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Sunday 3 February 2019

मन, मौन और मनन

    मन, मौन और मनन
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    मौनं सर्वार्थसाधनम् ।
( मौन सारे काम बना देता है ) — पंचतन्त्र

    * मुनि(मौनी) और उनका यह "मौन" इसे समझने के लिये जब भी आश्रम जीवन को स्मरण करता हूँ, हृदय में आनंद और प्रकाश की अनुभूति होती है। वैसे तो तब भी मैं साधना स्थल पर मौन रह कर मन की चंचलता को "मौन" नहीं रख पाता था, इसलिये मुनि नहीं बन सका ,फिर भी प्रयत्न निश्चित करता था । यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता था कि मेरा मस्तिष्क मौन रहे। वह विचार रहित रहे और मन उसे छेड़े नहीं। मन, मौन और मनन  का मानव की प्रवृत्ति , उसकी जीवन शैली , उसकी कार्य क्षमता यहाँ तक की उसके स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष और व्यापक प्रभाव पड़ता है। जब हम अपने मन को मौन की ओर अग्रसर करते हैं, तो मनन की प्राप्ति होती है।
    हमारा यही मौन चिन्तन हमें अपने कर्मपथ और फिर मोक्षमार्ग की ओर ले जाता है। मौन से ही एकाग्रता, ध्यान और समाधि की प्राप्ति होती है।

    ब्लॉग जगत में विशेष पहचान बना चुका "पाँच लिंकों  का आनंद "  यह ब्लॉग जिस पर इन दिनों मैं सुबह अपने विचारों के मार्गदर्शन के लिये जाया करता हूँ , उसके संचालन का दायित्व देख रहीं यशोदा दी का "मुखरित मौन" उस "अनहद" की तरह है,जिसमें आंतरिक प्रकाश और ध्वनि का संचार नित्य हुआ करता है । हम सभी भी इस "नाद" को मौन रह कर सुनने का प्रयत्न करें। यह हमारे अंदर की ध्वनि है। बाह्य जगत की आवाज तो हम निरंतर सुनते हैं । मौन का पदचाप कब सुनेंगे हम।
 अभी पिछले दिनों संजय भाष्कर जी का एक लेख पढ़ रहा था। जो यशोदा दी को समर्पित था।  जिसके प्रतिउत्तर में
उनके ये शब्द -
"ईश्वर कुछ लेता है, तो बहुत कुछ देता भी है। कैंसर ने आवाज़ छीन ली,पर उंगलियों में कलम पकड़ने की ताकत  भी दी । "
  उनके आत्मविश्वास, आत्मबोध, आत्मशक्ति  और आत्मचिंतन का परिचायक है। किसी तरह की निर्बलता, दुर्बलता और शिथिलता उसमें नहीं है। इसे ही मनोबल कहते हैं। ऐसी ही विचार शक्ति से व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

