संबंध फिर से मधुर हुये थें। यूं समझे कि मां ने वहां जब मुझे वर्षों बाद देखा, तो स्वयं को रोक नहीं पाईं थीं। बनारस में मैं बहुत दुर्बल हो गया था। वो मम्मी नहीं मां थीं, भला मुझे ऐसे कैसे देख सकती थीं । खैर अहम् त्याग पापा ने एक बार फिर मुझे मां के आंचल में समा जाने का अवसर दिया। मुझे याद है उस गर्मी की छुट्टी में जब मैं परिजनों संग कोलकाता आया था और माह भर बाद मेरी वापसी का टिकट बुक नहीं हुआ, तो मैं किस तरह से खुशी से चहकते हुये मां की गोंद में जा गिरा था। मां ने हिदायत दी थी... ठीक से पढ़ेगा न ! अपने बाब से बेज्जती तो नहीं करवाएगा !
    वैसे,तो वहां मेरे दोनों ही जन्मदिन पर बाबा ने ढेरों उपहार लाकर दिये थें। मां ने कितने ही लोगों को बुलवाया था । मुनिया का बर्थ डे है। हम सभी शाकाहारी रहें,अतः संदेश, काजू, चाकलेट पाउडर और खोवा से निर्मित विशेष तरह का केक नीचे कारखाना से हाड़ी दादू ने बना कर भेजा था। एक जन्मदिन पर मां ने मेरे लिये बंगाली धोती कुर्ता मंगवाया था। वह मेरा आखिरी जन्मदिन मना था, मां के जाने के बाद फिर कभी मैंने अपना जन्मदिन नहीं मनाया। जब मैं मुजफ्फरपुर में था, तो जन्मदिन पर कुछ खास करने के लिये मौसी जी को भी मैंने मना कर दिया।  मां ही नहीं रही , तब जन्मदिन कैसा... मैंने तो मां के बाद कभी होली दीपावली भी नहीं मनाई है।
         फिर वह दिन भी आया जब मैं अपनी मां की परीक्षा में खरा उतरा। अपने क्लास 6 में फस्ट जो आया था। रिजल्ट मिलते ही, सीधे मां के पासा भागा आया, लेकिन मां तो मृत्यु शैया पर पड़ी हुई थी ....
      फिर भी मां के कान में वो शब्द मैंने ही आखिरी बार कहे थें , यदि वे चेतना में रही होंगी, तो निश्चित ही मुझे शाबाशी दी होगीं। मां और बाबा दोनों ही मेरी शिक्षा पर ध्यान देते थें। मास्टर साहब प्रति दिन कोलकाता के बड़ा बाजार स्थित हमारे निवास स्थान पर पढ़ाने आते थेंं। मां बेहद तकलीफ में थीं। कोई भी दवा काम नहीं कर रही थी। ऐसे में मुझे अपनी कक्षा में प्रथम स्थान मिलने का उपहार कौन देता।  बाबा जो वर्षों से मौत को पीछे ढकेल मां को वापस ले आया करते थें। इस बार उनका हर संघर्ष व्यर्थ होता दिख रहा था। मां ने अंतिम बार उन्हें चौधरी कह कर पुकारा था। इसके बाद फिर कुछ न बोली थीं। जिस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उन्होंने नश्वर शरीर को त्याग था , बाबा और लिलुआ वाली नानी जी संग मैं भी कमरे म सहमा- सहमा व्याकुल से नर्स की बातें सुन रहा था।परंतु दुर्भाग्य से मुझे झपकी आ गयी ।  बाबा की चींख सुन जब जगा, तो मेरी दुनिया उजड़ चुकी थी। परिवार के इतने सदस्यों के रहते हुये भी मैं अनाथ हो गया था।  कहां तो मेरे मित्र स्कूल में मानीटर के रुप में मेरे आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थें और कहां मुझे फिर  जबर्दस्ती बनारस मम्मी-पापा के साथ भेज दिया गया। मैंने करीब 13 वर्ष की अवस्था में मां को पहली बार कंधा दिया था। हालांकि जो लोग मौजूद थें, वे नहीं चाहते थें कि मैं इस अवस्था में श्मशान घाट हरि बोल कहते हुये जाऊं। पर मेरे जिद के आगे किसी की नहीं चली। इसके बाद आज तक अपने परिवार के किसी भी सदस्य के शव यात्रा में मैं शामिल नहीं हुआ हूं, बाबा,दादी, मौसा जी, बहन और पापा इसी बीच गुजर चुके हैं । मेरी दुनिया तो मां के आंचल में ही थी , सो फिर शेष अब बचा ही क्या रहा ...

(शशि)10/5/18

क्रमशः