    उचित कहा उन्होंने कि प्रकृति कुछ लेती है, तो देती भी है, क्यों कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चित है। यदि स्नेह का बंधन टूटता है, तो उसका चिन्तन पथिक को जीवन दर्शन कराता है।
 कल सोमवार को मौनी अमावस्या पर्व पर यशोदा दी का जन्मदिन है। अतः यही प्रार्थना है, हृदय से कि वे इसी प्रकार दृढ़ता के साथ प्रकाश स्तम्भ बन हम सभी का मार्गदर्शन करती रहें।
      मौनी अमावस्या पर इस सोमवार को जब अनेकों श्रद्धालु जो अपने मुनियों के ज्ञान,विज्ञान और सिद्धांत में विश्वास रखते हैं,इस भौतिक युग में भी मौन रह कर गंगा स्नान करेंगे । मैं भी अपने विकल मन से यह अनुरोध करूँगा कि वह कुछ क्षणों के लिये ही सही  मौन धारण कर ले। मौन को आत्मसात करे वह। जैसा कि मौनी अमावस्या से स्पष्ट है कि यह पर्व वाह्य जगत से अंतर्जगत की ओर ले जाने वाला पर्व है । इंद्रियाँ  यदि मौन होती हैं तभी मन भी मौन रहता है । मन पर विराम न रहने पर चाहकर भी मौन नहीं रहा जा सकता । एकांत में बैठ कर भी मौन रहना कठिन है । इस पर्व पर तीन शब्दों पर गौर करने की जरूरत है । पहला मन, दूसरा मौन, तीसरा मनन ।  मौन रह कर  मन को साधते ही जब मनन की प्रक्रिया शुरू होने लगती है और तब अंतर्जगत में अमृत वर्षा  होने लगती है । जो बाह्य जगत के किसी भी पदार्थ की प्राप्ति से बढ़ कर है ।
       आश्रम में जो पहला कार्य साधकों को करना होता था, वह मौन रहना ही था। मंत्र जाप भी मौन रह कर हम करते थें और ध्यान भी । हाँ , प्रार्थना के समय हमारा मौन टूटता था और तब हृदय से जो शब्द निकलता था , वह मन-मस्तिष्क को आनंद देता था। यह सुखद अनुभूति ऐसी है , जिसकी अभिव्यक्ति के लिये शब्द नहीं होते हैं।
      बचपन की बात करूँ, तो एक बार मैं दार्जिलिंग में पुस्तक खरीद रहा था। बचपना था, तो बोलता बहुत था। उसी दौरान एक नेपाली महिला ने तनिक कड़ुवे शब्दों में प्रथम बार मुझे यह पाठ पढ़ाया था कि कम बोला करूँ। जब कोलकाता में था,तो बड़े नाना जी के घर जाते समय मौसी जी की हिदायत होती थी कि डायनिंग टेबुल पर भोजन के समय दो बातों का विशेष ध्यान रखना , पहला यह कि भोज्य सामग्रियों को दांतों से चबाने की आवाज मुख से बाहर नहीं आये और चम्मच जब प्लेट का स्पर्श करे, तो वह मौन रहे।
  मुझे उनका यह दोनों ही निर्देश पसंद नहीं था, अतः बालीगंज जाना बिल्कुल नहीं चाहता था । पत्रकारिता में भी यही बताया गया कि मौन रह कर पहले सुना करों फिर सवाल करों। यदि हमें असत्य बोलने से बचना है,तो मौन रहने  का प्रयत्न करना होगा। मौन हमारे अहंकार, क्रोध और अशिक्षा जैसी दुर्बलताओं का भी आवरण है।
    अध्यात्म जगत से जुड़े श्री सलिल पांडेय का कहना है कि मौन का वैज्ञानिक महत्व यह है कि मनुष्य का शरीर शून्य में प्रवाहित तरंगीय शक्ति को संचित करने लगता है जैसे स्विच आफ करने से यंत्रों की बैटरी जल्दी चार्ज हो जाती है । मानव शरीर वायु में प्रवाहित तरंगों से, जल में समाहित औषधीय गुणों से, सूर्य किरणों से उत्तम स्वास्थ्य, धरती से उत्पन्न खाद्य पदार्थों से पोषक-तत्व, अंतरिक्ष से निकलती उर्जा तेजी से आत्मसात करने लगता है । पतंजलि के योग सिद्धांत के अनुसार भी उथल-पुथल भरे वातावरण में मौन साधते शरीर के मूलाधार से लेकर सहस्रार तक के सभी षट्चक्र प्राकृतिक ऊर्जा संग्रहित करने लगते हैं । मेडिकल साइंस के अनुसार पूरे शरीर को मस्तिष्क में स्थित 'न्यूरो ट्रांसमीटर' संचालित करता है । मौनसाधना से 'एसीटोलकोलिन हार्मोन्स' संतुलित होता है जो शरीर को स्वस्थ करता है जबकि 'नारइपीनेफ्रिन हार्मोन्स' चित्तवृत्तियों को संयमित करता है । मेडिकल साइंस के इसी भाव को ऋषियों और मुनियों ने माघ महीने में सर्वाधिक 'हरिओम' की कृपा वर्षा का काल माना ।
    मेडिकल सांइस के अनुसार मनुष्य की सर्वाधिक ऊर्जा बोलने, चलने तथा स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबन्ध से खर्च होती है। व्यक्ति जब मौन व्रत में बोलने, खानेपीने के साथ मन को संयमित कर जीवन व्यतीत करता है तब  उसके रक्त में क्षारीय तत्व बढ़ता है जो केवल तन के लिए ही नहीं बल्कि मन के लिए लाभप्रद होता है । जबकि इसके विपरीत जीवन जीने से यूरिक एसिड (अम्लीय तत्व) बढ़ता है । पेट में अम्लीय तत्व बढ़ने से पाचन तंत्र बिगड़ता भी है । इसलिए ऋषियों ने माघ महीने में व्रत-उपवास तथा सूर्योदय पूर्व स्नान का विधान किया। फलाहार से क्षारीय रसायन की वृद्धि होती है । अतः मौन साधना की महत्ता समझ कर ही विद्वानों ने कहा कि बोलना एक कला है तो मौन उससे भी उत्तम कला है ।